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मधुमालती के अली मंझन शत्तारी राजगीरी

हज़रत इमाम हसन के वंश में से एक सूफ़ी हज़रत मीर सय्यद मोहम्मद हसनी बग़दाद से ख़ुरासान और ख़ुरासान से भारत आए और यहीं बस गए। आप का सिलसिला इस तरह हज़रत इमाम हसन से जा कर मिलता है- मीर सय्यद इमाद-उद्दीन हसनी बिन ताज-उद्दीन बिन मोहम्मद बिन अज़ीज़-उद्दीन हुसैन बिन मोहम्मद अल-क़रशी बिन अबू… continue reading

सिर्र-ए-हक़ रा बयाँ मुई’नुद्दीन

गांधी जी जब 1922 में दरगाह पर हाज़िर हुए तो आपने तक़रीर करते हुए कहा कि लोग अगर सच्चे जज़्बे के साथ ख़्वाजा साहिब के दरबार में जाएं तो आज भी उनके बातिन के बहुत सी ख़राबियाँ हमेशा के लिए ना-पैद हो सकती हैं और आदमी अपने अंदर ग़ैर-मा’मूली क़ुव्वत का इद्राक कर सकता है। मुझे ये देखकर दुख होता है कि आ’म तौर पर लोग सिर्फ़ दुनियावी मक़ासिद लेकर ख़्वाजा साहिब के पास जाते हैं और ये नहीं सोचते कि उनकी पूरी ज़िंदगी अंदर की ता’लीम देते गुज़रे।उन्होंने रूह की रौशनी को बाक़ी रखने के लिए जो पैग़ाम दिया उसे कोई नहीं सुनता।नहीं तो ये एक दूसरे से लड़ने झगड़ने की बात क्यूँ करते।

बिहार के प्रसिद्ध सूफ़ी संत-मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक

मख़दूम मुन्इ’म-ए-पाक के जीवन का उद्देश्य मानवता से प्रेम करना, नफ़रतों के बाज़ार में मुहब्बतों का चराग़ जलाना और इन्सान को इन्सान से मिलाना था ताकि पूरी दुनिया मुहब्बतों के रंग में रंग जाए।

हाज़ा हबीबुल्लाहि मा-त-फ़ी हुब्बिल्लाह का तहक़ीक़ी जाएज़ा

ख़्वाजा-ए-आ’ज़म ने जब आ’लम-ए-ख़ाक-ओ-बार को ख़ैरबाद कहा, उस वक़्त आपकी पेशानी परः हाज़ा हबीबुल्लाहि मा-त फ़ी-हुब्बिल्लाह।(ये अल्लाह का दोस्त है जिसने अल्लाह की मुहबब्त में जान दे दी) के कलिमात ज़ाहिर हुए।

प्यारे भाई क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी -ख्व़ाजा साहब के ख़ुतूत अपने मुरीद-ए-ख़ास के नाम

इसलिए अगर तसव्वुफ़ की असलियत से वाक़िफ़ होना चाहते हो तो अपने पर आराम का दरवाज़ा बंद कर दो और फिर मोहब्बत के बल बैठ जाओ ! अगर तुम ने यह कर लिया तो समझो कि बस तसव्वुफ़ के आ’लिम हो गए।

महापुरुष हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरी

अगर मैं आप से पूछूँ कि आपने कोई फ़क़ीर देखा है तो आपका उत्तर होगा क्यों नहीं! बहुत फ़क़ीर देखे हैं। मगर मैं कहूँगा कि नहीं फ़क़ीर आपने मुश्किल से ही कोई देखा होगा। आज कल तो हर फटे हाल बुरे अहवाल को लोग फ़क़ीर कह देते हैं और हर भीक माँगने वाला फ़कीर समझा जाता है। परंतु सच पूछिए तो ये लोग फ़क़ीर नहीं होते।अस्ली फ़क़ीर किसी से कुछ माँगता नहीं। बन पड़ता है तो अपने पल्ले ही से कुछ दे देता है।वो दुनिया से जी नही लगाता। धन-दौलत की परवाह नहीं करता और बस दो कामों में मगन रहता है।