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Kahnwa baaje ho badhaiya- Shah Turab and his Krishna

“Niki lagat mohe apne pia ki,Aankh rasili laaj bhari re…” Farid Ayaz Saab used to recite this kalam with “aankh rasili, aur jadu bhari re.” I had corrected him once over a WhatsApp call, and at the age of 73, he was a curious learner, had accepted it in absolute humility.Incidentally, today is the 100th… continue reading

हज़रत बाबा साहिब की दरगाह-मौलाना वहीद अहमद मसऊ’द फ़रीदी

जब बहिश्ती दरवाज़ा संग-ए-मरमर का बनाया गया तो वहाँ से ये किवाड़ और चौखट ला कर यहाँ लगा दिए गए। यही वो जगह है जहाँ हज़रत-ए-वाला सबसे पहले अजोधन आकर तशरीफ़ फ़रमाए थे तो इसी जगह “अपनी गुदड़ी सिया करते थे। लिहाज़ा इसी जगह चार दिवारी का नाम “गुदड़ी” हो गया।

हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर के तबर्रुकात-मौलाना मुफ़्ती नसीम अहमद फ़रीदी

शैख़ मुनव्वर के एक साहिब-ज़ादे शैख़ मोहम्मद ई’सा चानलदा थे।ये भी अपने ज़माने के शैख़-ए-तरीक़त और अपने आबा के जाँ-नशीन-ओ-सज्जादा नशीन थे।आपका सिलसिला-ए-बैअ’त अपने बाप दादा से था और आपके पास वो क़दीम तबर्रुकात भी महफ़ूज़ थे जिन्हें सबसे पहले शैख़ सालार अपने साथ अमरोहा लाए थे।इन तबर्रुकात को हज़रत बाबा फ़रीद और उनके पीर-ओ-मुरीद हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी (रहि.) देहलवी से निस्बत का शरफ़ हासिल है।ये तबर्रुकात पहले एक पुरानी वज़अ’ के लकड़ी के पिटारे में रखे हुए थे। जिसे देखकर ख़ुद अंदाज़ा होता था कि ये पिटारा पाँच छः सौ साल पुराना होगा।फिर ज़्यादा बोसीदा हो जाने की वजह से इन तबर्रुकात को तह ब-तह कर के कपड़े में इस तरह सिल्वा दिया गया है कि इनका सिर्फ़ थोड़ा सा हिस्सा देखा जा सकता है और बाक़ी हिस्सा तीन तरफ़ से कपड़े में लपेट दिया गया है।मोहल्ला झंडा शहीद पर एक मकान जिसकी कोठरी में ये तबर्रुकात तक़रीबन पाँच सौ साल तक रखे रहे हैं अब वो सब मकान मुंहदिम हो चुके हैं और उनकी जगह नई नई ता’मीरें हो गई हैं।मगर उस पुरानी कोठरी का खंडर अभी तक बाक़ी है लेकिन इसकी ये नुमूद भी चंद रोज़ की मेहमान है।

बाबा फ़रीद शकर गंज

(पाल माल गज़ट लंदन से तर्जुमा ) पाक पट्टन शरीफ़ दुनिया-ए-तवारीख़ को अजोधन के नाम से तेईस सौ साल से मा’लूम है लेकिन उसका दूसरा नाम पाक पट्टन शरीफ़ आज से आठ सौ साल क़ब्ल उसे मिला था। उस वक़्त से ये अपने क़िला’ की मज़बूती के लिए नहीं बल्कि एक मुक़द्दस हस्ती की जा-ए-आराम… continue reading

तरीक़ा-ए-सुहरवर्दी की तहक़ीक़-मीर अंसर अ’ली

ज़ैल में दो आ’लिमाना ख़त तहरीर किए जाते हैं जो जनाब मौलाना मीर अनसर अ’ली चिश्ती निज़ामी अफ़सर-ए-आ’ला महकमा-ए-आबकारी,रियासत-ए-हैदराबाद दकन ने अ’र्सा हुआ इर्साल फ़रमाए थे। मीर मौसूफ़ नए ज़माना के तअस्सुरात के सबब फ़ुक़रा और हज़रात-ए-सूफ़िया-ए-किराम से बिल्कुल बद-अ’क़ीदाथे,मगर आपकी वालिदा मोहतरमा ने ब-वक़्त-ए- रिहलत ऐसी नेक दुआ’ दी कि फ़ौरन हज़रत मख़दूम सय्यिद… continue reading

बर्र-ए-सग़ीर में अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ के रिवाज पर चंद शवाहिद-(आठवीं सदी हिज्री तक)-डॉक्टर आ’रिफ़ नौशाही

शैख़ गंज शकर 569-664 हिज्री) अ’वारिफ़ का दर्स देते थे। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने अ’वारिफ़ के पाँच अबवाब उन्हीं से पढ़े थे। गंज शकर का पढ़ाने का अंदाज़ बहुत दिल-नशीन था और कोई दूसरा उन जैसा अ’वारिफ़ नहीं पढ़ा सकता था। बारहा ऐसा हुआ कि सुनने वाला उनके ज़ौक़-ए-बयान में ऐसा मह्व हुआ कि ये तमन्ना करते पाया गया कि काश उसी लम्हे मौत आ जाए तो बेहतर है। एक दिन ये किताब शैख़ की ख़िदमत में लाई गई तो इत्तिफ़ाक़ से उसी दिन उनके हाँ लड़का पैदा हुआ। शैख़ुश्शुयूख़ के लक़ब की मुनासबत से उस का लक़ब “शहाबुद्दीन” रखा गया।