बहादुर शाह और फूल वालों की सैर-जनाब मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग देहलवी
सा’दी ’अलैहर्रहमा ने ख़ूब कहा है र’ईयत-ए-चू बीख़स्त-ओ-सुल्ताँ दरख़्त दरख़्त ऐ पिसर बाशद अज़ बीख़ सख़्त ये जड़ों ही की मज़्बूती थी कि दिल्ली का सर-सब्ज़-ओ-शादाब चमन अगरचे हवादिस-ए-ज़माना के हाथों पामाल हो चुका था और हलाकत की बिजलियों पर बाद-ए-मुख़ालिफ़ के झोंकों से सल़्तनत-ए-मुग़्लिया की शौकत-ओ-इक़्तिदार के बड़े बड़े टहने टूट-टूट कर गिर रहे… continue reading