हज़रत शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल

हज़रत शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल साहिब-ए-दिल थे, आप साहब-ए-कश्फ़-ओ- करामात,सनद-ए-औलिया और हुज्जत-ए-मशाएख़-ए-वक़्त,मुशाहिदात-ओ- मक़ालात-ए-‘आली में यकता,तमाम मशाएख़-ए-वक़्त के कमालात-ए-सुवरी-ओ- मा’नवी के मक़र्र थे। आप हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर के हक़ीक़ी भाई, मुरीद और ख़लीफ़ा थे।


ख़ानदानी हालात:

आप फ़र्रूख़ शाह के ख़ानदान से थे, फ़र्रूख़ शाह काबुल के बादशाह थे, जब गज़नी ख़ानदान का ऊ’रुज हुआ, फ़र्रूख़ शाह के हाथ से हुकूमत निकल गई, काबुल पर ग़ज़नी ख़ानदान का क़ब्ज़ा हुआ,इस इंक़िलाब के बा’द भी फ़र्रूख़ शाह ने काबुल नहीं छोड़ा, उनकी औलाद भी काबुल में रही, चंगेज़- ख़ाँ ने ग़ज़नी को तबाह-ओ-बर्बाद किया, हज़रत नजीबुद्दीन मुतवक्किल के जद्द-ए-बुज़ुर्गवार काबुल की लड़ाई में शहीद हुए ।


आपके दादा हज़रत काज़ी शोऐब फ़ारूक़ी मआ तीस लड़कों के साथ लाहौर आए, लाहौर से आप क़सूर गए, क़सूर का काज़ी आपके ख़ानदान की बुज़ुर्गी और अ’ज़मत से वाक़िफ़ था, उस ने आप के आने की इत्तिला’ बादशाह को दी । बादशाह ने आप को टेसवाल में क़ाज़ी मुक़र्रर किया, आप वहाँ रह कर अपने फराएज़ अन्जाम देने लगे, ये भी कहा जाता है कि आप के वालिद माजिद सुल्तान शिहाबुद्दीन ग़ौरी के अ’हद में मुल्तान तशरीफ़ लाए, आप मुल्तान से क़सबा कोन्थवाल में रौनक़-अफ़रोज़ हुए, और वहाँ क़ाज़ी के ओ’हदे के फ़राइज़ अंजाम देने लगे, वहाँ आप ने शादी की।

वालिद माजिदः

आप के वालिद माजिद का नाम शैख़ जमालुद्दीन सुलैमान है, आप अमीरुल मुमिनीन हज़रत उमर फ़ारुक़ की औलाद में से हैं, इ’ल्म व फज़्ल में आप को दस्तगाह हासिल थी।


वालिदा माजिदाः

आप की वालिदा माजिदा का नाम बीबी क़ुरसुम ख़ातून है, आप मौलाना वजीहुद्दीन ख़ुजंदी की लड़की थीं, आप एक पाक-निहाद, पाक-सीरत और पाक-बातिन ख़ातून थीं, आप से करामतें सर-ज़द हुई हैं, एक रात का वाक़िआ’ है कि आप की वालिदा इ’बादत में मशग़ूल थीं, एक चोर घर में दाख़िल हुआ, उस पर आप की वालिदा माजिदा की ऐसी दहशत बैठी कि वह अन्धा हो गया, चोर बहुत घबराया, उस ने आवाज़ दी कि ‘‘मैं चोर हूँ और चोरी के लिए इस घर में आया हूँ, अलबत्ता यहाँ कोई है जिस
की दहशत ने मुझे अन्धा किया, अ’हद करता हूँ कि अगर बीनाई आ जाए तो फिर चोरी न करुँगा। आप की वालिदा साहिबा ने यह सुन कर उस चोर के लिए दुआ’ फ़रमाई, आप की दुआ’ से उस की आँखों में रौशनी आ गई।


भाईः

आप के दो हक़ीक़ी भाई और हैं, आप के बड़े भाई का नाम अइज़्ज़ुद्दीन है, उन से छोटे हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द हैं, सब से छोटे आप ख़ुद हैं।

नसब-नामा-ए-पिदरीः

आप का नसब-नामा-ए-पिदरी हस्ब-ज़ैल है-
शैख़ नजीबुद्दीन बिन शैख़ जमालुद्दीन सुलैमान फ़ारुक़ी बिन शुएैब फ़ारुक़ी बिन शैख़ अहमद बिन शैख़ युसुफ़ फ़ारुक़ी बिन शैख़ मुहम्मद फ़ारुक़ी बिन शैख़ शिहाबुद्दीन बिन शैख़ अहमद अल-मारुफ ब-फ़र्रुख़ शाह काबुली फ़ारुक़ी बिन शैख़ नसीरुद्दीन फ़ारुक़ी बिन सुल्तान महमूद अल-मारुफ ब-शहनशाह फ़ारुक़ी बिन शैख़ शादमान शाह बिन सुल्तान मसऊ’द शाह फ़ारुक़ी बिन शैख़ अ’ब्दुल्लाह फ़ारुक़ी बिन शैख़ वाइ’ज़ असग़र फ़ारुक़ी बिन शैख़ अबुल फ़त्ह कामिख़ फ़ारुक़ी बिन शैख़ इसहाक़ फ़ारुक़ी बिन हज़रत इब्राहीम फ़ारुक़ी बिन नासिर अदलैन फ़ारुक़ी बिन शैख़ अब्दुल्लाह फ़ारुक़ी बिन अमीरुल मुमिनीन हज़़रत उमर बिन अल-ख़त्ताब।


विलादत:

आप क़स्बा कोन्थवाल में पैदा हुए। नाम-ए-नामीः आप का नाम नजीबुद्दन है।


लक़बः

आप का लक़ब मुतवक्किल है, आप के मुतवक्किल कहलाने की वजह यह है कि आप बावजूदे अहल-ओ-अ’याल के तवक्कुल में यगाना-ए-रोज़गार थे, तंग-दस्ती और उ’स्रत में गुज़री थी, ज़ाहिरन असबाब पर निगाह न रखते थे, आप का तवक्कुल मिसाली था।


दिल्ली में आमदः

आप हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊद गंज शकर के हमराह दिल्ली आए, हज़रत बाबा साहब दिल्ली से अजोधन तशरीफ़ ले गऐ लेकिन आप हज़रत बाबा साहब के हुक्म के मुताबिक़ दिल्ली में रहने लगे।


बैअ’त–ओ-ख़िलाफ़त:

आप अपने बड़े भाई हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर से बैअ’त हैं और हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज शकर से आप ने ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त पहना।

मस्जिद में इमामतः

दिल्ली में ऐतम नामी एक शख़्स रहता था, उस ने एक मस्जिद ता’मीर की और उस मस्जिद की इमामत हज़रत शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल के सुपुर्द की और उस शख़्स ने अपनी लड़की की शादी बड़े तुज़्क-ओ-एहतशाम से की और काफ़ी रुपया ख़र्च किया, आप ने उस शख़्स से कहा कि जितना कि उस शख़्स ने ख़र्च किया है अगर उस का निस्फ़ ख़ुदा की राह में ख़र्च करता तो न मा’लूम क्या से क्या हो जाता है, यह बात उस शख़्स को नागवार गुज़री, उस ने आप को इमामत से बर-तरफ़ कर दिया।


हज़रत बाबा साहब को इत्तिलाअ’:

आप ने अजोधन जाकर अपने बड़े भाई हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊद गंज शकर को इस वाक़िआ की इत्तिला’ दी। हज़रत बाबा फरीद ने यह सुन कर फ़रमाया कि:

ماننسخ من اٰیۃِ او نُنسِھاناتٍ بخیرٍمِّنھا او مِثلِھا۔

उसके बा’द आप ने फ़रमाया कि ” अगर तैमरी गया एतकरी पैदा होगा।” उसी ज़माने में एतकरी नाम का एक शख़्स वहाँ आया, उसने इस ख़ानदान की बहुत ख़िदमत की।


हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की आप से अ’क़ीदत:

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया जब दिल्ली तशरीफ़ लाए , तो आपके पड़ोस में सुकूनत इख़्तियार की। उन को आप से काफ़ी अ’क़ीदत थी, अपनी वालिदा माजिदा के विसाल के बा’द हज़रत महबूब-ए-इलाही ज़्यादा वक्त आप की सोहबत में गुज़ारते थे, एक मर्तबा उन्हों ने आप से क़ाज़ी बनने की दुआ’ करानी चाही लेकिन आप ने दुआ’ न की और फ़रमाया कि तुम क़ाज़ी न बनोगे बल्कि और ही कुछ बनोगे ।


एक मर्तबा हज़रत महबूब-ए-इलाही ने आप से मुरीद होना चाहा, आप ने मुरीद करने से इंकार किया और फ़रमाया कि अगर मुरीद होना है तो हज़रत शैख़ बहाऊद्दीन ज़करिया मुल्तानी या हज़रत फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर में से किसी के मुरीद हो जाऐं।
बीबी फ़ातिमा साम की खिदमतः आप एक नेक और बुज़ुर्ग खातून थीं, उन को आप से इंतिहाई मोहब्बत और अ’क़ीदत थी और आप भी उन को बहन समझते थे और उन के हाल पर निहायत शफ़क़त फ़रमाते थे, जब आप के यहाँ फाक़ा होता, दूसरी सुब्ह सेर भर की या आध सेर की रोटियाँ पका कर किसी के हाथ वह भेज देती थीं, एक मर्तबा उस ने सिर्फ़ एक रोटी भेजी, आप ने ख़ुश-तबअी’ के तौर पर फ़रमाया कि “परवरदिगार ! जिस तरह तू ने इस औ’रत को हमारे हाल से वाक़िफ़ किया है, शहर के बादशाह को भी वाक़िफ़ करता कि कोई बा-बरकत चीज़ भेजे“
फिर आप मुस्कुराए और फ़रमाया कि “बादशाहों को वह सफ़ाई कहाँ नसीब है कि वाक़िफ़ हों“ एक सफ़र का वाक़िआ’ हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊद गंज शकर ने अजोधन में सुकूनत इख़्तियार करने के बा’द आप को वालिदा माजिदा के लाने के लिए भेजा, आप गए, रास्ते में आप ने दरख़्तों के साये में बैठ कर आराम किया, पानी की ज़रुरत हुई, जब आप पानी लेकर वापस आये, वालिदा साहिबा को उस जगह न पाया, आप सख़्त हैरान और परेशान हुऐ, वालिदा साहिबा को हर जगह तलाश किया लेकिन कोई पता न चला, आख़िरकार ना-उम्मीद हो कर वहाँ से चले और हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज शकर की ख़िदमत में पहुचँ कर सारा क़िस्सा अ’र्ज़ किया, हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज शकर ने यह सुन कर फ़रमाया कि खाना पकाऐं और सदक़ा दें।
एक मुद्दत के बा’द आप का फिर उसी जंगल से गुज़र हुआ जब आप उसी पेड़ के नीचे आप को ख़याल हुआ कि उस गाँव के चारों तरफ़ जाकर देखें, शायद वालिदा साहब कि पता लग जाए, आप ने ऐसा ही किया, आप को आदमी की चन्द हड्डियाँ मिलीं, आप ने यह ख़याल कर के कि शायद यही हड्डियाँ वालिदा साहिबा की हों और मुमकिन है उन को किसी शेर या किसी दरिन्दे ने हलाक कर दिया हो, उन हड्डियों को जमा’ किया और एक थैले में रखा, वह थैला ले कर आप हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर की ख़िदमत में हाज़िर हुए और सारा क़िस्सा बयान किया, हज़तर बाबा फ़रीद गंज शकर ने यह सुन कर फ़रमाया कि वह थैली दिखाओ और उस को झाड़ा, एक हड्डी भी बरामद न हुई।


हज़रत ख़्वाजा ख़िज़्र से मुलाक़ातः

एक दिन ई’द के मौक़े’ पर आप ईदगाह से घर वापस तशरीफ़ ला रहे थे, लोग आप को घेरे हुऐ थे और आप के हाथ पाँव चूम रहे थे, कुछ दरवेशों ने जिन्होंने आप को पहले न देखा था, दरयाफ्त किया कि यह कौन बुज़ुर्ग हैं, जब उन को आप का नाम मा’लूम हुआ, उन दरवेशों ने आपस में तय किया कि उन के यहाँ चल कर खाना खाना चाहिऐ, वह दरवेश आप के पास आए और कहा कि इन सब के लिए खाना का इन्तिज़ाम कीजिए, आप ने उन को मरहबा कहा और बिठा दिया, उस रोज़ आप के घर में फाक़ा था, आप ने अपनी बीवी से कहा कि अगर कुछ हो तो पका लो, जब आप को यह मा’लूम हुआ कि घर में कुछ भी नही है, आप ने अपनी बीवी से कहा कि चादर सर से उतार कर देदो ताकि रोटी और शोरबा बाज़ार से ख़रीद लाऐं, चादर देखी उस में चन्द पैवंद लगे हुऐ थे, इसे कौन ख़रीदता, फिर आप ने सोचा कि अपना मुसल्ला फ़रोख़्त कर दें, मुसल्ला देखा उस में भी कई पैवंद लगे हुऐ थे, मजबूर हो कर आप ने वही किया, जैसा कि आ’दत-ए-फ़ुक़रा है कि अगर दरवेश साहब-ए- ख़ाना के पास कुछ न हो ता वह पानी का कूज़ा हाथ में ले कर पयान-ए-मजलिस खड़ा हो जाए उन दरवेशों ने थोड़ा थोड़ा पानी पिया और आप से रुख़्सत हुऐ, उन दरवेशो के जाने के बा’द आप अपने हुजरे में तशरीफ़ ले गये, आप ने अपने दिल में कहा कि
‘‘ऐसा ई’द का दिन जावे और मेरे अत्फ़ाल के मुंह पर कुछ तआ’म न जावे और मुसाफ़िर आऐं और ना-मुराद जावें’’
आप इन्ही ख़्यालात में खोये हुऐ थे कि एक शख़्स यह शे’र पढ़ता हुआ ज़ाहिर हुआ।


बा-दिल गुफ़्तम दिला ख़िज़्र रा बीनी
दिल गुफ़्त मरा गर नुमाई बीनम


आप समझ गये कि यह हज़रत ख़्वाजा ख़िज़्र हैं, ता’ज़ीम के लिऐ खड़े हुऐ, हज़रत ख़िज़्र ने फ़रमाया कि क्या शिकायत करते थे, आप ने कहा कि दिल से लड़ाई इस बाबत थी कि घर में कुछ नही, हज़रत ख़िज़्र ने फिर आप से कुछ खाना लाने को कहा, आप ने उ’ज़्र पेश किया, हज़रत ख़िज़्र ने फ़रमाया कि जो कुछ घर में हो ले आओ, आप घर में गये आप ने देखा कि एक ख़्वान खाने से भरा हुआ रखा है, बीवी से दरियाफ़्त करने पर मा’लूम हुआ कि एक शख़्स ये ख़्वान रख कर चला गया, आप उस में से कुछ खाना ले कर आऐ, जब ऊपर आए तो वहाँ कोई न था।
आप ने अपने दिल में कहा कि यह ‘‘सआ’दत जो मुझ को मिली है’’ बे-नवाई और बे-सरओ-सामानी की बरकत से है।
आप की औलादः आप के तीन लड़के थे, एक लड़के का नाम शैख़ इस्माई’ल है, दूसरे का शैख़ अहमद और तीसरे का नाम शैख़ मुहम्मद है।


वफ़ात :

आप हज़रत फ़रीदुद्दीन गंज शकर की ख़िदमत में उन्नीस मर्तबा हाज़िर हुए, आप हर मर्तबा रुख़्सत होते वक़्त हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर से अपने लिये दुआ’ कराया करते थे कि आइंदा फिर ख़िदमत में हाज़िर हों, आख़िरी बार जब आप दुआ’ के ख़्वास्तगार हुए, तो हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर ख़ामोश हो गए।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया फ़रमाते हैं कि जब हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज शकर ने ख़िलाफ़त-नामा अता फ़रमाया, आप को ताकीद की कि हाँसी में हज़रत मौलाना जमालुद्दीन को और दिल्ली में क़ाज़ी मुंतख़ब को ख़िलाफ़त-नामा दिखाऐं, आप को इस बात का सख़्त तअ’ज्जुब हुआ कि आप का या’नी हज़रत शैख़ नजीबुद्दीन मुतवक्किल का नाम हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर ने नहीं लिया, आप समझे इस में कोई मस्लिहत होगी, जब आप दिल्ली आए तो आप को मा’लूम हुआ कि सात रमज़ान को आप का विसाल हो गया, आप का मज़ार दिल्ली में ‘शैख़ नजीबुद्दीन‘शेर-सवार’ के नाम से मशहूर है, आप का मज़ार बीबी ज़ुलेख़ा के मज़़ार के क़रीब दिल्ली में है।


सीरत-:

आप एक बलंद-पाया दरवेश थे, आप ने तवक्कुल का एक आ’ला नमूना पेश किया, आप के इस्तेग़राक़ का ये आ’लम था कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया फ़रमाते हैं कि मैं ने इस जैसा कोई आदमी इस शहर में नही देखा, उसे यह मा’लूम न था कि आज दिन कौन सा है या महीना कौन सा है, या ग़ल्ला किस भाव बिकता है या गोशत किस निर्ख़ बेचते हैं, ग़र्ज़ कि किसी चीज़ से उसे वाक़फ़ियत न थी, सिर्फ़ याद-ए- इलाही में मशग़ूल रहता।


‘‘तू भी अब्दाल में से है’’


इ’ल्मी-ज़ौक़ः

आप ने बारहा चाहा कि ‘जामि’उल-हिकायात’ लिखें, आख़िरकार हमीद नामी एक शख़्स ने किताबत शूरु’ की, वह किताब जल्द ही ख़त्म हुई, पक्का मोमिन वह शख़्स है कि जो दोस्ती-ए-हक़ को औलाद की दोस्ती पर तरजीह दे।


अक़वालः

जब दुनिया हाथ से जाऐ फ़िक्र न कर कि रहने वाली नहीं है।
विर्द-ओ-वज़ीफ़ा: आप हस्ब-ज़ैल दुआ’ पढ़ा करते थे।
ऐमनू फ़ी इबादिल्लाहि रहिमाकुमुल्लाहू

करामतः

आप के बदायूँ में एक भाई थे, आप हर साल उन से मिलने बदायूँ जाया करते थे, एक मर्तबा दोनों भाई शैख़ अ’ली से जो वहाँ एक अमीर ख़ानदान के फ़र्द थे मिलने गए, आप ने अदब की वजह से फ़र्श तक पहुँचने से दो चार क़दम पहले ही अपने जूते उतार लिए, पस पहले आप ने ज़मीन पर पैर रखे और फिर फ़र्श पर जो मुसल्ला था उस पर , शैख़ अ’ली इस बात से रंजीदा हुआ और कहा कि यह बोरिया मुसल्ला है जिस पर दोनों भाई बैठ गए, शैख़ अ’ली के सामने एक किताब रखी थी, आपने दरियाफ़्त फ़रमाया कि ये कौन सी किताब है, शैख़ अ’ली ने बर बिनाए रंजिश कोई जवाब न दिया, आप ने फिर
कहा कि ‘अगर इजाज़त हो तो किताब को देखूँ’
इजाज़त लेकर आप ने वह किताब खोली, जब किताब खोली तो उस में ये लिखा हुआ देखा कि ‘आख़िर ज़माने में ऐसे मशाएख़ होंगे कि ख़लवत में गुनाह करते होंगे और मजलिस में अगर उन के फ़र्श पर किसी का पैर पड़ जाए तो क़यामत कर देंगे’ आप ने वह किताब शैख़ अ’ली को दी, शैख़ अ’ली वह इ’बारत देख कर पशेमान हुआ और उस ने आप से मा’ज़िरत चाही ।

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