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Suf, Tasawwuf aur Mausiqi: Episode-1 (Fariduddin Ayaz)

We travelled by an auto rickshaw in the streets of Old Delhi, people from air conditioned SUVs rolled down their window to wish him with the humblest of salaams, he responded to them with his folded hands. Some strangers from the pavement recognized him at Connaught place and requested him to pray for them. He… continue reading

महफ़िल-ए-समाअ’ और सिलसिला-ए-वारसिया

अ’रबी ज़बान का एक लफ़्ज़ ‘क़ौल’ है जिसके मा’नी हैं बयान, गुफ़्तुगू और बात कहना वग़ैरा।आ’म बोल-चाल की ज़बान में यह  लफ़्ज़  क़रार, वा’दा या क़सम के मा’नी में भी इस्ति’माल किया जाता है। अ’रबी और ईरानी ज़बान में लफ़्ज़-ए-क़ौल का स्ति’माल मख़्सूस तरीक़े से गाए जाने वाले शे’र के लिए होता है जिसमें अ’रबी इस्तिलाह… continue reading

तजल्लियात-ए-सज्जादिया

“दिल्ली में एक मर्तबा सुल्तानुल-मशाइख़ हज़रत महबूब-ए-इलाही के उ’र्स में हज़रत सय्यिदुत्तरीक़त पे कैफ़ियत तारी थी। उमरा-ओ-मशाइख़ रौनक़-अफ़रोज़ थे। आख़िरी मुग़ल ताज-दार बहादुर शाह ज़फ़र भी शरीक-ए-मज्लिस थे। बहादुर शाह ज़फ़र को आपकी मुलाक़ात का इश्तियाक़ हुआ और आपकी ख़िदमत में मुफ़्ती सदरुद्दीन अकबराबादी के तवस्सुत से शाही महल में तशरीफ़ फ़रमा होने का दा’वत-नामा भेजा मगर आपने बा’ज़ ना-पसंदीदा उ’ज़्रात से उस पैग़ाम से किनारा-कशी इख़्तियार फ़रमाया ”

पैकर-ए-सब्र-ओ-रज़ा “सय्यद शाह मोहम्मद यूसुफ़ बल्ख़ी फ़िरदौसी”

बचपन ही से यूसुफ़ बल्ख़ी बहुत होनहार थे ।उनकी बड़ी बेटी क़मरुन्निसा बल्ख़ी फ़िरदौसी अपने वालिद-ए-माजिद का ज़िक्र करते हुए फ़रमाती हैं कि

“मेरे वालिद माजिद रहमतुल्लाहि अ’लैहि दुबले-पुतले और लंबे थे। लिबास में पाजामा-कुर्ता और टोपी पहना करते। मेहमान-नवाज़ी का बड़ा शौक़ था इसलिए अगर कोई दोस्त मज़ाक़ से भी ये कह देता कि भाई यूसुफ़ रहमानिया होटल सब्ज़ी बाग़ गए हुए कई दिन हो गए तो अब्बा जान मोहतरम उसे फौरन कहते जल्दी चलो जल्दी चलो मैं तुम्हें रहमानिया होटल ले जाता हूँ। अंग्रेज़ी और फ़ारसी में काफ़ी महारत हासिल थी। फ़ारसी और अंग्रेज़ी में घंटों बातें किया करते थे जिसमें उनके अंग्रेज़ी दोस्त होते जिनसे वो बिला झिझक अंग्रेज़ी में बातें किया करते थे। शे’र-ओ-शाइ’री से भी काफ़ी शग़्फ़ था।

हज़रत अ’लाउद्द्दीन अहमद साबिर कलियरी

बाबा साहिब फ़रमाया करते थे :

“इ’ल्म-ए-सीना-ए-मन दर ज़ात-ए-शैख़ निज़ामुद्दीन बदायूनी, इ’ल्म-ए-दिल मन शैख़ अ’लाउ’द्दीन अ’ली अहमद सरायत कर्दः”

(मेरे सीने के इ’ल्म ने शैख़ निज़ामुद्दीन बदायूनी की ज़ात में और मेरे दिल के इ’ल्म ने शैख़ अ’लाउ’द्दीन अ’ली अहमद साबिर की ज़ात में सरायत की है।

सूफ़िया-ए-किराम और ख़िदमात-ए-उर्दू-अज़ सय्यद मुहीउद्दीन नदवी

सूबा बिहार जो आज से सदियों नहीं हज़ारों साल पहले हिंदू-मज़हब, बोद्ध-धर्म, जैनी-मत और वैदिक धर्म का मंबा रह चुका है क्यूँकर मुमकिन था कि वो उन मुबारक हस्तियों के फ़ूयूज़-ओ-बरकात की बारिश से महरूम रहता। चुनाँचे मलिक इख़्तियारुद्दीन मोहम्मद बख़्तियार खिल्जी के आने से पहले ही सूफ़िया-ए-किराम का एक मुक़द्दस ताइफ़ा यहाँ नुज़ूल-ए-अजलाल फ़रमा चुका था और अपनी नूरानी शुआओं’ से सर-ज़मीन-ए-बिहार के हर-हर ज़र्रा को मेहर-ओ-माह बना कर चमका रहा था।उनमें अक्सर-ओ-बेशतर बुज़ुर्ग थे जिन्हों ने अपने ख़यालात-ओ-तब्लीग़ी सर-गर्मियों के इज़हार का ज़रिआ’ उर्दू ज़बान ही को बनाया। आज की नशिस्त में हम बिहार के एक बा-ख़ुदा सूफ़ी के कलाम का मुख़्तसर-सा नमूना पेश करते हैं जिससे ब-ख़ूबी अंदाज़ा किया जा सकता है कि उर्दू ज़बान की तौसीअ’-ओ-ता’रीज में सूफ़िया-ए-उ’ज़्ज़ाम का किस दर्जा हिस्सा है।