
सूफ़ी क़व्वाली में गागर
बर्र-ए-सग़ीर हिंद-ओ-पाक की ख़ानक़ाहों में उ’र्स के मौक़ा’ से एक रिवायत गागर की उ’मूमन देखने में आती है,जिसमें होता ये है कि मिट्टी के छोटे छोटे घड़ों में जिन को उ’र्फ़-ए-आ’म में ’गागर’ के नाम से जाना जाता है उसमें पानी या शर्बत वग़ैरा भर कर और ऊपर सुर्ख़ कपड़ों से ढ़ाँक कर उसको सर पर रख कर चलते है और क़व्वाल उसी गागर की मुनासिबत से कुछ अश्आ’र गाते हैं फिर फ़ातिहा के बा’द उस शर्बत को लोगों में तक़्सीम कर दिया जाता है। उन अश्आ’र को गागर की मुनासिबत से ‘गागर’ ही कहा जाने लगा या’नी रस्म-ए-गागर के वक़्त पढ़े जाने वाले अश्आ’र।
इस रस्म को देख कर उ’मूमन ये तसव्वुर उभरता है कि इसका तअ’ल्लुक़ शायद हिंदू मज़हब से है या ये रस्म हिंदू मज़हब से माख़ूज़ है,जिसको बर्र-ए-सग़ीर की ख़ानक़ाहों ने हिंदू सक़ाफ़त से मुस्तआ’र लिया है जो हिंदू-मुस्लिम मुश्तरका तहज़ीब की ग़म्माज़ी है। क्यूँकि हिंदू मज़हब के लोग अक्सर कलश (घड़े की सूरत का ताँबे का बर्तन) या छोटे लोटे में गंगा या दूसरी मुक़द्दस नदियों का पानी भर कर अपने मा’बूदों पर चढ़ाते है जिसको ‘जल अभिशेक’ कहा जाता है। हाँलाकि इस ख़ानक़ाही रस्म का कोई तअ’ल्लुक़ हिंदू सक़ाफ़त से नहीं है बल्कि ये ख़ालिस ख़ानक़ाही रिवायत है।इस सिल्सिला में ख़्वाजा हसन सानी निज़ामी रक़म-तराज़ हैः
“यू.पी की अक्सर ख़ानक़ाहों और दरगाहों में गागर की रस्म होती है या’नी मिट्टी के बर्तनों में पानी भर कर फ़ातिहा दी जाती है। इस का जोड़ बा’ज़ लोग हिंदू रिवायतों से मिलाते हैं मगर यहाँ आकर इसकी एक और तारीख़ मा’लूम हुई। हज़रत हुसामुद्दीन मानिकपुरी रहमतुल्लाहि अ’लैह (विलादत 773 हिज्री मुताबिक़ 1371 इ’स्वी वफ़ात 853 हिज्री मुताबिक़ 1449 इ’स्वी) की ख़ानक़ाह क़स्बा मानिकपुर में दरिया-ए-गंगा से कुछ फ़ासले पर थी। कहा जाता है कि एक दफ़अ’ ख़ानक़ाह में महफ़िल-ए-उ’र्स थी और क़व्वाल गा रहे थे। उसी दौरान लंगर-ख़ाने के मोहतमिम ने आ कर अ’र्ज़ की कि एक बूँद भी पानी नहीं है, खाना कैसे पकेगा? हज़रत पर समाअ’ की वज्ह से कैफ़ियत थी।उस कैफ़ियत के आ’लम में हज़रत खड़े हो गए और बर्तन सामने नज़र आया। उसे उठा कर सर पर रख लिया। हज़रत की पैरवी हाज़िरीन ने भी की।क़व्वाली जारी रही और हज़रत दरिया के किनारे पानी भर की उसी तरह क़व्वाली के साथ वापस आए और उ’र्स की फ़ातिहा हुई। पानी लाने के दौरान सब को ऐसा लुत्फ़ आया था कि हर साल उ’र्स में ये तरिक़ा हो गया कि क़व्वाली के साथ सब दरिया पर जाते थे और पानी भर कर लाते थे। बा’द में इस मौक़ा’ के लिए उर्दू और अवधी ज़बान में बहुत से शाइ’रों ने गीत भी लिखे।उन गीतों में बड़ा असर है।”
(हज़रत शाह मेहदी अ’ता, हयात-ओ-ता’लीमात और मुंतख़ब कलाम, सफ़हा 71, मुरत्तबः अहमद हुसैन जा’फ़री, नाशिरः ख़ानक़ाह-ए-करीमिया सिल्वन रायपुर बरैली 2011 इ’स्वी)
(Approach to History, Culture, Art, and Archaeology. Page No 690 Syed Zaheer Hussain Jafri. Edited by Atul K Sinha, Anamika Publisher & Distributors (P) LTD. Daryaganj, New Delhi, First Published 2009)
इस सिलसिला में एक और रिवायत मिलती है जिसका इंतिसाब इक्सीर-ए-इ’श्क़ हज़रत शैख़ हुसामुद्दीन मानिकपुरी के मुर्शिद-ए-गिरामी हज़रत शैख़ नूरु क़ुतुब आ’लम पंडवी की तरफ़ है जिसको सय्यद मोहम्मद अबुल-हसन ने आइना-ए-अवध में बयान किया है।वह लिखते हैः
“नक़्ल है कि ब-यौम-ए-उ’र्स हज़रत शाह अ’लाउल-हक़ पंडवी रहमतुल्लाहि अ’लैह हज़रत शाह नूर क़ुतुब-ए-आ’लम कुद्दिसल्लाहु सिर्रहु मज्लिस में ब-हालत-ए-तवाजुद थे। उस हालत में मोहतमिम-ए- लंगर-ख़ाना मुल्तमिस हुआ कि आबकशान-ए-कारख़ाना किसी वज्ह से ग़ैर-हाज़िर हैं लिहाज़ा पुख़्त-ए-तआ’म ग़ैर-मुमकिन है। आपने उसी हातल में फ़रमाया कि अपने पीर के उ’र्स का जो खाना पकता है उसका आबकश ये फ़क़ीर है। उठ खड़े हुए और समाअ’ करते हुए लंगर-ख़ाना चले गए और कोई ज़र्फ़-ए-गिली(मिट्टी का बर्तन)उठा कर अपने सर पर रख लिया। जब ये हाल लोगों ने देखा तो सब लोगों ने एक एक ज़र्फ़ वास्ते पानी भरने के लिए लिया और एक तालाब से पानी भर लाए और महफ़िल समाअ’ की बराबर क़ाएम रही।बा’द-ए-इंफ़िराग़ उस मज्लिस के आपने फ़रमाया कि उस पानी भरने की हालत में जो कैफ़ियत हम को समाअ’ में हुई ये कभी नहीं हुई। इर्शाद-ओ-फ़रमान हुआ कि ब-साल-ए-आइंदा फिर पानी भरेंगे। दूसरे साल ज़ुरूफ़-ए-गिली छोटे छोटे बर्तन जिसको गागर कहते हैं तैयार किए गए और आपने समाअ’ करते हुए पानी भरा फिर उसी तरह पर मुतलज़्ज़िज़ हुए। जब से ता-हयात अपने ये फ़े’ल करते रहे। जब उनका इंतिक़ाल हुआ तो मख़दूम शाह हुसामुद्दीन क़ुद्दिसा सिर्रहु भी पाबंद-ए-तरीक़ा अपने पीर के रहे। बा’दहु अल-आन कमा कान उनकी औलाद एक दूसरे की मुक़ल्लिद चली आ रही है।”
(आइना-ए-अवध, मौलवी सय्यद मोहम्मद अबुल-हसन, सफ़हा 180,181, मत्बा’,निज़ामी कानपुर 1880 ई’स्वी)
इस तरह गागर की रिवायत का ख़ानक़ाहों में रिवाज हुआ। ख़ुसूसन सिलसिला-ए-चिश्तिया निज़ामिया हुसामिया से फ़ैज़-याफ़्ता ख़ानक़ाहों में ये रिवायत अब भी जारी-ओ-सारी है।गागर के लिए सूफ़ी शो’रा ने कलाम भी लिखे हैं जो आज भी ख़ानक़ाहों में उ’र्स के मौक़ा’ पर गाए जाते हैं।इनका मौज़ूअ’ हम्द,ना’त,मंक़बत और तसव्वुफ़ के हक़ाएक़-ओ-मआ’रिफ़ होते हैं। इस तरह गागर की सिंफ़ सूफ़ी शाइ’री का एक अहम हिस्सा बन गई। गागर के कलाम उ’मूमन अवधी ज़बान में लिखे गए हैं और इनका कुछ हिस्सा उर्दू ज़बान में भी पाया जाता है।
गागर की शुरुआ’त ऐसे कलाम से होती है जिस में उ’मूमन हम्द,ना’त,मंक़बत और गागर की ता’रीफ़ और उसके पस-मंज़र को नज़्म किया गया होता है। ब-तौर-ए-मिसाल हज़रत पीर शाह नई’म अ’ता सलोनी रहमतुल्लाहि अ’लैह का ये गागर मुलाहिज़ा फ़रमाएं:
ग़ैरत-ए-साग़र-ए-जमशेद हुसामी गागर
मय-ए-इ’र्फ़ां से है लबरेज़ निज़ामी गागर
थे अगर हाफ़िज़-ए-शीराज़ तलबगार-ए-सुबू
लेने आईं हैं यहाँ हज़रत-ए-‘जामी’ गागर
उ’र्स की रस्म ये मुद्दत से चली आती है
आ’रज़ी ये नहीं बल्कि है दवामी गागर
मय-ए-तौहीद मिली है जो छलक जाएगी
दर-ए-अशरफ़ पे हुई आ के सलामी गागर
क़ब्र-ए-मेहदी पे चढ़ाने के लिए आईं हैं
भर के हम नहर-ए-करीमी से हुसामी गागर
ख़ुश-नसीबी ये इसकी ये मुक़द्दर इसका
दर-ए-अशरफ़ पे हुई आ के सलामी गागर
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मैं तो लेहू गगरिया भराए भराए
शाह-हुसाम के पनघट पे
बैठी हूँ आस लगाए लगाए
मैं लेहू गगरिया भराए भराए
खाली गागर कब लग लागूं
काहे को बैर लगाए लगाए
मैं लेहू गगरिया भराए भराए
शाह-हुसाम की गागर भर दो
बैठी हूँ अरज लगाए लगाए
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इसी तरह हज़रत शाह अ’ब्दुश्शकूर फ़रीदी हुसामी रहमतुल्लहि अ’लैह के ये गागर गीत भी गागर उठाते हुए पढ़े जाते हैः
आई है देख लो पीरान-ए-पीर की गागर
झाँक ले उ’क़्दा-कुशा दस्तगीर की गागर
नहीं है कौसर-ओ-तसनीम की परवाह
है अपने सर पे बशीर-ओ-नज़ीर की गागर
जहाँ की हम को तलब है न यार का कुछ ग़म
लिए हैं हम शह-ए-रौशन-ज़मीर की गागर
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कैसी मुर्शिद ने मेरी आ के सँवारी गागर
मय-ए-आग़ोश में है बाद-ए-बहारी गागर
मुझ से उठती नहीं इस दर्जा है भारी गागर
सर पे तू रख दे मेरे रहमत-ए-बारी गागर
बद्धियाँ बाँध दी रिज़वाँ ने जो भी गागर में
बन गई गुलशन-ए-फ़िरदौस हमारी गागर
साक़िया मुर्शिद-ए-कामिल है हमारा रिंदों
मय-ए-वहदत से है लबरेज़ हमारी गागर
(कलाम-ए-हज़रत शाह अ’ब्दुश्शकूर फ़रीदी मानिकपुरी रहमतुल्लाहि अ’लैह)
ख़्वाजा हसन निज़ामी ने एक गागर गीत की बहुत ता’रीफ़ की है। वो इस सिलसिले में लिखते हैः
कोऊ आई सुघर पनिहार
या’नी कोई सुघर सलीक़े वाली पनिहारी (पानी भरने वाली) आई है। जब ही तो कुएँ का पानी उबल कर ऊपर आ रहा है। मुझे तो ऐसा महसूस हुआ कि जैसे ये बोल ख़ास हुज़ूर रिसालत-मआब सल्लललाहु अ’लैहि वसल्लम की दुनिया में तशरीफ़-आवरी के वक़्त के लिए कहे गए है और अतमम्तु-अ’लैकुम ने’मती (तुम पर अपनी ने’मत मुकम्मल कर दी। सूरतुल-माइदा आयत नम्बर-3) का आँखों देखा हाल बयान किया जारहा है। कुआँ तो पहले से था, पीने वालों के लिए देर थी तो सुघर पनिहार के आने की देर थी।वो आई और सलीक़े और रहमत के जोश ने सबको छलका दिया।”
(हज़रत शाह मेहदी अ’ता, हयात-ओ-ता’लीमात और मुंतख़ब कलाम, मुरत्तबा अहमद हुसैन जा’फ़री, ख़ानक़ाह-ए-करीमिया सिलवन राय बरैली,सफ़हा 72,2011 ई’स्वी)
गागर ले जाते वक़्त ये कलाम पढ़ा जाता है।
कोऊ आई सुघर पनिहार
कुआँ नाँ उमड़ चला
के तुम गोरी साँचे की डोरी
के तुम्ही गढ़ा रे सोनार
कुआँ नाँ उमड़ चला
ना हम गोरी साँचे की डोरी
ना हमीं गढ़ा रे सोनार
कुआँ नाँ उमड़ चला
माई-बाप ने जनम दियो है
रूप दियो करतार
कुआँ नाँ उमड़ चला
‘दास-नई’म’ दरसन का दासी
बेड़ा लगा दो पार
कुआँ नाँ उमड़ चला
(कलाम-ए-पीर शाह नई’म अ’ता सिल्वनी रहमतुल्लाहि अ’लैह)
गागर के इख़्तिताम पर ये ऐसे कलाम पढ़े जाते हैं जिन में दुआ’इया अल्फ़ाज़ होते हैं।
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ऐ हो करीम किरपा रख हम पे
हम तोसे बड़ी आस लगाई
नूर से भर दे गागर मोरी
खाली गागर ले घर जात लजाई
काज़िम पाई करीम अ’ता मैं
रब्ब-ए-करीम की जोत समाई
ऐ हो करीम ‘अता’ किरपा रख हम पे
हम तोसे बड़ी आस लगाई
(कलाम-ए-पीर शाह नई’म अ’ता सिल्वनी रहमतुल्लाहि अ’लैह)
गागर के अश्आ’र में हम्द, ना’त, मंक़बत, दुआ’ तलब और तसव्वुफ़ के मआ’रिफ़-ओ-लताएफ़ बयान किए जाते हैं।उस में हिंदुस्तानी तहज़ीब के भी बहुत से आसार मिलते हैं।इस सिंफ़ को शाइ’री के मुख़्तलिफ़ हैयतों में बरता गया है।ज़बान की सतह पर अवधी, हिंदी और उर्दू का इस्ति’माल किया गया है।ये कलाम बड़े असर-अंगेज़ हैं।इनके सुनने का ख़ास लुत्फ़ उसी वक़्त आता है जब के तमाम लवाज़िम मौजूद हों और साहिब-ए-दिल हज़रात की सोहबत मुयस्सर हो। सूफ़िया के कलाम की सब से बड़ी ख़ासियत ये है कि इसमें “अज़ दिल ख़ेज़द बर-दिल रेज़द” वाली कैफ़ियत पाई जाती है। उनका कलाम दिल से निकला हुआ होता है और दिल पर असर-अंदाज़ होता है।इस तरह से सूफ़िया के ज़रिआ’ एक नई सिंफ़ का आग़ाज़ हुआ मगर इसकी तरफ़ ख़ातिर-ख़्वाह तवज्जोह नहीं दी गई।शायद इसकी वज्ह ये रही की उ’मूमन लोगों को इसकी रिवायत से वाक़फ़ियत नहीं रही और इस ला-इ’ल्मी की वज्ह से लोगों ने इस सिंफ़ को ब-तौर-ए-शाइ’री भी बहुत कम बरता और ख़ानक़ाहों में भी अब इस का अ’मली रिवाज कम देखने में आता है।मुझे भी ये चंद कलाम उ’रूज ख़ाँ साहिब (जो ख़ानक़ाह-ए-हुसामिया गढ़ी मानिकपुर ज़िला’ प्रताप-गढ़ यू.पी के ख़ानक़ाही क़व्वाल हैं और उनका ख़ानदान पुश्तहा-पुश्त से इस बारगाह में अपनी ख़िदमत अंजाम देता आ रहा है) से मयस्सर आए हैं। शो’रा-ए-किराम से मुल्तमिस हूँ कि वो इस सिंफ़ में भी मश्क़-ए-सुख़न फ़रमाएं और इस मिटती हुई सिंफ़ को भी हयात-ए-नौ से सरफ़राज़ करें।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
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