हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर के तबर्रुकात-मौलाना मुफ़्ती नसीम अहमद फ़रीदी

अमरोहा, उत्तर प्रदेश के ज़िला’ मुरादाबाद के एक मशहूर-ओ-मा’रूफ़ और क़दीम तारीख़ी क़स्बा का इब्न-ए-बतूता ने अपने  सफ़र-नामा में अपने अमरोहा आने का ज़िक्र किया है। इस क़स्बा की बहुत सी तारीखें मुख़्तलिफ़ ज़बानों में लिखी गई हैं। यहाँ हर फ़न के अहल-ए-कमाल पैदा हुए हैं। यहाँ के मशाइख़-ओ-उ’लमा और अतिब्बा-ओ-शो’रा ने हिन्दुस्तान में और हिन्दुस्तान के बाहर भी बहुत शोहरत हासिल की है।

यहाँ पर सुहरवर्दी, क़ादरी, चिश्ती और नक़्शबंदी सिलसिलों के बुज़ुर्गान-ए-तरीक़त के मज़ारात भी हैं और उनकी बा’ज़ क़दीम ख़ान-क़ाहों के कुछ आसार अभी तक बाक़ी हैं।

हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर अजोधन पाक-पत्तन  की औलाद भी इस क़स्बे में पुराने ज़माने से आबाद है। एक मोहल्ले में ख़ास-तौर पर उन्हीं की औलाद रहती है जिसका नाम पहले मोहल्ला शैख़ ज़ाद-गान था और अब इसी को मोहल्ला झंडा शहीद कहा जाता है।

किताब जवाहर-ए-फ़रीदी में जो अ’हद-ए-जहाँगीरी की तालीफ़ है असग़र अ’ली चिश्ती ने लिखा है कि हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर रहमतुल्लाहि अ’लैह की औलाद और मक़ामात के अ’लावा  अमरोहा और रजबपुर में भी आबाद है। ख़ास तौर पर हाजी शैख़ अ’ब्दुल-ग़फ़ूर अमरोही के फ़र्जंद शैख़  मा’मूर का ज़िक्र किया है।हज़रत बाबा फ़रीद रहमतुल्लाहि अ’लैह का अवध के बा’ज़ मक़ामात मसलन पाला मट्टू, रुदौली वग़ैरा तशरीफ़ ले जाना भी बा’ज़ मो’तबर और क़दीम तज़्किरों से साबित हुआ है।हज़रत बाबा फ़रीद के एक साहिब-ज़ादे ख़्वाजा मोहम्मद या’क़ूब भी थे।इनके बारे में सय्यिद मोहम्मद मुबारक किरमानी मुअल्लिफ़ सियरुल-औलिया ने लिखा है कि जब वो अवध से अपने वतन की तरफ़ वापस हो रहे थे तो रास्ते में अमरोहा के क़रीब “मर्दान-ए-ग़ैब” ने उनको उचक लिया था।

अख़बारुल-अख़्यार में शैख़ अ’ब्दुल हक़ मोहद्दिस देहलवी (रहि.)ने भी ख़्वाजा मोहम्मद या’क़ूब के तज़्किरे में इस बात का इज़्हार किया है।बाबा साहब की कुछ औलाद दिल्ली के मोहल्ला अ’रब सराय में भी आबाद हो गई थी।उनमें से बा’ज़ का ज़िक्र सियरुल-औलीया में भी मिलता है।हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह में बा’ज़ के मज़ारात भी हैं।कुछ मौजूद हैं और कुछ के आसार मिट गए हैं।यहीं से बा’ज़ हज़रात मोहम्मद बिन तुग़लक़ के ज़माने में दौलताबाद को भी मुंतक़िल हो गए थे।

हज़रत बाबा फ़रीद के एक साहिब-ज़ादे शैख़ निज़ामुद्दीन शहीद नथमबूरी थे।इनके बारे में सब क़दीम तज़्किरा-निगार लिखते हैं कि बाबा साहिब इन्हें बहुत चाहते थे और ये उनके मिज़ाज में ख़ासा दख़्ल रखते थे।इनके पोते शैख़ सालार को सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के ज़माने में नवाह-ए-अमरोहा में जागीर दी गई थी जैसा कि तज़्किरतुल-किराम या’नी तारीख़-ए- अमरोहा मुवल्लफ़ा महमूद अहमद अ’ब्बासी में भी लिखा हुआ है।

शैख़ सालार के पोते हज़रत ख़्वाजा बहाउद्दीन और उनके साहिब-ज़ादे ख़्वाजा ज़ियाउद्दीन और उनके साहिबज़ादे हाजी शैख़ मोहम्मद मूसा थे।इन तीनों बुज़ुर्गों के मज़ारात रजबपुर में अब तक मौजूद हैं।ऐसा मा’लूम होता है कि ख़ुद शैख़ सालार ने या उनकी औलाद में से किसी ने रजबपुर में मुस्तक़िल सुकूनत इख़्तियार की होगी।रजबपुर अमरोहा से 7-8 मील के फ़ासले पर वाक़े’ है।

हाजी मोहम्मद मूसा के तीन साहिब-ज़ादे शैख़ ताहिर,शैख़ मुनव्वर और शैख़ लहरा थे।अ’हद-ए-तुग़लक़ में बाबा साहिब की औलाद को जो रजबपुर में थी 24 गाँव मदद-ए-मआ’श में अ’ता हुए थे।अ’हद-ए-औरंगज़ेब में उन 24 मौज़आ’त की तक़्सीम हाजी मोहम्मद मूसा के तीनों साहिब-ज़ादों की औलाद में हुई और हर फ़रीक़ के हिस्से में 8-8 गाँव आए थे।हाजी मोहम्मद मूसा के साहिब-ज़ादे शैख़ मुनव्वर जो अपने अ’हद के शैख़ुल-मशाइख़ थे, बहलोल लोधी के ज़माने में रजबपुर से आ कर अमरोहा में आबाद हुए।अ’हद-ए-सिकन्दर शाह लोधी में उनको अमरोहा और कालपी के इलाक़ों में जागीर मिली थी।

शैख़ मुनव्वर के एक साहिब-ज़ादे शैख़ मोहम्मद ई’सा चानलदा थे।ये भी अपने ज़माने के शैख़-ए-तरीक़त और अपने आबा के जाँ-नशीन-ओ-सज्जादा नशीन थे।आपका सिलसिला-ए-बैअ’त अपने बाप दादा से था और आपके पास वो क़दीम तबर्रुकात भी महफ़ूज़ थे जिन्हें सबसे पहले शैख़ सालार अपने साथ अमरोहा लाए थे।इन तबर्रुकात को हज़रत बाबा फ़रीद और उनके पीर-ओ-मुरीद हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी (रहि.) देहलवी से निस्बत का शरफ़ हासिल है।ये तबर्रुकात पहले एक पुरानी वज़अ’ के लकड़ी के पिटारे में रखे हुए थे। जिसे देखकर ख़ुद अंदाज़ा होता था कि ये पिटारा पाँच छः सौ साल पुराना होगा।फिर ज़्यादा बोसीदा हो जाने की वजह से इन तबर्रुकात को तह ब-तह कर के कपड़े में इस तरह सिल्वा दिया गया है कि इनका सिर्फ़ थोड़ा सा हिस्सा देखा जा सकता है और बाक़ी हिस्सा तीन तरफ़ से कपड़े में लपेट दिया गया है।मोहल्ला झंडा शहीद पर एक मकान जिसकी कोठरी में ये तबर्रुकात तक़रीबन पाँच सौ साल तक रखे रहे हैं अब वो सब मकान मुंहदिम हो चुके हैं और उनकी जगह नई नई ता’मीरें हो गई हैं।मगर उस पुरानी कोठरी का खंडर अभी तक बाक़ी है लेकिन इसकी ये नुमूद भी चंद रोज़ की मेहमान है।

ये सब तबर्रुकात बा’द के सज्जादा-नशीनों और जाँ-नशीनों के हाथों में मुंतक़िल होते चले आए हैं और हर साल यकुम शव्वाल को ई’द की नमाज़ के बा’द इन तबर्रुकात की ज़ियारत मोहल्ला झंडा शहीद की मस्जिद में होती चली आई है।आज-कल जमाल अहमद फ़रीदी निज़ामी हर साल नमाज़-ए-ई’द के बा’द लोगों को इन तबर्रुकात की ज़ियारत कराते हैं।

यहाँ ये बात बतानी ज़रूरी है कि इन तबर्रुकात में जो बुज़ुर्गों के जुब्बे और पैराहन हैं इनके अंदर ख़ास-तौर पर क़दामत और कुह्नगी के नुमायाँ आसार पाए जाते हैं।कपड़ों की ख़ुश्की और बोसीदगी से हर माहिर-ए-आसार-ए-क़दीमा को अंदाज़ा हो सकता है कि ये उसी ज़माने की अश्या हैं जिसकी बताई जाती हैं।रिवायत-ए-क़दीमा और शोहरत-ए-बलदी का तवातुर भी इस बात का यक़ीन दिलाने के लिए काफ़ी है कि ये फ़िल-हक़ीक़त हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी रहमतुल्लाहि अ’लैह और उनके बा’द के बुज़ुर्गान-ए-चिश्त के पैराहन हैं और दीगर अश्या सभी उन्ही बुज़ुर्गों से निस्बत रखती हैं।

बहर-हाल जिस तरह अमरोहा और रजबपुर में औलाद-ए-बाबा फ़रीद गंज शकर का आबाद होना तारीख़ी शवाहिद के अ’लावा शोहरत-ए-बलदी के तवातुर से साबित है उसी तरह ये तबर्रुकात भी क़दीम और मुतवातिर रिवायात के पेश-ए-नज़र क़ाबिल-ए-वसूक़ और यक़ीनी तौर पर मुस्तनद हैं।

इन तबर्रुकात की तफ़्सील ये है कि एक कुलाह और एक पैराहन है जिसके बारे में कहा जाता है कि हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबद्दीन बख़्तियार काकी रहमतुल्लाहि अ’लैह ने हज़रत बाबा फ़रीद रहमतुल्लाहि अ’लैह को अ’ता फ़रमाया था।एक गुदड़ी है जो ख़ास हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर की है।तस्बीहें मुतअ’द्दिद हैं उनमें कुछ वो हैं जो हज़रत बाबा फ़रीद को हज़रत क़ुतुब साहिब से मिली होंगी।बा’ज़ उनकी अपनी और उनके अख़लाफ़ की भी हैं।इनके अ’लावा दो मेरे पीरान-ए-चिश्त की पगड़ियाँ और शैख़ मोहम्मद ई’सा चानलदा की एक कुलाह और पैराहन भी है।

1975 ई’स्वी में अहल-ए-पंजाब ने उ’मूमन और सिखों ने ख़ुसूसन हज़रत बाबा फ़रीद का आठ सौ साला जश्न-ए-विलादत हिन्दुस्तान के मुख़्तलिफ़ शहरों में बड़ी धूम से मनाया था।इस मौक़ा’ पर पंजाबी यूनीवर्सिटी पटियाला में बाबा फ़रीद मेंमोरियल सोसाइटी भी क़ाएम की गई।इस सोसाइटी के एहतिमाम से 5/6 दिसंबर1975 ई’स्वी को मोहल्ला शैख़- ज़ादगान अमरोहा में भी एक अ’ज़ीमुश्शान कुल हिंद सेमिनार मुन्अ’क़िद हुआ।जिसमें हज़रत बाबा फ़रीद के हालात-ओ-मल्फ़ूज़ात पर और आपकी हयात-ए-मुबारक के मुख़्तलिफ़ गोशों पर आ’लिमाना मक़ालात पढ़े गए और तक़रीरें भी हुईं। ख़्वाजा हसन सानी निज़ामी देहलवी इस सेमिनार की मज्लिस-ए-इस्तिक़बालिया के सद्र थे और हिन्दुस्तान के मशहूर अहल-ए-क़लम, अदीब और यूनीवर्सिटी के प्रोफ़ेसर इसमें शरीक थे।दिल्ली यूनीवर्सिटी, पंजाब यूनीवर्सिटी,गुरू नानक यूनीवर्सिटी,पंजाबी यूनीवर्सिटी,जामिआ’ मिल्लिया इस्लामिया,  गवर्नमेंट कॉलेज फ़रीदकोट और देहली कॉलेज के मुतअ’द्दिद असातज़ा तशरीफ़ लाए थे।इस मौक़ा पर हज़रत बाबात फ़रीद के उन तबर्रुकात की आ’म ज़ियारत भी कराई गई थी।इन तबर्रुकात में हज़रत बाबा फ़रीद की एक कंघी भी महफ़ूज़ है जिसे देखकर पंजाब के बा’ज़ हज़रात ने बताया था कि मुल्तान के इ’लाक़ा में आज भी इस वज़अ’ की कंघियाँ देहात-ओ-क़स्बात के लोग बनाते हैं।सेमीनार के इस प्रोग्राम को ऑल इंडिया रेडियो के अ’लावा दिल्ली और अमृतसर के टेलीविज़न ने भी रिकॉर्ड किया था।

इनमें अक्सर तबर्रुकात चूँकि हज़रत बाबा साहिब को अपने पीर हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब से मिले थे इसलिए उनकी मिल्कियत और निस्बत की वजह से ये हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर का जुब्बा शरीफ़ कहलाते हैं।

इन तबर्रुकात के मुस्तनद होने की एक बड़ी दलील ये भी है कि गुज़िश्ता 6-7 सौ साल से एक ही ख़ानदान में महफ़ूज़ रखे रहने के बावजूद न कभी इन्हें आ’म शोहरत दी गई है न इनके ज़रिऐ’ से कोई मनफ़अ’त हासिल करने की कोशिश की गई है।बल्कि हज़रत बाबा साहिब की औलाद ने इन सब तबर्रुकात को एक निहायत अ’ज़ीज़, क़ीमती और मुक़द्दस सरमाया समझ कर महफ़ूज़ रखा है।सिर्फ़ नमाज़-ए-ई’द के बा’द इन तबर्रुकात की ज़ियारत उन हज़रात को नसीब होती है जो हुसूल-ए-बरकत-ओ-सआ’दत की निय्यत से ख़ुद ही वहाँ हाज़िर हो जाते हैं।

साभार – मुनादी पत्रिका

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