सूफ़िया-ए-किराम और ख़िदमात-ए-उर्दू-अज़ सय्यद मुहीउद्दीन नदवी
आज दुनिया बजा तौर पर उन मुबारक हस्तीयों पा नाज़ कर सकती है जिन्हों ने इ’मादुद्दीन बन कर अपने रुहानी फ़ुयूज़-ओ-बरकात से दीन-ओ-मिल्लत की बेश-बहा ख़िदमात अंजाम दीं और इस्लाम के वो ख़द्द-ओ-ख़ाल जो ज़माना के दस्त-बुर्द के शिकार हो रहे थे, उन्हें हत्तल-इमकान दुरुस्त और सँवारे रखा।ख़ुद ख़िर्क़ा-पोश रहे मगर इन्सानियत के दामन-ए-फ़ह्म-ओ-ज़का में ला’ल टांकते रहे। सिद्क़-ओ-सफ़ा के उस मुक़द्दस गिरोह ने जहाँ दीन-ओ-मिल्लत की ख़िदमात अंजाम दीं, वहीं उसने उर्दू ज़बान की तर्वीज-ओ-तौसीअ’ में सलातीन-ए-वक़्त से कहीं ज़्यादा हिस्सा लिया और उर्दू ज़बान पर उस मुक़द्दस ताइफ़ा के वो एहसानात हैं जिन्हें कभी-भी फ़रामोश नहीं किया जा सकता।हमारा सूबा बिहार जो आज से सदियों नहीं हज़ारों साल पहले हिंदू-मज़हब, बोद्ध-धर्म, जैनी-मत और वैदिक धर्म का मंबा रह चुका है क्यूँकर मुमकिन था कि वो उन मुबारक हस्तियों के फ़ूयूज़-ओ-बरकात की बारिश से महरूम रहता। चुनाँचे मलिक इख़्तियारुद्दीन मोहम्मद बख़्तियार खिल्जी के आने से पहले ही सूफ़िया-ए-किराम का एक मुक़द्दस ताइफ़ा यहाँ नुज़ूल-ए-अजलाल फ़रमा चुका था और अपनी नूरानी शुआओं’ से सर-ज़मीन-ए-बिहार के हर-हर ज़र्रा को मेहर-ओ-माह बना कर चमका रहा था।उनमें अक्सर-ओ-बेशतर बुज़ुर्ग थे जिन्हों ने अपने ख़यालात-ओ-तब्लीग़ी सर-गर्मियों के इज़हार का ज़रिआ’ उर्दू ज़बान ही को बनाया। आज की नशिस्त में हम बिहार के एक बा-ख़ुदा सूफ़ी के कलाम का मुख़्तसर-सा नमूना पेश करते हैं जिससे ब-ख़ूबी अंदाज़ा किया जा सकता है कि उर्दू ज़बान की तौसीअ’-ओ-ता’रीज में सूफ़िया-ए-उ’ज़्ज़ाम का किस दर्जा हिस्सा है।
हज़रत मख़दूमुल-मुल्क शरफ़ुद्दीन अहमद यहया मनेरी रहमतुल्लाहि अ’लैह की ज़ात-ए-गिरामी से कौन है जो वाक़िफ़ नहीं। यूँ तो आप बड़े बाप के बेटे और इमाम मोहम्मद ताज-फ़कीह के पोते थे। उनके रुहानी फ़ुयूज़ की हमागीरी सिर्फ़ बिहार नहीं बल्कि सारे हिन्दुस्तान पर मुहीत रही है। आपके नाम-ए-नामी के साथ हज़रत मख़दूम बड़े सीसतानी (रहि·) का इस्म-ए-गिरामी भी जुज़्व-ए-ला-यनफ़क बना हुआ है।मगर ये एक अफ़सोस-सनाक हक़ीक़त है कि मौसूफ़ के हालात-ए-ज़िंदगी पर इम्तिदाद-ए-ज़माना ने ऐसा गहरा पर्दा डाल दिया है कि उनके सवानिह-ए-हयात का पूरा-पूरा सुराग़ अब तक किसी को नहीं मिल सका है।अलबत्ता क़दीम किताबों, किर्म-ख़ुर्दा क़लमी बयाज़ों, वज़ाएफ़ की बा’ज़ किताबों से उनके हालात-ए-ज़िंदगी के मुबहम और धुँदले नुक़ूश सामने आते हैं और एक मद्धिम सी रौशनी फूटती नज़र आती है। उस रौशनी में हमें इस क़द्र ज़रूर मा’लूम होता है कि बिहार में सबसे पहले जिस सूफ़ी ने उर्दू ज़बान को अपने ख़यालात का ज़रिआ’ बनाया वो हज़रत बड़े सीसतानी (रहि·) ही थे। इसलिए ये कहना बजा होगा कि सूफ़िया-ए-किराम में ज़बान-ए-उर्दू की ख़िदमत और तौसीअ’ की अव्वलियत का सेहरा मौसूफ़ ही के सर रहा। आपको हज़रत मख़दूमुल-मुल्क शरफ़ुद्दीन बिहारी के उस्ताद होने का भी शरफ़ हासिल है जिसका ऐ’तराफ़ मख़दूमुल-मुल्क को भी है। फ़रमाते हैं:
शोरफ़ा बल-बल जाए उस गर्द के साज
बड़े सीसतानी जन कहे सगर राज के राज
यही वजह है कि उर्दू ज़बान के इन दोहों में जो हज़रत मख़दूमुल-मुल्क की तरफ़ मंसूब हैं हज़रत मख़दूमुल-मुल्क बड़े सीसतानी (रहि·) का असर बहुत ज़्यादा नुमायाँ है।
आपका मक़बरा बिहार शरीफ़ के काग़ज़ी मोहल्ला में एक चहार-दीवारी से महसूर है। मक़बरा पर एक गुंबद है। कतबा भी है जिसे लोगों ने मरीज़ को पिलाने के लिए घिस-घिस कर बिलकुल मस्ख़ कर दिया है।ये एक सियाह पत्थर का है जिसका ज़्यादा हिस्सा टूट गया है। ख़त्त-ए-क़ौमी में सन-ए-ता’मीर वग़ैरा कंदा है। बड़ी काविश और दीदा-रेज़ी के बा’द सिर्फ़ इतना पढ़ा गया।
“सय्यिद अ’लाउद्दीन इब्न-ए-सुल्तान-ए-जहाँ शरफ़ुद्दीन हुसैनी बिना कर्द दर सन-ए-1006 सित्ता-व-इशरी-न मिअ-त हिज्री’’। गुंबद की साख़्त पुकार-पुकार कर कह रही है कि वो मुग़लिया फ़न्न्-ए-ता’मीर से बिलकुल अलग, और मुख़्तलिफ़ है जिसे अ’लाउद्दीन ने (अ’लाउद्दीन खिल्जी नहीं) सन 1006 हिज्री में ता’मीर किया था। इसकी शहादत कतबा से बय्यिन तौर पर मिलती है।तुज़्क-ए-बाबरी से मा’लूम होता है कि किसी हाजत के लिए शहनशाह-ए-बाबर बिहार पहुँचा था और हज़रत बडीह सीसतानी (रहि·) के मक़बरे की ज़ियारत की थी।तुज़्क-ए-बाबरी में इस तरह रक़म-तराज़ है। हाला ब-अंजाम-ओ-इंसिराम-ए-मुहिम्मात-ए-बाज़े-ओ-अज़ अ’वारिज़-ए-अ’लाएक़-ए-तंग आमदः ख़्वास्तम कि हिम्मत-ए-दरवेशाँ कुनम-ओ-ख़िदमत बजा आवरम -ओ-ज़ियारत-ए-क़ुबूर-ए- ईशाँ नादिर-ए-ज़माँ हफ़्त सद-ओ-हफ़ताद हिज्री बिहार रसीदम,-ओ-बा’द-ए-फ़राग़-ए-ज़ियारत-ए-फ़क़ीर मख़दूम यहया मनेरी ब-हुसूल-ए-सआ’दत-ए-क़दम-बोसी-ए-मख़दूम बड़े सीसतानी (रहि·) पैवस्तम-ओ-दौलत-ए-कौनैन याफ़्तम।”
ग़ालिबन ये हुमायूँ की बीमारी का ज़माना होगा।हर तरफ़ से मायूस हो कर बाबर ने सूफ़िया-ए-किराम की तरफ़ रुजूअ’ किया।चूँकि उस वक़्त उर्दू को आ’म बोल-चाल और तक़रीर-ओ-तहरीर में मक़्बूलियत-ए-आ’म्मा की सनद हासिल नहीं हुई थी इसलिए कोई मुरत्तब तस्नीफ़ या तालीफ़ का पता नहीं चलता।अलबत्ता मुंतशिर तौर पर उस वक़्त का कुछ कलाम मिलता है जिससे ये मा’लूम होता है कि हज़रत बड़े सीसतानी (रहि·) का रंग-ए-कलाम कैसा और नस्र-निगारी में वो किस तर्ज़ के मालिक थे। मुलाहिज़ा हो।
“बसातीन” में एक झाड़ है जो मारगज़ीदा के लिए मुफ़ीद है। वो इस तरह है कि अव्वल दुरूद शरीफ़ सेह बार बा’दहु क़ुल-हु-वल्लाहु बिरब्बिस्सैए मिन शर्रि कुल्लि अ’क़रब
शैख़ फ़रीद चलें बेचन को क़ुतुबुद्दीन ने किया भाव
सीना, चूर अना हर वाएं ? बड़े डाढ़ बंधाओ
किसी चीज़ की आ’दत डालने से उसकी तरफ़ रग़बत होती है। जब जी चुरा लिया तो फिर आ’दत डालनी मुश्किल हो जाती है।हज़रत बड़े सीसतानी (रहि·) उस को यूँ बयान फ़रमाते हैं
मन लागत लागत लागत लागे भू भावत भावत भावत भावे
बहुत दिनों का छूटा मनुवा बडिया लागत लागत लागे
बिसमिल्लाह की अनी मोहम्मदुर्रसूलुल्लाह की बानी
हज़रत अ’ली ने डाला डेरा बडीह ने लिया बसेरा
दुहाई शैख़ फ़रीद की, दुहाई क़ुतुबुद्दीन औलिया की
ब-स्तम दस्त-ओ-पा-ओ-गोश, अ’क़्ल-ओ-होश (अलख़)
आज की सोहबत में इसी पर इक्तिफ़ा किया जाता है।इंशा-अल्लाहु तआ’ला अगर वक़्त और फ़ुर्सत ने मुसाअ’दत की तो दूसरे अकाबिर-स़ुफिया के उर्दू कलाम के नमूने भी पेश किए जाऐंगे।
बेहतर होता अगर इ’ल्मी इदारे, मक़ाबिर,क़दीम आसासे और कतबों के तहफ़्फ़ुज़ और निगरानी का काम अपने ज़िम्मा ले लेते। मगर यहाँ इस इ’ल्मी, अदबी और ता’मीरी काम के लिए किस को मौक़ा’ है। न यहाँ कोई ऐसा इ’ल्मी इदारा है और न ऐसे लोग हैं जो इस ता’मीरी काम के लिए दस्त-ए-इ’नायत दराज़ कर सकें। ग़नीमत हैं वो इ’लम-दोस्त अहबाब जो अपनी तही-दामनी और बे-बिज़ाअ’ती के बा-वस्फ़ बिहार के गोशों-गोशों का खोज लगा कर इस तरह के इ’ल्मी काम अंजाम दे रहे हैं। और जिनके पास कतबात के अच्छे ख़ासे नादिर ज़ख़ीरे फ़राहम हो गए हैं। लेकिन ये काम इन्फ़िरादी तौर पर करने का नहीं है।ज़रूरत है कि बिहार के वो मुसलमान जिन्हें इ’ल्म-ओ-अदब की ख़िदमत का कुछ भी जज़्बा ख़ुदा की तरफ़ से अ’ता हुआ है मुतवज्जिह हों और बाक़ाइ’दा मुनज़्ज़म और इज्तिमाई’ तौर पर इस काम को अंजाम दें।
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