प्यारे भाई क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी -ख्व़ाजा साहब के ख़ुतूत अपने मुरीद-ए-ख़ास के नाम
पहला मक्तूब
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
मेरे प्यारे, मेरे क़ल्बी दोस्त, मेरे भाई क़ुतुबुद्दीन देहलवी
अल्लाह तआ’ला आपको दोनों जहाँ की सआ’दत अ’ता फ़रमाए।
बंदा-ए-मिस्कीन मुई’नुद्दीन की तरफ़ से सलाम-ए-मस्नूना के बा’द वाज़ेह हो कि असरार-ए-इलाही के चंद निकात मैं यहाँ लिख रहा हूँ। ये अपने सच्चे मुरीदों और हक़ के तालिब-इ’ल्मों को सिखा देना ताकि वो ग़लती में न पड़ें।
अ’ज़ीज़-ए-मन ! जिसने ख़ुदा को पहचान लिया वो कभी सवाल या ख़्वाहिश या आरज़ू नहीं करता। जिसने अभी तक नहीं पहचाना, वो उसकी बात को नहीं समझ सकता। दूसरा ये कि लालच को तर्क करो। जिसने लालच को तर्क किया उसने मक़्सूद हासिल कर लिया।
ऐसे शख़्स के बारे में ख़ुदा ने फ़रमाया है-
“व-नहन-नफ़्सा-अ’निल-हवा-फ़-इन्नल-जन्न-ता-हियल-मावा”
“वो शख़्स जिसने अपने नफ़्स को ख़्वाहिशात से रोक रखा है उसका ठिकाना जन्नत है”।
जिस दिल को ख़ुदा ने अपनी तरफ़ से फेर दिया है, उसे इंसानी ख़्वाहिशात के कफ़न में लपेट कर ज़मीन में दफ़्न कर दिया है।
एक रोज़ हज़रत ख़्वाजा बायज़ीद ने फ़रमाया कि एक रात मैंने ख़ुदा को ख़्वाब में देखा। मुझ से पूछा गया – बायज़ीद क्या चाहते हो ?
मैने कहा “जो तू चाहता है”। ख़िताब हुआ कि अच्छा ! जिस तरह तू मेरा है उसी तरह मैं तेरा हूँ।
हर कि गर्दन निहद रज़ा-ए-ऊ रा
मरा हक़-ए-निगाहबाँ बाशद
इसलिए अगर तसव्वुफ़ की असलियत से वाक़िफ़ होना चाहते हो तो अपने पर आराम का दरवाज़ा बंद कर दो और फिर मोहब्बत के बल बैठ जाओ ! अगर तुम ने यह कर लिया तो समझो कि बस तसव्वुफ़ के आ’लिम हो गए। तालिब-ए-हक़ को ये बात दिल-ओ-जान से बजा लानी चाहिए। इंशा-अल्लाह ऐसा करने से वो बुराइयों से नजात पाएगा और दोनों जहान की मुरादें हासिल करेगा।
एक रोज़ मेरे शैख़ साहिब ने फ़रमाया- मुई’नुद्दीन ! क्या तुझे मा’लूम है कि साहिब-ए-हुज़ूर किसे कहते है? देखो साहिब-ए-हुज़ूर वो है जो हर वक़्त बन्दगी में हो और हर होने वाली बात, हर एक वाक़िए’ को अल्लाह तआ’ला की तरफ़ से ख़याल करे। तमाम इ’बातदों का मक़्सद यही है। जिसे यह हासिल है वो जहान का बादशाह है। बल्कि जहान का बादशाह उस का मुहताज है।
एक रोज़ मेरे शैख़ ने मुझे ख़िताब कर के फ़रमाया कि बा’ज़ दरवेश जो कहते हैं कि जब तालिब कमाल हासिल कर लेता है तो उसे घबराहट रहती है। यह ग़लत है। दूसरे वह जो कहते हैं कि इ’बादत करना भी उसके लिए ज़रूरी नहीं होता यह भी ग़लत है क्योंकि हज़रत सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम हमेशा बंदगी और इ’बादत में मशगूल रहे। बावजूद कमाल-ए-बंदगी के आख़िर में यह फ़रमाया करते थे- “मा अ’बद्ना-क हक़्क़ा इ’बादति-क” (यानी हमने तेरी ऐसी इ’बादत नहीं की जैसी हमें करनी चाहिए थी ! )
या’नी जैसी चाहिए वैसी तेरी इ’बादत नहीं कर सकते और निहायत आ’जिज़ी से फ़रमाया करते थे-
“अश्हदु-अल्ला-इलाहा-इल्लल्लाहु-व-अश्हदु अन-न -मोहम्मदन-अ’ब्दुहु-व-रसूलुहु”।
मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि अल्लाह तआ’ला के सिवा… और कोई मा’बूद नहीं… और ये मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम उसका बंदा और भेजा हुआ है।
यक़ीन जानो कि जब आ’रिफ़ कमाल का दर्जा हासिल करता है तो उस वक़्त कमाल दर्जे की इ’बादत जिससे मुराद नमाज़ है, निहायत सच्चे दिल से अदा करता है। इस से ख़ुदा से नज़दीकी ज़्यादा हासिल होती है बल्कि अस्ल में यही नमाज़ है। जब कोई यह मा’लूम करके सच्चाई के काम लेता है तो उसे ऐसी प्यास महसूस होती है गोया उसने आग के कई प्याले पी रखे हैं। जूँ-जूँ वह ऐसे प्याले पिएगा प्यास बढती जाएगी इस हालत की कोई इन्तिहा नहीं, उस वक़्त उसका सुकून बे-सुकूनी और आराम बे-आरामी हो जाती है जब तक कि उसे ख़ुदा का दीदार न हो जाये!
वस्सलाम
मक्तूब -2
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
“मेरे भाई ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन देहलवी, अल्लाह तआ’ला दोनों जहान में आपको सआ’दत नसीब करे”।
सलाम-ए-मस्नूना के बा’द ये मक़्सूद है कि एक रोज़ हज़रत उ’स्मान हारूनी की ख़िदमत में ख़्वाजा नज्मुद्दीन साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह, सोग़रा ख़्वाजा मोहम्मद तारिक रहमतुल्लाहि अ’लैह और ये ख़ाकसार हाज़िर थे कि इतने में एक शख़्स ने हाज़िर-ए-ख़िदमत हो कर ख़्वाजा साहिब से पूछा कि यह कैसे मा’लूम पड़े कि किसी शख़्स को क़ुर्ब-ए-इलाही या’नी रब की नज़दीकी का शरफ़ हासिल हुआ है? फिर आँखों में आंसू भरकर फ़रमाया कि एक अमीर शख़्स के यहाँ एक दासी थी जो आधी रात के वक़्त उठ कर वज़ू कर के दो रकअ’त नमाज़ पढ़ती शुक्र-ए-हक़ बजा लाती और हाथ उठा कर दुआ’ करती, कि “परवरदिगार! मैं तेरा क़ुर्ब हासिल कर चुकी हूँ मुझे अब अपने से दूर न रखना”। उसके मालिक ने ये माजरा सुन कर उससे पूछा। तुम्हें कैसे मा’लूम है कि तुम्हें क़ुर्ब-ए-इलाही हासिल है? दासी ने कहा- साहिब ! मुझे यूँ मा’लूम है कि ख़ुदा ने मुझे आधी रात के वक़्त जाग कर दो रकअ’त नमाज़ पढ़ने की तौफ़ीक़ दे रखी है। इस वास्ते मैं जानती हूँ कि मुझे क़ुर्ब हासिल है।
मालिक ने कहा- जाओ ! मैंने तुम्हें अल्लाह के लिये आज़ाद किया।
इंसान को दिन-रात… इ’बादत-ए-इलाही में मसरूफ़ रहना चाहिए।
वस्सलाम
मकतूब नंबर (३)
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
अल्लाहुस्समद, मेरे भाई क़ुतुबुद्दीन, अल्लाह पाक आपके मर्तबे बुलंद रखे।
इस गुनहगार फ़क़ीर मुईनुद्दीन संजरी की तरफ़ से ख़ुशी-ओ-ख़ुर्रमी-आमेज़ उन्स-ओ-मुहब्बत भरा सलाम हो। मक़्सूद ये कि ता-दम-ए-तहरीर सेहत-ए-ज़ाहिरी के सबब मशकूर हूँ। अल्लाह पाक आपको सेहत-ए-दारैन अ’ता फ़रमाए।
भाई ! मेरे शैख़ ख़्वाजा उस्मान हारूनी फ़रमाते हैं सिवाए अहल-ए-मा’रिफ़त के और किसी को इ’श्क़ के रुमूज़ात (भेदों) से वाक़िफ़ नहीं करना चाहिए। ख़्वाजा शैख़ सा’दी ने उनसे से पूछा कि अहल-ए-मा’रिफ़त को कैसे पहचान सकते हैं तो ख़्वाजा साहिब ने फ़रमाया कि अहल-ए-मा’रिफ़त की अ’लामत तर्क है जिसमें तर्क होगी, यक़ीन जानो कि वो अहल-ए-मा’रिफ़त है और उसे ख़ुदा-शनासी हासिल है और जिसमें तर्क नहीं, उसमें मा’रिफ़त की बू भी नहीं। ये अच्छी तरह यक़ीन कर लो कि कलिमा-ए-शहादत और नफ़ी इस्बात हक़ तआ’ला की मा’रिफ़त है। माल-ओ-मर्तबा ने बहुत लोगों को सीधी राह से गुमराह किया और कर रहे हैं। ये बन्दों के ख़ुदा बन रहे हैं बहुत लोग जाह-ओ-माल की परस्तिश करते हैं।
जिसने माल-ओ-जाह की मोहब्बत को दिल से निकाल दिया, उसने गोया पूरी नफ़ी कर दी और जिसे हक़ तआ’ला की मा’रिफ़त हासिल हो गई उसने पूरा इस्बात कर लिया और ये बात ला-इलाहा इल्लल्लाह के कहने और उस पर अ’मल करने से हासिल होती है ।
वस्सलाम
मक्तूब नंबर (४)
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
हक़ाएक़-ओ-मआ’रिफ़ से वाक़िफ़, रब्बुल आ’रिफ़ीन के आ’शिक़ मेरे भाई क़ुतुबुददीन… वाज़ेह रहे कि इन्सानों में सबसे दाना या ज्ञानी फ़क़ीर लोग हैं, जिन्हों ने दरवेशी और ना-मुरादी को इख़्तियार कर रखा है, क्योंकि हर एक मुराद में ना-मुरादी है और ना-मुरादी में मुराद है बर-ख़िलाफ़ उसके अहल-ए-ग़फ़लत ने सेहत को ज़हमत और ज़हमत को सेहत ख़याल कर रखा है इसलिए दाना वही है कि जब किसी दुनियावी मुराद का उसे ख़याल आए उसे फ़ौरन तर्क कर के नामुरादी और फ़क़ीरी को इख़्तियार कर ले। अपनी मुराद को छोड़ कर ना-मुरादी से मुवाफ़क़त कर ले
“ना-मुरादी ता न-गर्दी बा-मुरादी के रसी”
इसलिए इंसान को ख़ुदा से वाबस्तगी लाज़िम है, जो हमेशा था और हमेशा रहेगा। अगर ख़ुदा आँखें दे तो राह में सिवाए उसके चेहरे के और कुछ ना देखे और दोनों जहान में जिसकी तरफ़ निगाह करे उस में उसी की हक़ीक़त देखे। दीन-दारी और आँख हासिल कर अगर ग़ौर से देखो तो ख़ाक का हर एक ज़र्रा जाम-ए-जहां-नुमा है।
वस्सलाम
मक्तूब -5
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
वासिलों के बर्गुज़ीदा। रब्बुल-आ’लमीन के आ’शिक़’ मेरे भाई क़ुतुबुद्दीन देहलवी (मा’बूद-ए-हक़ीक़ी की पनाह में होकर शाद काम रहें)
एक रोज़ ये दुआ’-गो हज़रत ख़्वाजा उ’स्मान हारूनी रहमतुल्लाह अ’लैह की ख़िदमत में हाज़िर था कि एक शख़्स ने आ कर अ’र्ज़ किया-
“शैख़ साहिब मैंने मुख़्तलिफ़ उ’लूम हासिल किए। बहुत ज़ुह्द किया। लेकिन मक़्सद नहीं पाया”।
ख़्वाजा साहिब ने फ़रमाया तुम्हें सिर्फ़ एक बात पर अ’मल करना चाहिए। आ’लिम भी हो जाओगे और ज़ाहिद भी। वो ये कि जनाब रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम ने फ़रमायाः
तर्कुद्दुनिया रासु कुल्लि इ’बादतिन-व-हुब्बुद्दुनिया रासु कुल्लि ख़तीअतिन।
दुनिया का तर्क करना तमाम इ’बादतों का सर है और दुनिया की मोहब्बत तमाम ख़ताओं की जड़ है।
अगर इस हदीस पर अ’मल करो… तो फिर तुम्हें किसी और इ’ल्म की ज़रूरत न रहे। या’नी अल-इ’ल्मु- नुक्ततुन गो इ’ल्म एक ही नुक्ता है। लेकिन इसका कह लेना आसान है मगर इस पर अ’मल करना मुश्किल है।
पस यक़ीन जानो कि तर्क उस वक़्त तक हासिल नहीं हो सकता जब तक मोहब्बत ब-दर्जा-ए-कमाल न हो और मोहब्बत पैदा होती है जब अल्लाह तआ’ला हिदायत करे। हक़ तआ’ला जिसे हिदायत दे वही हिदायत पा सकता है ।
पस इंसान को लाज़िम है कि अल्लाह तआ’ला ही का लिहाज़ कर के अपने वक़्त को दुनियावी ख़्वाहिशात के पूरा करने में ज़ाए’ न करे। बल्कि वक़्त को ग़नीमत समझ कर फ़क्र-ओ-फ़ाक़ा में उ’म्र बसर करे। आ’जिज़ी से पेश आए। गुनाहों की शर्मिंदगी के मारे सर न उठाए। हर हालत में आ’जिज़ी से पेश आए। क्योंकि बंदगी और इ’बादत में सब से अच्छा काम यही आ’जिज़ी है।
फिर इस मौक़ा’ के मुनासिब ये हिकायत बयान फ़रमाई कि हातिम असम, ख़्वाजा शफ़ीक़ बल्ख़ी के शागिर्द और मुरीद थे। एक रोज़ शैख़ साहिब ने पूछा कितने अ’र्से से तुम मेरी मोहब्बत-ओ-ख़िदमत में हो और मेरी बातें सुनते आए हो ? अ’र्ज़ किया- तीस साल से। पूछा फिर इस अ’र्से में कुछ हासिल किया और क्या कुछ फ़ाएदा उठाया? अ’र्ज़ किया शैख़ साहिब अगर आप सच पूछते हैं तो इनसे ज़्यादा की अब मुझे ज़रूरत नहीं। फ़रमाया इन्ना लिल्लाहि व-इन्ना-इलैहि राजिऊ’न।
हातिम! मैंने सारी उ’म्र तेरे काम में सर्फ़ कर दी। मैं नहीं चाहता कि इस से ज़्यादा हासिल करे। अ’र्ज़ किया मेरे लिए इतना ही इ’ल्म काफ़ी है क्योंकि दोनों जहान की नजात इन फ़ाएदों में आ जाती है। फ़रमाया। अच्छा उन्हें बयान करो?
अ’र्ज़ किया! उस्ताद साहिब!
पहला ये है कि मैंने लोगों को ग़ौर से देखा तो मा’लूम हुआ कि हर एक शख़्स ने किसी न किसी को अपना महबूब-ओ-मा’शूक़ क़रार रखा है। वो महबूब-ओ-मा’शूक़ इस क़िस्म के हैं कि कुछ मरज़-ए-मौत तक उसके साथ रहते है। कुछ मरने तक। उसके बा’द कोई भी साथ नहीं जाता। कोई ऐसा नहीं कि इंसान के साथ क़ब्र में जाकर उसका ग़म-ख़्वार हो। क़यामत की मंज़िल तय कराए । मुझे मा’लूम हुआ कि इन सिफ़ात से मुत्तसिफ़ महबूब सिर्फ़ अच्छे कर्म हैं । सो मैं ने इन्हें अपना महबूब बनाया और इन्हें अपने लिए हुज्जत इख़्तियार किया ताकि क़ब्र में भी मेरी ग़म-ख़्वारी करें। मेरे लिए चराग़ हों और हर एक मंज़िल में मेरे साथ रहें और मुझे छोड़ न जाएं।
ख़्वाजा शफ़ीक़ अ’लैहिर्रहमा ने फ़रमायाः हातिम ! तुमने बहुत अच्छा किया।
दूसरा ये कि जब मैंने लोगों को ग़ौर से देखा तो मा’लूम हुआ कि सब के सब लालची बने हुए हैं और नफ़्स के कहने पर चलते हैं। फिर मैने इस आयत पर ग़ौर किया।
व-अम्मा-मन ख़ाफ़ा-मक़ा-म-रब्बिही व-नहन-नफ़्सा-अ’निल-हवा। फ़-इन्नल-जन्न-ता-हियल-मावा।
“जिस ने अल्लाह तआ’ला से डर कर नफ़्स को ख़्वाहिशात से रोका उसका ठिकाना जन्नत है”। इसलिए मैं नफ़्स की मुख़ालफ़त पर कमर-बस्ता हो गया और उसे मुजाहिदे की कठाली पर रख दिया यानी मिट्टी का वह बर्तन जिसे चाँदी सोने आदि गलाने के लिए इस्ते’माल किया जाता है उसकी आर्ज़ू भी पूरी न की। सिर्फ़ अल्लाह तआ’ला की इताअ’त से मुझे आराम हासिल होता रहा।
ख़्वाजा शफ़ीक़ रहमतुल्लाहि अ’लैह ने फ़रमाया अल्लाह तआ’ला तुझे उसमें बरकरत दे। तूने ख़ूब कहा और अच्छा किया।
तीसरा फ़ाएदा ये कि जब मैने लोगों के हालात का मुशाहिदा ग़ौर से किया तो देखा कि हर शख़्स दुनिया के लिए कोशिश करता है। दुख और मुसीबत बर्दाश्त करता है। तब कहीं दुनिया के लोगों से कुछ हासिल होता है और फिर उस पर बड़ा ख़ुश रहता है। फिर मैं ने इस आयत पर ग़ौर किया।
मा-इ’न्दा-कुम यंफ़दु-व-मा-इ’न्दल्लाहि बाक़िन।
“जो कुछ तुम्हारे पास है वो ख़त्म हो जाने वाला है और अल्लाह के यहाँ वो बाक़ी रहने वाला है”। तो जो कुछ मैंने इकठ्ठा किया था सब ख़ुदा के रास्ते में ख़र्च कर दिया और अपने आप को अल्लाह तआ’ला के सुपुर्द कर दिया ताकि बारगाह-ए-इलाही में बाक़ी रहे और आख़िरत में मेरे लिए नजात का सामान बने।
ख़्वाजा शफ़ीक़ रहमतुल्लाहि अ’लैह ने फ़रमाया। अल्लाह तआ’ला तुझे बरकत दे तूने बहुत अच्छा किया है।
चौथा ये कि जब मैने लोगों के हालात को ग़ैर से देखा तो मा’लूम हुआ कि कुछ लोगों ने आदमी का मर्तबा और उसकी बुज़ुर्गी लोगों की भीड़ को समझ रखा है और उस पर वो फ़ख़्र करते है। कुछ ने समझ रखा है कि माल और औलाद पर इ’ज़्ज़त का इंहिसार है और उसको ही सब कुछ ख़याल करते हैं। फिर मैं ने इस आयत-ए-करीमा पर ग़ौर किया।
इन्ना-अक्रमकुम-इ’न्दल्लाहि अत्क़ाकुम।
“तुम में से अल्लाह तआ’ला के नज़दीक सबसे बढ़ कर वही इ’ज़्ज़त वाला समझा जाएगा जो सबसे ज़्यादा मुत्तक़ी यानी गुनाहों से बचने वाला होगा”। तो मा’लूम हुआ कि बस यही ठीक और हक़ है और जो कुछ लोगों ने ख़याल कर रखा है वो सरासर ग़लत है। सो मैं ने तक़्वा इख़्तियार किया ताकि मैं भी बारगाह-ए-इलाही में इ’ज़्ज़त वाला बन जाऊँ।
ख़्वाजा शफ़ीक़ अ’लैहिर्रहमा ने फ़रमाया। तूने बहुत अच्छा किया।
पाँचवाँ ये कि मैं ने जब लोगों के हालात को ग़ौर से देखा तो मा’लूम हुआ कि एक दूसरे को सिर्फ़ हसद की वजह से बुराई से याद करते हैं और हसद भी माल-मर्तबे और इ’ल्म का करते हैं। फिर मैं ने इस आयत पर ग़ौर किया।
क़सम्ना-बैनहुम-मई’शतहुम फ़िल-हयातिद्दुनिया
“हम ने उन में दुनियावी ज़िंदगी के लिए रोज़ी वग़ैरा तक़्सीम की”। तो जब अज़ल में उनके हिस्से ये चीज़ आ चुकी है और किसी का उस में इख़्तियार नहीं तो फिर हसद बे-फ़ाएदा है। तब से मैं ने हसद करना छोड़ दिया और हर एक से सुल्ह इख़्तियार की।
ख़्वाजा शफ़ीक़ुर्रहमा ने फ़रमाया। तूने बहुत अच्छा किया।
छट्ठा ये कि जब दुनिया को ग़ैर से देखा तो मा’लूम हुआ कि बा’ज़ आपस में दुश्मनी रखते हैं और किसी ख़ास काम के लिए एक दूसरे से लाग-बाज़ी करते हैं। फिर मैने इस आयत को ग़ौर से देखा। इन्नश्शैतान-लकुम-अ’दुव्वुम्मुबीन (पारा 8- रुकु’ 9) “शैतान तुम्हारा खुल्लम खुल्ला दुश्मन है”। तो मुझे मा’लूम हो गया कि अल्लाह तआ’ला का कलाम बिल्कुल सच्चा है। वाक़ई’ हमारा दुश्मन शैतान है। शैतान की पैरवी नहीं करनी चाहिए। तब से मैं सिर्फ़ शैतान को अपना दुश्मन जानता हूँ। न उसकी पैरवी करता हूँ न फ़रमा-बर्दारी। बल्कि अल्लाह तआ’ला के अहकाम बजा लाता हूँ। उसकी बुज़ुर्गी करता हूँ और ठीक भी यही है। चुनाँचे ख़ुद अल्लाह तबारक-व-ता’ला ने फ़रमाया-
अलम-आ’हद-इलैकुम-या-बनी आदमा-अल्ला- -ता’बुदूश्शैतान-इन्नहु-लकुम-अ’दुव्वुम्मुबीन। व-अनिअ’बुदूनी-हाज़ा सिरातुम्मुस्तक़ीम।
“ऐ आदम के बेटे ! क्या मैं ने तुम से अ’हद नहीं लिया था कि तुम शैतान की पैरवी-ओ-इ’बादत न करना। क्योंकि वो तुम्हारा खुल्लम-खुल्ला दुश्मन है। अगर तुम मेरी इ’बादत करो तो ये सीधी राह है”।
ख़्वाजा अ’लैहिर्रहमा ने फ़रमाया। तुम ने बहुत ख़ूब किया।
सातवाँ ये कि जब मैने लोगों को ध्यान से देखा तो मा’लूम हुआ कि हर शख़्स अपनी रोज़ी के लिए जी-तोड़ कोशिश करता है और इसी वजह से हराम के कामों में पड़ता है और अपने आपको ज़लील करता है। फिर मैं ने इस आयत को ग़ौर से देखा।
व-मा मिन-दाब्बातिन फ़िल-अर्ज़ि-इल्ला-अ’लल्लाहि-रिज़्क़ुहा।
ज़मीन पर कोई ऐसा जानदार नहीं जिसका रिज़्क़ अल्लाह तआ’ला के ज़िम्मे न हो”। तो समझ गया कि उसका फ़रमान हक़ है। मैं भी एक हैवान हूँ, तब से मैं अल्लाह तआ’ला की ख़िदमत में मश्ग़ूल हो गया और मुझे यक़ीन हो गया कि जो मेरी रोज़ी है वो मुझे मिलेगी क्योंकि इसका ज़िम्मा उसके पास है।
ख़्वाजा अ’लैहिर्रमा ने फ़रमाया। तूने बहुत अच्छा किया। अब आठवाँ फ़ाएदा बयान कर। अ’र्ज़ ये है कि जब मैं ने अल्लाह के बन्दों को ग़ौर से देखा तो मा’लूम हुआ कि हर शख़्स को किसी न किसी चींज़ पर भरोसा है। कुछ को सोने-चाँदी पर, कुछ को मुल्क-ओ-माल पर। फिर मैंने इस आयत को ग़ौर से देखा।
मय्यतावक्कल-अ’ल्लाहि-फ़-हुवा हस्बुहु,
तब से मैंने अल्लाह तआ’ला पर तवुक्कल किया। वो मुझे काफ़ी है और मेरा उ’म्दा वकील है। ख़्वाजा शफ़ीक़ अ’लैहिर्रहमा ने फ़रमाया। हातिम! अल्लाह तआ’ला तुम्हें इन बातों पर अ’मल की तौफ़ीक़ दे। मैने तौरेत-इंजील-ज़बूर फ़ुर्क़ान का ग़ौर से मुतालआ’ किया तो इन चारों किताबों से यही आठ बातें हासिल हुईं। जो इन पर अ’मल करता है गोया इन चारों किताबों पर अ’मल करता है।
इस हिकायत से तुझे मा’लूम हो गया कि ज़्यादा इ’ल्म की ज़रूरत नहीं। अ’मल की ज़रूरत है। वस्सलाम।
मक्तूब नंबर (६)
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
मेरे भाई क़ुतुबूद्दीन, अल्लाह पाक आपको सलामत रखे !
एक रोज़ मेरे शैख़-साहिब रहमतुल्लाह अ’लैह ने नफ़ी-ओ-इस्बात के कलमे की बाबत क्या ही अच्छा फ़रमाया कि नफ़ी अपने आपको ना देखना है और इस्बात अल्लाह पाक को देखना है क्योंकि ख़ुद-बीं (ख़ुद को देखने वाला) ख़ुदा-बीं (ख़ुदा को देखने वाला) नहीं हो सकता| इसलिए नफ़ी करने वाला होना चाहिए वर्ना नफ़ी का कुछ फ़ाएदा नहीं| अगर ये ख़्याल करें कि हस्ती सिर्फ़ ख़ुदा की हस्ती है तब जाकर मतलब हासिल होता है|
वाज़ेह रहे कि कलिमा-ए-शहादत, नमाज़ , रोज़ा वग़ैरा की सूरत भी है और हक़ीक़त भी| उनके हक़ाएक़ को छोड़कर सिर्फ़ ज़ाहिरी सूरतों पर क़नाअ’त कर लेना फ़ुज़ूल है| वो शख़्स बड़ा ही अहमक़ है जो उनके हक़ाएक़ तक नहीं पहुंचता|
फिर फ़रमाया कि अल्लाह पाक हमेशा था और रहेगा| सालिक इब्तिदा में ना-बीना (नज़र नहीं होती) होता है जब हक़ तआ’ला की तरफ़ से उसे बीनाई हासिल हो जाती है तो फिर उससे देखता और सुनता है। वह अपने आपको भूल जाता है। जब ऐसी हालत हो जाती है तो वह वासिल और हमेशा के लिए ज़िंदा हो जाता है।
वस्सलाम।
मक्तूब नंबर (७)
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
आ’रिफ़-ए-मआरिफ़, हक़-आगाह, आशिक़-ए-ख़ुदा, मेरे भाई क़ुतुबुद्दीन अल्लाह पाक आपके फ़क़्र को ज़्यादा करे। दुआ-गो की तरफ़ से प्यार भरे सलाम के बा’द अर्ज़ है- अ’ज़ीज़-ए-मन ! अपने मुरीदों को ज़रूर बता देना कि फ़क़ीर-ओ-मुर्शिद से क्या मुराद है और इसकी अ’लामत क्या है और यह क्यूँ-कर पहचाना जाता है।
मशाएख़-ए-तरीक़त ने फ़रमाया है-
“अलफ़क़्ररु मा-ला यहताजु इला कुल्लि-ए-शैइन”
या’नी फ़क़ीर उस शख़्स को कहते हैं जो तमाम ज़रूरियात से फ़ारिग़ हो और ख़ुदा के बाक़ी रहने वाले चेहरे के सिवा और किसी चीज़ का तालिब ना हो। तमाम मौजूदात उसके बाक़ी रहने वाले चेहरे का आईना और मज़हर हैं इस वास्ते वो उनसे अपना मक़्सूद देखता है।
बा’ज़ लोगों ने इसकी तशरीह यूं फ़रमाई है कि कामिल फ़क़ीर उसे कहते हैं कि जिसके दिल से सिवा-ए-हक़ के सब कुछ दूर हो और ख़ुदा के सिवा और कोई उसका मक़्सूद या मतलूब ना हो। जब ख़ुदा के सिवा सब कुछ दिल से दूर हो जाता है मक़्सद हासिल हो जाता है इसलिए तालिब को हमेशा मतलूब-ओ-मक़्सूद के दर पर रहना चाहिए। अब ये मा’लूम कर लेना चाहिए कि मतलूब-ओ-मक़्सूद क्या है??
—
सो वाज़ेह रहे कि मक़्सूद यही दर्द-ओ-सोज़ है ख़्वाह हक़ीक़ी हो ख़्वाह मजाज़ी।
वस्सलाम।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
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- Sufinama Archive
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- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Shamimuddin Ahmad Munemi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi