ख़्वाजा गेसू दराज़ बंदा-नवाज़ -प्रोफ़ेसर सय्यद मुबारकुद्दीन रिफ़्अ’त मरहूम
हज़रत मख़दूम सय्यदना ख़्वाजा अबुल-फ़त्ह सदरुद्दीन सय्यद मोहम्मद हुसैनी गेसू दराज़ बंदा-नवाज़ हिन्दुस्तान में सिल्सिला-ए- आ’लिया चिश्तिया के आख़िरी अ’ज़ीमुल-मर्तबत बुज़ुर्ग हैं।इस मुल्क में अ’ज़ीमुल-मर्तबत चिश्तियों का सिल्सिला हज़रत मख़दूम ख़्वाजा-ए-आ’ज़म सय्यदना मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरी से शुरूअ’ होता है और हज़रत मख़दूम सय्यदना गेसू दराज़ बंदा-नवाज़ पर ख़त्म हो जाता है।ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ अ’ज़ीमुल-मर्तबत चिश्तियों के सिल्सिला के बानी और ख़्वाजा बंदा-नवाज़ उसके ख़ातिम हैं।
ईं सिल्सिला अज़ तिला-ए-नाबस्त
ईं ख़ाना तमाम आफ़्ताब अस्त
तरीक़त के इस महबूब सिल्सिला को पूरे हिन्दुस्तान और ख़ास कर दकन में महबूब-तर बनाने में हज़रत महबूब-ए-इलाही के दकन में भेजे हुए खलीफ़ा और उनके बा’द हज़रत मख़दूम ख़्वाजा बंदा-नवाज़ की निहायत बुलंद-ओ-बाला शख़्सियत ने बहुत बड़ा हिस्सा अदा किया है।
विलादत-ए-बा-सआ’दत सन 721 हिज्री में ब-मक़ाम-ए-देहली हुई। पंद्रह साल की उ’म्र में हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी से शरफ़-ए-बैअ’त हासिल हुआ।36 साल की उ’म्र में अपने अ’ज़ीमुल-मर्तबत पीर के सज्जादा पर रौनक़-अफ़रोज़ हुए।पचास बरस तक देहली में रुश्द-ओ-हिदायत के मन्सब पर रहने के बा’द सन 801 हिज्री में देहली की इक़ामत तर्क फ़रमाई।पहले गुजरात तशरीफ़ ले गए।फिर दकन का क़स्द फ़रमाया।देहली की इक़ामत तर्क करने के कोई तीन साल बा’द सन 803 हिज्री में गुलबर्गा पहुंचे।आपकी तशरीफ़-आवरी से पहले ही आपकी जलालत-ए-शान की शोहरत दकन में फैल चुकी थी।अ’वाम-ओ-ख़्वास में आपकी ज़ात-ए-गिरामी बहुत जल्द मक़्बूल-ओ-महबूब हो गई।आपने अपनी हयात-ए-तय्यिबा के बाक़ी 22 साल इसी मक़ाम पर बसर फ़रमाए।एक सौ चार साल की दराज़ उ’म्र पाई और 16 ज़ी-क़ा’दा सन 825 हिज्री में विसाल फ़रमाया और गुल्बर्गा ही में मद्फ़ून हुए।
हज़रत गेसू-दराज़ बंदा-नवाज़ का मस्लक वही है जो सिल्सिला-ए-आ’लिया चिश्तिया के सुलूक का मस्लक है।ये मोहब्बत है जो सिल्सिला-ए-आ’लिया चिश्तिया के सुलूक का मस्लक है।ये मोहब्बत और राफ़त का रास्ता है।ये क़ल्ब के सोज़-ओ-गुदाज़ का रास्ता है। ये इन्सानियत-दोस्ती और तालीफ़-ए-क़ुलूब का रास्ता है। बंदों की मोहब्बत के ज़रिया’ बंदों के मालिक तक पहुँचने का रास्ता है। मुजाहदों और रियाज़तों के ज़रिऐ’ बंदगान-ए-ख़ुदा की मुसीबत और उनके दुख-दर्द के एहसास का रास्ता है।इस मस्लक में वो दुरुश्ती-ओ-सख़्ती और करख़्तगी नहीं जो बे-ज़ौक़ मुल्लाओं के मलाल-अंगेज़ मवाइ’ज़ और उनके सिर्फ़ डराने और धमकाने वाले लोगों का तुर्रा-ए-इम्तियाज़ है।
ख़्वाजा बंदा-नवाज़ इस मस्लक के बड़े माहिर हैं।वो इन्सानी नफ़्स की बीमारियों के तबीब-ए-कामिल हैं।वो नफ़्स की बीमारियों में मुब्तला मरीज़ों को मरज़ की हौल-नाकी जता-जता कर उन्हें अपने इ’लाज से मायूस नहीं करते।कड़वी-कड़वी दवाएं दे-दे कर उन्हें दवा से दूर नहीं करते।परहेज़ के शदाएद से उन्हें वहशत-ज़दा नहीं बनाते। इसके बर-ख़िलाफ़ वो निहायत सब्र-ओ-तहम्मुल के साथ अपने मरीज़ों से शफ़क़त और मोहब्बत का बर्ताव करते हैं।उनकी तबिअ’त में मरीज़ाना ज़िद और हट पैदा किए ब-ग़ैर उनकी तबीअ’त को कुछ इस तरह मोड़ देते हैं कि वो उन अश्ग़ाल से ताएब हो जाते हैं जो कभी उन्हें बहुत महबूब-ओ-मर्ग़ूब थे।कड़वी से कड़वी दवा कुछ ऐसी शकर में लपेट कर देते हैं कि मरीज़ को उसके कड़वेपन का कुछ भी एहसास नहीं होता।इस तरीक़ा-ए-इ’लाज से न तो उसे दवा से वहशत होती है और न तबीब से दूर भागता है।
हज़रत के पोते हज़रत सय्यद शाह यदुल्लाह हुसैनी के मल्फ़ूज़ात “मोहब्बत-नामा” में एक निहायत अहम वाक़िआ’ दर्ज है जो इस तरीक़ा-ए-इ’लाज पर भरपूर रौशनी डालता है।हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन अन्नदवी हज़रत मख़दूम के पीर भाई थे।और हज़रत मख़दूम ख़्वाजा चिराग़ देहली (रहि·) ने तर्बियत के लिए उन्हें हज़रत मख़दूम के सुपुर्द फ़रमाया था।दोनों में गहरी दोस्ती हो गई थी कि गोया एक जान दो क़ालिब हो गए थे।हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन अन्नदवी एक औ’रत पर सौ जान से आ’शिक़ थे।जब कहीं मौक़ा’ मिलता रात को उसके घर चले जाते।हज़रत मख़दूम को भी अपने साथ ले लेते। लेकिन हज़रत मख़दूम क़रीब ही किसी मस्जिद में मुक़ीम हो जाते और रात-भर इ’बादत में मशग़ूल रहते।एक रात किसी वज्ह से उस औ’रत ने हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन अंसारी अन्नदवी (रहि·) को इतना मारा कि आपका सर फट गया।उस आ’लम में आपके सर से ख़ून बह रहा था।हज़रत मख़दूम की ख़िदमत में हाज़िर हुए।आपने पूछा ये क्या है? फ़रमाया, बारह साल के बा’द ये दौलत मेरे हिस्सा में आई है।मैंने सानेअ’ को मस्नूअ’ की सूरत में देखा है।
इस हिकायत के यहाँ नक़्ल करने से मक़्सद सिर्फ़ हज़रत मख़दूम की तर्बियत का अंदाज़ दिखाना है।आपने नफ़्सियात के एक माहिर की हैसियत से हज़रत अ’लाउद्दीन अन्नदवी(रहि·)की तबीअ’त का पूरा-पूरा अंदाज़ा फ़रमा लिया।फिर थोड़ी देर उनका साथ देकर उस मजाज़ की मोहब्बत का रुख़ कुछ इस तरह हक़ीक़त की तरफ़ मोड़ा कि उन्हें विलायत के मर्तबा पर पहुँचा कर ही छोड़ा।
हज़रत मख़दूम के फ़र्ज़न्द-ए-अकबर हज़रत सय्यद अकबर हुसैनी ने आपके मल्फ़ूज़ात “जवामिउ’ल-कलिम” के नाम से मुरत्तब फ़रमाए हैं।ये किताब हज़रत मख़दूम की ता’लीमात और आपके इर्शादात का एक अनमोल ख़ज़ाना है।बा’ज़ और बुज़ुर्गान-ए-दीन की तरह आप भी हिकायतों और तम्सीलों के पैराए में बड़े दिल-नशनीन अंदाज़ में तल्क़ीन फ़रमाते हैं।ये हिकायतें और तम्सीलें हज़रत मख़दूम के मस्लक की बेहतरीन शारेह हैं।
इस किताब में एक जगह इर्शाद फ़रमाते हैं कि जब मोमिन नफ़्स के पंजे से छुटकारा पा जाता है और ख़ुदा-शनास हो जाता है तो वो सब ही को एक नफ़्स और एक ज़ात देखने लगता है।उस ज़ात के लिए वही चीज़ पसंद करता है जो दूसरों के लिए चाहता है।किसी चरवाहे ने गल्ले को हाँकते हुए एक गाय को कोड़ा मारा।हज़रत शिबली ने फ़ररियाद की।चरवाहे ने कहा।ऐसा मा’लूम होता है जैसे ये कोड़ा तेरे ही लगा।हज़रत शिबली ने पीठ पर से कपड़ा हटाया।कोड़े के निशान पीठ पर मौजूद थे।
एक रोज़ कुछ ताजिर ख़िदमत-ए-मुबारक में हाज़िर हुए।तिजारत में नफ़अ’-नुक़्सान की बात चली तो इर्शाद फ़रमाया।अगर ताजिर दिल की हिफ़ाज़त के साथ-साथ तिजारत करे और सिर्फ़ माल-ओ-दौलत जम्अ’ करने के पीछे न पड़ा रहे तो ये मुबारक काम है।फ़रमाया एक ताजिर था।अपने एजेंट के ज़रिआ’ मिस्र से कूफ़ा को ग़ल्ला दरामद किया करता था।एक-बार एजेंट ने ग़ल्ला रोक रखा था।यहाँ तक कि उसकी क़ीमत बढ़ गई।उसने ताजिर को लिखा कि मेरी इस तरकीब से ग़ल्ला की क़ीमत बढ़ गई है और बड़ा नफ़अ’ हो रहा है।ताजिर ने ख़फ़ा हो कर उसे लिखा कि ऐ बे-इन्साफ़! तूने ग़ल्ला क्यूँ रोक रखा।मेरा तमाम माल ख़तरे में पड़ गया।वो पूरा ग़ल्ला ख़ैरात में बाँट दे ताकि मेरा माल या’नी आख़िरत का माल ख़तरे में न पड़े।
एक-बार अपने दौर के मशाइख़ का ज़िक्र चला तो फ़रमाया।आज-कल के मशाइख़ अपने नाम-वर बाप की वफ़ात के साथ ही शैख़ बन बैठते हैं।उन्हें क्या मा’लूम कि उनके बाप ने कैसी कैसी सऊ’बतें बर्दाश्त कीं।कितने दिन जंगलों की ख़ाक छानी।कितने दिन ख़ल्वत-गुज़ीं रहे।उस के बा’द ही कहीं जाकर उन्हें फ़क़्र की दौलत नसीब हुई ।मियाँ साहिबज़ादे ने ये सब मंज़िलें कहाँ तय की हैं।उस पर भी अल्लाह बेहतर जानता है कि बाप का क्या हाल था।बेटे के हाल का क्या पूछना।
इस सिल्सिला में हज़रत मख़दूम(रहि·)ने एक और नुक्ता बयान फ़रमाया है।वो याद रखने के क़ाबिल है।अ’वाम का ऐ’तिक़ाद भेड़ की चाल है।जिस तरफ़ कुछ लोग झुक गए अ’वाम भी उधर झुक गए।ये लोग किसी चीज़ को किसी सबब के ब-ग़ैर क़ुबूल कर लेते हैं और किसी दलील के ब-ग़ैर किसी चीज़ को रद्द कर देते हैं।फ़रमाया कि चार आदमी सफ़र कर रहे थे।उनके साथ एक कुत्ता भी था।एक दरिया के किनारे मर गया।मुसाफ़िरों ने ये सोचकर कि ये कुत्ता हमारा रफ़ीक़ था, उसको दफ़्न कर दिया और उस पर मिट्टी का एक तोदा डाल दिया कि जब सफ़र से लौट कर यहाँ आएं तो उन्हें याद रहे कि यहीं उनका कुत्ता मरा था।इत्तिफ़ाक़ की बात कुछ दिनों बा’द यहाँ एक कारवाँ आकर ठहरा।रास्ता ख़तरनाक था।बड़ी डरावनी बातें उसके बारे में सुनी जा रही थीं।
दरिया के किनारे दरख़्त के नीचे एक क़ब्र देखी तो समझा कि ये किसी बुज़ुर्ग की क़ब्र है।मन्नत मानी कि अगर सलामती के साथ हमारा सफ़र ख़त्म हो तो हम अपने नफ़अ’ का दसवाँ हिस्सा इन बुज़ुर्ग की क़ब्र पर चढ़ाएँगे।इत्तिफ़ाक़ की बात उन दिनों चोर ख़ुद आपस में लड़ रहे थे।कारवाँ सलामती के साथ गुज़र गया।जब ये लोग फिर यहाँ आए तो अपनी मन्नत के मुताबिक़ क़ब्र पर गुंबद बनाया।एक ख़ानक़ाह ता’मीर की और दूसरी इ’मारतें बना डालीं।फिर तो उस मक़ाम की ऐसी शोहरत हुई कि अतराफ़ के लोग यहाँ आ-आ कर बसने लगे।एक मुद्दत के बा’द उन चार मुसाफ़िरों का फिर इधर गुज़र हुआ।यहाँ आबादी देख कर वो हैरान रह गए।लोगों से पूछा तो मा’लूम हुआ कि यहाँ एक बुज़ुर्ग दफ़्न हैं।जाकर देखा तो उन्हें ख़्याल हुआ कि ये तो उनके कुत्ते की क़ब्र है।जब पूरी तरह तहक़ीक़ कर ली तो लोगों से कहा कि ये किसी बुज़ुर्ग की क़ब्र नहीं हमारे कुत्ते की क़ब्र है।ये सुनकर लोगों को बड़ा ग़ुस्सा आया। मुसाफ़िरों ने कहा कि क़ब्र खोदो।अगर कुत्ते की हड्डियाँ बरामद न हों तो हमें मार डालो।क़ब्र खोदी गई।उस कुत्ते की हड्डियाँ निकलीं तब कहीं जाकर लोगों को यक़ीन आया।ये है अ’वाम की अ’क़ीदत की हक़ीक़त और उसका हाल।
एक मज्लिस में फ़रमाया कि-
अगर तुम चाहते हो कि लोग हमें अ’ज़ीज़ रखें तो लोगों को ऐसे नामों से पुकारो जो उन्हें पसंद हों। एक रोज़ मौलाना जलालुद्दीन,मैं और मेरे दोस्त अ’लाउद्दीन और मौलाना सदरुद्दीन तय्यब बैठे हुए थे।नभ्भू नामी एक हिंदू तबीब मौलाना जमालुद्दीन से मिलने के लिए आए।बातों-बातों में सदरुद्दीन तय्यब ने कहा अबे नभ्भू।मौलाना जमालुद्दीन ने फ़ौरन उन्हें रोका। मौलाना ये ‘अबे अबे’ क्या है।सदरुद्दीन तबीब ने कहा ये तो हिंदू है। मौलाना जमालुद्दीन ने कहा कि अगर ये हिंदू हैं तो क्या हुआ।अगर आप उन्हें भाई नभ्भू कहते तो आपका क्या बिगड़ता और क्या नुक़सान होता।
पीरान-ए-चिश्त के पास समाअ’ को बड़ी एहमियत हासिल है। समाअ’ से क़ल्ब में जो सोज़-ओ-गुदाज़ और जो रिक़्क़त पैदा होती है उसका हाल अहल-ए-ज़ौक ही ख़ूब जानते हैं।पीरान-ए-चिश्त ने इससे तज़्किया-ए-नफ़्स का काम लिया है।इसलिए समाअ’ तरीक़ा-ए-चिश्तिया में इ’बादत का दर्जा हासिल कर गया है।उन बुज़ुर्गों की समाअ’ की महफ़िलों में फ़ारसी और उर्दू दोनों ज़बानों का कलाम बड़े ज़ौक़-ओ-शौक़ के साथ सुना जाता है।आज से छः सात सौ साल पहले उर्दू-हिन्दी का कोई झगड़ा न था।हिंदूओं और मुसलमानों के मेल-जोल से जो ज़बान आ’लम-ए-वजूद में आ रही थी वो बस “हिंदवी” कहलाती थी।आज से छः सौ साल क़ब्ल ही इस ज़बान ने वो हुस्न-ए-क़ुबूल हासिल कर लिया था कि समाअ’ में सूफ़ी उसे फ़ारसी पर तर्जीह देने लगे थे।
एक रोज़ किसी ने हज़रत मख़दूम से पूछा कि क्या बात है कि जब “हिंदवी” कलाम गाया जाता है तो सूफ़ियों को ज़्यादा कैफ़िय्य्त होती है।सौत,ग़ज़ल या क़ौल में वो लुत्फ़ नहीं आता।फ़रमाया कि दोनों में अलग-अलग ख़ासियतें हैं। एक में जो लुत्फ़ है वो दूसरे में नहीं।ता-हम हिंदवी कलाम ज़्यादा नर्म और ज़्यादा दिल-आवेज़ होता है।इसकी लै बड़ी दिल-नशीं और वज्द-आवर होती है।इस में बात खुल कर होती है।इसमें बड़ी आ’जिज़ी,इंकिसारी और फ़िरोतनी है।इसलिए लाज़िमन सूफ़ी को इस तरफ़ ज़्यादा रग़्बत होती है।
समाअ’ के सिल्सिला में यहाँ एक पुर-लुत्फ़ लतीफ़ा भी हज़रत मख़दूम की ज़बानी सुन लीजिए।फ़रमाते हैं कि- एक रोज़ हज़रत ख़्वाजा महबूब-ए-इलाही का दिल समाअ’ सुनने को बहुत चाहा।हसन मैमंदी अपने ज़माने के मशहूर क़व्वाल थे।वो हाज़िर न थे।हज़रत ने ख़ादिमों से इर्शाद फ़रमाया कि कोई गा सकता हो तो गाए।ख़्वाजा इक़बाल और बा’ज़ ख़ादिम गाना जानते थे।वो गाने लगे।हज़रत ख़्वाजा पर वज्द की कैफ़ियत तारी हो गई और ऐसी शिद्दत की कैफ़ियत तारी हुई कि अपने कपड़े तक उतार कर आपने उन लोगों को दे दिए।बा’द में जब हसन मैमंदी आए तो उन बुज़ुर्गों ने उन्हें छेड़ने के लिए कहा कि आज हमने हज़रत के आगे समाअ’ किया। हज़रत पर बड़ी कैफ़ियत तारी हुई और आपने कपड़े तक उतार कर हमें दे दिए।हसन मैमंदी ने ये सुनकर कहा हज़रत पर गिर्या इस ख़याल से तारी हुआ कि मैं किन लोगों के हाथ में फँस गया हूँ।
किस तरह उनसे छुटकारा पाऊँ।हज़रत ख़्वाजा महबूब-ए-इलाही ने उन लोगों को आपस में बातें करते देखा तो फ़रमाया।हसन इधर आओ।पूछा ये लोग क्या कहते हैं।हसन मैमंदी ने पूरा क़िस्सा बयान किया।हज़रत ने मुस्कुरा कर फ़रमाया हसन तुम सच कहते हो।कुछ ये बात भी थी।
सूफ़िया-ए-किराम और ख़ास-तौर पर सूफ़िया-ए-चिश्त के पास अस्ल दीन एहतिराम-ए-आदम-ओ-आदमियत है।मख़्लूक़-ए-ख़ुदा की ख़िदमत से बढ़कर उनके यहाँ कोई इ’बादत नहीं।मख़्लूक़-ए-ख़ुदा का दिल दुखाने से बढ़कर उनके पास कोई गुनाह और मा’सियत नहीं।उनकी ता’लीम का सारा निचोड़ बस यही है कि मख़्लूक़-ए-ख़ुदा की मोहब्बत ख़ुद उसके ख़ालिक़ की मोहब्बत है।“दिल ब-दस्त आवर कि हज्ज-ए-अकबर अस्त” ही उनका ना’रा है।एक रोज़ हज़रत मख़दूम ने फ़रमाया किसी शहर में एक ज़ाहिद रहते थे।ख़्वाब में ख़ुदा-वंद-ए-आ’लम ने उनसे इर्शाद फ़रमाया कि मैं इस शहर पर ऐसा अ’ज़ाब नाज़िल कर रहा हूँ कि उस अज़ाब से कोई न बचेगा।पूछा ख़ुदा-वंद। क्या अ’ज़ाब नाज़िल फ़रमाने वाले हैं।इर्शाद हुआ कि आग का अ’ज़ाब आएगा।ये आग पूरे शहर को जला डालेगी लेकिन एक फ़ाहिशा का घर उस आग से महफ़ूज़ रहेगा।और जो भी उस घर में होगा वो बच जाएगा।पूछा कि मेरा क्या हाल होगा।इर्शाद हुआ तुझे भी जला डालूँगा।लेकिन अगर तू उस फ़ाहिशा के घर पनाह ले-ले तो उसके तुफ़ैल तू भी बच जाएगा।सुब्ह उठ कर जाएनमाज़ कांधे पर डाले ज़ाहिद साहिब उस फ़ाहिशा के घर पर पहुँच गए।फ़ाहिशा ने उन्हें देखा तो हैरान रह गई।पूछा आप जैसे मुक़द्दस और मोहतरम मेरे घर कैसे आए।कहा क्या करूँ।चाहता हूँ कि कुछ दिन तुम्हारे घर रहूँ।कहा कि आप जानते हैं कि मेरे घर पर हर-रोज़ कैसे कैसे लोग जम्अ’ होते हैं और कैसे काम करते हैं।ज़ाहिद ने कहा मुझे घर का कोई कोना दे दो मैं उस में पड़ा रहूँगा।तुम जानो तुम्हारा काम जाने।फ़ाहिशा ने उन्हें अपने घर में जगह दे दी।वो अपने काम में मशग़ूलऔर ये अपने काम में मसरूफ़ हुए।कुछ दिन इसी तरह गुज़र गए।एक रोज़ शहर में ऐसी आग लगी कि तमाम घर जल गए। आग जब फ़ाहिशा के घर तक पहुँची तो उससे कतरा कर निकल गई।उसके बाज़ू के घर को पकड़ लिया।जब आग बुझी तो ज़ाहिद साहिब ने अपने कोने में पहुँच कर ख़ुदावंद-ए-आ’लम से पूछा। आपने तमाम मख़्लूक़ को जला दिया।शहर वीरान कर दिया।बचाया तो एक फ़ाहिशा का घर और मुझे बख़्शा भी तो उसके तुफ़ैल। आख़िर ये क्या राज़ है।फ़रमान हुआ कि एक ख़ारिशी कुत्ता था।भूका,प्यासा गर्मी में ज़बान लटकाए मोहल्ला मोहल्ला फिरता था।किसी ने उसे रोटी का एक टुकड़ा खिलाया न पानी का एक क़तरा पीने को दिया।अपनी दीवार के साया में उसका बैठना तक किसी ने गवारा न किया।जहाँ कहीं गया धुत्कारा गया।जब इस फ़ाहिशा के घर के दरवाज़े पर पहुँचा तो उसने अपनी दीवार के साया में उसे बिठाया।उसे खाने को रोटी दी,पीने को पानी दिया।उस कुत्ते के तुफ़ैल हमने फ़ाहिशा को बख़्शा और गु़स्सा से शहर के तमाम लोगों को हलाक कर दिया।और तुझे भी उस फ़ाहिशा के घर के तुफ़ैल इस बला से महफ़ूज़ रखा।
मुख़्तसर ये कि हज़रत मख़दूम और हज़रत मख़दूम के मख़दूमों का पैग़ाम मोहब्बत और सिर्फ़ मोहब्बत था।ब-क़ौल-ए-शाइ’र:
“मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे’’
हज़रत बंदा नवाज़ ने फ़रमाया कि शैख़ुल-इस्लाम हज़रत बाबा फ़रीद के पास चार जोड़े कपड़े लाज़मी रहते थे।एक पहनते थे,एक धोते थे, एक धोबी के हाँ रहता था और तीसरा घर में धुला रखा रहता।और चौथा इसलिए कि कोई ज़रूरत-मंद आए तो उस को दे दें। (जवामिउ’ल-कलिम)
Guest Authors
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