तजल्लियात-ए-सज्जादिया

ख़ानक़ाह शरीअ’त-ओ-तरीक़त का संगम और रुश्द-ओ-हिदायत का सरचश्मा-ए-हयात हुआ करती हैं। फ़क़्र-ओ-दरवेशी,तक़्वा-शिआ’री,शब-बेदारी और नफ़स-नफ़स किताब-ओ-सुन्नत पर अ’मल गुज़ारी अहल-ए-ख़ानक़ाह के इम्तियाज़ात हुआ करते हैं। दिलों को मुसख़्ख़र करने वाले इन्हीं औसाफ़-ओ-कमालात की हामिल ख़ानक़ाह “ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया” भी है जो सदियों से बर्र-ए-सग़ीर में रुश्द-ओ-हिदायत का मरकज़-ए-अनवार बनी हुई है। इसी ख़ानक़ाह के मशहूर बुज़ुर्ग हज़रत शाह अकबर दानापुरी अपने साहिबज़ादे को नसीहत करते हुए फ़रमाते हैं कि-

“नूर-ए-चश्म मोहम्मद मोहसिन मद्द-उ’म्रहु ये ख़याल न करना कि मैं ऐसे बुज़ुर्ग का पोता हूँ जो बादशाह के क़िला’ में न गया बल्कि ऐसी शान पैदा करना कि जो रिया से ख़ाली हो और बादशाहों की सोहबत से मुस्तग़नी कर दे”

मौलिद-ए-फ़ातिमी

सूफ़िया और मशाइख़ की ज़िंदगी में तवक्कुल-ओ-इस्तिग़ना, जूद-ओ-सख़ा, ईसार-ओ-क़ुर्बानी और  “रज़ा-ए-मौला अज़ हमा औला” की इतनी हैरत-अंगेज़ मिसालें मिलती हैं कि पढ़-पढ़ कर अ’क़्लें वर्ता-ए-हैरत में डूबती चली जाती हैं। हज़रत जुनैद बग़दादी अपने अस्हाब से फ़रमाते थे कि-

“अगर तुमसे हो सके तो तुम्हारे घर में सिवा-ए-ठेकरी के बर्तन के और कोई बर्तन न हो तो ऐसा ही करना “

-रिसाला-ए-क़ुशैरिया

तारीख़ शाहिद है कि सलातीन-ए-ज़माना उनकी दहलीज़ पर सर-ख़मीदा नज़र तो आते हैं लेकिन उनके क़दम शाही महलों की जानिब उठते नज़र नहीं आते।इसी ख़ानक़ाह के मशहूर-ओ-मा’रूफ़ बुज़ुर्ग हज़रत सय्यिदुत्तरीक़त शाह मोहम्मद क़ासिम अबुल उ’लाई दानापुरी का वाक़िआ’ कुतुब-ए-तवारीख़ में इन अल्फ़ाज़ के साथ आया है कि-

“दिल्ली में एक मर्तबा सुल्तानुल-मशाइख़ हज़रत महबूब-ए-इलाही के उ’र्स में हज़रत सय्यिदुत्तरीक़त पे कैफ़ियत तारी थी। उमरा-ओ-मशाइख़ रौनक़-अफ़रोज़ थे। आख़िरी मुग़ल ताज-दार बहादुर शाह ज़फ़र भी शरीक-ए-मज्लिस थे। बहादुर शाह ज़फ़र को आपकी मुलाक़ात का इश्तियाक़ हुआ और आपकी ख़िदमत में मुफ़्ती सदरुद्दीन अकबराबादी के तवस्सुत से शाही महल में तशरीफ़ फ़रमा होने का दा’वत-नामा भेजा मगर आपने बा’ज़ ना-पसंदीदा उ’ज़्रात से उस पैग़ाम से किनारा-कशी इख़्तियार फ़रमाया ”

-तज़्किरुल-किराम, सफ़हा 708

वाज़ेह रहे कि ये वही बुज़ुर्ग हैं जिन्हों ने सबसे पहले ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल उ’लाइया में 19 रमज़ानुल-मुबारक को हज़रत मौला अ’ली कर्रमुल्लाहु  वज्हहुल-करीम के नाम से फ़ातिहा और इज्तिमाई’ इफ़्तार का एहतिमाम फ़रमाया था जो कि आज भी निहायत हुस्न-ओ-ख़ूबी के साथ जारी-ओ-सारी है।

आमदम बर सर-ए-मतलब…..लेकिन उनके क़दम शाही महलों की तरफ़ उठते नज़र नहीं आते मगर अब ख़ुमख़ाना-ए-तसव्वुफ़ के जाम-ओ-सुबू बदल चुके हैं। ख़ानक़ाहें पुर-नूर हैं मगर अहल-ए-ख़ानक़ाह के दिल बे-नूर हैं। कल अहल–ए-दौलत-ओ-सर्वत पीर की तलाश में सरगर्दां रहते थे आज ख़ानक़ाहें उनकी जुस्तुजू में पशेमाँ नज़र आती हैं। अ’हद-ए-हाज़िर के बिगड़े हुए ख़ानक़ाही निज़ाम पर मातम ही किया जा सकता है। इसी अ’स्र के तनाज़ुर में इक़्बाल  ने ख़ूब कहा है कि-

रम्ज़-ओ-ईमाँ इस ज़माने के लिए मौज़ूँ नहीं

और आता नहीं मुझको सुख़न-साज़ी का फ़न

क़ुम बि-इज़्निल्लाह कह सकते थे जो रुख़्सत हुए

ख़ानक़ाहों में मुजाविर रह गए या गोर-कन

मगर इस वादी-ए-ग़ैर-ज़ी-ज़रआ’ में अब भी कुछ सफ़ीरान-ए-इ’श्क़-ओ-इर्फ़ान हैं जिनके दिलों की धड़कन से सुलूक-ओ-मा’रिफ़त की दुनिया में तपिश-ए-हयात है। उसी इक़्लीम-ए-मा’रिफ़त की एक नुमाइंदा ख़ानक़ाह “ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया” (शाह टोली, दानापुर कैन्ट ज़िला’ पटना) है जो इस बिगड़े हुए दौर में भी इख़्लास-ओ-लिल्लाहियत की जल्वा-सामानियों के साथ ख़ानक़ाही वक़ार बाक़ी रखे हुए है। इ’ल्म-दोस्ती, तक़्वा-शिआ’री, हक़-गोई, तवक्कुल-ओ-इस्तिग़ना और ईसार-ओ-क़ुर्बानी जैसे औसाफ़-ओ-कमालात में इसके सज्जादगान को हर दौर में ब-तौर-ए-मिसाल पेश किया जाता रहा।

अब मैं इस ख़ानक़ाह की इ’ल्म-दोस्ती की कुछ मिसालें पेश करना चाहता हूँ। बिशनपुर ज़िला’ किशनगंज जैसे क़र्या में इ’ल्मी क़िला’ का क़ाएम करना जिसकी ज़रूरत वहाँ के अतराफ़-ओ-अक्नाफ़ के हर कस-ओ-ना-कस को थी जिसका क़याम सन 2007 में ब-नाम-ए- मदरसा फैज़ान-ए-ज़फ़र” हुआ और उस वक़्त से लेकर आज तक ये ‘मदरसा फैज़ान-ए-ज़फ़र’ तिश्नगान-ए-उ’लूम-ए-दीनिया-ओ-नबविया को सैराब कर रहा है और जिस तरह से इस इ’ल्मी कारख़ाने की तरक़्क़ी हो रही है और आए दिन इस मदरसा के ता’मीराती काम और इसकी तमाम-तर ज़रूरतों को पूरा किया जा रहा है उसका सेहरा यक़ीनन हुज़ूर साहिब-ए-सज्जादा हज़रत हाजी सय्यद शाह सैफ़ुल्लाह अबुल-उ’लाई मद्दज़िल्लुहु के सर जाता है जो अपने ख़ानदान के रीत-ओ-रिवाज को अपने मज़बूत बाज़ूओं में जकड़े और अपने कुशादा सीने में महफ़ूज़ किए हुए हैं।

इस ख़ानक़ाह की एक ख़ुसूसियत ये भी है कि यहाँ से इ’ल्म पर जिस तरह ज़ोर दिया गया उसी तरह उसे अ’मली जामा भी पहनाया गया। आगरा, इलाहाबाद, किशनगंज, अररिया, चटगाम, ग्वालयार, हैदराबाद, रांची, लाहौर, कराची और भी मुख़्तलिफ़ जगहों पर ऐसे इ’ल्मी मराकिज़ खोले गए जहाँ फ़िल-वाक़े’ उस की ज़रूरत थी और उस ज़रूरत को पूरा करने में इस ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया के सज्जाद-गान ने कोई कसर बाक़ी न रखी ।इनके अ’लावा हिन्दुस्तान के बहुत ऐसे मदारिस-ए-इस्लामिया की सरपरस्ती और सदारत की ज़िम्मेदारी भी इस ख़ानक़ाह के सज्जादगान के मज़बूत काँधों पर है जिनके दम-क़दम से इस सर-ज़मीन-ए-हिंद में इ’ल्मी-ओ-अदबी मिश्अ’लें जल रही हैं।

ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया, दानापुर की एक तारीख़ ये भी रही है कि इस ख़ानक़ाह में तसानीफ़-ओ-तालीफ़ का काम हर दौर में जारी-ओ-सारी रहा, ख़ुसूसन हज़रत शाह अकबर दानापुरी के अ’स्र में ये अहम काम ज़ोर-ओ-शोर के साथ चल रहा था।ख़ुद हज़रत अकबर दानापुरी ने तक़रीबन सैकड़ों कुतुब-ओ-मक़ालात-ओ-रसाएल तस्नीफ़-ओ-तालीफ़ फ़रमाईं।तसव्वुफ़-ओ-तारीख़,अहकाम-ए-इस्लाम और अ’क़ाइद-ए-दीनिया पर मुश्तमिल हज़रत की तसनीफ़-कर्दा किताबें बे-शुमार हैं  जिनके मुतालिआ’ से दिल-ओ-ईमान में ताज़गी और रूह में बालीदगी पैदा होती है।चंद के नाम हस्ब-ए-ज़ैल हैं।

अख़बारुल-इ’श्क़, सुर्मा-ए-बीनाई, शोर-ए-क़ियामत, इदराक, इरादा, नज़्र-ए-महबूब, अहकाम-ए-नमाज़, मौलिद-ए-फ़ातिमी,चहल-हदीस और तारीख़ में तारीख़-ए-अ’रब दो-जिल्द, सैर-ए-देहली,अशरफ़ुत्तवारीख़  तीन-जिल्दें। वाज़ेह हो कि तारीख़-ए-अ’रब एक जिल्द मत्बूअ’ है जब कि दूसरी जिल्द-ग़ैर मत्बूअ’ जिसमें तक़रीबन एक हज़ार अंबिया-ए-किराम का तज़्किरा शामिल है।और अशरफ़ुत्तवारीख़ की तीसरी जिल्द मुकम्मल ही हो पाई थी कि आपने दाई’-ए-अजल को लब्बैक कह दिया।या’नी कि उसे और भी मज़ीद जिल्दों में देखा जा सकता था लेकिन जो मशियत-ए-ऐज़दी  थी वो हो कर रही।।

हज़रत शाह अकबर दानापुरी की तस्नीफ़ात सिर्फ़ नस्र तक ही महदूद न थीं बल्कि नज़्म में भी वो इमामत के दर्जा पर फ़ाइज़ थे और हज़रत के हम-अ’स्र-ओ-हम-मश्क़ हिन्दुस्तान के मशहूर-ओ-मा’रूफ़ शाइ’र अकबर इलाहाबादी थे और दोनों ने ब-यक-वक़्त उस्ताज़ुश्शो’रा वहीद ईलाहाबादी की दर्स-गाह-ए-शे’र-ओ-अदब में ज़ानू-ए-अदब तय किया जिसका नक़्शा अकबर दानापुरी कुछ यूँ खींचते हैं-

शागिर्द वहीद के हैं दोनों ‘अकबर’

लेकिन क़िस्मत का साद उन पर ही हुआ

हम-मश्क़ भी दोनों रहे अक्सर

पत्थर-पत्थर है और जौहर-जौहर

शाह अकबर  दानापुरी ने अपनी हयात-ए-तय्यिबा में एक नहीं बल्कि दो-दो ज़ख़ीम दीवान मुरत्तब फ़रमाए जोकि ‘तजल्लियात-ए-इ’श्क़’ और ‘जज़्बात-ए-अकबर’ के नाम से मशहूर-ओ-मा’रूफ़ हैं। इस के अ’लावा तीसरा दीवान तिश्ना-ए-तबअ’ रह गया लेकिन कभी फ़ख़्र-ओ-तकब्बुर न किया बल्कि उनकी पूरी ज़िंदगी सरापा इ’ज्ज़-ओ-इंकिसारी का मुजस्समा थी।और तवक्कुल-ओ-इस्तिग़ना का ये आ’लम था कि ख़ुद फ़रमाते हैं-

है तवक्कुल मुझे अल्लाह पर अपने ‘अकबर’

जिसको कहते हैं भरोसा वो भरोसा है यही

और इ’श्क़-ए-इलाही-ओ-ख़ौफ़-ए-महशर का आ’लम ये था कि ख़ुद लिखते हैं-

होगा बड़े-बड़ों का हँगामा रोज़-ए-महशर

‘अकबर’ क़ुबूल होगा क्यूँ-कर सलाम तेरा

और भी बे-शुमार आ’रिफ़ाना अश्आ’र इ’श्क़-ए-इलाही और मोहब्बत-ए-मुस्तफ़ाई में डूब कर हज़रत ने क़लम-बंद फ़रमाए जिन्हें पढ़ कर बे-ख़ुदी सी छा जाती है। उन्हीं में से कुछ अश्आ’र ज़ैल में सुपुर्द-ए-क़िर्तास करता हूँ।आप भी महज़ूज़ हों-

जो बने आईना वो तेरा तमाशा देखे

अपनी सूरत में तेरे हुस्न का जल्वा देखे

डूब कर बह्र-ए-मोहब्बत में निकलना कैसा

पार होने की तमन्ना है तो डूबे रहना

मिलेगा ये ख़ाक में यहीं पर, न होगा कूचा से तेरे बाहर

लगा दिया अब तो हमने बिस्तर, ये दिल तुझी पे मिटा हुआ है

अ’दम-ए-मंज़िल से डर न ‘अकबर’, न चोर इस में, न इस में रह-ज़न

हज़ारों लाखों हैं आते जाते, ये रास्ता ख़ूब चला हुआ है

है ख़िताब उस रिंद का मस्त-ए-अलस्त

जो शराब-ए-इ’श्क़ का सर-शार है

जैसा कि किताबों में आया है कि जब हज़रत शाह अकबर दानापुरी इस ख़ाकदान-ए-गेती पर जल्वा-अफ़रोज़ हुए तो आपके चालीस दिन पूरे होने के बा’द आपकी वालिदा माजिदा आपको हज़रत सय्यदना अमीर अबुल-उ’ला के मज़ार-ए-मुक़द्दस पे लेकर हाज़िर हुईं और चालीस रोज़ की नियत से वहीं आस्ताना-ए-मुनव्वरा पर मो’तकिफ़ हो गईं। इस दरमियान आपने ख़्वाब में देखा कि मज़ार-ए-मुक़द्दसा शक़ हुआ और हज़रत सय्यदना अमीर अबुल-उ’लाई ने मुतजल्ला की सूरत में निकल कर बच्चा को गोद में लेकर ख़ूब प्यार किया।सुब्ह को जब वालिदा माजिदा ने ये ख़्वाब बयान किया तो आपके चचा साहिब बहुत ख़ुश हुए और फ़रमाया कि ये बच्चा इक़्बाल-मंद होगा और इससे सिलसिला-ए-अबुल-उ’लाइया को फ़रोग़ होगा इन-शा-अल्लाह। (ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया का तारीख़ी पस-मंज़र)

अब ये बात किसी से ढकी छुपी नहीं है कि जितना फ़रोग़ सिलसिला-ए-अबुल-उ’लाइया और ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया को हज़रत शाह अकबर दानापुरी की ज़ात-ए-बा-बरकात से हुआ उतना शायद-ओ-बायद किसी के ज़रिआ’ हुआ होगा और ये मब्नी बर-हक़ीक़त है कि निस्बत से शय मुम्ताज़ होती है। अब आप ख़ुद ही देख लें पटना के दानापुर की सर-ज़मीन गुल-ए-गुलज़ार उसी वक़्त बनी जब से ये ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया का क़याम हुआ।इसी लिए कहते हैं कि निस्बत एक अ’ज़ीम शय है।इस दानापुर को निस्बत है ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया से। और ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया औलिया, सूफ़िया, उ’लमा-ओ-सोलहा का मस्कन रहा है और इन–शा-अल्लाह ता-क़याम-ए-क़ियामत ये अत्क़िया का मंबा रहेगा।

आज के इस पुर-फ़ितन दौर में ख़ानक़ाहों की अ’ज़्मतें पामाल हो रही हैं और सियासी मफ़ाद की ख़ातिर सियासी लीडरान का ख़ानक़ाहों में आना जाना और कई सियासी हथकंडे अपनाना उनका  शेवा  हो गया है मगर हज़ारों रहमतें हों उन तवक्कुल-ओ-इस्तिग़ना के पैकर पर जिन्हों ने किसी भी दुनियावी मफ़ाद की ख़ातिर न तो किसी के सामने सर झुकाया और न ही किसी सियासी लीडर को इस ख़ानक़ाह के पाक इहाते में दाख़िल होने की इजाज़त दी।यही वजह है कि ये ख़ानक़ाह अहल-ए-इ’ल्म की नज़र में वो मक़ाम रखती है जो मक़ाम पूरे जिस्म में दिल का होता है।और ये बात तो रोज़-ए-रौशन की तरह अ’याँ है कि ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया इ’ल्म-दोस्ती और ग़ोरबा-पर्वरी में किसी सियासी लीडरों के इम्दाद का मोहताज नहीं बल्कि हज़रत रहमतुलिल-आ’लमीन ने अपने रब की अ’ता से इतना कुछ इ’नायत फ़रमा दिया कि चाहे वो रमज़ानुल  मुबारक की 19 तारीख़ हो या तालिबान-ए-उ’लूम-ए-नबविया की तिश्नगी को बुझाना इस ख़ानक़ाह की दस्तर-ख़्वान में कभी ख़ुश्की नहीं आई। हमेशा इसका दस्तर-ख़्वान ग़ोरबा-ओ-मसाकीन और आ’म्मतुल-मुस्लिमीन के लिए बिछा रहता है और बिछा भी क्यों न रहे इस ख़ानदान की रीत-ओ-रिवाज यही है कि-

“ख़ुद भूके रहना गवारा लेकिन औलाद-ए-आदम को शिकम-सेर करना जान से भी ज़्यादा प्यारा”

हज़रत हाजी सय्यद शाह सैफ़ुल्लाह अबुल-उ’लाई मौजूदा सज्जादा-नशीन हैं जिनकी जां-गुसल-ओ-जां-गुदाज़ मेहनत-ए-शाक़्क़ा से अस्लाफ़ के अफ़्क़ार-ओ-नज़रियात नशर होने  के साथ-साथ मौजूदा हालात में क़ौम की नुमाइंदगी भी हो रही है। अल्लाह उन्हें दाएमी सेहत से नवाज़े और उनका साया हम सब पे ता-देर क़ाएम-ओ-दाएम रखे।

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