सूफ़ी और ज़िंदगी की अक़दार-ख्व़ाजा हसन निज़ामी
हर जमाअ’त और हर गिरोह में ऐसे अश्ख़ास भी शामिल होते हैं जिन्हें शुमूलियत के बावजूद उस जमाअ’त और गिरोह का नुमाइंदा नहीं कहाजा सकता। चुनाँचे सूफ़ियों में अभी ऐसे लोग ब-कसरत गुज़रे हैं, और अब भी मौजूद हैं जिनको नाम-निहाद सूफ़ी ही समझना चाहिए। लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि हम राएजुल-वक़्त अक़दार का एक पैमाना ले कर हर आदमी को नापते फिरते रहें और जिसकी पैमाइश पूरी न हो उस पर नाम-निहाद का लेबल लगा दें।
मज़हबी अ’क़ीदे और साइंसी कुल्लिये में सब से बड़ा फ़र्क़ ये है कि अ’क़ीदे में किसी वक़्त और किसी ज़माने में तब्दीली मुम्किन नहीं है। इसके बर-अ’क्स साइंस के कुल्लियात और नज़रियात आए दिन बदलते रहते हैं। साइंसी कुल्लिये की बुनियाद मुशाहिदे और तज्रबे पर होती है।
इसलिए मंतिक़ी ज़ेहन उससे बहुत जल्दी मुतअस्सिर हो जाता है। और फिर किसी और चीज़ को मानने के लिए तैयार नहीं होता। हालाँकि ये चीज़ कम-नज़री और ख़ाम-कारी की दलील है।आदमी महज़ जुज़्व को ही सब कुछ न समझे और आँख खोल कर इधर उधर भी देख ले तो बहुत जल्दी उसे मा’लूम हो जाता है कि हमारे साइंसी मुशाहिदात बहुत महदूद हैं। और हमारे तज्रबे और उनके नताएज भी नाक़िस हैं जिनसे हम कोई क़तई’ और दवामी अ’क़ीदा क़ाएम नहीं कर सकते। एक ज़माने में साइंसी मुशाहिदात और तजुर्बों ने य बताया कि दुनिया चिपटी है। कम-अंदेश लोग उसको सही मसझते रहे। उसके बा’द तजुर्बों का मैदान और वसीअ’ हुआ तो ये ख़याल क़ाएम किया गया कि दुनिया गोल है और नारंगी की तरह है। और अब हाल में चाँद पर फेंके जाने वालों राकेटों से कुर्रा-ए-अर्ज़ की जो तस्वीरें ली गई हैं उनसे पता चलता है कि हमारी ज़मीन नारंगी की शक्ल की भी नहीं है बल्कि उसकी वज़्अ’ नाशपाती की सी है और आइंदा मा’लूम नहीं और क्या क्या दर्याफ़्तें दुनिया की बाबत होंगी।
ये सब अ’र्ज़ करने का मक़्सद ये है कि चूँकि साइंसी नज़रियात हमारी ज़िंदगी में बुनियादी अहमियत रखते हैं इसलिए हमारे ज़ेहन उनके इस क़द्र आ’दी हो जोते हैं कि वो हर क़द्र और मे’यार के लिए साइंस वाला तर्ज़-ए-अ’मल ही इख़्तियार करते हैं।चुनाँचे मज़हबी और अ’क़ाइद और ज़िंदगी की अक़दार को भी साइंस ही की ऐ’नक से देखा जाता है। और उसका नतीजा ये होता है कि सर सय्यद जैसे मुख़्लिस और दीनदार लोग भी क़ुरआन-ए-मजीद की साइंसी तावीलें कर के नेचरी कहलाने लगते हैं।
सर सय्यद मरहूम तो नेचरी कहलाए और उनकी ख़ूब मुख़ालफ़त हुई।लेकिन हमारी नज़र अभी ख़ुद अपने ऊपर नहीं पड़ी है। अगर हम अपना जाएज़ा लें तो मा’लूम होगा कि औलियाअल्लाह के मानने वालों और सूफ़ी कहलाने वालों में भी नव्वे फ़ीसदी का ज़ेहनी रुज्हान तक़रीबन वही है जो सर सय्यद का था। सर सयय्द बड़े मुख़्लिस आदमी थे। उन्हों ने जो कुछ किया नेक-निय्य्ती से किया। इसी तरह हम लोग भी निहायत ख़ुलूस और नेक-निय्य्ती से ज़रा ग़लत रास्ते पर चल रहे हैं।
साइंसी मुशाहिदों की बुनियादों की बिना पर हम ने कुछ अ’क़ीदे क़ाएम कर लिए हैं जिनकी हैसियत दर-अस्ल मफ़रुज़ात से ज़्यादा नहीं है।उन्हीं नाम-निहाद अ’क़ीदों की रौशनी में हम अपने बुज़ुर्गों के चलन और ता’लीमात को देखते और निहायत आसानी से उनके बारे में कोई हुक्म लगा देते हैं।मस्लन ये कि चाहे हम ज़बान से न कहें लेकिन अगर ज़रा पढ़े-लिखे हैं तो बा’ज़ बुज़ुर्गों के बारे में दिल में ये ज़रूर ख़याल करते हैं कि उनका तर्ज़-ए-अ’मल ऐसा था जिसे ज़िंदगी से फ़रार कहा जा सकता है।हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज़ शकर रहि· के जमाअत’-ख़ाने के बारे में उस ज़माने के मुख़ालिफ़ीन नऊ’ज़ुबिल्लाह ये कहा करते थे कि हज़रत के हाँ काम-चोर और ज़िंदगी की मशक़्क़त से भागे हुए मुस्टंडे जम्अ’ हैं। ख़ुद हज़रत बाबा साहिब रहि· के बारे में आज तक लोगों के दिल में ये ख़तरा ग़ुज़रता है कि हज़रत ने ख़ुद फ़ाक़ा-कशी और तर्क-ए-दुनिया में ज़िंदगी बसर की बहुत अच्छा किया लेकिन एक से ज़्यादा शादी क्यूँ की और फिर अपनी बीवियों और बच्चों को फ़ाक़े क्यूँ कराए। बीवी बच्चों का हक़ तो उनको मिलना चाहिए था।इसी तरह हज़रत महबूब-ए-इलाही के बारे में पढ़े लिखे लोग अ’क़ीदत के बावजूद ये सोचते हैं कि हज़रत ने शादी की सुन्नत पर अ’मल क्यूँ नहीं किया। दिल के इन ख़तरात को दूर करने के लिए बहुत सी दलीलें और तावीलें पेश की जाती हैं।और बहुत से लोग उनसे मुत्मइन भी हो जाते हैं।लेकिन अगर हम एक बुनियादी बात को समझ जाएं तो फिर हमें हर मुआ’मले में एक नई दलील नई तावील की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
आज कल हमारे ज़ेहनों पर ये बात सवार है कि ख़ूब मेहनत कर के कमाना चाहिए।अपनी बीवी और बच्चों के आराम का हर ज़रिआ’ फ़राहम करना चाहिए और ब-तौर-ए-टैक्स अल्लाह मियाँ की इ’बादत भी करनी चाहिए। इस (मुतअ’स्सिब Prejudiced) ज़ेहन के साथ हम मज़हबी अ’क़ीदे का मुतालआ’ कर रहे हैं कि इस्लाम इस बारे में क्या कहता है।चूँकि इस्लाम ने मेहनत और सई’ और हुसूल-ए-ने’मत की इजाज़त दी है इसलिए हम इस इजाज़त की रूह और मक़्सद को समझे ब-ग़ैर अपने मुतालिए’ और मुशाहिदे को अधूरा छोड़ कर बच्चों की तरह ख़ुशी के ना’रे लगाते हुए वापस दुनिया में भाग आते हैं और तलब-ए-दुनिया में मशग़ूल रहते हैं और दिल में सोचते हैं कि रोज़ी को छोड़ कर ख़ानक़ाह में बैठना अच्छे मक़्सद के लिए सहीह लेकिन घटिया चीज़ है, ज़िंदगी से फ़रार है और इस्लाम के ज़रा ख़िलाफ़ है।
हम अमरीका के करोड़पती होते जिनके पास बे-शुमार दौलत हैं । जिनकी समझ में नहीं आता कि उस दौलत को कहाँ ख़र्च करें।फिर भी आ’दतन और फ़ित्रतन कमाए जाते हैं। जिनके दिल को एक मिनट के लिए भी चैन नहीं मिलता।हमें हज़रत बाबा साहिब की ख़ानक़ाह का मंज़र नज़र आता तो शायद फिर हम आसानी से उस को तलब-ए-दुनिया और तलब-ए-हक़ का बेहतरीन इम्तिज़ाज समझ लेते हैं।हम वहाँ बैठने को ज़िंदगी से फ़रार न समझते बल्कि ख़याल करते कि ज़िंदगी की आवाज़ पर पहली दफ़ा’ लब्बैक कही है।और जो बुज़ुर्ग दुनिया की ता’लीम देते हैं वो दुकानदार हैं।
हम भूके हैं, नंगे हैं इसलिए हमारे नज़दीक इस्लाम की ता’लीम ये है कि ख़ूब मेहनत करो और ख़ूब कमाओ।और हक़ीक़त यही है कि इस्लाम ने ऐसी ता’लीम दी है।अमरीका का करोड़-पती ज़रूरत से ज़्यादा पेट भरा है।इसलिए उसके नज़दीक इस्लाम की ता’लीम यही है कि ज़रूरत से ज़्यादा कमाई और जम्अ’ ला’नत है। और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसका इस्लाम को समझना ग़लत नहीं हैं। दोनों नेक और मुख़्लिस हैं। लेकिन हक़ीक़त को नहीं समझते। दोनों ने अपने अ’क़ीदे को उसी तरह क़ाएम किया है जिस तरह साइंस वाले एक महदूद और मशरूत मुशाहिदे और तज्रबे की बिना पर अपना अ’क़ीदा बना लेते हैं। और जो उसकी मुख़ालफ़त करता है उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं। हालाँकि चंद दिन बा’द जब उनका मुशाहिदा वसीअ’ होता है तो ख़ुद अपने अ’क़ीदे और नज़रिये को नई शक्ल दे देते हैं। साइंसी कुल्लिए भी बिल्कुल फ़ैशन की तरह बदलते रहते हैं । कल कुछ और अ’क़ीदा था आज कुछ और है। इसलिए हमें भी मज़हबी अ’क़ीदे इख़्तियार करने में साइंस का तरीक़ा-ए-कार इस्ति’माल नहीं करना चाहिए।मज़हब आदमी का साख़्ता नहीं है बल्कि उस हस्ती की तरफ़ से है जिसे हर चीज़ का सच्चा इ’ल्म है। उस हस्ती ने रसूल को सब कुछ सिखा कर हम को अ’क़ीदे की ता’लीम दी।और रसूल ने अपने नाएबों के ज़रि’ये इस सिल्सिले को जारी रखा।सरवर-ए-दो-आ’लम सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम को इ’ल्म का शहर और हज़रत अ’ली रज़ीयल्लाहु अ’न्हु को इ’ल्म का दरवाज़ा इसी लिए कहा जाता है।औलियाअल्लाह को हज़रत अ’ली रज़ीयल्लाहु अ’न्हु की विसातत से ये इ’ल्म पहुँचा है।इसलिए उनका तर्ज़-ए-अ’मल और ता’लीम का तरीक़ा ज़िंदगी की सहीह अक़दार का हामिल होता है।माहौल और हालात बदल जाते हैं लेकिन बुनियादी तौर पर ये अक़दार कभी नहीं बदलतीं।उनका सिक्का हमेशा खरा और चलने वाला होता है।इसलिए हमें भी राइजुल-वक़्त फ़ैशन को ज़िंदगी की क़द्र नहीं समझना चाहिए बल्कि बुज़ुर्गों के उस्वा-ए-हसना को अपने लिए मिशअल-ए-राह बनाना चाहिए।बुज़ुर्गों की बहुत सी बातें हमारी अ’क़्ल के मुवाफ़िक़ नज़र न आएंगी और मंतिक़ उनका साथ न दे सकेगी क्यूँकि हमारी अ’क़्ल और हमारे मंतिक़ की जौलानगाह साइंसी तज्रिबा-गाह और लेबोरेटरी तक महदूद है। हालाँकि दुनिया तज्रिबा-गाह के बाहर बहुत वसीअ’ है और ये इतनी बड़ी दुनिया भी काएनात की वुस्अ’त के सामने एक छोटी सी लेबोरेटरी और तज्रिबा-गाह से ज़्यादा हैसियत नहीं रखती।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
- Kaleem Athar
- Khursheed Alam
- Mazhar Farid
- Meher Murshed
- Mustaquim Pervez
- Qurban Ali
- Raiyan Abulolai
- Rekha Pande
- Saabir Raza Rahbar Misbahi
- Shamim Tariq
- Sharid Ansari
- Shashi Tandon
- Sufinama Archive
- Syed Ali Nadeem Rezavi
- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Shamimuddin Ahmad Munemi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi