बाबा फ़रीद शकर गंज

(पाल माल गज़ट लंदन से तर्जुमा )

पाक पट्टन शरीफ़ दुनिया-ए-तवारीख़ को अजोधन के नाम से तेईस सौ साल से मा’लूम है लेकिन उसका दूसरा नाम पाक पट्टन शरीफ़ आज से आठ सौ साल क़ब्ल उसे मिला था। उस वक़्त से ये अपने क़िला’ की मज़बूती के लिए नहीं बल्कि एक मुक़द्दस हस्ती की जा-ए-आराम होने के बा’इस इस्लामी दुनिया में शरीफ़ के नाम से याद किया जाता है।

सन1170 ई’स्वी की बात है कि वो पाक हस्ती मा’रिज़-ए-वजूद में आई थी जिसे आगे चल कर दुनिया में बहुत कुछ नाम पैदा करना था। उस हस्ती को अब दुनिया बाबा फ़रीदुद्दीन शकरगंज के नाम से याद करती है। बाबा साहिब ने तब्लीग़-ए-इस्लाम के काम में जो नाम पैदा किया है वो अपनी मिसाल आप है। आपको उस शहर से ख़ास उल्फ़त थी। चुनांचे वफ़ात पर आपका मज़ार-ए-अक़्दस भी उसी शहर में बना।

ज़ुह्द-ओ-तक़्वा और हद दर्जा की सख़्त इ’बादत मश्ररिक़ी मज़ाहिब का ख़ास्सा हैं। अपने हम-अ’स्र ज़ाहिदों से बाबा फ़रीद शकरगंज इन सब बातों में गो सब्क़त ले गए थे। आपकी रोज़ा-दारी का ये आ’लम था कि आपने मुतवातिर तीस साल तक माकूलात का एक ज़र्रा तक अपने अंदर जाने न दिया। कहा जाता है कि आपके पास लकड़ी की एक रोटी या लकड़ी से बने हुए अंगूरों का एक ख़ोशा होता था। भूक के वक़्त आप उन्हीं को काटते या पेट पर रखते।आपकी इश्तहा दूर हो जाती थी।ये रोटी और चोबी अंगूर आज तक आपकी ख़ानक़ाह में मौजूद हैं और ज़ाएरीन को उनकी ज़ियारत कराई जाती है। आपकी शोहरत अफ़्ग़ानिस्तान, फ़ारस और वस्त एशिया के दूर-दराज़ कोनों तक फैल गई। यहाँ तक कि अजोधन का नाम आप ही के तुफ़ैल से पाक पट्टन और फिर पाक पट्टन शरीफ़ हो गया।

पाक पट्टन आजकल की मुल्की तक़्सीम के लिहाज़ से मोंटगोमेरी के ज़िला में वाक़े’ है । अगर दूर से देखा जाए तो एक सब्ज़ सियाह बादल उफ़ुक़-ए-आसमान में ज़मीन और आसमान को मिलाता हुआ नज़र आता है लेकिन जूँ-जूँ नज़दीक आते जाएँ वैसे वैसे  सियाह बादल पहाड़ी का शक्ल इख़्तियार कर लेता है। पहाड़ी के दामन से लेकर बुलंदी तक ये शहर फैला हुआ है। एक मकान पर दूसरा मकान उठता हुआ नज़र आता है और अजब मंज़र पेश करता है। इन ऊंचे और ऊंचे मकानों के ऐ’न बीचों-ओ-बीच सबसे बुलंद पत्थर की उ’म्दा और सफ़ैद इ’मारत है जो बाबा साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैहि की ख़ानक़ाह है।

पाक पट्टन की गलियाँ गंदी और तंग हैं। उनकी तंगी का ये हाल है कि आमने सामने से आते हुए दो आदमी गुज़र नहीं सकते तावक़्ते कि एक हट कर दीवार से न लग जाए या दोनों कंधा मार कर न चलें। लेकिन एक बड़ी सड़क पहाड़ी की चोटी की तरफ़ जाती है । पहाड़ी कोई पच्चास फुट बुलंद है। उस के ऐ’न दर्मियान में बाएं हाथ को ख़ानक़ाह-ए-मुअ’ल्ला की सफ़ैद इ’मारत खड़ी है।उस इ’मारत के शर्क़ी और ग़र्बी दो दरवाज़े हैं। संग-ए-सियाह के मोटे हुरूफ़ में कत्बे और अश्आ’र लिखे हुए हैं। दोनों दरवाज़ों पर ला-इला-ह-इल्लल्लाह का मशहूर कलिमा शरीफ़ तहरीर है जो सैकड़ों बरसों से मुसलमानों की तौहीद-परस्ती का गवाह है।

ख़ानक़ाह के अंदर क़ब्र ज़मीन से चंद फुट ऊंची है जिसके पास सिर्फ़ एक मद्धम सा दिया जलता रहता है। ख़ानक़ाह का ज़ेवर सादगी है । यहाँ इस क़दर नूर बरस रहा है कि मुंकिर भी मज्बूरन मान लेते हैं कि यहाँ कोई ख़ुदा-परस्त आराम कर रहा है। क़ब्र के पास और क़ब्र में ख़ानक़ाह के मुजाविर मदफ़ून हैं।बाबा साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह की वफ़ात के बा’द आज तक उनतीस  मुजाविर ख़ानक़ाह-ए-मुअ’ल्ला की जारूब-कशी कर के बहिश्त-ए-बरीं में आराम फ़रमा चुके हैं। ख़ानक़ाह के रूपहली दरवाज़ों में से जुनूबी दरवाज़ा ख़ास तौर पर क़द्र-ए-उल्फ़त की निगाह से देखा जाता है क्योंकि उसे “दरवाज़ा-ए-इरम” के नाम से याद किया जाता है। उस दरवाज़े में दो भारी भारी क़ुफ़्ल पड़े रहते हैं जिनमें से एक की कुंजी तो एक मुसलमान के पास रहती है जो बाबा साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह के ख़ानदान से बताया जाता है और दूसरी एक हिंदू के पास होती है । ये कुंजी आठ सौ साल से हिंदूओं के क़ब्ज़े में है और उस दिन से उन के हाथ में आई है जब कि बाबा साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह ने आ’लम-ए-फ़ानी को ख़ैरबाद कहा था। हिंदू आज तक बावजूद आठ सौ साल गुज़र जाने के बाबा जी रहमतुल्लाहि अ’लैह के मुरीद हैं और उस कुंजी के हक़-दार मुतसव्वर होते हैं।

हर माह-ए-मुहर्रम की चौथी और पाँचवीं तारीख़ की दर्मियानी रात को ये दरवाज़ा खुलता है और जो कोई भी बहिश्त हासिल करने का मुतमन्नी होता है उसे लाज़िम है कि उस अ’र्सा में उस दरवाज़े में से गुज़रे। “दरवाज़ा-ए-इरम” के पास ही बाएं हाथ को चटाईयों की एक झोंपड़ी सी बनी हुई है। उस झोंपड़ी में एक फ़क़ीर पत्थरों पर लेटा रहता है। आज उसे उस में दाख़िल हुए छः साल हुए हैं। मौसम-ए-गर्मा की चिलचिलाती गर्मियाँ और सर्मा की कड़ाके की सर्दियाँ उसने यहीं गुज़ारी हैं।गाह-गाह वो रात के वक़्त बाहर निकलता है और कभी कभी दो-चार निवाले रोटी के खा लेता है वर्ना वहीं पड़ा मौत का इंतिज़ार करता रहता है और लोग आकर उसकी ज़ियारत करते हैं।

जब सय्याह अ’स्र के वक़्त जाते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता वही सूरज जिसकी तरफ़ आँख भर कर देखा नहीं जाता ज़र्द पड़ कर एक सुनहरी थाल की सूरत इख़्तियार कर के मग़्रिब   में ग़ुरूब हो जाता है तो मुअज़्ज़िन की ज़बरदस्त और दिल हिला देने वाली आवाज़ बुलंद होती है जो पत्थरों के चटानों से टकराती हुई दूर तक जाती और सारे शहर में एक हैबत-नाक गूंज पैदा कर देती है। अज़ान की आवाज़ सुनते ही लोग कारोबार छोड़कर मस्जिद की तरफ़ भागते हैं और सब मिलकर अपनी नमाज़ अदा करते हैं। अज़ान के ख़त्म होने के बा’द जब सब नमाज़ी मिल कर ला-इला-ह-इल्लल्लाह की सदा बुलंद करते हैं तो अ’जब आ’लम नज़र आता है।

पाकपट्टन का छोटा सा शहर मुहर्रम के अय्याम में ज़ाइरीन से भर जाता है जिनकी ता’दाद कम से कम सात हज़ार होती है और जिनमें दुनिया-ए-इस्लाम के हर हिस्सा के लोग मौजूद होते हैं। मद्रास के लोग, अफ़्ग़ानिस्तान के बाशिंदे , फ़ारस, बल्ख़, बुख़ारा और तुर्किस्तान के ज़ाइर भी आते हैं। हत्ता कि एशिया की तमाम ज़बानें ख़ानक़ाह के गिर्द सुनाई देती हैं। थके-माँदे और कोफ़ता ज़ाइरीन ऊँटों पर, छकड़ों पर और गाड़ियों पर आते हैं। ये ज़ाइरीन अक्सर गाते और ख़ुशियाँ मनाते आते हैं। फ़र्त-ए-इंबिसात से वज्द में आते हैं और ख़ुदा का शुक्र अदा करते हैं कि ज़िंदगी में एक दफ़ा’ फिर ख़ानक़ाह-ए-मुअ’ल्ला की ज़ियारत नसीब हुई है। शहर के जुनूब की तरफ़ जो ख़ौफ़नाक मैदान दामन-ए-कोह में वाक़े’  है ये सारे का सारा ज़ाइरीन से पुर हो जाता है जो यहां जंगल में मंगल का समां बांधते  हैं और अपनी  चहल पहल से इस हू के मैदान को पुर-रौनक़ शहर बना देते हैं।

ऊंट,तमाशा-गर, रीछ और बंदर नचाने वाले ग़रज़ ये कि कोई ऐसा खेल नहीं होता जो यहाँ मौजूद न हो। तमाशा-गरों और देखने वालों का इस क़दर जमघटा होता है कि अंदाज़ा लगाना दुश्वार हो जाता है। मगर ये न समझें कि तमाशा-गर सिर्फ़ कमाने की ग़रज़ से आते हैं। हर्गिज़ नहीं बल्कि वो बाबा साहिब की ख़ानक़ाह की ज़ियारत के लिए आते हैं। भीड़ में आपको टोपी-पोश,पगड़ियाँ बाँधने वाले, अंग्रेज़ सूट-बूट से आरास्ता और काबुली चने इस्ति’माल करने वाले लोग नज़र आएँगे। बहरे,गूँगे,अंधे,कोढी ,तंदुरुस्त,पाजामा,पतलून और तह-बंद बाँधने वाले,उर्दू, फ़ारसी, पश्तो, अंग्रेज़ी, तमिल और अ’रबी बोलने वाले लोग मौजूद होते हैं और उन सबका मतलब एक ही होता है कि किसी तरह ‘दरवाज़ा-ए-इरम’में से गुज़र जाएं।

इस बहिश्ती दरवाज़े में से ज़ाइरीन का गुज़रना कोई मा’मूली बात नहीं बल्कि इसके लिए मक़ामी अफ़्सरों को हर साल ख़ास इंतिज़ाम करना पड़ता है।एक रात के अ’र्सा में चालीस हज़ार या साठ हज़ार ज़ाइरीन का एक तंग दरवाज़े में से गुज़रना और फिर किसी को गज़ंद न पहुंचना क़तअ’न ना-मुमकिन है।यही वजह है कि पुलिस के बहुत से सिपाही यहाँ इस मौक़ा’ पर पहुंचा दिए जाते हैं कि ज़ाइरीन को किसी की तकलीफ़ हो तो फ़ौरन पहुंच सकें। शहर के बाहर से लेकर दरवाज़ा-ए-बहिश्ती तक दो दीवारें खड़ी की जाती हैं जिनका दर्मियानी फ़ासिला ढाई फ़ुट के क़रीब होता है।

हर ज़ाइर के लिए ज़रूरी है कि शहर में दाख़िल होने से क़ब्ल उस तंग खाई की सी जगह में खड़ा हो।इस से ये फ़ाइदा होता है कि ज़ाइर लोग एक एक कर के इस घाटी में दाख़िल होते हैं और उनकी जद्द-ओ-जुहद से बहिश्ती दरवाज़े को कोई नुक़्सान नहीं पहुंचता और उन लोगों की धक्क-मुक्का से ज़्यादा नुक़्सान नहीं होता क्योंकि बाहर मैदान खुला होता है और हवा गंदी नहीं होने पाती। इसके अ’लावा ख़ानकाह-ए-मुअ’ल्ला के सहन में हज़ारहा ज़ाइरीन मौजूद होते हैं।ये वो लोग हैं जिन्हें उन दीवारों में से गुज़रने की ज़रूरत नहीं बल्कि उन्हें ख़ास दरवाज़े से गुज़ार लिया जाता है। ये लोग अक्सर नाबीने,बीमार,बूढ़े, बच्चे,हर दर्जा के अफ़्सर,मुख़्तलिफ़ ममालिक के शोरफ़ा या नवाब वग़ैरा होते हैं।

जब वो रात आती है जबकि साल भर के बा’द दरवाज़-ए-इरम खुलना होता है तो शाम होते ही उसे लॉक कर दिया जाता है और ज़ाइरीन को यके बा’द दीगरे उस के नीचे से गुज़रने की इजाज़त दी जाती है।

उस वक़्त ख़ानक़ाह-ए-मुअ’ल्ला पर अ’जब नूर बरस रहा होता है। दिये की मद्धम रौशनी में मंज़र पुर-हैबत और पुर-जलाल नज़र आता है। ज़ाइरीन को दीवारों की तरफ़ हटा दिया जाता है और क़ब्र के इर्द-गिर्द की जगह साफ़ कर दी जाती है। ये ज़ाइर हर वक़्त ख़ुदा का नाम जपते रहते हैं।

दरवाज़े में एक अमृतसरी फ़क़ीर खड़ा हो जाता है।ये अपना एक हाथ और सर दहलीज़ से लगा लेता है और मुँह आसमान की तरफ़ कर के  कुछ पढ़ना शुरूअ’ कर देता है।उसके बदन पर लोहे की ज़ंजीरें कसरत से होती हैं।वह चार अब्रू का सफ़ाया कराया होता है। उसकी शक्ल अतालिया के पोपों से बहुत कुछ मिलती जुलती  होती है। हर साल ये उसी तौर से फ़रीद-ए-आ’ज़म के हुज़ूर अपनी अ’क़ीदत का इज़हार करता है।

जब मुक़र्ररा वक़्त आ जाता है और नमाज़-ए-मग़रिब से ख़ुदा-परस्त लोग फ़ारिग़ हो जाते हैं तो दरवाज़े के क़ुफ़्लों के कुंजी-बर्दार हिंदू-मुसलमान दोनों अपने अपने मकानों से बाहर निकलते हैं।उन के साथ कई मौलवी और आ’लिम होते हैं और उनको देखते ही ज़ाइर लोग ख़ुशी और इंबिसात के ना’रे बुलंद करते हैं। दरवाज़े की तरफ़ एक गोल रास्ता जाता है जिस पर होते हुए ये लोग चक्कर खाकर दरवाज़े के पास पहुंचते हैं।उस वक़्त ढोल नक़्क़ारे और नफ़ीरी के शोर के बाइ’स आवाज़ तक सुनाई नहीं देती।

जो भी दरवाज़ा खुलता है उसके भारी पट खोल दिए जाते हैं।ज़ाइरीन तमाम तर्तीब को ख़ैर-बाद कह कर दीवाना-वार अपने मुद्दआ’ के हुसूल के लिए जद्द-ओ-जुहद करने लग जाते हैं। उस वक़्त किसी को किसी का ख़्याल नहीं होता।हर एक नफ़्सी-नफ़्सी पुकारता है और ये चाहता है कि सबसे पहले मैं गुज़र जाऊं लेकिन वैसी पुलिस (जिसके साथ चंद अंग्रेज़ अफ़्सर भी होते हैं) फ़ौरन काम करने लग जाती है। क़ानून की लाठियाँ वफ़ादार ज़ाइरीन के सरों पर पड़ने लग जाती हैं। लोगों को जबरन पीछे हटा कर दुबारा क़तारें बनाई जाती हैं। फिर वही बे-तर्तीबी का आ’लम हो जाता है और लोग कुहनियाँ और कंधे मार-मार कर अपना रस्ता बनाने लग जाते हैं।

इस दफ़ा’ दरवाज़ा बंद कर दिया जाता है और जो लोग ज़ख़्मी हो जाते हैं उनकी चीख़ों और आहों से आसमान गूंज उठता है। पुलिस फिर कोशिश करती है और आख़िर तर्तीब फिर क़ाइम हो जाती है|दो दो और तीन तीन करके पुलिस ज़ाइरीन को अंदर दाख़िल करती है। ये लोग ‘फ़रीद-फ़रीद’ के ना’रे लगाते निकल जाते हैं| अगर दरवाज़े के पास खड़ा हो कर देखा जाए तो अ’जीब मंज़र पेश-ए-नज़र होता है। वो देखिए एक मुअ’म्मर बुज़ुर्ग ज़ाइर चला आता है जो हिन्दुस्तान से दूर दराज़ का सफ़र तय कर के आया है। माथे का गठ्ठा नमाज़ी होने का मज़हर है।हाथ में ज़मुर्रद की तस्बीह है जिसके दानों को वो जल्दी जल्दी हरकत दिया जाता है और जूँ-जूँ दरवाज़ा-ए-इरम नज़दीक आता जाता है उस हरकत में और भी तरक़्क़ी होती जाती है और अल्लाहु-अकबर,सुब्हानल्लाह और अल-हमदुलिल्लाह का विर्द करता दरवाज़े में से गुज़र जाता है।

उस के पीछे-पीछे एक और शख़्स आता है जिसका सुर्ख़ चेहरा और उलझे हुए बाल ज़ाहिर कर रहे हैं कि वो शिमाल के  किसी इ’लाक़े का बाशिंदा है।उ’क़ाबी नाक और बाज़ की तरह आँखें गवाही दे रही हैं कि उसके लिए किसी का क़त्ल कर देना या किसी का माल लूट लेना कोई बड़ी बात नहीं। खुर्दुरे हाथ ब-ज़बान-ए-हाल शहादत दे रहे हैं कि उन्होंने कई बे-गुनाहों को लूटा और गोशा-ए-क़ब्र में सुलाया है लेकिन बाबा फ़रीद रहमतुल्लाहि अ’लैह के दरवाज़े पर ये भी एक बे-बस ज़ाइर है। आँखें आँसुओं से भरी हुई हैं और ‘फ़रीद फ़रीद’ कहता हुआ ये अ’क़ीदत-मंद भी अंदर दाख़िल हो जाता है।

लुढ़कता हुआ, क़दम-क़दम पर लड़खड़ाता, कमान की तरह झुकी हुई पुश्त और सफ़ैद बुराक़ दाढ़ी वाला बूढ़ा जो किसी गाँव का सरदार है और जिसकी आँखों की बीनाई इम्तिदाद-ए-ज़माना के हाथों क़रीबन ना-बूद हो चुकी है आता है और फ़रीद-फ़रीद का विर्द करता हुआ ‘दरवाज़ा-ए-इरम में से गुज़र जाता है। जवान बूढ़े तंदुरुस्त और बीमार आते हैं और दरवाज़े में से गुज़र जाते हैं। सब का ईमान और ए’तिक़ाद है कि बाबा साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह के क़दमों की ज़ियारत उनके लिए शफ़ाअ’त,अम्न और तसल्ली का बा’इस होगी और वो सच-मुच मुतसल्ली हो कर जाते हैं।

जब सहन के अंदर के ज़ाइर अपनी मुराद पा चुकते हैं तो बाहर के लोगों की बारी आती है।वहाँ भी वही शोर-ओ-ग़ुल।वही बे-तर्तीबी और वही जद्द-ओ-जुहद का आ’लम होता है।लोग ज़ोर दे-देकर दीवारों के अंदर दाख़िल होते हैं लेकिन पुलिस के ज़बरदस्त हाथ उन्हें रोक देते हैं। बहुत सी कश्मकश के बा’द यहाँ भी तर्तीब क़ाइम हो जाती है लेकिन पुलिस की अन-थक कोशिशों से भी ज़ाइरीन की तकलीफ़ कम नहीं होती।

कई आदमियों के ज़ख़्म-ख़ुर्दा सर और ज़रर-रसीदा आँखें उस रात के गुज़र जाने के बा’द कई दिन तक इस अम्र की शहादत देती हैं कि दरवाज़ा-ए-इरम में दाख़िल होना कुछ आसान काम नहीं।लोग उस तकलीफ़ को बड़ी ख़ुशी से बर्दाश्त करते हैं और हाथ उठा कर नाचते और गाते हैं।या-अल्लाह या-मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम ,हाजी क़ुतुबु और बाबा फ़रीद शकर गंज के ना’रों से ज़मीन-ओ-आसमान गूंज उठते हैं|

मुख़्तलिफ़ ना’रों में सबसे ज़्यादा ना’रा या-फ़रीद या-फ़रीद का सुनाई देता है| इसके बोलने वालों की कसरत का अंदाज़ा इस हक़ीक़त-ए-नफ़्सुल-अमरी से हो सकता है कि उन ना’रों की गूंज के सामने ढोलों और नक़्क़ारों की आवाज़ कुछ हक़ीक़त नहीं रखती हालाँकि ये ढोल और नक़्क़ारे सैकड़ों की ता’दाद में बज रहे होते हैं।

पुलिस थक जाती है लेकिन ज़ाइरीन की आमद का सिल्सिला उसी ज़ोर-ओ-शोर से जारी रहता है। जब कभी दरवाज़ा-ए-ख़ानक़ाह पर भीड़ इकठ्ठा हो जाती है तो आवाज़ लगाया जाता है कि सब बैठ जाओ।ज़ाइर क़ितार दर क़ितार बैठ जाते हैं|जो खड़ा रहता है उस पर डंडा पड़ता है और आख़िर वो भी बैठ जाता है।जब रास्ता ख़ाली हो जाता है तो फिर आवाज़ आती है ‘भाईयों आओ’ और फिर लोग अंदर जाना शुरूअ’ हो जाते हैं।

फिर आधी रात और सेह पहर रात गुज़र जाती है। हवा में खुनकी बल्कि सर्दी पैदा हो जाती है। चाँद उफ़ुक़-ए-आसमान में ग़ुरूब हो जाता है लेकिन हज़ारों ज़ाइर शौक-ए-ज़ियारत में क़ितार दर-क़ितार अपनी बारी के इंतिज़ार में बैठे रहते हैं और सुब्ह तक इंतिज़ार करने का तहय्या कर लेते हैं।शोर-ओ-ग़ौग़ा,बाजे,नक़्क़ारे,ढोल वग़ैरा सब बंद हो जाते हैं।जूँ-जूँ रात गुज़र जाती है तर्तीब ज़्यादा उ’म्दा हो जाती है और शुदा-शुदा सब क़तारें अपनी बारी पर उन दीवारों में दाख़िल हो कर दरवाज़ा-ए-इरम तक पहुँचती हैं और लोग ज़ियारत कर के अपनी दिली मुराद हासिल करते हैं।

सुब्ह हो जाती है गर्चे हज़ारों ज़ाइर शाद-काम हो जाते हैं। ता-हम सैकड़ों अभी बाक़ी होते हैं।फिर शोर-ओ-ग़ौग़ा होता है।कई ख़ुश-ए’तिक़ाद दुबारा क़तार में दाख़िल हो जाते हैं।लोग क़तार दर क़तार दरवाज़ा की तरफ़ जाते हैं और पेशतर इस से कि दरवाज़ा दुबारा साल भर के लिए बंद हो कम अज़ कम साठ सत्तर हज़ार मुरीद शरफ़-ए-ज़ियारत हासिल कर लेते हैं।

उस वक़्त पाकपट्टन का अ’जीब हाल होता है।उधर दरवाज़ा बंद होता है इधर सब लोग सोने लग जाते हैं। दो घंटे के अ’र्सा में हज़ारहा मख़लूक़-ए-ख़ुदा में से कोई मुतनफ़्फ़िस जागता नज़र नहीं आता।उन लोगों की नींद गहरी और पुर-अम्न होती है क्योंकि उनके दिल मुतसल्ली हो जाते हैं और उन्हें यक़ीन होता है कि उन्होंने इस चंद रोज़ा ज़िंदगी में एक नेक काम किया है। उम्मीद-ए-शफ़ाअ’त और रहमान के दिलों को शगुफ़्ता कर देती है और दरवाज़ा-ए-इरम में से गुज़रने की ने’मत हासिल करने के बा’द वो अम्न-ओ-चैन की नींद सोते हैं।

साभार – निज़ाम उल मशायख़

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