बहादुर शाह और फूल वालों की सैर-जनाब मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग देहलवी

सा’दी ’अलैहर्रहमा ने ख़ूब कहा है

र’ईयत-ए-चू बीख़स्त-ओ-सुल्ताँ दरख़्त

दरख़्त ऐ पिसर बाशद अज़ बीख़ सख़्त

ये जड़ों ही की मज़्बूती थी कि दिल्ली का सर-सब्ज़-ओ-शादाब चमन अगरचे हवादिस-ए-ज़माना के हाथों पामाल हो चुका था और हलाकत की बिजलियों पर बाद-ए-मुख़ालिफ़ के झोंकों से सल़्तनत-ए-मुग़्लिया की शौकत-ओ-इक़्तिदार के बड़े बड़े टहने टूट-टूट कर गिर रहे थे फिर भी किसी बड़ी से बड़ी ताक़त की हिम्मत न होती थी कि उस बरा-ए-नाम बादशाह को तख़्त से उतार कर दिल्ली को अपनी सल्नतत में शरीक कर ले। मरहट्टों का ज़ोर हुआ पठानों का ज़ोर हुआ। जाटों का ज़ोर हुआ। अंग्रेज़ों का ज़ोर हुआ, मगर दिल्ली का बादशाह दिल्ली का बादशाह ही रहा, और जब तक दिल्ली बिलकुल तबाह न हुई उस वक़्त तक कोई न कोई तख़्त पर बैठने वाला निकलता ही रहा। दिल्ली के रेज़ीडेंट ने बहुत कुछ चाहा कि बादशाह के ’एज़ाज़-ओ-एहतिराम में कमी कर दे, गवर्नर जनरल ने बड़ी कोशिश की शाही ख़ानदान को क़ुतुब में मुंतक़िल कर के क़िला’ पर क़ब्ज़ा कर ले, कोर्ट ऑफ़ डायरैक्टर्ज़ ने बहुत ज़ोर मारा कि दिल्ली की बादशाहत का ख़ातिमा कर दिया जाए मगर बोर्ड वाले इस पर किसी तरह राज़ी न हुए। वो जानते थे कि दिल्ली का बादशाह क्या है और उस के असरात कहाँ तक फैले हुए हैं। बड़े-बड़े मुबाहिसे हुए नव-जवानों को बहुत कुछ जोश-ओ-ख़ुरोश दिखाया मगर इंग्लिस्तान के जहाँ-दीदा बुढ़ों के सामने कुछ न चली, जब बोर्ड में मिस्टर मलकर ने खड़े हो कर कहा। ’अज़ीज़ो मैं पचास साल हिन्दुस्तान में रहा हूँ वहाँ के रंग से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ मैं जानता हूँ कि दिल्ली का क़िला’ क्या है। उस की बुनियाद अगर काबुल तक गई है तो दूसरी तरफ़ रास कुमारी तक एक जानिब आसाम तक है तो दूसरी जानिब काठिया-वार तक। ज़रा क़िला’ को हाथ लगाए तो वो ज़ल्ज़ला आएगा कि सारा हिन्दुस्तान हिल जाएगा। ये बरा-ए-नाम बादशाहत जिस तरह चल रही है। उसी तरह चलने दो। आख़िर बोर्ड में बुढ़े जीते और नव-जवान हारे। दिल्ली के बादशाह का इक़्तिदार ज़रूर कम हो गया मगर जो ’अक़ीदत थी वो जैसी की वैसी रही, रि’आया की वो कौनसी ख़ुशी थी जिसमें बादशाह हिस्सा न लेते हों और बादशाह का वो कौनसा रंज था जिस में रि’आया शरीक न होती हो, बात ये थी कि दोनों जानते और समझते थे कि जो हम हैं वो ये हैं और जो ये हैं वो हम हैं।

शाह ’आलम-गीर सानी के क़त्ल के वाक़ि’आ ही पर नज़र डालो। देखो कि हिंदू मर्द तो मर्द ’औरतों को बादशाह से कैसी मोहब्बत थी और ख़ुद बादशाह उस मोहब्बत की कैसी क़द्र करते थे ’आलम-गीर सानी को फ़क़ीरों से बड़ी ’अक़ीदत थी। जहाँ सुन पाते कि कोई फ़क़ीर आया हुआ है उस को बुलाते, न आता तो ख़ुद जाते उस से मिलते बहुत कुछ देते दिलाते और फ़क़ीर-नवाज़ी को तोशा-ए-आख़िरत समझते थे। ग़ाज़ीउद्दीन उस ज़माने में दिल्ली का वज़ीर था। ख़ुदा जाने उस को बादशाह से क्यूँ दिली नफ़रत थी। क़िला’ में तो हाथ डालने की हिम्मत न पड़ी धोके से बादशाह को मारने का जाल फैलाया। क़िला’ में मशहूर कर दिया कि पुराने कोटला में एक बुज़ुर्ग आए हैं, बड़े साहब-ए-करामात हैं। बड़े ख़ुदा रसीदा हैं, मगर न कहीं ख़ुद जाते हैं न किसी को आने देते हैं, इधर बादशाह को मिलने का शौक़ हुआ। उधर लोगों ने शाह साहब की करामतों के और पुल बाँधे नतीजा ये हुआ कि एक रात बादशाह तन-ए-तंहा क़िला’ से निकल कर कोटला पहुँचे। इधर-उधर हर खंडरों में तलाश की यहाँ तो पहले ही से दुश्मन लगे हुए थे, चार नमक-हरामों ने एक बुर्ज में से निकल कर बादशाह को शहीद कर दिया और लाश जमुना की रेती में फेंक दी, ख़ुदा की क़ुदरत देखो और उधर से एक ब्रहमनी राम कौर आ रही थी उसने जो लाश पड़ी देखी ज़रा ठटकी भागने का इरादा किया फिर ज़रा ग़ौर किया तो क्या देखती है कि हैं ये तो बादशाह सलामत की लाश है। रात-भर उस बे-कस शहीद का सर ज़ानू पर लिए हुए बैठी रोती रही सुब्ह जमुना जी के अश्नान को लोग आए उन्होंने भी लाश को देखकर पहचाना। तमाम शहर में खलबली पड़ गई। उस बे-कस शहीद की लाश दफ़्न हुई शाह ’आलम सानी बादशाह हुए, उन्होंने राम कौर को बुलाया। बहुत कुछ इं’नआम-ओ-’इकराम दिया और उस ब्रहमनी को अपनी मुँह-बोली बहन बना लिया। थोड़े दिनों में सिलोनों का त्यौहार आया। भाई के लिए बहन मोइयों की राखी लेकर पहुँची। बादशाह ने ख़ुशी-ख़ुशी राखी बंधवाई। बहन को जोड़ा दिया। उस के रिश्ते-दारों को ख़िल्’अत दिए। लीजिए राखी बंधन की रस्म क़िला’ की रस्मों में शरीक हो गई। जब तक क़िला’ आबाद रहा उस ब्रहमनी के ख़ानदान और क़िला’ वालों में भाईचारा रहा। हर साल राखियाँ आतीं। बादशाह और शहज़ादों के बाँधी जातीं। जोड़े दिए जाते। ये सिल्सिला उस वक़्त टूटा जब बादशाह से क़िला’ छूटा।

फूल वालों की सैर भी इसी मोहब्बत-ए-बाहमी का नतीजा थी, हुआ ये कि अकबर शाह सानी अपने मँझले बेटे मीर्ज़ा जहाँ-गीर को वली-’अहद बनाना चाहते थे। सिराजुद्दीन ज़फ़र बड़े थे मगर बाप बेटे में सफ़ाई न थी। मिर्ज़ा जहाँगीर को बादशाह बहुत चाहते थे। और क्यूँ न चाहते मिर्ज़ा की वालिदा नवाब मुम्ताज़-महल का क़िला’ में ज़ोर था, बादशाह-सलामत और बादशाह बेगम दोनों ने रेज़ीडेंसी में कोशिश की कि किसी तरह मिर्ज़ा जहाँगीर वली-’अहद हो जाएं, उस ज़माना में दिल्ली के रेज़ीडेंट इस्टेन साहब थे, ऐसा बादशाह-परस्त अंग्रेज़ हिन्दुस्तान में शायद ही कोई आया हो तो आया हो, अकबर शाह की वो ऐसी ही ’इज़्ज़त करते थे जैसे अपने बादशाह की करते थे, टोपी उतार कर मुज्रा-गाह से आदाब बजा लाते कुर्सी दी जाती तो बादशाह के सामने कभी न बैठते गुफ़्तुगू में आदाब-ए-शाही मल्हूज़ रखते। बादशाह की हर ख़्वाहिश को पूरा करने की कोशिश करते, ग़रज़ सब कुछ करते मगर इस बात पर राज़ी न होते थे कि मिर्ज़ा जहाँगीर वाली–’अहद हों, ब-ज़ाहिर उस की एक वजह थी कि वो सिल्सिला-ए-तख़्त-नशीनी को दरहम-बरहम करना नहीं चाहते थे और दूसरी ये थी कि वो मिर्ज़ा जहाँगीर के ’आदात-ओ-अत्वार से मुत्मइन न थे।

मिर्ज़ा जहाँगीर बला के पीने वाले और ग़ज़ब के मुँह-फट थे, इस मुख़ालिफ़त से दिलों में बैर तो पड़ ही गया था, एक दिन सर-ए-दरबार मिर्ज़ा जहाँगीर ने इस्टेन साहब को लूलू है बे कह दिया साहब किसी न किसी तरह पी गए, थोड़े दिन बा’द ये ग़ज़ब किया कि उन पर गोली चलाई। आख़िर कहाँ तक तरह दी जाती, क़ैद हो कर इलाहाबाद गए। मुम्ताज़-महल को बड़ा सदमा हुआ मिन्नत मानी कि मिर्ज़ा जहाँगीर छूट कर आएँगे तो हज़रत बख़्तियार-ए-काकी ’अलैहिर्रहमा के मज़ार पर चादर और फूलों की मसहरी चढ़ाऊँगी। ख़ुदा की क़ुदरत और स्टेन साहब की शराफ़त देखो कि उन्हें की सिफ़ारिश पर साहब क़ैद से रिहा हुए दिल्ली आए, बादशाह बेगम ने मिन्नत बढ़ाने की तैयारीयाँ कीं बड़ी धूम-धाम से चादर गई, शहर भर के तमाम हिंदू-मुसलमान शरीक हुए, क़ुतुब में कई दिन तक मेला लगा रहा। फूल वालों ने जो मसहरी बनाई तो उस में ख़ूबसूरती के लिए एक फूलों का पंखा भी लटका दिया, सिराजुद्दीन ज़फ़र वली-’अहद-ए-सल्तनत ने पंखा कह कर गुज़रानाः

नूर-ए-अल्ताफ़-ओ-करम की है ये सब उस के झलक

कि वो ज़ाहिर है मलिक और है बातिन में मलक

इस तमाशे की न क्यूँ धूम हो अफ़्लाक तलक

आफ़्ताबी से ख़जिल जिस के है ख़ुर्शीद-ए-फ़लक

ये बना उस शह-ए-अकबर की ब-दौलत पंखा

शाइक़ इस सैर के सब आज हैं बा-दीदा-ए-दिल

वाक़ि’ई सैर है ये देखने ही के क़ाबिल

चश्म-ए-अंजुम हो न इस सैर पे क्यूँ कर माइल

सैर ये देखे है वो बेगम-ए-वाला मंज़िल

जिसके दीवाँ का रखे माह से निस्बत पंखा

रंग का जोश है माही है ज़े-बस माह तलक

डूबे हैं रंग में मद-होश से आगाह तलक

आज रंगीं है र’ईयत से लगा शाह तलक

ज़ा’फ़राँ-ज़ार है इक बाम से दरगाह तलक

देखने आई है इस रंग से ख़िल्क़त पंखा

बादशाह को ये मेला बहुत पसंद आया, दिल्ली वालों से कहा कि अगर हर साल भादों के शुरू’ में ये मेला हुआ करे तो कैसा?  मुसलमान दरगाह शरीफ़ पर पंखा चढ़ाएं हिंदू जोग माया जी पर चढ़ाएं, मुसलमानों के पंखे में हिंदू और हिन्दुओं के पंखे में मुसलमान शरीक हों, मेला का मेला और दोनों क़ौमों में मेल-जोल बढ़े भला नेकी और पूछ-पूछ। दिल्ली वाले राज़ी हो गए, लीजिए फूल वालों की सैर की बुनियाद पड़ गई। बादशाह सलामत ख़ुद क़ुतुब जाते वहाँ रहते, शहज़ादे मेला में शरीक होते, बढ़ते बढ़ते ये मेला कुछ का कुछ हो गया उसी ज़माना में ये गाना चला:

क़ुतुब को चला मेरा अकबर ठेला

न रस्ते में जंगल न मिलता है टीला

बहादुर शाह के ज़माना में तो उसका वो ज़ोर हुआ कि बयान से बाहर है, अगर ये देखना हो कि उस ज़माना में फूल वालों की सैर कैसी होती थी तो आँखें बंद कर लीजिए दिखाए देता हूँ।

सन 1264 हिज्री का सावन भी ग़ज़ब का सावन था या तो बरसा ही न था या बरसा तो ऐसा बरसा कि जल के थल भर गए, बुध बुध पंद्रह दिन हो गए मेंह न आज खुलता है न कल और पानी का ये हाल है कि धाईं धाईं यकसाँ बरसे चला जाता है, जमुना बढ़कर निगम-बोर्ड तक आ गई, क्या घाट में से पानी हो कर शहर में घुस आया, चाँदनी-चौक की नहर उबल कर किनारों से निकल गई, बेचारे छोटे छोटे मकानों का तो ज़िक्र ही क्या है बड़ी-बड़ी हवेलियाँ चीं बोल गईं, उड़ा-उड़ा धम की आवाज़ें चली आ रही हैं, उस मकान की छत बैठी उस का पाखा गिरा, शायद ही कोई मकान होगा, जिसकी कम से कम छल न बैठी हो, ग़रीब-ग़ुरबा घर छोड़ कर बाहर निकल आए। जामा’ मस्जिद के नीचे सामान का ढेर हो गया, किसी ने पलंग बिछा ऊपर से दरी डाल छोटी सी कोठरी बना ली, किसी ने छपर-खट के गिर्द चादर घेर ’औरतों के लिए जगह निकाल ली। ग़रज़ एक ’अजीब परेशानी का ’आलम था। दो साल पहले भी ढाई ढाई का मेंह बरसा था, मगर ये तो कुछ और ही रंग था। बनिए अपनी मुसीबत में मुब्तला थे भटियारे अपने हाल में गिरफ़्तार, आख़िर रहें तो कहाँ रहें और खाएं तो क्या खाएं।

दिल्ली में बहादुर शाह बरा-ए-नाम बादशाह थे, सारा इंतिज़ाम कंपनी बहादुर के हाथ में था, भला कंपनी को क्या ग़रज़ पड़ी थी,जो इन ग़रीब दिल्ली वालों की ख़बर ले शहर वाले जानें और उनका काम जाने। ख़ैर। बादशाह सलामत को ख़बर हुई बे-चारे के जो कुछ इख़्तियार में था वो किया। सारे सरकारी मकान खुलवा दिए, कोट क़ासिम की माल-गुज़ारी उन्हीं दिनों में आई थी वो सब की सब इस मुसीबत-मारी र’ईयत पर ख़र्च कर दी मुसलमानों को दोनों वक़्त खाना पहुँचाया। हिन्दूओं को ग़ल्ला दिया, सर छुपाने को जगह दी, ग़रज़ ये मुसीबत के दिन भी किसी न किसी तरह गुज़र गए। सोलहवें दिन ज़रा पानी ने दम लिया, अब्र फटा, सूरज का कोना दिखाई दिया, लोगों की जान में जान आई दो-चार रोज़ मकानों की मरम्मत और दुरुस्ती में लगे, उसके बा’द यारों को मेला की सूझी।

भला जमुना ऐसी भरपूर चले और दिल्ली वाले चुपके बैठे रहें, ढंडोरा पिट गया कि कल तैराकी का मेला है, सुब्ह से क़िला’ के सामने लोगों का हुजूम होने लगा, आठ नौ बजे तक तो ये हालत हो गई कि शहर ख़ाली हो बेला आबाद हो गया, पनवाड़ियों, काछियों, बिसातियों सौदागरों, ग़रज़ हर क़िस्म के सौदे वालों की दूकानें लग गईं, जंगल में मंगल हो गया बादशाह सलामत भी निकल शम्स बुर्ज में आ बैठे शहज़ादों के लिए दीवान-ए-ख़ास के सहन में फ़र्श हो गया, बेगमात और शहज़ादियों के लिए मोती-महल, ख़ास-महल और असद बुर्ज की जालियों के सामने मस्नदें बिछ गईं, तैराकों के उस्ताद अपने अपने शागिर्दों को ले जमुना में उतरे और तैराकी के कमाल दिखाने शुरू’ किए कोई चित्त तैरा तो इस तरह गोया तख़्ता बहा चला आता है, किसी ने खड़ी मारी तो ऐसी कि घुटने तक पानी से बाहर निकल आया। कोई कि गठरी बनाया बहाव पर चला जाता है, कोई शेर के हाथ मारता चढ़ाव पर सीधा चढ़, रहा है, इधर तैराकी हो रही थी और उधर क़िला’ वालों और शहर वालों में कंकव्वे-बाज़ीशुरू’ हुई, तकलें लड़ीं तो ऐसी कि चकराती चकराती मक़बरा से आगे निकल गईं, पतंग लड़े तो ऐसे कि सारा आसमान कंकव्ओं से छुप गया, ग़रज़ ये मा’लूम ही न होता था कि दो दिन पहले इस शहर में आफ़त बपा थी, शाम होते होते मेला बिछड़ना शुरू’ हुआ। रात के नौ दस बजे बेला फिर वही जंगल का जंगल हो गया। हाँ दौ नों और आबख़ोरों के ढेर, पीकों के निशान और छिलकों के अंबार ये ज़रूर बताते थे कि यहाँ कोई बड़ा शहर था जो दम-भर में बसा और दम-भर में ग़ायब हो गया।

सावन ख़त्म हुआ भादों लगा, झरयों का ज़माना गया फ़व्वारे का ज़माना आया, दिल्ली वालों के दिलों में फिर गुदगुदी शुरू’ हुई, क़ुतुब का सब्ज़ा आँखों के सामने फिरने लगा फूलों वालों की सैर की सूझी, शोरफ़ा-ए-दिल्ली में से दो हिंदू और दो मुसलमान लाल हवेली पहुँचे। इत्तिला’ कराई, बारयाबी हुई। इधर-उधर की गुफ़्तुगू के बा’द हर्फ़-ए-मतलब ज़बान पर लाए। कहा पीर-ओ-मुर्शिद फूल वालों की सैर का ज़माना आ गया है झरना और शम्सी तालाब भर कर कटोरा हो गए हैं, कोई तारीख़ मुक़र्रर फ़रमा दी जाए। अगर जहाँ-पनाह भी तशरीफ़ लाएंगे तो ज़हे  नसीब। बादशाह ने फ़रमाया। माँ अम्माँ ठीक तो है जो तुम्हारी ख़ुशी वो हमारी ख़ुशी 15 तारीख़ मुक़र्रर कर दो। रहा हमारा आना तो जहाँ तुम वहाँ हम क्यूँ न आएँगे, तारीख़ मुक़र्रर होना थी कि शाही रौशन चोकी का शहनाई-नवाज़ चाँदी की नफ़री हाथ में लिए हाज़िर हुआ। नफ़री बज गई कि पंद्रहवीं को फूल वालों की सैर है, लोगों ने तैयारियाँ शुरू’ कीं, बादशाह सलामत दरबार-ए-ख़ास से उठकर तस्बीह-ख़ाना में गए ही थे कि तमाम बेगमात और शहज़ादियाँ जमा’ होनी शुरू’ हुईं, एक आतीं सलाम कर के बैठ जातीं ,दूसरी आतीं बैठ जातीं, थोड़ी देर में सारा क़िला’ तस्बीह-ख़ाना में जमा’ हो गया, लेकिन सब हैं कि मुँह से चुप हैं, मगर निगाहें साफ़ कह रही हैं कि क़ुतुब चलिए। बादशाह सलामत भी समझ गए। फ़रमाया।

अम्माँ मैं तुम्हारा मतलब समझ गया, सैर की तारीख़ मुक़र्रर हो गई है। आज दस है पंद्रह को सैर है, अच्छा हो कि सबसे पहले हम चले चलें बा’द में गए तो शहर वालों को तक्लीफ़ होगी, दो-तीन दिन क़ुतुब का लुत्फ़ उठा लो, और फिर क़ुतुब दिल्ली वालों के सुपुर्द कर दो, लो जाओ चलने की तैयारी करो। इंशाअल्लाह कल सवेरे-सवेरे रवाना होंगे, और वहाँ, मियाँ दारा तुम हमारी सवारी का बंद-ओ-बस्त करो। कोतवाल से कह दो। क़िला’-दार से कह दो हकीम साहब से मैं ख़ुद कह दूँगा। कल सुब्ह-सवेरे निकल गए तो सुल्तान जी होते हुए शाम तक इंशाअल्लाह क़ुतुब पहुँच जाऐंगे, ये सब लोग तो इतना सुनने के लिए जमा’ ही हुए थे। एक-एक उठ मुज्रा कर रुख़्सत हुआ, सामान बंधने लगा, सामान बंधता और दारोग़ा तोशकची के पास पहुँच जाता, थोड़ी देर न गुज़री थी कि बीसियों पेटीयाँ, सैकड़ों बोग़बंद, हज़ारों लाखों पोटलियाँ, ग़रज़ अल्लम ग़ल्लम मनों सामान जमा’ हो गया, कुछ छकड़ों में लादा गया कुछ ऊँटों पर चढ़ाया गया। कुछ शिकरमों में रखा गया, कोई बारह साढ़े बारह का ’अमल होगा कि सामान चलना शुरू’ हुआ, ख़ुदा-ख़ुदा कर के कहीं दो बजे उस लेन डोरी का ताँता ख़त्म हुआ उस वक़्त कहीं जाकर बेचारे दारोग़ा को दम लेने की फ़ुर्सत मिली, अभी पूरी तरह दम न लिया था कि उर्दा-बेगनी ने हुक्म पहुँचाया कि हज़रत जहाँ-पनाह का इर्शाद है कि तोशक-ख़ाना शाही का जंगली-महल में क़ियाम होगा। इसलिए ख़ेमों, सरापर्दों और शामियानों के भेजने की ज़रूरत नहीं है। हाँ दिल्ली वाले अगर ये सामान तलब करें तो दे दिया जाए। दूसरे हुक्म का इंतिज़ार न किया जाए और हकीम साहब के ज़रि’आ से शहर के लोगों को इस हुक्म की इत्तिला’ करा दी जाए। हुक्म पहुँचना था कि दारोग़ा साहब फिर कमर बांध अपने पेश दस्तों को ले सरकारी सामान बाँधने की फ़िक्र में लग गए। यहाँ इंतिज़ाम वाले तो अपनी मुसीबत में गिरफ़्तार थे। और वहाँ क़िला’ वालों की ये हालत थी कि गोया शादी रची हुई है। चूड़ी वालियाँ बैठी धानी चूड़ियाँ पहना दगला रही हैं रंग-रेज़ें सुर्ख़ दुपट्टे रंग रही हैं कहीं मेहंदी पिस रही है कहीं कड़ाहियाँ निकाली जा रही हैं। कहाँ का खाना और कहाँ का सोना। इसी गड़-बड़ में रात के बारह बजा दिए। कोई दो बजे होंगे कि सवारी का बिगुल हुआ। क़िला’ के लाहौरी दरोज़ा के सामने नौबत-ख़ाना से मिला हुआ जो मैदान है उस में सवारियाँ आबगीं, अनाएं, मुग़लानियाँ, ख़्वासें, छोकरियाँ, लौंडियाँ, सूरतें सवार होना शुरू’ हुईं। सांगियों और माचियों में पहले तो अटा-अट सामान भरा। ऊपर से भी दो-दो तीन-तीन छोकरियाँ और मामाएं धँस गईं। ग़रज़ किसी न किसी तरह ये मुश्किल भी आसान हुई। बैल लगाए गए और ये क़ाफ़िला क़ुतुब को रवाना हुआ। मश’अल-ची मश’अलें और तेल की कुप्पियाँ हाथों में लिए साथ हुए ये लोग क़िला’ से बाहर ही हुए होंगे कि बेगमात और शहज़ादियों के लिए रथें डोलियाँ नीमे, मियाने, पालकियाँ, चौ-पहले, चंडोल और सुखपाल मोती-महल के बराबर आ लगे शहज़ादा वली-’अहद बहादुर भी निकल आए। दगला पलटन के सिपाहियों ने रास्ते बंद किए। बरकनों और गुरुजनों ने क़नातें खींचीं। जो बेगम या शहज़ादी बाहर आतीं उनको ब-लिहाज़ उनके दर्जे के सवारी मिलती। हर सवारी के साथ एक क़लमाक़नी और एक उर्दा-बेगनी मुक़र्रर हो जाती। तीन सवा तीन बजे होंगे कि पहली रथ रवाना हुई आगे-आगे रथें उनके पीछे दूसरी सवारियाँ सबसे आख़िर में नवाब ज़ीनत-महल का सुखपाल, लाहौरी दरवाज़ा पर सवारी पहुंची थी कि कप्तान डगलस क़िला’दार ने उतर कर सलामी दी। दरवाज़ा के बाहर से दगला  पलटन का एक परा आगे हो गया और एक पीछे शहज़ादों की सवारी के इधर-उधर क़लमा-क़ानियाँ मर्दाना लिबास पहने खिड़की-दार पगड़ियाँ बाँधे सातों हथियार सजाए साथ हुईं। बेगमात की सवारियों को तुर्कों की पल्टनों ने बीच में लिया। उनका भी मर्दाना फ़ौजी लिबास, गोरे-गोरे चेहरे शानों पर काकुलें पड़ी हुई, सर पर छोटा सा ’अमामा, उस पर सफ़ेद परों की ऊँची सी कलग़ी , हाथ में छोटी-छोटी बरछियाँ, पुश्त पर तरकश, शाना पर कमान, पहलू में तल्वार, डाब में पेश-क़ब्ज़, बस ये मा’लूम होता था कि तुर्कों की फ़ौज दिल्ली में घुस आई है। नवाब ज़ीनत-महल की सवारी का बड़ा ठाट था। आगे दो हब्शनें , घूँघरयाले बाल उन पर सुर्ख़ पगड़ियाँ,पगड़ियों में सफ़ेद मुक़य्यश के फुंदने,मोटे-मोटे होंट, लाल दीदे, सुर्ख़ गूरंट के ढीले-ढाले कोट, घोड़ों पर सवार, हाथों में पतली पतली चोबें सामने घोड़ों की पुश्त पर ज़रबफ़्त से मंढे हुए डंके पर एक चोब मारती, दूसरी पुकारती। अदब से निगाह रू-ब-रू-ए-हज़रत बादशाह बेगम सलामत। सुखपाल के दोनों तरफ़ दो-दो गुरनें एक के हाथ में मोरछल दूसरी के हाथ में चँवर, हर-हर क़दम बिस्मिल्लाह बिस्मिल्लाह कहती चली आती थीं। सबसे पीछे उर्दा-बेगनों की पल्टनें मर्दाना लिबास पहने हथियार लगाए साथ-साथ थीं। थोड़े थोड़े फ़ासिला पर मश’अल-चीं किसी के हाथ में मश’ल और कुप्पी, किसी के हाथ में दो-शाख़ा और किसी के हाथ में पंच-शाख़ा सवारी के साथ आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रही थीं। ये जुलूस दिल्ली दरवाज़ा तक तो इसी सिलसिला से गया , दरवाज़ा के बाहर निकल कर रथें तो तुर्कमान  दरवाज़ा से होती हुई क़ुतुब की सड़क पर पड़ लीं  और दूसरी सवारियाँ दरवाज़ा के बाहर ही ठहर गईं।

कोई चार बजे होंगे कि बादशाह सलामत बेदार हुए। हवाइज-ए-ज़रूरी से फ़ारिग़ हो कर गुड़ का शर्बत पी कर मे’दा साफ़ किया। ख़ानसामाँ ने याक़ूती की सर-ब-मुहर प्याली पेश की। मुहर तोड़ कर याक़ूती नोश की और फ़रमाया, अम्माँ सब लोग सिधारे?”  ’अर्ज़ की जहाँ-पनाह के ’इक़बाल से सब इंतिज़ाम हो गया। मीर तुज़्क हाज़िर हैं क्या इर्शाद होता है? फ़रमाया। अच्छा बिस्मिल्लाह करो। ये हुक्म होता था कि बिगुल हुआ। वली-’अहद बहादुर के लिए ताम झाम, मिर्ज़ा शाहरुख के लिए तख़्त-ए-रवाँ, मिर्ज़ा फ़ख़रू के लिए बोचा और ख़ुद बादशाह सलामत के लिए हवा-दार दीवान-ए-ख़ास में आ गया। बाक़ी सब शाहज़ादे और सलातीन-ज़ादे घोड़ों पर सवार हुए। इधर बादशाह सलामत ने हवा-दार में क़दम रखा और उधर चोब-दार ने आवाज़ लगाई। अदब से ता’ज़ीम से मुज्रा बजा लाओ हज़रत बादशाह सलामत” शहज़ादों ने तल्वार मियान से निकाल सलामी दी और दूसरे लोग झुक कर आदाब बजा लाए। बादशाह के बा’द वली-’अहद बहादुर, मिर्ज़ा शाहरुख और मिर्ज़ा फ़ख़रू सवार हुए। हवा-दार के पीछे एक ख़्वासी ने चत्र-ए – शाही खोला। दूसरे ने सूरज-मुखी ली और ये जुलूस आहिस्ता-आहिस्ता क़िला’ के दिल्ली दरवाज़े की तरफ़ चला। दरवाज़ा के बाहर पहले से फ़ौज की मसल बंधी हुई थी। सबसे आगे निशान का हाथी उस पर शाही परचम, उस के पीछे नक़्क़ारा का ऊँट, ऊँटों के बा’द तुर्क सवारों का रिसाला, रिसाला के बा’द रौशन चौकी के तख़्त। तख़्तों के पीछे मीर-ए-तुज़्क। उस के बा’द सलातीन-ज़ादों की सवारियाँ। शहज़ादों के घोड़े, मिर्ज़ा फ़ख़रू का बोचा, मिर्ज़ा शाहरुख का तख़्त-ए-रवाँ। मिर्ज़ा दारा बख़्त का ताम-झाम। उनके पीछे दूर-बाश और दूर-बाश के पीछे बादशाह सलामत का हवा-दार। हवा-दार के पीछे फ़ौज का परा। आख़िर में क़िला’ के नौकर-चाकर , सड़क के किनारे मश’लचियों की क़तारें। ग़रज़ के दिल्ली दरवाज़ा से जो मशअ’ल बंधी तो पुराने कोटला पर जाकर ख़त्म हुई। सवारी क़िला’ से निकली ही थी कि शहीदों ने गुल मचाया हज़रत पीर-ओ-मुर्शिद हमारा भी हक़ मिल जाए। ख़ुदा तआ’ला ’उम्र-ओ-इक़बाल में तरक़्क़ी करे। आमीन। और सद-ओ-सी साल ये साया दिल्ली वालों के सरों पर क़ाइम रहे। आमीन। ख़ुदा शहज़ादे शहज़ादियों को सलामत रखे। आमीन। सैर आ रही है। कुछ ऐसा मिले कि हम भी जहाँ-पनाह के सदक़े में सैर की बहार देख लें। बादशाह सलामत ने इशारा किया। ख़्वासी ने मुट्ठियाँ भर-भर कर रुपय हवा-दार पर से निछावर किए। फिर क्या था रुपयों के साथ शोहदे सड़क पर बुछ गए किसी ने हाथ फैलाए किसी ने झोली फैलाई। सवारी चलनी मुश्किल हो गई। थोड़ी देर तक यही हंगामा रहा। जब दिल भर कर रुपया लूट चुके तो शोहदे दु’आएं देने आगे बढ़े और हवा-दार आगे बढ़ा। लोगों को पहले ही से ख़बर हो गई थी कि आज पिछली रात को सवारी-ए- मुबारक क़ुतुब जाएगी। रात के बारह बजे ही से ख़ास बाज़ार से लगा फ़ैज़ बाज़ार और शहर के दिल्ली दरवाज़ा तक ख़िल्क़त का हुजूम था। बाज़ारों में आदमियों के ठट के ठट लगे थे। छतियों और कमरों पर हज़ार-हा ’औरतें बैठी जुलूस का इंतिज़ार कर रही थीं। हर शख़्स अपने बादशाह को देखने के लिए बे-चैन था। वक़्त कम था और इसलिए बाज़ारों में आईना-बंदी तो नहीं हुई थी हाँ बा’ज़ बा’ज़ मकानों के दरवाज़े, कमरे के रूकार और दुकानें सजा कर रौशनी कर दी थी। जुलूस आहिस्ता-आहिस्ता उन सड़कों पर से गुज़रा।

एक सन्नाटे का ’आलम था मगर हर शख़्स के बुशरे और आँखों से जोश टपक रहा था। बादशाह सलामत भी उस जोश से मुतअस्सिर हुए ब-ग़ैर न रह सके। एक फरेरी सी आई और आँखों से ख़ुद ब-ख़ुद आँसू निकल कर रुख़्सारों पर बह आए। क्या ख़बर थी कि नौ-बरस न गुज़रेंगे कि इसी सड़क पर से गुज़रना होगा। मगर किस हालत में कि सड़क वीरान होगी। दिल्ली वाले तबाह होंगे गोलों की मार से मकानात मिस्मार होंगे और बे-गुनाहों के ख़ून से ज़मीन रंगीन होगी। इस के चंद ही दिन बा’द इस सड़क से फिर शहर में दाख़िल होना होगा। मगर किस हालत में कि ख़ुद क़ैद होंगे चारों तरफ़ जंगी पहरा होगा। बेटों, भाँजों और भतीजों की लाशें मैदानों में बे-गोर-ओ-कफ़न पड़ी होंगी। महल वीरान होंगे और महल वालियाँ ख़ुदा जाने कहाँ होंगी और किस हालत में होंगी।

ग़रज़ सवारी-ए-मुबारक इन सड़कों पर से गुज़र कर दिल्ली दरवाज़ा पहुँची। मुहाफ़िज़ों ने सलामी दी और जुलूस सुल्तान जी की सड़क पर गया। जो ज़नाना सवारियाँ पहले से रवाना हो कर यहाँ ठहरी हुई थीं वो भी जुलूस के आख़िर में शरीक हो गईं। कहारों ने यहाँ से ज़रा क़दम तेज़ कर दिए। और सूरज निकलने से पहले-पहले सवारी पुराने क़िला’ पहुँच गई शेर शाह की मस्जिद के सामने हवा-दार रखा गया। बादशाह सलामत ने मस्जिद में नमाज़ पढ़ी वज़ीफ़ा पढ़ा। कोई घंटा आध-घंटा क़ियाम कर के यहाँ से सवारी बढ़ी और अभी दिन पूरी तरह न निकला था कि हुमायूँ के मक़बरा पहुँच गई। मक़बरा में पर्दा हो गया। सवारियाँ उतरीं। बाहर के दरवाज़ा से बादशाह सलामत का हवा-दार कहारियों ने सँभाल लिया और मक़बरा के दरवाज़ा पर जा लगाया। सामने के सहन में पहले से फ़र्श हो गया था। मस्नद बिछी हुई थी। बादशाह सलामत मस्नद पर जा बैठे वज़ीफ़ा ख़त्म किया। मक़बरा के अंदर गए। ख़ानदान-ए-शाही के सैकड़ों लोग इस मक़बरा में मौत की मीठी नींद सो रहे हैं। हर एक की क़ब्र पर जा कर फ़ातिहा पढ़ी। शाहज़ादे साथ थे सबको एक एक क़ब्र दिखाते, नाम बताते, उनके कारनामे सुनाते, अपनी और उनकी हालत का मुक़ाबला करते और बे-इख़्तियार रोते । फ़ातिहा से फ़ारिग़ हो कर फिर हवा-दार में सवार हुए और जिस तर्तीब से ये क़ाफ़िला आया था।

इसी तर्तीब से आगे बढ़ा। दरगाह शरीफ़ क़रीब ही है। थोड़ी देर में वहाँ पहुँच गए। दिल्ली वालों को इस दरगाह से जो ख़ास ‘अक़ीदत है वो बयान नहीं हो सकती । किसी क़ौम और किसी मिल्लत का आदमी नहीं जो इस चौखट पर सर न झुकाता हो और कोई बद-नसीब ही होगा जो ना-मुराद जाता हो। पर्दा का इंतिज़ाम पहले से हो गया था ।हवादार बावली पर रखा गया। बादशाह सलामत ने उतर कर वुज़ू किया। शहज़ादों ने हाथ मुँह धोया। शहज़ादियों के लिए बावली के ताक़ों के सामने ओट लग गए थे। किसी ने वुज़ू किया किसी ने ग़ुस्ल किया। कोई पानी में पाँव लटकाए बैठी रही। बादशाह सलामत वुज़ू कर हवादार में आ बैठे। और बैगनी ने ‘अर्ज़ किया। जहाँ-पनाह बावली में तैरने के लिए ख़ादिमों के लड़के आए हैं। क्या हुक्म होता है । फ़रमाया। हाँ अम्माँ हाँ। बुलाओ। वो हक़-दार हैं अपना हक़ लेने आए हैं। क्यों न मिलेगा। ज़रूर मिलेगा। हुक्म होना था कि सात सात आठ आठ बरस के बीस पच्चीस लड़के अंदर आए। मुजरा बजा लाए। इजाज़त चाही और गुंबद पर चढ़ गए। सीढ़ियों पर से बेगमात और शहज़ादियों ने रुपय फेंकने शुरू’ किए। उधर रुपया गिरा और इधर कोई लड़का गुंबद पर से कूदा। डुबकी लगाई और रुपया निकाल लाया।थोड़ी देर तक यही तमाशा रहा। उस के बाद सब के सब दरगाह शरीफ़ में गए। पहले हज़रत अमीर ख़ुसरो के मज़ार पर फ़ातिहा पढ़ी वहाँ से हज़रत सुलतान जी के मज़ार पर आए। बादशाह सलामत तो अंदर चले गए ‘औरतों ने गुंबद शरीफ़ के दरवाज़ा पर खड़े हो कर फ़ातिहा पढ़ी। किसी ने ज़ंजीर पकड़ कर दु’आ मांगी। किसी ने चौखट की मिट्टी लेकर मुँह पर मली। किसी ने गोद फैला कर दिल ही दिल में तिलावत शुरू’ की ।किसी ने मस्जिद के कटोरे का क़िस्सा शुरू किया। देखना बुआ ये कटोरा सोने का है। बड़ा भारी है कई सेर का होगा। दादा-जान के ज़माना में एक बुढ़िया मुसीबत की मारी दरगाह शरीफ़ में आई और ‘अर्ज़ किया हज़रत सात बेटियाँ हैं खाने को पैसा पास नहीं ये पहाड़ क्योंकर उट्ठेंगे। आप ही ये मुश्किल आसान कीजिए । वहाँ से उठ कर जो तस्बीह-ख़ाना में आई तो कटोरा गुबंद से उतरकर उस की गोद में आ गया। ख़ुशी ख़ुशी घर आई । बड़ी धूम धाम से बेटियों की शादियाँ रचाईं मज़े से हंसी ख़ुशी रहने लगी। दिल्ली के एक अमीर थे। उनको जो ये ख़बर हुई तो उन्होंने भी दरगाह में जाकर दु’आ मांगी। वहाँ से इस मस्जिद में आए। बड़ी देर तक कटोरा को देखते रहे। कटोरा जहाँ था वहीं रहा। जल गए। मज़दूरों को बुलवाया। पाढ़ बाँधी। जितनी पाढ़ ऊँची हुई कटोरा और ऊँचा होता जाता, पाढ़ गुंबद की छत तक पहुंची तो कटोरा ग़ाएब हो गया। उधर पाढ़ खुली और कटोरा अपनी जगह पर आ मौजूद हुआ। सच्च है लालच बुरी बला है ।कटोरा तो क्या मिलता पाढ़ बाँधने का ख़र्च मुफ़्त लगे पड़ा।

बादशाह सलामत फ़ातिहा से फ़ारिग़ हो कर दगाह शरीफ़ से बाहर आए। मुहम्मद शाह बादशाह के मज़ार , मिर्ज़ा जहाँगीर , मिर्ज़ा नीली और जहाँ-आरा बेगम की क़ब्र पर गए। फ़ातिहा पढ़ी यहाँ से फिर बावली पर आए। ख़ादिमों को इन’आम दिए। फ़क़ीरों को ख़ैरात तक़सीम की। और वहाँ से निकल मंसूर के मक़बरा की सीधी सड़क पर हो गए। यहाँ दो ढाई घंटे आराम किया। ख़ास्सा तनावुल फ़रमाया। कोई चार बजे यहाँ से रवाना हो शाम होते होते क़ुतुब पहुँच गए। जंगली महल और मिर्ज़ा बाबर की कोठी पहले से आरास्ता थी जो सवारियाँ सीधी क़ुतुब आई थीं उन्होंने सब सामान क़रीने से जमा दिया था। ख़ास्सा तैयार था। दिन-भर के सब थके-माँदे थे। खा पी, नमाज़ पढ़ ऐसे सोए कि जब चार बजे की नौबत बजी उस वक़्त कहीं जाकर आँख खुली।

जंगली महल अब तो वाक़िई जंगली महल है। हाँ किसी ज़माना में बड़ा गद्दार महल था। पहले ही कुछ कम बड़ा न था। बहादुर शाह ने दीवान-ए-ख़ास, दीवान-ए- ‘आम, ख़ास-महल और बाब-ए-ज़फ़र बनवा कर उस को और बड़ा कर दिया। दरवाज़ा क्या है ख़ुद एक छोटा सा महल है ।सर ता पा संग-ए-सुर्ख़ का है ।रूकार पर संगमरमर की पत्तियाँ हाशिया और फूल देकर उस की रौनक़ को और भी दो-बाला कर दिया है। दरवाज़ा की बुलंदी कोई16-17 गज़ है ।पहलू में77 सीढ़ियों का चक्करदार ज़ीना है। मेहराब के ‘ऐन ऊपर शाही बारहदरी है। यहीं से बैठ कर बादशाह सलामत और बेगमात पंखों का तमाशा देखते थे। दरवाज़ा से मिला हुआ दरगाह शरीफ़ का दरवाज़ा है ।झरने से पंखे उठकर इधर आते। पहले दिन जोग माया जी का पंखा उठता। दूसरे दिन पंखा तो बराबर वाले दरवाज़ा से मज़ार शरीफ़ पर चला जाता। जोग माया जी का पंखा शाही दरवाज़ा के सामने कुछ देर रुकता। इस के बा’द हकीम एहसनुल्लाह ख़ाँ के मकान के सामने से होता हुआ मंदिर चला जाता। बाब ज़फ़र का अंदर का हिस्सा देखने के क़ाबिल है। बड़े फाटक से लगा कर अंदर महल तक सात डेवढ़ियाँ हैं। फिर हर डेयुढ़ी पर पहरा-दारों के लिए सेह दरियाँ बनी हुई हैं । फाटक पर तो दकला पलटन का पहरा था। अंदर की डेवढ़ियों पर तुर्कनों क़लमाक़नियों, उर्दबेगनियों, शुदनों और गुरजनों की नशिस्त होती। भला क्या मजाल कि महल में परिंदा तो पर मार जाये फाटक से घुसते ही उल्टी तरफ़ पहली डेयुढ़ी के पास से मर्दाना को रास्ता जाता था ग़रज़ इस महल में इतनी गुंजाइश थी कि सारा क़िला’ इस में समा जाता और फिर भी जगह रहती। अब मर्दाने और ज़नाने सब मकानात टूट-फूट कर बराबर हो गए। एक बाब-ए-ज़फ़र रह गया है। इसी से अंदाज़ा हो सकता है कि जिस महल का ये दरवाज़ा है वो महल क्या होगा। बादशाह की कही हुई तारीख़ दरवाज़ा की रूकार पर कंदा है।

ईं दर-ए-आली चू शुद मकरम बिना हसबलमुराद

गुफ़्त दिल साल-ए-बिना बाब-ए-ज़फ़र पाइंदाबाद

सन 11 जुलूस सन 1264 हिज्री

ज़माना के हाथों इस दरवाज़ा का भी वही हश्र होता जो अंदर के महलों का हुआ वो तो कहो मुझको आसार-ए-क़दीमा ने इसको अपनी निगरानी में लेकर सँभाल लिया है।

ख़ैर तो सुब्ह की नौबत बजी थी कि महल में चहल पहल शुरू हुई। मुँह हाथ धो कपड़े बदल, नमाज़ पढ़, नाशता कर सब शहज़ादे शहज़ादियाँ बादशाह सलामत के सलाम को आए मतलब था कि चलिए यहाँ बैठने थोड़ी आए हैं। जहाँ-पनाह भी वज़ीफ़ा से फ़ारिग़ हो कर बैठे थे। सब का सलाम लिया। दुआ’एं दीं। इन सब का मतलब समझ गए।फ़रमाया अम्माँ कहाँ का इरादा है झरने का या क़ुतुब साहब की लाट का? सब ने ‘अर्ज़ की। पीर-ओ-मुर्शिद पहले झरने तशरीफ़ ले चलिए। अब्र आया हुआ है इस वक़्त झरने पर-बहार होगी। फ़ौरन उर्दबेगीनी को पर्दा कराने का हुक्म दिया गया। दकला पलटन के सिपाहियों ने नाका बंदी कर दी। उर्दबेगनियों क़लमाक़नों ने रास्ता का इंतिज़ाम किया। शुदनें, बेगमात और शहज़ादियों के हमराह हुईं। मामाओं, असीलों, ख़वासों और सुरतियों का ग़ोल का ग़ोल निकला और सीधा झरने का रुख़ किया। शहज़ादियों ने पहले दरगाह शरीफ़ में हाज़िरी दी। वहाँ से मिर्ज़ा बाबर की कोठी में से हो जंगल में निकल गईं। पहले जहाज़ पर जाकर दम लिया। शम्सी तालाब का लुत्फ़ उठाया। मीलों तक पानी ही पानी था। बुर्जी बीच में आ गई थी। पानी का ये ‘आलम देख के बहुतों के जी में आया कि कूद पड़ें। फिर ख़्याल आया कि बादशाह सलामत से इजाज़त लिए ब-ग़ैर पानी में उतरना ठीक नहीं ।चुपकी हो रहीं। थोड़ी देर यहाँ ठहर कर सब के सब औलिया-मस्जिद पहुंचे।मुसल्लों पर नफ़ल पढ़े। इतने में बादशाह सलामत की सवारी भी आ गई। शहज़ादे साथ थे। आगे आगे सवारी चली पीछे पीछे ‘औरतों का ये ग़ोल चला। औलिया मस्जिद से झरना दूर ही कितना है थोड़ी देर में सब के सब वहाँ पहुंच गए।

जिसने पहले ज़माना का झरना नहीं देखा उसने दिल्ली में कुछ ख़ाक नहीं देखा। मा’लूम होता था कि किसी ने बहिश्त का एक कोना काट कर महरौली में जोड़ दिया है। ख़ुदा की क़ुदरत देखो कि ये बना किस लिए था और हो क्या गया। फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने शम्सी तालाब का बंद बांध कर उस का पानी नौ-लखी नाला में डाला था और इस नाला को तुग़लक़ाबाद के नालों से मिला दिया था ताकि क़िला’ में पानी की क़िल्लत न हो। तुग़लक़ाबाद वीरान हो गया। नाला टूट गया। तालाब का पानी जंगल में बहने लगा। ये देखकर सन1700 ईसवी में नवाब ग़ाज़ीउद्दीन फ़िरोज़ जंग बहादुर ने शम्सी तालाब का बंद और सामने हौज़ बनवा नहरें निकालीं। फ़व्वारे लगाए और इस टुकड़े को बहिश्त का नमूना कर दिया। रफ़्ता-रफ़्ता यहाँ बारह दरियाँ, दालान और मकानात बन गए। चारदीवारी खिंच गई। दरख़्त बढ़कर झरने पर छत्र हो गए और थोड़े दिनों में जगह कुछ की कुछ हो गई ।बंद से सोतों की शक्ल में पानी झरझर कर यहाँ आता था इसलिए मक़ाम का नाम झरना हो गया। बंद से मिला हुआ जो सेह दर्रा दालान है वही झरने की जान है। दालान की छत अंदर से खोखली है। बंद का पानी पहले छत में आता था छत में दर्ज़ें छोड़ दी हैं। दर्ज़ों में से पानी इस तरह गिरता है गोया दालान में पानी बरस रहा है। दालान के सामने की जो दीवार है इस में चराग़ रखने के लिए सैकड़ों ताक़ बने हुए हैं। चराग़ों के सामने पानी की चादर गिरती है बस ये मा’लूम होता है कि किसी ने या तो पानी में आग लगा दी या सोना पिघल पिघल कर बरस रहा है। छत की मुंडेर के नीचे13 परनाले हैं। परनालों में  से पानी हो कर छज्जे पर आता है। छज्जे के नीचे एक बड़ा हौज़ है। परनालों का पानी छज्जे पर फैल कर इस ज़ोर से हौज़ में गिरता है कि गोया धुआँ-धार बारिश हो रही है। हौज़ के सामने8 गज़ लंबी2 गज़ चौड़ी और गज़ भर गहरी एक नहर है। हौज़ का पानी उबल कर इस नहर में आता है जहाँ नहर ख़त्म होती है। वहाँ सलामी के पत्थर देकर एक चादर सी बना दी है। इस सलामी के पत्थर पर ऐसी अच्छी मुनब्बत-कारी है कि पानी के बहने से चादर पर मछलियाँ सी तड़पती मा’लूम होती हैं इस चादर के नीचे शिमाल और जुनूब से दो नहरों के पानी और आन मिले हैं। आगे चल कर ये पानी तीन नहरों में बट जाता है बड़ी नहर तो बारहदरी के मंडवे के नीचे से चली गई है और छोटी दोनों नहरें चक्कर खा कर मंडवे के दोनों तरफ़ से चार-दीवारी के बाहर से निकल जाती हैं।

मुहम्मद शाह के ज़माना से लेकर बहादुर शाह तक दिल्ली का शायद ही कोई बादशाह होगा जिसने झरना में कोई ‘इमारत न बनवाई हो।

ख़ुद मुहम्मद शाह ने तो बड़ी नहर के ऊपर बारहदरी का मंडवा बनवाया। शाह ‘आलमगीर सानी ने जुनूब की तरफ़ पच दर्रा दालान निकाला। अकबर शाह सानी ने शिमाल की जानिब दोहरा दालान ता’मीर किया बीच में जो जगह रही थी उस में बहादुर शाह ने संग-ए-सुर्ख़ की बारहदरी बनवाकर झरना की ‘इमारतों को मुकम्मल कर दिया।

झरना के क़रीब ही दो चज़ीं देखने के क़ाबिल हैं। एक फिसलना पत्थर दूसरे अमरैयाँ। फिसलना पत्थर मुहम्मद शाह बादशाह की जिद्दत-पसंद तबीअ’त की यादगार है। ये पत्थर कोई सवा छः गज़ लंबा और ढाई गज़ चौड़ा है और झरना की मशरिक़ी दीवार से मिला कर उस को ज़रा झुका हुआ गाड़ दिया है। ये पत्थर इस बला का चिकना है कि ज़रा कोई बैठा और फिसला। फूल वालों की सैर में लोगों का इस पर चढ़ना और फिसलना एक तमाशा हो जाता है। उसी पत्थर के इस्ति’आरा से ज़ौक़ ने ये शे’र कहा है:

मैं कहाँ संग-ए-दरबार से टल जाउंगा

क्या वो पत्थर है फिसलना कि फिसल जाऊँगा

बारहदरी के मंडवे से मिला हुआ झरना का दूसरा दरवाज़ा है और इस के बा’द अमरैयाँ। आमों के दरख़्त तो हर जगह होते हैं मगर यहाँ के दरख़्तों पर कुछ और ही बहार है ।झरना के पानी से बारह महीने सर-सब्ज़ रहते हैं और इतने घने हो गए हैं कि आसमान भी मुश्किल से नज़र आता है। उधर उनकी सब्ज़ी इधर नीचे घास की सब्ज़ी बस ये मा’लूम होता है कि ज़मीन-ओ-आसमान सब्ज़ मख़मल के बन गए हैं। झरना में चादरों का गिरना, फ़व्वारों का उछलना ,पानी का बहना अगर जन्नत-निगाह है तो अमरैयों में मोरों की झंकार, पपीहे की पुकार और कोयल की कूकू फ़िरदौस-ए-गोश है। ग़रज़ झरना एक ‘अजीब चीज़ था कि हर मौसम में एक नया लुत्फ़ दिखाता था और हर शख़्स को नई लज़्ज़त बख़्शता था। अब उसकी भी बहार गई। शम्सी तालाब कट छट कर हौज़ बन गया। बंद उस से दूर जा पड़ा ।पानी का गिरना मौक़ूफ़ हुआ। नहरें ख़ुश्क हो गईं। हौज़ मलबा से अट गए। दरख़्त सूख साख कर कट गए। फिसलना पत्थर टूट कर टुकड़े हो गया। हाँ ‘इमारतें खड़ी रह गईं। कुछ दिनों में उनका भी वक़्त आ लगेगा। इस के बा’द झरने और अमरैयों का बस नाम ही नाम रह जाएगा। सच्च है।

हमेशा रहे नाम अल्लाह का

बादशाह सलामत के झरना पहुँचते ही क़लमाक़नियों ने शाही पिंगोरा खड़ा कर उस में मस्नद बिछा दी। हवादार पिंगोरे के पास जा लगा। बादशाह उतर उस में जा बैठे। दो ख़्वासें मोरछल ले पीछे जा खड़ी हुईं , दो ने आहिस्ता-आहिस्ता पिंगोरे हिलाना शुरू’ किया। थोड़ी देर आराम लेने के बा’द बादशाह सलामत ने फ़रमाया कहो। अम्माँ क्या इरादा है अब तैरना होता है या झूलना?

”अच्छा कुछ झरना में रहो कुछ अमरैयों में चलो। यहाँ भी लुत्फ़ उठाओ वहाँ का भी मज़ा देख लो। हम तो अमरैयों में जाते हैं। ये कह बादशाह उठ खड़े हुए और टहलते टहलते बारहदरी के दरवाज़ से अमरैयों में आ गए। यहाँ पहले से इंतिज़ाम हो गया था। एक तरफ़ बादशाह सलामत और बादशाह बेगम के तख़्त बिछ गए। और दूसरी तरफ़ शहज़ादियों के लिए दरी, चांदनी और क़ालीनों के फ़र्श कर के तकिए लगा दिए गए थे। दरख़्तों में बीसियों झूले पड़ गए थे। बादशाह सलामत तख़्त पर बैठे। इस के बा’द सब सलाम कर के अपनी जगह बैठ गए। इंतिज़ार था कि कब हुक्म हो और कब झूलों पर जाएं।

बादशाह ने फ़रमाया वाह जी वाह ख़ाली झूला कैसा। कढ़ाई चढ़ाओ, झूलते जाओ और खाते जाओ ।ताजमहल ने ‘अर्ज़ की। जहाँ-पनाह हम पहले ही से ये इन्तिज़ाम कर के आए हैं। हुक्म की देर है। अभी सब कुछ हुआ जाता है। ये कह लौंडियों की तरफ़ देखा। वो तो हुक्म की मुंतज़िर खड़ी ही थीं। ज़रा सी देर में बीसियों कढ़ाईयाँ आ गईं। दरख़्तों की जड़ों में चूल्हे लग गए। किसी किसी बेगम के सामने अँगेठी आ गई। अब है कि कोई तो बैठा बेसन फेंट रहा है। कोई गुलगुलों के आटे में खांड मिला रहा है। कोई सुहाल और अंदरसे तलने की तैयारियाँ कर रहा है। कोई अंदरसे  की गोलियों का सामान निकाल रहा है कोई छाज खजूरें बना रहा है। ग़रज़ थोड़ी देर में ख़ासा बाज़ार सा लग गया। जब सब सामान लैस हो गए तो एक ने बढ़कर बादशाह सलामत से ‘अर्ज़ की कि हुक्म हो तो कढ़ाई में गुलगुला पड़े। फ़रमाया नहीं अम्माँ अभी नहीं। झूलों पर लोग बैठ लें उस वक़्त पकवान शुरू’ हो ।ये कह  नवाब ज़ीनत महल और नवाब ताज-महल की तरफ़ देखा। वो दोनों खड़ी हो गईं। ताज-महल तो ऐसी ख़ूबसूरत न थी हाँ ज़ीनत महल की कुछ न पूछो। ‘अजीब क़ुबूल-सूरत पाई थी ।शहर भर में एक थीं उनकी जामा-ज़ीबी और हुस्न की ता’रीफ़ ही सुनकर बादशाह ने उनसे शादी की थी। रंगत ऐसी सुर्ख़-ओ-सफ़ेद थी जैसे गुलाब की पत्ती या शहाब और मैदा। किताबी चेहरा, बड़ी बड़ी रौशन आँखें, लंबी सुतवाँ नाक। हाँ भवें बिलकुल न थीं। इस कमी को सुर्मा की भवें बना कर पूरा किया जाता था। हाथों में धानी चूड़ियाँ , सर पर तारों भरा गुलनार दुपट्टा, जिस्म पर सुर्ख़ अँगिया, कुर्ती बावन कली का, सब्ज़-ज़रबफ़्त का पैजामा, मोतियों जड़ी घेतली जूती, आँखों में गहरा गहरा सुर्मा, दाँतों में मिस्सी, होंटों में लाखा, बस ये मा’लूम होता था कि परिस्तान की कोई परी अमरैयों में उतर आई है। ज़ीनत महल ने ताज-महल को नाक भों चढ़ा कर देखा। ताज-महल ने ज़ीनत महल को बुरे बुरे दीदों से घूरा। हुक्म से लाचार थीं। बादशाह सलामत के सामने जो झूला था, उस के लाल सब्ज़ रेशम के रस्से और गंगा जमुनी टप्पढ़ियाँ थीं। दोनों उठ ऊस में जा बैठीं। ज़ीनत महल ने पांव जोड़े ताज-महल ने झोंटे लेने शुरू’ किए। बादशाह सलामत ने फ़रमाया वाह जी वाह ऐसा सूना झूलना हमको पसंद नहीं। बी टरमथई ख़ानम और दिलदार को बुलाओ। भला बेगमात  झूलें और ये दोनों झरना में घुसी रहें। ये सुनते ही दो उर्दबेगनयाँ दोनों को झरना में से पकड़ लाईं। दोनों बेचारियाँ झरना में नहा रही थीं। सारे कपड़े शोर बोर थे। पहले तो सामने आते ज़रा झिजकीं। मगर जब बादशाह सलामत ने फ़रमाया आओ अम्माँ क़ुतुब की यही बहार है। तो उस वक़्त ज़रा हिम्मत बढ़ी । कपड़े निचोड़ी हुई दोनों झूले के इधर उधर खड़ी हो गईं और शहज़ादियाँ भी आवाज़ मिलाने आ गईं। उधर उन्होंने मल्हार शुरू’किया और इधर कढ़ाई में गुलगुला पड़ा। टरमथई ख़ानम और दिलदार तो ख़ैर रंडियाँ थीं। ताज-महल डोमनी थीं। मगर शहज़ादियों की आवाज़ें भी रस में  उनसे कुछ कम न थीं। मुहम्मद शाह बादशाह के ज़माना से शायद ही कोई महल वाली होगी जो गाना न जानती हो। तानरस ख़ाँ इसी लिए नौकर थे।ताज-महल इसीलिए महल में आईं। बी टरमथई ख़ानम और दिलदार की इसी गाने से बादशाह के हुज़ूर में रसाई हुई। अब झूले के साथ गाना शुरू’ हुआ:

झूला किन डारो रे अमरैयाँ

झूला किन डारो रे अमरैयाँ

रैन अँधेरी। ताल किनारे। मुरला झिंगारे। बादल कारे

बूंदियाँ पड़ें ….

झूला किन डारो रे अमरैयाँ

दो सखी झूलें, दो ही झुलाएँ।चार मिल गय्याँ भूल-भुलय्याँ

झूला किन डारो रे अमरैयाँ

वो नूर के गले, वो रसीली आवाज़ें, वो सच्ची तानें, वो वक़्त की रागनी ,वो सुहाना वक़्त पत्ते पत्ते और टहनी टहनी से झूला किन डारो रे अमरैयाँ की आवाज़ आ रही है। मोर दरख़्तों से उतर जोश में आ सामने नाचने लगे। दरख़्तों के जानवर चहकने लगे। पपीहे की पेहू पेहू और कोयल की कू कू से सारा जंगल गूंज उठा। ग़रज़ ऐसा समाँ बंधा कि एक दफ़ा’ ही फ़र्राटे से मेंह का छींटा आया। लोग इधर उधर भागने लगे। बादशाह सलामत ने फ़रमाया। वाह अम्माँ वाह क़ुतुब में मेंह से भागते हो भादों का छींटा है अभी बरसा अभी निकल गया। हाँ बी दिलदार कोई और चीज़ हो जाए और हाँ तुम सब एक ही झूले को क्यों घेरे खड़े हो। दूसरे झूलों पर जाओ। गाओ बजाओ खाओ पियो कुछ उठाओ।

ये सुनता था कि झूलों की तरफ़ सब दौड़ पड़े। दो-चार झूलों पर तो बच्चों ने क़ब्ज़ा कर लिया जो बाक़ी रह गए उन पर शहज़ादियाँ हो बैठीं। जब यहाँ ज़रा छेड़ हुई तो दिलदार ने दूसरी चीज़ शुरू’ की।

सुनो सखी सय्याँ जोगिया हो गए

सुनो सखी सय्याँ जोगिया हो गए

मैं जोगन तेरे साथ

सुनो सखी सय्याँ जोगिया हो गए

जोगिया बजाय बैन बाँसुरी

जोगिया बजाय बैन बाँसुरी

जोगन गाय है मल्हार

सुनो सखी सय्याँ जोगिया हो गए

जोगिया बजाय बैन बाँसुरी

जोगिया ने छाई जंगल झोंपड़ी

जोगन ने छाया है बिदेस

सुनो सखी सय्याँ जोगिया हो गए

जोगिया ने पहने लाल लाल कपड़े

जोगिया ने पहने लाल लाल कपड़े

जोगन के लंबे लंबे केस

सुनो सखी सय्याँ जोगिया हो गए

अब क्या पूछते हो गर्म पकवान आ रहा है, खा रहे हैं झूला झोल रहे हैं। कोई अंदर से की गोली मुँह में दबाए है। किसी के मुँह में सुहाल का टुकड़ा है। किसी के हल्क़ में बेसन की फुल्की फंस गई है। सांस रुक रहा है। मगर मल्हार है कि चल रहा है। मेंह बरस कर निकल गया था, फिर भी पानी की बूँदें दरख़्तों पर से टप टप गिर रही थीं। उधर बूँद कढ़ाई में गिरी। तेल उड़ा और इधर किसी न किसी के मुँह से उई की आवाज़ निकली। किसी के हाथ पर छींटा पड़ा तो किसी के मुँह पर कोई उई तौबा है कह कर रह गई । कोई कल्ला सहलाती हुई उठ खड़ी हुई दूसरों ने फिर पकड़ ये कह बिठलाया। वाह बुआ। नौज कोई नाज़ुक बन जाये। छींटा पड़ता ही है। यूँ कढ़ाई छोड़कर कोई नहीं उठ खड़ा होता।

बच्चों के झूलों पर कुछ और ही मज़ा था। पकवान की सबसे ज़्यादा खपत यहीं थी। दो झूले तो लड़कों के क़ब्ज़े में थे। बाक़ी लड़कियाँ झूल रही थीं। लड़के तू झूले में खड़े हो वो लंबे लंबे पेंग बढ़ा रहे थे कि ख़ुदा की पनाह। हाँ लड़कियाँ झूलों में छोटी छोटी लाल सब्ज़ पटरियाँ डाले पांव जोड़े झोल रही थीं। वो बेसुरा मल्हार चल रहा था कि वाह जी वाह। किसी की तान किधर जाती थी, किसी की किधर। लड़ाई भी होती जाती थी कि लो बुआ बस उतरो बहुत झूल चुकीं अब हमारी बारी है लेकिन गाने का सिलसिला न टूटता था। गीत भी बड़े मज़े का था ज़रा सुनिए:

अम्माँ, उड़ो जामुन घुले धरे

अम्माँ , मैं नहीं खाती मेरी माँ

अम्माँ ,तत्ता पानी भरा धरा

अम्माँ , मैं नहीं नहाती मेरी माँ

अम्माँ ,धानी जोड़ा सिला धरा

अम्माँ, मैं नहीं पहनती मेरी माँ

अम्माँ भाई भावज मिलन खड़े

अम्माँ, मैं नहीं मिलती मेरी माँ

ग़रज़ फूफा फूफी से लगा मामाओं और अनाओं तक सब मिलने को खड़े हैं। मगर लड़की किसी से मिलने का नाम नहीं लेती। आख़िर तान इस पर टूटी थी कि:

अम्माँ साजन डोला लिए खड़ा

अम्माँ मैं नहीं जाती मेरी माँ

यहाँ तो ये हो रहा था और वहाँ झरना पर कुछ और ही बहार थी। बादशाह सलामत झरना से निकल अमरैयों में आए और इधर शहज़ादियों ने  किवाड़ बंद कर ढीले पाइंचे उतार तंग पाइजामे पहन धम से झरना में ग़ोता मारा। कोई डुबकियाँ लगा रही है कोई तैर रही है कोई कमर कमर पानी में खड़ी छींटे लड़ रही है। बच्चे उथल नहरों में खड़े ऊधम मचा रहे हैं। कुछ हौज़ के सेह दर्रे दालान में खड़ी नहा रही हैं। कुछ फिसलवाँ पत्थर से फिसल रही हैं। नीचे गिर कर क़लाबाज़ियाँ खाती हैं। कीचड़ में लत-पत होती हैं। हौज़ में आ कर कूद पड़ती हैं। नहाने वालियाँ ग़ुल मचाती हैं कि निकलो सारा पानी गदला कर दिया। ग़रज़ हर एक अपने अपने रंग में ऐसा मस्त था कि दुनिया-ओ-माफ़ीहा की ख़बर न थी। इतने में पर्चा लगा कि हज़रत जहाँ-पनाह नाज़िर के बाग़ तशरीफ़ ले जा रहे हैं अब क्या था सबने पानी में से निकल झटपट कपड़े बदले बच्चों को घसीट घसीट कर नहरों में से निकाला। ये उधर उनके कपड़े लेने गईं और इधर वो धम से फिर नहर में कूद गए। बड़ी मुश्किल से बच्चों को पोंछ पाँछ कपड़े बदलवाए।झरना के दरवाज़े खुल गए। सब के सब वहाँ से निकल अमरैयों में आए थोड़ा बहुत झूला झूला, पकवान खाया और नाज़िर के बाग़ का रास्ता लिया।

नाज़िर का बाग़ झरना से क़रीब ही है।मुहम्मद शाह बादशाह के नाज़िर रोज़-अफ़्ज़ूँ ने बनवाया था। अमरैयों के सामने ही इस का बड़ा दरवाज़ा है। दरवाज़ा पर ये तारीख़ कंदा है:

पय-ए-तारीख़-ए-सालश गुफ़्त हातिफ़

फ़िदा-हा-ए-बुवद बिल्लाह मुबारक

बाग़ के गिर्द पुख़्ता चारदीवारी है। अंदर चारों तरफ़ संग-ए-सुर्ख़ की चार बारा-दरियाँ और बीच में एक ‘आलीशान बड़ी ख़ूबसूरत बारा-दरी है। बीच की बारा-दरी के चारों तरफ़ चार हौज़ हैं। इन हौज़ों में कई कई फ़व्वारे हैं ।झरना का पानी इस बाग़ में आता है। इन चारों हौज़ों से चार नहरें निकाली हैं थोड़ी दूर नहर गई और दूसरे हौज़ में गिर गई। इस से निकली तीसरे हौज़ में जा गिरी। इसी तरह हौज़ों में से ये नहरें होती हुई और सामने की बारह-दरियों के बाहर घूम कर बाहर निकल जाती हैं । इन नहरों की वजह से बाग़ के चार हिस्से हो गए हैं। नहरों के दोनों किनारों पर चलने फिरने के लिए पुख़्ता रविशें हैं। इस के बा’द घास के तख़्ते। इन दरख़्तों से मिली हुई फूलों की कियारियाँ और कियारियों के बा’द घने साया-दार दरख़्त। शुरू’ भादों था। आम के पेड़ों पर-बहार थी। गोंदनी की तरह लदे हुए थे। भला ब-ग़ैर इजाज़त के कौन हाथ लगा सकता था। डरते डरते बादशाह सलामत से इजाज़त चाही। इजाज़त मिलनी थी कि सब के सब दरख़्तों पर टूट पड़े। आधे खाए आधे फेंके। गुठलियाँ चलीं। छिलके चले।थोरी देर में नए कपड़े ‘अजीब शान के हो गए। बारह दरी के हौज़ों में फिर सब जाकर नहाए कपड़े बदले। ख़ास्सा पर आकर बैठे। मगर कैसा खाना और कहाँ का खाना पकवान और आमों से पेट भर चुके थे। मुँह झूटालने को बैठ गए थे। ज़रा सी देर में दस्तर-ख़्वान बढ़ गया। उस के बा’द सब हैं और वही आमों के दरख़्त। शाम तक कई कई कई जोड़े बदल गए ग़रज़ कि सारा का सारा दिन उसी झरना , अमरैयों और बाग़ के फेर में गुज़र गया। शाम को जंगली महल में आकर वो लंबी तानी कि सुब्ह की ख़बर लाए।

दूसरे दिन क़ुतुब साहब की लाठ, ‘अलाई दरवाज़ा , इमाम-ए-ज़ामिन के मक़बरे, भीम की छटंकी, कड़वे मीठे नीम और बारह बादशाहों की क़ब्रों का चक्कर रहा

तीसरे रोज़ चहल तन चहल मन, बकाउली के क़िला’, जमाली कमाली के मज़ार और अंधेरे बाग़ की सैर की। ग़रज़ तीन दिन में सारा क़ुतुब छान मारा। थक कर चूर हो गए। फिरते फिरते पाँव में छाले पड़ गए। तब कहीं जाकर थल से बैठे। चौदहवीं तारीख़ भी आ गई थी। सिर्फ़ जंगली महल और मज़ार-ए-बाबर की कोठी क़िला’ वालों के पास रही बाक़ी सारे क़ुतुब पर दिल्ली वालों का क़ब्ज़ा हो गया।

दिल्ली वाले सैर का इंतिज़ाम तो पूरे साल करते रहते हैं। हाँ तारीख़ मुक़र्रर होने के बा’द इस में ज़रा तेज़ी आ जाती है। उधर तारीख़ मुक़र्रर हुई और इधर कार- ख़ंदारों (कारख़ाना-दारों) के हाँ बिपत पड़ी। हसब-ए-मक़दूर सबने इसमें चंदा दिया। ये तो क़ुतुब में खाने पीने का ख़र्च हो गया। अब रहे दूसरे ख़र्च वो तुम जानो और तुम्हारा काम जाने। जी चाहे उठाओ जी चाहे न उठाओ। तेरह तारीख़ से दिल्ली ख़ाली होनी शुरू’ हुई। अजमेरी दरवाज़ा से लगा क़ुतुब तक दुकानें लग गईं। अमीरों की पालकियाँ जा रही हैं। रन्डियों की रथें निकल रहीं हैं। एक रथ ऐसी कि नज़र लगे। मख़मल की बुर्जी उस पर ज़रदोज़ी के फूल, ऊपर सुनहरी कलस, अत्लस के फुंदने, कलाबत्तू की डोरियाँ ,सफ़ेद बुराक़ पहने। उस पर रंगीन बेल बूटे। उन पर ज़रदोज़ी, काम की झूलें, गले में चांदी के घुँघरू,सींगों पर सिंगोटियाँ, रेशम की नाथें। अंदर बना-ओ-सिंगार किए रंडियाँ बैठी हैं। एक रथ निकल गई। दूसरी आई निकल गई। दिल्ली के शुरफ़ा घोड़ों पर सवार, मख़मल की कारचोबी, ज़ीन-पोश लैसें टकी हुई लगामें, गंगा जमुनी गहना पहने हुए घोड़े, रंगी और गुँधी हुई अयालें, रेशमी बागडोर थामे साईस, उनके साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ कपड़े,छोटी छोटी सुर्ख़ पगड़ियाँ, एक हाथ में बागडोर दूसरे में चौहरी सवार हैं कि शहसवारी के अंदाज़ दिखाने चले जा रहे हैं। ग़रीबों का कुछ ‘अजीब रंग है। सिर्फ़ एक तोहमत बंधी है। न जिस्म पर कुर्ता है न सर पर टोपी न पांव में जूती। हाँ सिर पर एक छोटा सा मटका औंधाए हुए सरपट अड़े जा रहे हैं।अब ये न पूछो कि इस मटके में क्या है। बस ये समझ लो कि सैर का सारा ज़ख़ीरा इसी मटके में है। तोहफ़ा ।तोहफ़ा कपड़े हैं। लैसदार कारचोबी टोपी है। लिप्वाँ सलीम-शाही जूती है। रुपये हैं पैसे हैं बिछौना है। ग़रज़ सब ही कुछ भरा है। मटके में इसलिए रखा है कि भीग न जाये। तरकीब अच्छी निकाली है सामान का सामान बचा और मटका क़ुतुब में आया।

तेरहवीं की सुब्ह से जो ये लाइन लगी तो कहीं चौदहवीं की शाम को जा कर ख़त्म हुई। सारी दिल्ली ख़ाली हो गई। शायद ही कोई घर होगा जिसमें कोई मर्द या बच्चा रह गया हो।

अब रहीं ‘औरतें तो उन्होंने दिल्ली में सैर मनाई। सब्ज़ी मंडी निकल गईं। बाग़ों की सैर की। झूले डाले कढ़ाइयाँ चढ़ाईं। आम खाए। हौज़ों में नहाईं। ग़रज़ दिल के पूरे अरमान निकाल लिए। शाही हुक्म था कि सरकारी बाग़ में दिल्ली वालियाँ जाएँ  तो जाने दो। पर्दा करा दो । बाहर पहरे लगा दो कि कोई मर्दाना न जा सके। आगे ये जानें और बाग़ जाने। उन्होंने भी दो रोज़ में सारे बाग़ों को लंडूरा कर दिया। आमों की गुठलियों और छिलकों के ढेर लगा दिए। दिन में कई कई दफ़ा’ उठाए जाते और फिर वही पहाड़ के पहाड़ लग जाते।

सैलानियों ने पहले तो क़ुतुब में अपने लिए कोने तलाश किए। भला क़ुतुब में ठहरने के लिए जगह की क्या कमी थी। सरकारी डेरे थे शाही मकानात थे। पुराने खंडर थे। उमरा तो अपने मकानों में जा ठहरे। रुपये पैसे वालों ने सड़क के दोनों तरफ़ जो कोठे थे किराया पर ले लिए ग़ुरबा कुछ तो डेरों और सरकारी मकानात में जा पड़े। कुछ झरना में जा ठहरे। कुछ नाज़िर के बाग़ में उतर गए लेकिन जिनको क़ुतुब का लुत्फ़ उठाना था उन्होंने आसमान के नीचे डेरा किया। मेंह बरसता है बरसने दो। यही क़ुतुब की बहार है।

महरौली के बाज़ार की कुछ न पूछो उस सिरे से इस सिरे तक सारा आईना-बंद था। दुनिया-भर के सौदे वालों की दुकानें लग गईं। मेवे मिठाइयाँ और खिलौनों से बाज़ार पटा पड़ा था एक तरफ़ हलवाइयोँ के हाँ पूरियाँ, कचौरियाँ ,बेवड़ियाँ अंदर से और सुहाल तले जा रहे थे, तो दूसरी तरफ़ कबाबों पराठों , बिरयानी, मुज़ा’फ़र और मुतंजन की ख़ुशबू से सारा बाज़ार महक रहा था। गाहक हैं कि टूटे पड़े हैं। लिया  खाया, पत्ते वहीं फेंक आगे बढ़े, पन-वाड़न की दुकान पर पहुंचे। बी पन-वाड़न हैं कि बालों में तेल डाले ,कंघी किए, आँखों में सुर्मा लगाए दाँतों में मिस्सी मले बड़े ठाठ से बैठी पान बना रही हैं। देसी पान लाल लाल साफ़ियों में लिपटे सामने धरे हैं। पान बन रहे हैं। मज़ाक़ हो रहा है। यार लोगों ने पान लिए। ख़ुद खाए, दूसरों को खिलाए। पीक थूकी। आगे बढ़े। फूलो वालों की दुकानों से गजरे लिए। गले में डाले। साक़ी के पास ठहर दो-दम हुक़्क़े के मारे एक दो पैसे दिए आगे क़दम बढ़ाया। साक़ी का रंग भी आज कुछ नया है। हुक़्क़ा क्या है तमाशा है कोई गज़ भर ऊँचा नीचा ।उस पर इतनी बड़ी चिलम कि डेढ़ पाओ तंबाकू आए। ने है कि यहाँ से वहाँ तक चली गई है ने को सँभालने के कई कई घोड़ियाँ दे रखी हैं। ने पर ख़स चढ़ा है।ऊपर मोतिया और चंबेली की लड़ियाँ लिपटी हैं घोड़ियों के ऊपर रौशनी के छोटे छोटे गिलास लगे हैं। ख़ुद भी सफ़ेद कपड़े पहने सब्ज़ बनारसी सेला बाँधे। लाल टपका लपेटे खड़े हुक़्क़ा पिला रहे हैं कोठे वालों को पिलाना हुआ तू ने सीधी कर दी। उन्होंने भी दो कश खींच लिए इधर किसी ने मुहनाल पर होंट रखे और उन्होंने शे’र पढ़ने शुरू किए:

हुक़्क़ा जो है हुज़ूर-ए-मु’अल्ला के हाथ में

गोया कि कहकशाँ है सुरय्या के हाथ में

शाम होते होते बाज़ार इतना भरा कि तिल रखने को जगह न रही।

थाली फेंको तो सरों पर जाये। मग़रिब के बा’द ही झरना से नफ़ीरी की आवाज़ आई। लीजिए पंखा उठा। अब हर शख़्स है कि झरना की तरफ़ जा रहा है। कुछ जा रहे हैं कुछ वापस आ रहे हैं। रेला पर रेला पड़ रहा है। जो ज़रा दम-ख़म वाले हैं वो इन झटकों को सीना और पुश्त पर सह रहे हैं। जो ज़रा कमज़ोर हैं वो ये कह कर एक तरफ़ हट जाते हैं कि अरे भई जाने भी दो कौन इस बला में । आगे चल कर पंखा देख लेंगे।

पंखा झरना से उठा शम्सी तालाब से होता हुआ महरौली की सड़क पर आया यहाँ पहले ही से मिश’अलें, लालटेनें, गिलास, हान्डियाँ , फ़ानूस और दीवारगिरीयाँ जल चुकी थीं। रौशनी ऐसी थी गोया दिन निकला हुआ है। अब पंखे का जुलूस बाज़ार में से गुज़रना शुरू’ हुआ। आगे आगे ढोल ताशे वाले रुपहली ठप्पा, टके हुए सब्ज़ कुर्ते लैस लगी हुई गोल लाल टोपियाँ, किसी के गले में ढोल, किसी के गले में ताशा, हाथों में चोबें, धूँ-धूँ करता इस तरह गुज़रा कि सब के कान गुंग कर दिए। उनके पीछे दो झंडे ज़रबफ़्त के फरेरे। मुक़य्यश के फुंदने, कलाबत्तों की डोरियाँ। झंडों के सरों पर रंग बि-रंग के शीशों की हश्त पहल लालटेन, एक लालटेन के सिरे पर सुनहरा हिलाल दूसरे पर रुपहली चक्कर, इनके बा’द शरफ़ुल-हक़ कोतवाल का घोड़ा। अर्दली में पुलिस वालों का पहरा। उनके पीछे नौबत-ख़ाना का तख़्त। तख़्त क्या है पूरी बारह-दरी है। तख़्तों के ऊपर बाँसों की बारह-दरी खड़ी कर, काग़ज़ों के फूलों से सजा, दर्रों में गेंदई पर्दे डाल डोरियों से कस दिए नौबत वाले अंदर जा बैठे। तख़्त को कहारों ने उठाया और ये ख़ास्सा मकान का मकान जुलूस के साथ चलने लगे। नौबत-ख़ाना के पीछे अखाड़े। हर अखाड़े के साथ एक उस्ताद, बीस बीस पच्चीस पच्चीस शागिर्द। नपे हुए तैयार जिस्म ,चौड़े चौड़े सीने, पतली पतली कमरें, जिस्म पर चुस्त जांघिए , गले में सोने के छोटे छोटे ता’वीज़ कोई बेंटी का चक्कर बांध रहा है। कोई लेज़म हिला रहा है कोई तलवार के हाथ निकाल रहा है। कहीं मुक़ाबला हो रहा है कहीं बानक और बिनौट के करतब दिखाए जा रहे हैं। ग़रज़ दूर तक अखाड़े ही अखाड़े फैले हुए थे उनके पीछे नफ़ीरी वाले और अन्य साथ दिल्ली के सक़्क़े। सफ़ेद बुराक़ कपड़े पहने लाल लुंगियाँ कमर से लपेटे सब्ज़ सेले सरों पर बाँधे हाथों में मंझे मंझाए पीतल के कटोरे लिए नफ़ीरी और जोड़ी के साथ कटोरों की आवाज़ मिलाते चले आ रहे थे। नफ़ीरी वालों के बा’द डंडे वालों की संगतें थीं। हाथों में लाल सब्ज़ डंडे, पंद्रह बीस का हलक़ा। बीच में तबला सारंगी वाले ताल सुर पर डंडों की खटाखट अ’जीब मज़ा दे रही थी उनके पीछे तख़्त-ए-रवाँ। तख़्तों पर रंडियाँ भारी भारी पिशवाज़ें पहने,कारचोबी दुपट्टे ओढ़े पांव में घुंघरु बांधे छमछम नाच  रही हैं। उनके बा’द अंग्रेज़ी बाजा और तुर्क सवारों का रिसाला। सुर्ख़ बानात की वर्दियाँ उनमें सफ़ेद बानात के कफ़ और कालर। शानों पर फ़ौलादी जाल। पांव में काली बुर्जें। लुक के चमड़े के ऊंचे बूट । सर पर सुर्ख़ मुंडासे हाथों में लंबे लंबे बरझे लिए आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रहे हैं। सवारों के पीछे शाही रौशन चौकी और सैलानियों का इज़्दिहाम। सब के साफ़ सुथरे कपड़े कारचोबी टोपियाँ। मदाख़िल टके हुए, नीचे चोली के अंगरखे। सलीम शाही जूतीयाँ।उनके बा’द  पलटन की चार क़तारें, कम ‘उम्र गोरे गोरे लड़के, सर पर धानी मुंडासे। मुंडासों पर छोटी छोटी कलग़ियाँ। सब्ज़ अत्लस के कोट। सफ़ेद अत्लस की कसी हुई बर्जिसें स्याह चमड़े के अंग्रेज़ी जूते। हाथों में सब्ज़ फरेरों के छोटे छोटे नेज़े बड़ी आन बान से क़दम मिलाते चल रहे हैं। उनके पीछे दिल्ली के शुरफ़ा और ‘अमाइद का हुजूम। नीची नीची क़बाएँ और चोग़े । हिंदुओं के सरों पर छोटी छोटी गेंदई पगड़ियाँ। मुसलमानों के सरों पर ज़ा’फ़रानी ‘अमामे और चौ-गोशा टोपियाँ, हाथों में रंग बि-रंग की हज़ीलें।हश्शाश बश्शाश चेहरे गले में फूलों के कंठे। हाथों में मौलसिरी की लड़ियाँ। मौसम का लुत्फ़ उठाते मेला की रौनक़ बढ़ाते ख़िरामाँ ख़िरामाँ चले आ रहे हैं। उनके बादशाही शहनाई नवाज़ों का गिरोह नफ़ीरी के कमाल दिखाता, मौसम की चीज़ें सजाता , ख़ुद भी अपने कमाल के मज़े उठाता पंखे के साथ साथ है। सबसे आख़िर में पंखा और पंखे के पीछे फूल वालों का ग़ोल।

भला इस जुलूस को देखो और पंखे को देखो। बाँस की खिंचियों का बड़ा सा पंखा बना, पन्नी चढ़ा आईने लगा, फूलों से सजा एक रंगीन बाँस पर लटका दिया था। ये पंखा न था बल्कि जोश-ए-मोहब्बत और यगानगत का निशान था,जिसने छोटे बड़े मुसलमानों, ग़ुरबा,उमरा,ग़रज़ हर क़ौम-ओ-मिल्लत और हर तबक़े की रि’आया को एक जगह जमा’ कर दिया था और ख़ुद बादशाह को क़िला से निकाल महरौली में ले आया था , ये पंखा न था बल्कि ‘अक़ीदत और मुहब्बत के मुज़ाहरों का मरकज़ था । और य महरौली न थी बल्कि लगन था इस में ख़ुद बादशाह शम्’अ  और रि’आया उनके परवाने।

ग़रज़ ख़िल्क़त का ये हुजूम फुवार में भीगता, ख़स के पंखे झलता आहिस्ता आहिस्ता महरौली की सड़क पर से गुज़रा। बाजा वाले और नफ़ीरी वाले हर कमरा के सामने ठहरते एक-आध चीज़ सुनाते इन’आम लेते । आगे बढ़ते। होते होते ये जुलूस शाही दरवाज़ा के सामने पहुंचा। बादशाह सलामत ऊपर की बारह दरी में बरामद हुए। बेगमात के लिए चिलमनें पड़ गईं। अब सारी भीड़ सिमट सिमटा कर बाब-ए-ज़फ़र के सामने आ गई। फाटक के सामने बड़ा खुला मैदान था , यहाँ बाजे वालों ने अपने कमाल दिखाए , अखाड़े वालों ने अपने करतब दिखाए , सक़्क़े ने कटोरे बजाए , डंडे वालों ने अपने हाथ दिखाए।रन्डियों ने अपना नाच दिखाया। सबको हसब-ए-मरातिब इन’आम मिला। किसी को सबद मिला किसी को दो-शाला मिला, किसी को मिंदील मिली, किसी को कड़े मिले , इतने में पंखा भी सामने आ गया , शहर के शुरफ़ा और उमरा मुजरा बजा लाते , ऊपर से सारे मजमा पर गुलाब-पाशों से गुलाब और केवड़ा छिड़का गया , ‘इत्र और पान से तवाज़ो’ की गई । बादशाह के इशारा करते ही वली-‘अहद बहादुर नीचे उतर गए , लोगों के गलों में कंठे डाल कर सबको रुख़्सत किया , यहाँ से सलातीन-ज़ादे और शहज़ादे भी जुलूस के साथ हो गए कोई बारह बजे होंगे कि पंखा जोग माया जी पहुँच गया।

ये मंदिर क़ुतुब साहब की लाठ से कोई दो ढाई सौ क़दम पर है। बड़ी लंबी चार-दीवारी हैं , कोनों पर बुर्जियाँ हैं , इहाता के अंदर20-22 ‘इमारतें और बीच में देवी का स्थान है , कहते हैं कि ये देवी किशन जी की बहन थीं बिजली बन कर अलोप हो गईं , और यहाँ आन पड़ीं। राजा युधिष्ठिर ने मंदिर बनवाया मंदिर ज़मीन के बराबर हो गया था , फूल वालों की सैर शुरू हुई तो अकबर शाह सानी के ईमा से लाला सीडूमल ने नया मंदिर बनवाया ।रफ़्ता-रफ़्ता और ‘इमारतें भी अंदर बन गईं अब ये ख़ासी आबाद जगह हो गई है । इस मंदिर की ख़ुसूसियत ये है कि इस के अंदर पलंग या चारपाई नहीं सकती।

कोई एक बजे लोग पंखा चढ़ा कर वापस हुए , दूसरे दिन दरगाह शरीफ़ का पंखा भी इसी धूम से उठा , बाब-ए-ज़फ़र के सामने आकर ठहरा ।बा’ज़ मुसाहिबों ने कोशिश की कि बादशाह सलामत को भी पंखे के साथ दरगाह शरीफ़ में किसी न किसी तरह ले चलें । मगर बादशाह किसी तरह इस पर राज़ी न हुए। अम्माँ ये कैसे हो सकता है कि जब मैं जोग माया जी के पंखे के साथ नहीं गया तो अब इस पंखे साथ कैसे जाऊं। तुम्हारे हिंदू भाई क्या ख़्याल करेंगे। कहेंगे कि मुसलमान था मुसलमानों के पंखे में शरीक हो गया, हमको ग़ैर समझा इसलिए झरोकों से नीचे भी नहीं आए। ना अम्माँ ना! जैसा एक के साथ करना वैसा दूसरे के साथ करना, शहज़ादे पहले भी गए थे अब भी जाऐंगे। आतिशबाज़ी में हिंदू मुसलमान सब ही शरीक होते हैं वहाँ हम भी चलेंगे”।

ख़ैर दरगाह शरीफ़ तो क़रीब ही थी लोग दस बजे पंखा चढ़ा कर फ़ारिग़ हो गए और यहाँ से निकल सीधे शम्सी तालाब पहुंचे। थोड़ी देर में बादशाह सलामत की सवारी भी आ गई। बेगमात के लिए जहाज़ पर चिलमनें पड़ गईं। वो अंदर जा बैठीं। बादशाह सलामत ने महताबी पर जुलूस क्या । मुसाहिबों और दिल्ली के अक्सर उमरा को ऊपर बुला लिया गया । सारे सैलानी तालाब के किनारे जम गए। तालाब में सैकड़ों कश्तियाँ , निवाड़े  और बजरे पहले ही से थे। आधों में शाही आतिशबाज़ सवार हो कर एक तरफ़ चले गए। बाक़ी में दिल्ली के आतिशबाज़ और शौक़ीन बैठ कर दूसरी तरफ़ गए। बादशाह सलामत का आना था कि दोनों पार्टियाँ मुक़ाबला को तैयार हो गईं।

थोड़ी देर न गुज़री थी कि जहाज़ पर महताबी छटी। महताबी का छटना था कि मैदान-ए-कार-ज़ार गर्म हो गया। सबसे पहले ग़ुब्बारे छोड़े गए। और ज़रा सी देर में आसमान पर हज़ारों चाँद और सूरज निकल आए। उनसे फ़राग़त हुई तो जंगी आतिशबाज़ी का नंबर आया। हवाईयाँ चहके। लट्टू और ख़तंगे चले। हवाइयों की शाएँ शाएँ ,चहकों की ग़ाएं ग़ाएं , लट्टुओं की धाएं धाएं, ख़तंगों की  ज़ाएं ज़ाएं और क़ल्मों की साएँ साएँ से बस ये मा’लूम होता था कि कोई बड़ी जंग हो रही है उधर आसमान पर मुक़ाबला हो रहा था इधर पानी पर आतिशबाज़ी के बजरे। छोटे बजरे क्या थे छोटे छोटे जहाज़ थे। तोपों की जगह महताबियाँ और छचुदरें, गोलों की जगह चक्कर और ख़तंगे मस्तूलों की जगह नाव। आदमियों की जगह मिट्टी के सिपाही, पेट में बारूद नाफ़ में छचुंदर, इस सिरे से उस सिरे तक शिताबा का सिलसिला, इधर से दिल्ली वालों के बजरे चले उधर से क़िला’ वालों के बजरे आए। बीच तालाब में पहुंच कर धूवाँ-धूँ होने लगी। समुंद्र की लड़ाई का मज़ा आ गया। आतिशबाज़ी की चमक से सारा तालाब और किनारे रौशन हो जाते थे और पानी में रौशनी के ‘अक्स, कश्तियों के साए, आतिशबाज़ों के नंगे नंगे जिस्म, किनारों पर ख़िल्क़त के हुजूम, उनके ग़ुल आतिशबाज़ी के ‘अक्स से उनके ज़र्द ज़र्द चेहरों और ऊपर धूएँ के बादलों ने एक ‘अजीब ख़ौफ़नाक मंज़र पैदा कर था।

ये सिलसिला ख़त्म होते ही महताबियों, आफ़ताबियों, अनारों, सहरों, जाए-जूईयों ,हत फूलों और चर्ख़ियों का मुक़ाबला शुरू’ हुआ। और फिर आहिस्ता-आहिस्ता दोनों तरफ़ की कश्तियाँ सिमट कर बिलकुल जहाज़ के सामने आ गईं। यहाँ उस्तादों ने अपने हुनर के कमाल दिखाए। नसरी छोड़ी तो ऐसी कि लौट कर सौ-सौ दफ़ा’ उठे और रह-रह कर सांस ले बताशा अनार ऐसे कि कई कई सौ गज़ा ऊंचे जाएं। और पंज रंगी फूल दें, और फिर ये मज़ा कि हथेली पर छोड़ लो क्या मजाल जो चर्का लगे। बड़े अनार जो उठे तो जहाज़ से ऊंचे निकल गए। पस ये मा’लूम होता था कि सर्व के दरख़्तों को आग लगा कर कश्तियों में खड़ा कर दिया है। और उनमें से रंग-बिरंगी फूल झड़ रहे हैं। दम इतना कि ख़त्म होना ही न जानें। कमाल ये कि कपड़े पर धब्बा न दें। आतिशबाज़ी की रौशनी से तो ये नज़र आता था कि सारे का सारा पानी सोने का हो गया है। और इस के ‘अक्स से ये मा’लूम होता था कि किसी ने तालाब में आतिशीं बाग़ लगा दिया है।

ग़रज़ दो बजे के क़रीब आतिशबाज़ी ख़त्म हुई। बादशाह की तरफ़ से शाल दो-शाले और नक़्द तक़सीम हुए। कहीं तीन बजे जाकर लोगों को फ़ुर्सत हुई । सब अपने अपने ठिकानों पर जा पड़े। बादशाह सलामत की सवारी रात ही को क़ुतुब से निकल गई। और रौशन चिराग़ दिल्ली होती हुई तीसरे पहर तक दिल्ली आ गई। दूसरे रोज़ लोगों ने सुब्ह ही सुब्ह उठ मेवे मिठाईयाँ पराठे छल्ले और खिलौने ख़रीदे। ठंडे ठंडे निकल अपने घरों का रास्ता लिया। शाम तक महरौली सुनसान और दिल्ली आबाद हो गई।

देख लिया आपने फूल वालों की सैर का मज़ा। और अब की क्या पूछते हो। ग़द्र हुआ दिल्ली तबाह हुई। बादशाह रंगून पहुंचे। बंधन टूट गया। तीलियाँ बिखर गईं। बंधन अब भी है। मगर वो मुहब्बत का बंधन था और ये क़ानून का बंधन है। ज़रा कुछ बात हुई और चल भैया ‘अदालत में। बात ये है कि फूल वालों की सैर रि’आया की ‘अक़ीदत और बादशाह की मुहब्बत का मुज़ाहरा थी। बादशाह के बा’द भी चली मगर मरकज़ और यक-जेहतीन होने से ज़ोर घटता गया। अब पाँच छः बरस से बिलकुल बंद है। अगर यही लैल–ओ-नहार हैं और दिलों की कुदूरत का यही हाल रहा तो हमेशा के लिए इस को बंद ही समझो।

अब हमनशीं मैं रोऊँ क्या अगली सोहबतों का

बन-बन के खेल ऐसे लाखों बिगड़ गए हैं

मज़मून ख़त्म हो गया । पढ़ने के बा’द हर शख़्स के दिल में ये ख़्याल होगा कि ये वाक़ि’आत हैं या कोई मन घड़त क़िस्सा।इस के मुत’अल्लिक़ में बा’ज़ बातों की वज़ाहत कर देना मुनासिब समझता हूँ । इस मज़मून में जिस क़दर तारीख़ी वाक़ि’आत या मकानात के नक़्शे हैं उनकी सेहत में तो किसी को शक हो ही नहीं सकता। अलबत्ता बक़िया वाक़ि’आत के मुत’अल्लिक़ दिल में दुगदा पैदा होता है। इसकी ये कैफ़ियत है कि झरने और अमरैयों के वाक़ि’आत का हाल मैं ने उन बुढ़ियों से सुना है जो उन जलसों में शरीक थीं। उस ज़माना की सैर करने वाले अब भी दिल्ली में  मौजूद हैं, वो मेरे एक एक हर्फ़ की ताईद करेंगे , जुलूस की तस्वीर ख़ुद मैंने अपने मुसव्विरी के उस्ताद के हाँ देखी है। मैंने सिर्फ़ ये किया है कि उन वाक़ि’आत को मिला कर रंग भर दिया है । अब रही गुफ़्तुगू तो वो अलबत्ता मेरे ख़यालात का नतीजा हैं , लेकिन ज त’अल्लुक़ात और मुहब्बत रि’आया और बादशाह में थी उस का लिहाज़ करते हुए इस गुफ़्ततुगु को भी मुबालग़ा- आमेज़ नहीं कहा जा सकता । मिस्टर सी एफ़ एंड्रयूज़ की किताब ‘ज़काउल्लाह देहलवी’ उठा कर देख लो मा’लूम हो जाएगा कि जो कुछ मैंने इस बारे में कहा है वो सही है या ग़लत। मिस्टर एंड्रयूज़ मेरे उस्ताद थे मुझे मा’लूम है कि किस तरह बुड्ढे बुड्ढों से मिलकर उन्होंने ग़द्र से पहले के हालात दरियाफ़्त किए हैं और ख़ुद उन पर इस तहक़ीक़ात का क्या असर हुआ है । अब सिर्फ़ एक बात रह जाती है वो ये है कि सन1264 हिज्री का इंतिख़ाब क्यों किया गया। इस की भी एक ख़ास वजह है। सन1264 तक बहादुर शाह की ज़िंदगी में बहुत चैन चान और अमन-ओ-अमान से गुज़री। इस के साल भर बा’द ही से उस बेचारे पर पै दर पै मुसबतें आनी शुरू’ हुई। दारा बख़्त वली-‘अहद का इंतिक़ाल हुआ। मिर्ज़ा फ़ख़रू चल बसे मिर्ज़ा शाहरुख़ मरे। ख़ुद बादशाह को ज़हर दिया गया। जवाँ बख़्त की वली-‘अहद के झगड़े पड़े क़िस्सा मु ख़्वसर ये कि ग़द्र तक इन मुसीबतों ने बेचारे बुड्ढे बादशाह को बिठा दिया। इसी ख़याल से मैंने वो आख़िरी साल लिया है जब बादशाह इन तमाम फ़िक्र और मुसीबतों से आज़ाद थे।

बहर- -हाल ये बुड्ढों की वसी’अत थी जो मैंने आप तक पहुंचा दी। अब चाहें आप इस को क़ुबूल करें या न करें।

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