हज़रत क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार-ए-काकी के मजमूआ’-ए-मल्फ़ूज़ात फ़वाइदुस्सालिकीन का मुताला’ अज़ जनाब मौलाना अख़्लाक़ हुसैन देहलवी साहब

फ़वाइदुस्सालिकीन फ़ारसी नुस्ख़ा मतबूआ सन1310 हिज्री सन1891 ई’सवी मतबूआ’ मुज्तबाई, दिल्ली ,इंडिया, हजम 36  सफ़हात,  साइज़ 20 X 26

ये किताब क़ुतुबल-अक़्ताब हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार ओशी  अल-मुतवफ़्फ़ा सन 633 हिज्री के गिराँ-क़दर मल्फ़ूज़ात  का मजमूआ’ है जिसे हज़रत बाबा फ़रीद मसऊ’द गंज शकर मुतवफ़्फ़ा सन 670 हिज्री ने मुदव्वन फ़रमाया था, ये मजमूआ’–ए-मल्फ़ूज़ात  सात मजालिस पर मुश्तमिल है हर मज्लिस के आग़ाज़ में लफ़्ज़-ए-मज्लिस और उसका शुमारा क़लम से लिखा हुआ है, जिससे मजालिस की तर्तीब ब-ख़ूबी वाज़ेह हो जाती है, इब्तिदाईया में है:

“अज़ ज़बान-ए-फ़क़ीर-ए-हक़ीर बंदा-ए-दरवेशां बल्कि ख़ाक-ए-क़दम-ए-इशां फ़रीद मसऊ’द अजोधनी (फ़वाइदुस्सालिकीन सफ़हा-2)

अस्ल-ए-ईं नुस्ख़ा सहीह न-बूद हर-चंद कि नुस्ख़ा-ए-

दीगर पैदा शुद ताहम फ़ीमा बैन मुग़ायरते

याफ़्त: शुद लेकिन ब-क़दर-ए-वस्अ’ दर दफ़-ए’-

अग़्लात कोशीद:  आमद

तर्जुमा:

इस नुस्ख़ा की अस्ल या’नी वो नुस्ख़ा जिस

से मतबूआ’ नुस्ख़ा मनक़ूल है, सहीह थी

और अगरचे दूसरा नुस्ख़ा भी दस्तयाब हुआ था

लेकिन दोनों में फ़र्क़ बहुत था

लिहाज़ा ब-क़दर-ए-इमकान रफ़-ए’-अग़्लात की कोशिश की है

मौलवी अब्दुल अहद मरहूम ने जो भी तसहीह फ़रमाई, वो बसा ग़नीमत और लाइक़-ए-शुक्रिया है ता-हम मतबूआ’ नुस्ख़ा भी अग़्लात से पाक नहीं है लेकिन अगर वो तबा’ ना करते तो मुम्किन था कि हम उसके मुताला’ की सआ’दत से महरूम रहते, क्या अच्छा होता जो मौसूफ़ ये भी लिख देते कि नुस्ख़ा-ए-दीगर में मुतबादिल क्या-क्या कुछ था, और जो नुस्खे़ उन्हें दस्तयाब हुए थे, वो किस-किस अ’ह्द के मक्तूबा थे, क्योंकि ऐसे नुस्ख़ों का रिवाज भी रहा है। जो अन-पढ़ अ’क़ीदत-मंद अच्छे अच्छे ख़ुश-नवीसों से नक़ल कराते, और तबर्रुकन अपने पास रखते थे, जो उ’मूमन सेहत से आ’री होते थे

मतलूबुत्तालिबीन नाम से फ़वाइदुस्सालिकीन का उर्दू तर्जुमा भी मौलवी अ’ब्दुल अहद मरहूम ने सन 1316 हिज्री सन 1898 ईसवी में मतबा’ मुज्तबाई दिल्ली से शाए’ किया था, उसके मुतर्जिम मुहम्मद बैग नामी कोई ज़ी-होश आ’लिम थे, उन्हें इस मजमूआ-ए-मल्फ़ूज़ात  के नाक़िस होने का एहसास था, उन्होंने दीबाचा में लिखा है:

” इस में ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के मल्फ़ूज़ात  हैं, जिनको हज़रत बाबा साहब ने ख़ुद जमा’ कर के मुरत्तब किया है, ग़ालिबन ये किताब बड़ी होगी, जो मुरूर-ए-ज़माना से पूरी नहीं मिलती, (मतलूबुत्तालिबीन सफ़हा 2)

मुतर्जिम का ये एहसास बिला-शुबहा बजा-ओ-दुरुस्त है, क़लमी नुस्ख़ों को इसी तरह देखना और परखना चाहिए, फ़वाइदुस्सालिकीन ब-ज़ाहिर मौजूदा सूरत में कामिल नहीं है, शाह मुहम्मद बूलाक़ मरहूम ने रौज़तुल-अक़्ताब तालीफ़ सन 1124 हिज्री सन 1712 ई’सवी (मतबूआ सन 1305 हिज्री 1887 ईसवी मतबा’ हिन्द  दिल्ली) में फ़वाइदुस्सालिकीन से एक रिवायत नक़ल की है, जो फ़वाइदुस्सालिकीन के मतबूआ’ फ़ारसी नुस्ख़ा में नहीं है, और वो ये है-

“वक़्ते दर ख़िदमत-ए-ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन क़व्वालाँ दर रसीदंद-ओ-ईं बैत रा ब-सूरत-ए-ज़ेबा-ओ-आहंग-ओ-दिलरुबा आग़ाज़ गर्दानीदंद, बैत:

सुरूद चीस्त कि चंदीं फ़ुसून-ए-इ’श्क़ दर-दस्त

सुरूद महरम-ए-इ’श्क़स्त-ओ-इ’श्क़ महरम-ए-ऊस्त

ख़्वाजा ईं बैत दर गिरफ़्त-ओ- हफ़्त शबाना रोज़ बेहोश मांद, मैल ब- तआ’म-ओ- शराब न-दाश्त अम्मा वक़्त-ए-नमाज़ ब-बेहोसही बाज़ मी-मांद-ओ- नमाज़ रा ब-दस्तूर क़ियम मी-गुज़ाश्त

(रौज़ातुल-अक़्ताब सफ़हा 63-64)

गुमान-ए-ग़ालिब ये है कि मतबूआ नुस्ख़ा किसी ऐसे नुस्खे़ से मनक़ूल है कि जो दस्तयाब शूदा कुछ औराक़-ए-परेशाँ का मजमूआ’ था, फ़वाइदुस्सालिकीन के कुछ क़दीम नुस्खे़ हिन्द-ओ-पाक के मो’तबर कुतुब-ख़ानों (लाइब्रेरीयों) में  महफ़ूज़ हैं, मेरे इ’ल्म में इसका एक क़दीम नुस्ख़ा जो सन 1096 हिज्री सन 1684 ई’सवी का मकतूब है ख़ुदाबख़्श पब्लिक लाइब्रेरी पटना के ज़ख़ीरा-ए-मख़तूतात की ज़ीनत है, तलाश-ओ-तजस्सुस से बहुत मुम्किन है कि इस से भी क़दीम–तर कोई नुस्ख़ा दस्तयाब हो जाएगा। बहर-हाल मतबूआ’ नुस्ख़ा बहालत-ए-मौजूदा जैसा कुछ है सालिकान-ए-राह़-ए-तरीक़त के लिए ख़िज़्र-ए-राह और अ’क़ीदत-मंदों के लिए सुरमा-ए-चश्म है ।

फ़वाइदुस्सालिकीन की क़दामत:

फ़वाइदुस्सालिकीन की क़दामत और इसके इस्तिनाद का अहम-तरीन-ओ- मो’तबर सुबूत ये है कि हज़रत महबूब-ए-इलाही के बुज़ुर्ग ख़लीफ़ा मौलाना बुरहानुद्दीन ग़रीब मुतवफ़्फ़ा सन 732 हिज्री सन 1331 ई’सवी ने अपने लाइक़-तरीन मुरीद मौलाना रुकनुद्दीन इ’माद दबीर काशानी से तसव्वुफ़ में किताब शमाइलुल- अत्क़िया-ओ-दलाइल-अत्क़िया मुरत्तब कराई थी, उसकी फ़िहरिस्त माख़ज़ात में फ़वाइदुस्सालिकीन भी है जो उसकी क़दामत की बय्यिन दलील है, और इससे फ़वाइदुस्सालिकीन के जा’ली होने का वस्वसा रफ़ा’ हो जाता है

इसके अ’लावा फ़वाइदुस्सालिकीन की क़दामत का सुबूत ये भी है कि इस की बा’ज़ रिवायतें इन किताबों में भी मनक़ूल हैं जो अदब-ए-सूफ़िया बे-मिस्ल और निहायत दर्जा मुस्तनद मानी जाती हैं। गोया कि फ़वाइदुस्सालिकीन मुस्तनद-ओ-मो’तबर कुतुब-ए-तसव्वुफ़ का माख़ज़ भी है

ये भी है कि मुआ’सिर किताबों में किसी किताब का या किसी वाक़िआ’ का ज़िक्र ना होना उसके अ’दम वजूद की दलील नहीं, हर अहल-ए-क़लम का अपना नुक़्ता-ए-नज़र होता है। जो कुछ वो लिखता है, अपने ही सवाब-दीद से लिखता है ऐसा भी मुम्किन है कि बा’ज़ मा’लूमात किसी की दस्त-रस से बाहर हों और हर वक़्त दस्तयाब ना हो सके हों  ऐसी ही वजूद की बिना पर ज़िंदा अहल-ए-क़लम की किताबों के इब्तिदाई मतबूआ’ नुस्खे़ बा’द के मतबूआ’ नुस्ख़ों से मुख़्तलिफ़ होते हैं लिहाज़ा अगरचे दौर–ए-निज़ामी का ज़िक्र सियरुल-औलिया में नहीं है, लेकिन इसका वजूद मुसल्लम है, इसी तरह अगर फ़वाइदुस्सालिकीन का ज़िक्र सराहतन फ़वाइदुलफ़वाद –ओ- ख़ैरुल-मजालिस और सियरुल-औलिया में नहीं है, तो न सही, ये उसके अ’दम वजूद की दलील नहीं, उसका वजूद दीगर मो’तबर शवाहिद से मुसल्लम है, और उस के मुंदरिजात बज़ात-ए-ख़ुद उसके वजूद की और उस की क़दामत की बय्यिन दलील हैं, वाक़िआ’त की नौई’यत भी कुछ ही होती है, मौलाना सय्यद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान साहब रक़म-तराज़ हैं:-

“हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती के फ़ुयूज़-ओ-बरकात से हिन्दोस्तान इस्लाम के नूर से मुनव्वर हो गया, वो वारिसुन्नबी फ़िल-हिंद हो कर यहाँ  जल्वा-अफ़रोज़ रहे, मगर तबक़ात-ए-नासिरी ताजुलल-मासर और फ़ख़्र-ए-मुदीर की तारीख़-ए-मुबारक शाही जैसी मुआसिर तारीख़ों में उनके कारनामों का मुतलक़ ज़िक्र नहीं, उनका इस्म गिरामी भी उन तारीख़ों के सिफ़ात में ढ़ूढ़ने से भी नहीं मिलता। अब कोई ऐ’ब-जू अहल-ए-क़लम ये दा’वा करे कि उनके कारनामों को बा’द के तज़्किरा-निगारों ने महज़ घड़ लिया है, तो ये हिन्दोस्तान के मुस्लमानों की रुहानी तारीख़ पर शदीद ज़र्ब-ए-कारी लगानी होगी”

(माहनामा मआरिफ़ ,आ’ज़म गढ, मार्च सन 1979 ई’सवी 174)

सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद मुतवफ़्फ़ा सन 664 हिज्री सन 1265 ईसवी का और उस के लश्कर का हज़रत बाबा साहब की ख़िदमत में हाज़िर होने का ज़िक्र असरारुल-औलिया(सफ़हा 82) और फ़वाइदुल-फ़ुवाद सफ़हा145) मैं मौजूद है, लेकिन तबक़ात-ए-नासिरी में नहीं है, जो उस अ’ह्द की मो’तबर तारीख़ है, और सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद से मंसूब-ओ-मुअ’नवन है, तो क्या इन बुज़ुर्गों पर बद-गुमानी की जा सकती है, जिनके मल्फ़ूज़ात  का मजमूआ मज़कूरा किताबें हैं, जिनके सादिक़ुल-क़ौल होने में शुबहा को भी दख़्ल नहीं है, इसलिए अगर फ़वाइदुस्सालिकीन का ज़िक्र-ओ-हवाला फ़वादुल-फ़ुवाद विर्द-ए-निज़ामी, ख़ैरुल-मजालिस और सियरुल-औलिया में नहीं है, तो क्या मुज़ाइक़ा है, वो बज़ात-ए-ख़ुद मुस्तनद है, क्योंकि उसके वजूद-ओ-क़दामत के दीगर मुस्तनद-ओ-मो’तबर शवाहिद दस्तयाब होते हैं, लिहाज़ा ये मानना होगा कि फ़वाइदुस्सालिकीन बिलाशुबहा क़दीम मजमूआ-ए-मल्फ़ूज़ात  है और मुस्तनद-ओ-मो’तबर है । क्योंकि उसके वजूद-ए-क़दामत के दीगर मुस्तनद-ओ-मो’तबर शवाहिद दस्तयाब  होते हैं, लिहाज़ा ये मानना होगा कि फ़वाइदुस्सालिकीन बिला शुबहा क़दीम मजमूआ-ए- मल्फ़ूज़ात  है और मुस्तनद –ओ-मो’तबर है।

तारीख़ी इंदिराजात:

क़दीम-तरीन कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात  अनीसुल-अर्वाह और दलीलुल आ’रिफ़ीन के मुताला’ से ये हक़ीक़त आश्कारा है कि कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात  में तारीख़ी इंदिराजात का रिवाज अ’ह्द-ए-क़दीम में न था, फ़वाइदुस्सालिकीन में जो तारीख़ी इंदिराजात हैं वो भी मश्कूक–ओ-मुश्तबा और ना-तमाम हैं, गुमान-ए-ग़ालिब ये है कि किसी ने सियरुल-औलिया (सफ़हा 91) की इल्हाक़ी इ’बारत से मुतअस्सिर हो कर तारीख़ी इंदिराजात की सई’ की है लेकिन कर नहीं सका है। और ना-तमाम ही छोड़ देना पड़ा है, क्योंकि बैअ’त-ओ-इरादत का जो सन 584 हिज्री इसमें मर्क़ूम है, वही फ़वाइदुस्सालिकीन में है। और बिलकुल ग़लत है, जिसका ज़िक्र आइन्दा आएगा, लिहाज़ा ये ख़याल क़रीन-ए-क़ियास है कि क़दीम कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात  के मिस्ल फ़वाइदुस्सालिकीन में भी तारीख़ी इंदिराजात न थे।

फ़वाइदुस्सालिकीन के फ़ारसी नुस्खे़ (मतबूआ’ सन 1310 हिज्री 1892 हिज्री मतबा’ मुज्तबाई दिल्ली में जो तारीख़ी इंदिराजात मुताला’ में आए हैं, वो सई’-ए-नाकाम की निशान-देही करते हैं और वो ये हैं:-

1.मज्लिस-ए-अव्वल… न दिन न तारीख़ न महीना न सन

2.मज्लिस-ए-दोउम… न दिन न तारीख़ न महीना न सन

3.मज्लिस सेउम…अगर तारीख़ भी होती, तो तक़्वीम तस्दीक़ या तरदीद कर सकती

4.मज्लिस-ए-चहारुम… तारीख़ भी होती तो तक़्वीम तस्दीक़ या तरदीद कर सकती

5. मज्लिस-ए-पंजुम… दिन और तारीख़ दोनों न-दारद

6.मज्लिस-ए-शशुम. रोज़-ए-जुमा, शव्वाल।तारीख़ न-दारद ,ज़िलहिज्जा के बा’द शव्वाल है तो सन-ए-मज़कूर चे मानी दारद

7.मज्लिस-ए-हफ़्तुम, रोज़ चहार-शंबा।।।। तारीख़ न महीना सनए-मज़कूर अ’जब शय है

क्या बिला तहक़ीक़ इन अधूरे और बेतुके इंदिराजात को मो’तबर माना जा सकता है। और उन पर ए’तिमाद किया जा सकता है

मतलूबुत्तालिबीन (मतबूआ सन 1312 हिज्री सन 1898 ई’सवी) मतबा’ मुज्तबाई दिल्ली फ़वाइदुस्सालिकीन का उर्दू तर्जुमा है ।

इसमें ख़ला को पुर करने की कुछ कोशिश की है, मगर उतनी ही कि पहली और छठ्ठी के तारीख़ी इंदिराज में क़दरे तसर्रुफ़ किया है, बाक़ी फ़ारसी नुस्खे़ के मुताबिक़ है सन 584 हिज्री है जो ग़लत है ।

हश्त बहिश्त ख़्वाजगान-ए-चिशत के आठ मजमूआ-ए-मल्फ़ूज़ात का उर्दू तर्जुमा है, जिसमें फ़वाइदुस्सालिकीन का तर्जुमा भी शामिल है, इसमें पहली दूसरी और पांचवें मज्लिस के तारीख़ी इंदिराज में क़दरे तसर्रुफ़ किया है, बाक़ी फ़ारसी नुस्खे़ के मुताबिक़ हैं, सन वही सन 584 हिज्री जो ख़िलाफ़-ए-वाक़िआ’ है ।

मौलवी ग़ुलाम अहमद ख़ान बिर्याँ मरहूम ने सन 1310 हिज्री में मजमूआ’-ए- मल्फ़ूज़ात-ए-ख़्वाजगान-ए-चिश्त के नाम से पाँच कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात का उर्दू तर्जुमा शाए’ किया था, जिसमें फ़वाइदुस्सालिकीन का तर्जुमा भी है, मगर सिर्फ़ छ: मजालिस का तर्जुमा है , बल्कि छठ्ठी मज्लिस भी ना-तमाम है, सातवीं मज्लिस का तर्जुमा शामिल ही नहीं है। तारीख़ी इंदिराजात इसमें भी ना-तमाम हैं। अलबत्ता मज्लिस-ए-दोउम-ओ-चहारुम और पंजुम में मुकम्मल हैं, मगर ग़लत हैं तक़्वीम से उनकी तस्दीक़ नहीं होती, सन अ’जूबा-ए-रोज़गार है, और वो है सन 648 हिज्री अगरचे मौलवी ग़ुलाम अहमद ख़ां बिर्याँ मरहूम ने उर्दू सियरुल-औलिया के नाम से सन 1320 हिज्री 1902 ईसवी में ख़ुद सियरुल-औलिया, का तर्जुमा कर के शाए किया था। जिसके सफ़हा 62-63 मैं क़ुतुबल-अक़्ताब हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार ओशी के सन-ए-वफ़ात सन 633 हिज्री का ज़िक्र मौजूद है, हैरत है कि फिर उन्होंने सन 648 क्यों लिखा है, इन कारिस्तानियों से ये हक़ीक़त आश्कारा है, कि इन साहिबों के पेश-ए-नज़र फ़वाइदुस्सालिकीन का कोई क़दीम-ओ-मुस्तनद ऐसा नुस्ख़ा नहीं है जो सहीह तारीख़ी इंदिराजात का हामिल होता , और ये इंदिराजात हरगिज़ किसी सहीह नुस्ख़े से मन्क़ूल नहीं हैं। बल्कि मा-बा’द की जिद्दत का समरा हैं जो सरासर ग़लत है, और इस यक़ीन के लिए कामिल गुंजाइश है कि फ़वाइदुस्सालिकीन तारीख़ी इंदिराजात से क़तअ’न मुबर्रा है, और ये इंदिराजात हरगिज़ इस लाइक़ नहीं कि उन पर ए’तबार किया जाए, या तन्क़ीद के लिए उन्हें मेहवर बनाया जाये, बिला-शुबहा इन्हें मुस्तरद  क़रार दिया जाएगा ।

सियरुल-औलिया की इल्हाक़ी इ’बारत:

सियरुल-औलिया (चिरंजी लाल ऐडीशन) मैं अगरचे मुतअ’द्दिद इल्हाक़ी इ’बारतें हैं,मगर हमारे मौज़ू से मुतअ’ल्लिक़ सिर्फ़ वो इ’बारत है जो सफ़हा 91 पर है, जिसका आग़ाज़ पोशीदा न-मांद से होता है, और वो मजमूआ है हज़रत बाबा साहब के सिनीन-ए-विलादत-ओ-इरादत और वफ़ात वग़ैरा का जिसके सारे ही सन ख़िलाफ़-ए-वाक़िआ हैं, इन्हीं में सन-ए-इरादत सन 584 हिज्री है, और यही फ़साद की जड़ है, इन सब का तज्ज़िया करना होगा, ताकि मफ़रूज़ा सन-ए- इरादत सन584 का ग़लत होना वाज़ेह हो जाए तवालत के ख़ौफ़ से अस्ल इ’बारत नक़ल नहीं करता, उसका लुब्ब-ए-लुबाब नक़ल किए देता हूँ-

1.हज़रत बाबा साहब का सन-ए-विलादत 569 हिज्री

2 .हज़रत बाबा साहब का सन-ए- इरादत 584 हिज्री

3. उ’म्र ब-वक़्त-ए-बैअ’त-ओ-इरादत 15 साल

4.۔वफ़ात के वक़्त हज़रत बाबा साहब की उ’म्र 95 साल

5.हज़रत बाबा सहब का सन-ए-वफ़ात 664 हिज्री

6 .बैअ’त-ओ-इरादत के बा’द मुद्दत-ए-हयात 80 साल

दरयाफ़्त-तलब अम्र ये है कि इन मा’लूमात का माख़ज़ क्या है, जो सरसरा ग़लत है, और जिसकी तस्दीक़ फ़वाइदुल-फ़ुवाद और सियरुल–औलिया , बल्कि दीगर मुस्तनद कुतुब-ए-तारीख़ से भी नहीं होती, इसमें सन-ए-बैअ’त-ओ-इरादत 584 हिज्री है, हमारे नज़दीक इससे फ़वाइदुस्सालिकीन में तारीख़ी इंदिराज की कोशिश की गई है जो ना-तमाम रही, और जिसमें कामयाबी न हो सकी

इल्हाक़ी इ’बारत के ख़िलाफ़ शवाहिद:

नाज़िरीन को हैरत होगी कि न सिर्फ़ सन584 हिज्री की बल्कि जुमला मफ़रूज़ा इल्हाक़ी सिनीन की तरदीद हज़रत महबूब-ए-इलाही के बयानात से हो जाती है अगरचे ये मौज़ूअ’ तफ़्सील-तलब है, लेकिन मैं निहायत इख़्तिसार से ज़ब्त-ए-तहरीर में लाने की कोशिश करता हूँ-

1۔ अमीर-ए-ख़ुर्द किरमानी नाक़िल हैं, और लिखते हैं:

“हज़रत महबूब-ए-इलाही ने ख़ुद अपने मुबारक क़लम से लिखा है, कि 25 जमादी-उल-अव्वल सन 669 जुमा’ के दिन बा’द नमाज़-ए-जुमा’ हज़रत बाबा साहब ने मुझे बुलाया, और अपना लुआ’ब-ए-दहन-ए-मुबारक मेरे मुँह में डाला, (सियरुल-औलिया123)”

ये बयान तारीख़ी ए’तबार से मुकम्मल है , दिन भी है, तारीख़ भी है, महीना भी है, और सन भी है, हत्ता कि वक़्त भी है, तक़्वीम आज भी इसकी तस्दीक़ करती है, ये बयान बताता है कि हज़रत बाबा साहब सन 669 हिज्री में ब-क़ैद-ए-हयात थे, अमीर-ए-ख़ुर्द किरमानी ने हज़रत महबूब-ए-इलाही का एक बयान और भी नक़ल किया है, जो अ’ता-ए-सनद-ए-ख़िलाफ़त से मुतअ’ल्लिक़ है, लिखा है:-

” हज़रत महबूब-ए-इलाहीका इरशाद है कि 13 रमज़ान-उल-मुबारक सन 669 हिज्री को हज़रत बाबा साहब ने मुझे बुलाया। और दरयाफ़्त फ़रमाया, कि निज़ाम तुम्हें याद है जो मैंने कहा था, मैंने अ’र्ज़ किया जी हाँ याद है, फ़रमाया काग़ज़ लाओ ताकि इजाज़त-नामा (ख़िलाफ़त नामा) लिखा जाये, काग़ज़ ला दिया और ख़िलाफ़त-नामा लिखा गया ।”

(सियरुल औलिया सफ़हा116)

इस बयान से भी ये तस्दीक़ होती है कि हज़रत बाबा साहब रमज़ान- उल-मुबारक सन 669 हिज्री में ब-क़ैद-ए-हयात थे, ख़्वाजा अमीर हसन अ’ला संजरी ने ये भी लिखा है:-

” हज़रत महबूब-ए-इलाही से दरयाफ़्त किया कि आप क्या हज़रत बाबा साहब के विसाल के वक़्त हज़रत बाबा साहब की ख़िदमत में मौजूद थे, तो आपने आब-दीदा हो कर फ़रमाया नहीं, मुझे शव्वाल के महीने में दिल्ली भेज दिया था। और हज़रत बाबा साहब का विसाल पांचवीं मुहर्रम की रात हुआ है (फ़वाइदुल-फ़ुवाद सफ़हा 52)”

इस बयान से वाज़ेह है कि शव्वाल की किसी तारीख़ से पांचवीं मुहर्रम तक का फ़स्ल है या’नी तीन माह के अंदर ही अंदर हज़रत बाबा साहब का वाक़िआ’-ए-इर्तिहाल पेश आया था, मो’तबर अहल-ए-क़लम इस पर मुत्तफ़िक़ हैं, कि हज़रत बाबा साहब का सन-ए-वफ़ात सन 670 हिज्री है। हज़रत महबूब-ए-इलाही के इरशाद से भी सन-ए-वफ़ात सन 670 हिज्री की तस्दीक़ होती है, मज़कूरा इल्हाक़ी इ’बारत में हज़रत बाबा साहब का सन-ए-वफ़ात सन 664 लिखा है, जो हज़रत महबूब-ए-इलाही के बयानात के मुनाफ़ी और ग़लत है, बे सनद और ख़िलाफ़-ए-वाक़िआ’ भी है, जो हरगिज़ क़ाबिल-ए-क़ुबूल नहीं ।

2 .ख़्वाजा अमीर हसन अ’ला संजरी ने हज़रत बाबा साहब की मुद्दत-ए-उ’म्र के मुतअ’ल्लिक़ हज़रत महबूब-ए-इलाही का मुबारक बयान नक़ल करते हुए लिखा है:-

” हज़रत महबूब-ए-इलाही से हज़रत बाबा साहिब की उ’म्र के मुतअ’ल्लिक़ दरयाफ़्त किया तो आपने फ़रमाया नवद-ओ-सेह साल बूद यानी 93 साल की थी (फ़वाइदुल-फ़ुवाद सफ़हा 53) इल्हाक़-कनुंदा ने 95 साल लिखी है, जो हज़रत महबूब-ए-इलाही के बयान के ख़िलाफ़ और ग़लत है ।

3 .जब तहक़ीक़ी नुक़्ता-ए-नज़र से और हज़रत महबूब-ए-इलाही के इरशाद के मुताबिक़ हज़रत बाबा साहब का सन–ए-वफ़ात सन 670 हिज्री है, और मुद्दत-ए-उ’म्र 93 साल है, सन-ए-विलादत लाज़िमन सन 577 हिज्री है इल्हाक़-कनुंदा ने सन्-ए-विलादत सन 569 हिज्री लिखा है जो हज़रत महबूब-ए-इलाही के इरशाद के मुनाफ़ी और ग़लत है ।

5. हज़रत महबूब-ए-अलाही के इरशाद के मुताबिक़ बैअ’त-ओ-इरादत के वक़्त हज़रत बाबा साहिब की उ’म्र 18 साल की थी, मौलाना हामिद जमाली मुतवफ़्फ़ा सन 942 हिज्री लिखते हैं:-

” सुलतानुल-मशाइख़ हज़रत निज़ामुल-मिल्लत-वद्दीन से मनक़ूल है, कि जब हज़रत क़ुतुबल-अक़कताब हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार ओशी की ख़िदमत में हज़रत बाबा साहब शरफ़-ए-बैअ’त और इरादत से मुशर्रफ़ हुए, तो आपकी उ’म्र अठारह साल की थी (सियरुल–आ’रिफ़ीन फ़ारसी सफ़हा 36)”

शहज़ादी जहान आरा बेगम बिन्त–ए-शाहजहाँ बादशाह ने भी इस क़ौल को अपनाया है, (मूनिसल-अर्वाह सफ़हा 71 फ़ारसी) इस ए’तबार से बैअ’त-ओ-इरादत का सन सन 595 हिज्री मुतअ’य्यन होता है, इल्हाक़ी इ’बारत से सन 584 हिज्री है, और इल्हाक़-कनुंदा ने जो सन्-ए-विलादत सन 569 हिज्री लिखा है, उस के ए’तबार से सन 584 हिज्री में हज़रत बाबा साहब की उ’म्र पंद्रह साल की होती है, और तहक़ीक़ी नुक़्ता-ए-नज़र से सन 584 हिज्री में आपकी उ’म्र सात साल की होती है, और इस उ’म्र में बैअत-ओ-इरादत की किसी ए’तबार से भी तस्दीक़ नहीं होती ।

5. बैअ’त-ओ-इरादत के अ’ह्द से वफ़ात तक का वक़्फ़ा तहक़ीक़ी नुक़्ता-ए-नज़र से75 साल है, मगर इलहाक़-कनुंदा ने 80 साल बताया है, अगरचे इसके इज़हार की चंदाँ ज़रूरत न थी, लेकिन बताना मक़सूद ये है कि हज़रत बाबा साहब की विलादत से वफ़ात तक के तमाम सिनीन मुसद्दक़ा तौर पर महफ़ूज़ हैं, अगर जज़्बा-ए-तलाश इख़्लास पर मब्नी है तो सब कुछ सहीह दस्तयाब हो जाता है, सुहूलत-कार के लिए मज़कूरा सिनीन का नक़्शा पेश किया जाता है:-

हज़रत बाबा साहब की विलादत-ओ-वफ़ात के सहीह और अहम सिनीन का नक़्शा

1. हज़रत बाबा साहब का सन-ए-विलादत सन 577 हिज्री

2. हज़रत बाबा साहब का सन-ए-बैअत-ओ-इरादत सन 599 हिज्री

3 .हज़रत बाबा साहब की उ’म्र ब-वक़्त-ए-बैअत-ओ-इरादत 18 साल

4. वफ़ात के वक़्त हज़रत बाबा साहब की उ’म्र 93 साल

5 .हज़रत बाबा साहब का सन-ए-वफ़ात सन 670 सन हिज्री

6. बैअ’त-ओ-इरादत से वफ़ात तक की उ’म्र 75 साल

इन सिनीन के मुसद्दक़ा होने की अहम दलील ये है कि सिनीन हज़रत महबूब-ए-इलाही के मुबारक इर्शादात पर मब्नी हैं। जो इस बाब में सबसे ज़ियादा वाक़िफ़-ए-हाल बुज़ुर्ग थे। क्या कोई आपके इर्शादात को शुबहा की निगाह से देख सकता है ।

सरीर-ए-कलमम दरीं शब-ए-तार

बसे मा’नी-ए- ख़ुफ़्त: कर्द बेदार

वो अहल-ए-क़लम जो ये लिखते हैं कि फ़वाइदुस्सालिकीन वग़ैरा कुतुब-ए- मल्फ़ूज़ात की बा’ज़ रवायात को तारीख़ भी रद्द करती है, तो क्या वो बता सकते हैं कि उन्होंने तारीख़ी इन्दिराजात की इसी तरह तहक़ीक़ फ़रमाई है, बिला तहक़ीक़ कुछ लिखना कहाँ की दानाई है

अल-ग़र्ज़ इस तहक़ीक़-ओ-तफ़्सील से ये वाज़ेह है कि फ़वाइदुस्सालिकीन  में मुंदरजा सिनीन बैअ’त-ओ-इरादत और ना-तमाम इंदिराजात से ही ग़लत हैं और न सिर्फ यही बल्कि अक्सर अहल-ए-क़लम जिन्हों ने बिला-तहक़ीक़ इस इल्हाक़ी इ’बारत को जो गूनागूँ इन्शाई मआ’इब से भरपूर है, अमीर-ए-ख़ुर्द किरमानी की नविश्ता तसव्वुर कर के ए’तिमाद किया है, उन्होंने भी ग़लत सिनीन को अपनाया है, जो क़ाबिल-ए-क़ुबूल नहीं हैं, इसलिए कि इमाम इब्न-ए- हुमाम का इरशाद है:। व कसीरन मा यक़लदुस्साहू-न-स्साहीन

नक़्क़ाद हो या मुहक़्क़िक़ या सीरत-निगार उसका अव्वलीन फ़र्ज़ ये है कि वो इख़्लास और मौज़ूअ’ से हमदर्दी के साथ लफ़्ज़ लफ़्ज़ का जाइज़ा ले और जांचे परखे और पूरी तरह मुतमइन होने के बा’द क़लम उठाए, ये नहीं कि किसी ने कह दिया कि कव्वा कान ले गया, कव्वे के पीछे दौड़ लिए कानों को टटोला तक नहीं ।

फ़वाइदुस्सालिकीन ज़बान-ए-हाल से कह रही है कि वो तारीख़ी इंदिराजात से मुबर्रा है:-

 मेरी सुनो जो गोश-ए-हक़ीक़त-नियूश है,

 इसके मतबूआ फ़ारसी नुस्खे़ में जिस क़दर तारीख़ी इंदिराजात हैं, वो बा’द के इज़ाफे़ हैं, इस क़िस्म के इख़्तिराई इंदिराजात से किसी किताब को जा’ली नहीं क़रार दिया जा सकता है। ये सक़्म तारीख़ की मो’तबर किताबों में भी है, अगर इस बिना पर जा’ली क़रार दिया जाए तो बहुत बड़े इ’ल्मी ज़ख़ीरे को दरिया बुर्द करना होगा ।

बहर-हाल फिर भी अगर कोई ग़लत सिनीन पर ए’तिमाद कर के उन्हें तन्क़ीद के लिए मेहवर बनाता है तो मानना होगा कि वो फ़न-ए-तन्क़ीद से ना-बलद और बे बहरा है , उस के क़ौल-ओ-फ़े’ल पर ए’तबार नहीं किया जा सकता

फ़वाइदुस्सालिकीन का अ’हद-ए-तदवीन:

जिन साहिबों के मुताला’ में क़ुतुबल-अक़ताब हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बुख़्तियार ओशी की सीरत-ओ-सवानेह है, उन्हें इ’ल्म है कि हज़रत क़ुतुब साहब अक्सर औक़ात तिलावत-ए-क़ुरआन-ए-पाक में मह्व-ओ-मुसतग़रक़ रहा करते थे। और बहुत कम कलाम फ़रमाते थे, अलबत्ता तालिबों को जो हिदायतें फ़रमानी होतीं वो बर-महल फ़रमाते, फ़वाइदुस्सालिकीन का मुताला’ शाहिद है कि वो हज़रत बाबा साहब के बैअ’त होने के वक़्त से हज़रत क़ुतुब के आख़िरी  अय्याम-ए-हयात तक के बयान –ओ-वाक़िआ’त की जामे’ है। हज़रत बाबा साहब  का सन-ए-बैअ’त-ओ-इरादत 595 हिज्री है, लिहाज़ा फ़वाइदुस्सालिकीन का अ’ह्द-ए-तदवीन 95 हिज्री ता 633 हिज्री का दरमियानी वक़्फ़ा है, इसमें सन 584 जो इल्हाक़ है, वो बिलकुल ग़लत है, दिल्ली सन 588  में फ़त्ह हुई। फ़त्ह-ए-दिल्ली से पहले हज़रत क़ुतुब साहब का दिल्ली में क़ियाम साबित नहीं।

बिला-शुबहा 38 साला दरमियानी वक़्फ़े की उन मजालिस के बयानात-ओ-वाक़िआ’त का मजमूआ है जो गाह-बा-गाह मुनअक़िद हुई थीं, और उनमें से जिन बयानात-ओ-वाक़ियआ’त को हज़रत बाबा साहब ने मुनासिब समझा उन्हें क़लम-बंद फ़रमाया था, जो आज भी मिशअ’ल-ए-रूश्द-ओ-हिदायत हैं। सन 584 हिज्री हर ए’तबार से इल्हाक़ी है ।

माफ़ौक़ल-फ़ितरत अ’नासिर:

फ़वाइदुस्सालिकीन में बा’ज़ रिवायतें बिला-शुबहा माफ़ौक़ल-फ़ितरत हैं, लेकिन फ़वाइदाल-फ़ुवाद, ख़ैरुल-मजालिस और सियरुल-औलिया की निस्बत क़दरे क़लील हैं, उतनी ही कि उंगलियों पर गिनी जा सकें, और ऐसी भी नहीं जैसी ख़ैरुलमजालिस (सफ़हा 53) मजज़ूब की हिकायत है। जो आप अपनी मिसाल है, मा-फ़ौक़ल-फ़ितरत रिवायात का तअ’ल्लुक़ अ’स्री हालात से भी है, और रुहानी कमालात से भी ।

अ’ह्द-ए-वुस्ता का अदब मशरिक़ी हो या मग़रिबी इस वस्फ़ से ख़ाली नहीं, अगर फ़वाइदुस्सालिकीन में ऐसी रिवायात न होतीं तो वो अ’स्री असरात से मुअ’र्रा मानी जाती जो उसकी ख़ूबी नहीं बल्कि उसका नक़्स तसव्वुर होता , और उसे इस अ’ह्द की तालीफ़ क़रार देने में तकल्लुफ़ होता, और रूहानियत से उस का रिश्ता मुन्क़ते’ रहता ।

मो’जिज़ा हो या करामत उनका तअ’ल्लुक़ माफ़ौक़ल-फ़ितरत ही से है। ये तब्लीग़-ए-दीन में मुमिद्द-ओ-मुआ’विन तो हैं, लेकिन ऐ’न अरकान-ए-तब्लीग़ नहीं हैं। उनका अपना अपना दाइरा-ए-अ’मल है, इस से अलग कोई तवक़्क़ो’ उम्मीद-ए-मौहूम है, ये कहना या समझना कि ऐसे शो’बदे और करामातें दिखाकर मुसलमान बनाया गया होता तो आज शायद ही किसी दूसरे मज़हब का वजूद होता , ये ख़्याल मो’जिज़ा और करामत के मौक़िफ़ से कम आगाही और ज़ेहनी बे-राह-रवी की खुली अ’लामत है, मो’जिज़ा का ज़िक्र कुरआन-ए-पाक में है जो करामत से अफ़ज़ल है, इससे कोई मुसलमान इंकार नहीं कर सकता। क्या ये कहने वाला अपने वहमी वस्फ़ को मो’जिज़ात से साबित कर सकता है, अगर वो मोजिज़ात का भी मुंकिर है तो वो न लाइक़-ए-तख़ातुब है, और न उसका क़ौल लाएक़-ए-ए’तना है हिज़्यान से जियादा उसके क़ौल की वक़अ’त नहीं

करामत अ’तिया-ए-ख़ुदावंदी और आ’माल-ए-सालिहा का समरा है, सुलूक के लिए मनाज़िल-ओ-मरातिब  मुतअ’य्यन हैं, बाक़ौल हज़रत महबूब-ए-इलाही उनकी ता’दाद यक सद है, सत्रहवीं मंज़िल से करामात का ज़ुहूर होने लगता है। सालिकीन को ये हिदायत है जब तक सौ की सौ मंज़िलें तय न कर लें , इज़हार-ए-करामत की तरफ़ मुतवज्जिह  न हो (फ़वाइदुल-फ़ुवाद सफ़हा 117) अलबत्ता जब सौ से आगे निकल जाएं तो वो मुख़्तार हैं (फ़वाइदुस्सालिकीन सफ़हा 20) अकाबिर-ए-सूफ़िया ने करामत से ख़ातिर-ख़्वाह काम लिया है और बिल-इरादा लिया है, ये कहना कि करामत को अजिल्ला-ए-सूफ़िया ने पर-ए-काह के बराबर भी वक़अ’त नहीं दी है, मज़ाक-ए-तसव्वुफ़ से कम-आगाही की अ’लामत है, अकाबिर-ए-सूफ़िया ने कभी अ’तिया-ए-ख़ुदावंदी को तहक़ीर की नज़र से नहीं देखा है ये उन पर तोहमत है करामात का ज़ुहूर अकाबिर-ए-सहाबा से भी हुआ है, और ब-क़ौल ख़्वाजा गेसू दराज़ बंदा-नवाज़ जिस क़दर करातें सय्यदना हज़रत अ’ली कर्रमल्लाहु वज्हहु से मन्क़ूल हैं, उतनी किसी और सहाबी से मन्क़ूल नहीं हैं। (जवामेउ’ल–कलिम मल्फ़ूज़ 9/रमज़ान सन 806 ) रूद-ए-नील के वाक़िआ’ को शोहरत-ए-आ’म हासिल है दरिया-ए-नील (मिस्र) में हर साल तुग़्यानी आती और जब तक इन्सानी जान भेंट न की जाती तूफ़ानी कैफ़ीयत बर-क़रार रहती, जब मिस्र पर मुसलमानों का तसल्लुत हुआ तो हाकिम-ए-मिस्र ने अमीर-ऊल-मोमिनीन हज़रत उ’मर फ़ारूक़ रज़ीअल्लाहु अ’न्हु से इस्तिस्वाब क्या, आपने दरिया-ए-नील के नाम ख़त लिखा, और भेज दिया और फ़रमाया इसे दरिया-ए-नील में डाल दिया जाये, वो डाल दिया गया, फिर न तुग़्यानी आई और न उसने भेंट ली ।

शैख़ुश्शुयूख़ हज़रत शहाबुद्दीन सुहरवर्दी रहमतुल्लाह अ’लैह के अय्याम-ए-हयात में दरियाए दजला (बग़दाद ) में सख़्त तुग़्यानी आई बहुत से बे घर हो गए जब ये वाक़िआ’ शैख़ुश्शुयूख़ हज़रत शहाबुद्दीन सुहरवर्दी के इ’ल्म में आया तो आपने अपने ख़ादिम से कहा जाओ ये कोड़ा ले जाओ दरिया को मारो और उस से कहो, जा अपनी जगह चला जा, उसने हुक्म की ता’मील की, दरिया वो कोड़ा खाते ही और हुक्म के सुनते ही सिमट गया और ब-दस्तूर अपनी जगह बहने लगा। जब ये वाक़िआ’ इमाम अबुल्लैस समरक़ंदी के इ’ल्म में आया तो उन्होंने हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी को ख़त लिखा कि औलियाअल्लाह ने तो इख़्फ़ा-ए-करामत को लाज़िम गरदाना है, आपने ये क्या किया? हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी ने ख़त को पढ़ा, और फेंक दिया, और फ़रमाया! उम्मी जाहिल क्या जाने (जवामे’उल-कलिम मल्फ़ूज़ 6/ रमज़ान-उल-मुबारक सन 806 हिज्री)

हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी के इरशाद का मुद्दआ’ यह है कि इमाम अबुल्लैस समरक़ंदी बलंद-पाया फ़क़ीह और आलिम सही मगर अहल–ए-सुलूक के नशेब-ओ-फ़राज़ से आगाह नहीं थे, तसव्वुफ़ का जितना कुछ तअ’ल्लुक़ इ’ल्म से है, उससे कहीं ज़ियादा अ’मल से है, हक़ाइक़-ए-तसव्वुफ़ से आगाही होती है अमल पैरा होने से महज़ तसव्वुफ़ की किताबें पढ़ लेने से कोई सूफ़ी नहीं बनता ता वक़्ते  कि अ’मल-पैरा न हो, हक़ाइक़ उस पर मुन्कशिफ़ नहीं होते, बल्कि उल्टा गुमराही में मुब्तला हो जाता है ।

बिला-शुबहा राह़-ए-सुलूक की तकमील से पहले इज़हार-ए-करामत से मुहतरिज़ रहने की हिदायत है, मगर तकमील के बा’द बा-इख़्तियार होता है, और वो करामत से बर-महल काम ले सकता है, असरार-ए-इलाही के इज़हार की मुमानअ’त है,और हर हाल में है, मगर हो अज़हान असरार-ओ-करामत में इम्तियाज़ नहीं कर सकते वो करामत को भी असरार के हुक्म में दाख़िल समझते हैं, और ये ग़लत है, इस बाब में इतना ही काफ़ी है, अल-आक़िल तकफ़ीहिल-इशारा ।

अहम-तरीन रिवायतें:

मल्फ़ूज़ात  मजमूआ होते हैं उन बयानात के जो सूफ़ी बुज़ुर्ग अख़्लाक़-ए-फाज़िला और आ’माल-ए-सालिहा और मनाज़िल-ए-सुलूक की रहनुमाई के लिए तालिबों के मजमा’ में बयान किया करते थे, और करते हैं , उनमें सामिई’न की इस्ति’दाद-ए-अ’मल का और उनके अमराज़-ए-क़ल्बिया के दफ़इ’या का और रुहानी तरक़्क़ी का पूरा सर-ओ-सामान होता है ।

कामिल सूफ़ी बहुत बड़ा माहिर-ए-नफ़सियात होता है, उस की नज़र क़ुलूब की तह और तालिबों की उफ़्ताद-ए-तबा’ पर होती है, वो उन राज़हा-ए-सर-बस्ता से आगाह होता है जो दिलों की तह में छूपे होते हैं , हत्ता कि वो भी उनसे आगाह नहीं होता जिसके दिल में वो तह-नशीं होते हैं, मगर कामिल सूफ़ी नफ़्स की इन चोरियों को पकड़ लेता है, और इस ख़ूबी से उनका तदारुक करता है कि तालिब को ख़बर तक नहीं होती, ब-क़ौल हज़रत बाबा साहब पीर मश्शाता-ए-मुरीद बाशद ।

कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात का मुताला’ शाहिद है कि ब-ज़ाहिर कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात  में नुमायां इम्तियाज़ नहीं, लेकिन नज़र-ए-तअ’म्मुक़ बताती है कि आ’म मजमूआ-ए-मल्फ़ूज़ात में और उन मजमूआ-ए-मल्फ़ूज़ात में क़दरे फ़र्क़ है, जिनके सामिई’न में कोई ऐसी शख़्सियत शरीक होती है, जिसे मख़्लूक़ की रहनुमाई की और जा-नशीनी की ज़िम्मेदारी सँभालनी होती है इन मजमूआ-ए-मल्फ़ूज़ात  में वो अहम रिवायतें भी होती हैं जिनकी तफ़्हीम से वो क़ासिर रहते हैं, जो ज़ौक़-ए-तसव्वुफ़ से लज़्ज़त-आश्ना नहीं होते हैं,ऐसी ही कुछ रिवायतें फ़वाइदुस्सालिकीन में हैं, उनमें से बा’ज़ को नज़र-ए-नाज़िरीन किया जाता है, और उन निकात की मू-शिगाफ़ी की कोशिश की जाती है जो तफ़्हीम में क़दरे हाइल होते हैं, और जो तिल ओछल पहाड़ की मिस्दाक़ हैं ।

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