हज़रत महबूब-ए-इलाही ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया देहलवी के मज़ार-ए-मुक़द्दस पर एक दर्द-मंद दिल की अ’र्ज़ी-अ’ल्लामा इक़बाल
हिन्द का दाता है तू तेरा बड़ा दरबार है
कुछ मिले मुझको भी इस दरबार-ए-गौहर-बार से
फ़नकार अपने मुल्क की तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का नुमाइंदा होता है और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन किसी मुल्क की सदियों पुरानी रिवायात का नाम है, अगरचे कि तरक़्क़ी-पसंद अफ़राद रिवायात से चिमटे रहने के बजाय नई सम्तें मुत’अय्यन कर के, अपने आपको ‘अस्र-ए-हाज़िर से हम-आहंग करने में अपनी बक़ा महसूस करते हैं और ज़माना भी उनकी हौसला-अफ़ज़ाई करता है, लेकिन… continue reading
हिन्द का दाता है तू तेरा बड़ा दरबार है
कुछ मिले मुझको भी इस दरबार-ए-गौहर-बार से
ये 582 हिज्री की बात है।निशापुर के क़रीब क़स्बा हारून में वक़्त के एक मुर्शिद-ए-कामिल ने अपने मुरीद-ए-बा-सफ़ा को ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त से नवाज़ा और चंद नसीहतें इर्शाद फ़रमा कर हुकम दिया कि अब अल्लाह की ज़मीन पर सियाहत के लिए रवाना हो जाओ।
मुरीद-ए-बा-सफ़ा ता’मील-ए-इर्शाद की ग़रज़ से रुख़्सत होने लगा तो जुदाई के तसव्वुर से मुर्शिद-ए-कामिल की आँखों में आँसू आ गए। आगे बढ़ कर मुरीद-ए-बा-सफ़ा के सर और आँखों को बोसा दिया और फ़रमाया- तू महबूब-ए-हक़ है और तेरी मुरीदी पर फ़ख़्र है।
इलाही ता बुवद ख़ुर्शीद-ओ-माही
चराग़-ए-चिश्तियाँ रा रौशनाई
जिसको मोहब्बत-ओ-नफ़रत अ’ता किए जाते हैं उसे वहशत नहीं दी जाती कि वो उस पर फ़रेफ़्ता हो जाए।
(ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ (रहि·)
फिरेंगे कैसे दिन हिंदुस्ताँ के
बला के ज़ुल्म हैं इस आसमाँ के
अगर हिंदू-मुसलमाँ मेल कर लें
अभी घर अपने ये दौलत से भर लें
गया इक़्बाल फिर आए हमारा
अभी इदबार गिर जाए हमारा
इलाही एक दिल हो जाएं दोनों
वज़ारत इंडिया की पाएं दोनों