रसखान के वृत्त पर पुनर्विचार-कृष्णचन्द्र वर्मा

      रसखान के जीवनवृत्त पर सर्वप्रथम प्रकाश डालने का श्रेय श्री किशोरीलाल गोस्वामी को है। वे रसखान की रचनाओं के अनन्य भक्त थे तथा बड़े श्रम से उन्होंने रसखान के काव्य और जीवनवृत्त से हिन्दी के साहित्यानुरागियों को सन् 1891 में ‘सुजान रसखान’ नामक ग्रंथ द्वारा परिचित कराया। लगभग 50 वर्ष तक हिंदी के विद्वानों को रसखान के सम्बन्ध में उससे अधिक जानकारी न थी। सच तो यह है कि रसखान के जीवन का प्रामाणिक वृत्त उपस्थित कर सकना सरल नहीं, क्योंकि इस सम्बन्ध में प्रामाणिक एवं उपयोगी सामग्री का अभाव है। इसी कारण विद्वान लोग इधर-उधर के कुछ सूत्रों की पकड़ कर आगे बढ़े हैं। रसखान की समस्त रचनाएँ भी अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। जो उपलब्ध हैं, उन्हीं के आधार पर कुछ कहा जा सकता है।

रसखान का समय

     रसखान के समय के सम्बन्ध में एक ही तिथि निश्चित है और वह यह कि सं. 1671 वि. में उन्होंने ‘प्रेमवाटिका’ लिखी। यह अंतस्साक्ष्य पर आधारित तिथि होने पर कारण प्रामाणिक है-

बिधु सागर रस इंदु सुभ बरस सरस रसखानि।

  प्रेम बाटिका रचि रुचिर चिर हिय हरष बखानि।।

      अन्य बातें जो उनके समय के सम्बन्ध में कही जाती है, वे अनुमान पर आश्रित हैं। अनेक अनुमान तो इसी सं. 1671 वि. को केन्द्र मानकर लगाए गए हैं। श्री किशोरीलाल गोस्वामी ने उक्त दोहे के आधार पर ही यह अनुमान करते हुए कि यह रचना कम से कम 25 वर्ष की आयु में लिखी गई होगी, रसखान का जन्म सं. 1646 के आसपास माना। बाबू अमीरसिंह ने रसखान का जन्म ‘प्रेमवाटिका’ की रचना के 30 या 40 वर्ष पूर्व अनुमित किया है अर्थात् सं. 1631 या 1641 के आसपास। मिश्रबंधुओं ने ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के आधार पर रसखान को गो. बिट्ठलनाथ जी का शिष्य स्वीकार किया है। बिट्ठलेश की मृत्यु सं. 1642 में हुई। उन्होंने अनुमान किया है कि सं. 1640 के लगभग रसखान उनके शिष्य हुए होंगे। यदि ये 25 वर्ष की आयु में भी विरक्त हुए होंगे तो इनका जन्म सं. 1615 माना जा सकता है और इनकी अवस्था अनुमान से 70 वर्ष की मानकर मिश्रबंधुओं ने सं. 1685 इनका मरणकाल ठहराया है। मिश्रबंधुओं ने यह भी लिखा है कि “रसखान ने अपना समय अनुचित व्यौहारो में भी व्यय किया था, अतः इनकी कविता का आदिकाल भी 25 वर्ष की अवस्था से पहले अनुमानित नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में सं. 1640 के आसपास उन्होंने काव्य-रचना प्रारम्भ की होगी।” आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत मिश्रबंधुओं के मत के निकट ही है। वे भी गोसाईं विट्ठलनाथ जी के गोलोकवास (सं. 1643) की तिथि के आधार पर रसखान का रचनाकाल सं. 1640 के उपरान्त ही मानते है। ‘प्रेमवाटिका’ का रचनाकाल सं. 1671 है ही। पं. रामनरेश ने किसी प्रचलित मत के आधार पर रसखान का जन्म सं. 1640 और मरण सं. 1685 के लगभग लिखा है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने ‘प्रेमवाटिका’ के रचनाकाल को ही रसखान का कविता-काल कहा है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने प्रेमवाटिका के रचनाकाल के आधार पर सं. 1617 के लगभग रसखान का जन्म माना है। श्री चन्द्रशेखर पाँडे ने रसखान का जन्म सं. 1615 के आसपास माना है। उनका कहना है कि रसखान ने युवावस्था में गो. बिट्ठलनाथजी से दीक्षा ली होगी, वृद्धावस्था में नहीं, क्योंकि इनके जीवन-चरित्र से सिद्ध है कि जिस समय ये एक वणिकपुत्र पर आसक्त थे, उस समय कुछ वैष्णवों के उपदेश से या अन्य किसी कारण से ये वृन्दावन गए और वहाँ दीक्षित हुए। ऐसी दशा में दीक्षा के समय उनकी अवस्था 25 वर्ष की मानना संगत ही है। रसखान की मृत्यु वृद्धावस्था में हुई होगी लगभग 60 वर्ष की आयु में, ऐसा अनुमान करते हुए पाँडे जी उनको मृत्यु (सं. 1615+60) सं. 1675 ठहराते हैं। दीक्षित होने के अनन्तर ही सं. 1640 के आसपास पांडे जी रसखान का काव्य-सृजन-काल मानते हैं। पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र रसखान के जन्म-मृत्यु काल के निर्णय के फेर में नहीं पड़े हैं, किन्तु रसखान का जन्मकाल और दीक्षाकाल तथा प्रेमवाटिका का रचनाकाल उन्हें भी वही मान्य प्रतीत होता है जो किंकर जी और पाँडे जी ने स्वीकार किया है। मृत्यु-संवत् के संबंध में वे पूर्णतः मौन है। कारण, निश्चित आधारो का अभाव। मिश्र जी ने एक तो रसखान के शिष्यत्व-काल का अनुमान किया है- वार्ता के अनुसार रसखान गो. बिट्ठलनाथ के शिष्य हुए। बिट्ठल स्वामी का गोलोकवास सं. 1643 में माना गया है, फलतः रसखान इससे पहले ही उनके शिष्य हुए होंगे। परन्तु प्रश्न उठता है इससे पहले किस समय? बिट्ठलनाथ जी सं. 1599 में गद्दी पर बैठे थे, उस समय उनकी आयु 27 वर्ष की थी। किसी मुसलमान को वैष्णव धर्म में दीक्षित करने की दृढ़ता प्रौढ़ावस्था में ही सम्भव है। इसलिए 50-60 वर्ष की वय में ही इनके द्वारा रसखान को दीक्षा देना संभव है। इस प्रकार सं. 1632 के आसपास रसखान गोस्वामी बिट्ठलनाथ के शिष्य हुए होगे। दूसरे, मिश्र जी का कहना है कि ‘प्रेमवाटिका’ (रचनाकाल सं. 1671) रसखान के जीवन के उत्तर-काल की रचना है, इसे आरंभिक काल की रचना मानने की भूल न करनी चाहिए, क्योंकि उसकी प्रौढ़ता स्पष्ट सूचित करती है कि वह रसखान के उत्तरवर्ती प्रेमवाटिका की रचना की है।

      इस प्रकार हम देखते है कि पुष्ट तथ्यों के अभाव में रसखान के समय के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न विद्वानों के भिन्न भिन्न मत हैं, फिर भी मोटे तौर से कुछ बातें लोगों को मान्य हैं जैसे- (1) रसखान का जन्म सं. 1615 या 1617 के आसापस (2) रसखान सं. 1640 के आसपास गो. विट्ठलनाथ के शिष्य हुए (3) उनका काव्य-रचनाकाल सं. 1640 से सं. 1675 तक है (4) प्रेमवाटिका उन्होंने सं. 1671 में रची और (5) उनकी मृत्यु सं. 1675 के आसपास या उसके बाद सं. 1685 के पहले कभी हुई।

      डॉ. भवानीशंकर याज्ञिक पोद्दार अभिनन्दन ग्रंथ में प्रकाशित अपने लेख में देखि गदर हित साहिबी वाले सूत्र को पकड़कर भिन्न निष्कर्षों पर पहुँचे हैं जो इस प्रकार है- (1) सं. 1590 के लगभग जन्म (2) सं. 1612 के आसपास दिल्ली छोड़कर ब्रज आना (3) सं. 1627 के बाद वैष्णव धर्म की दीक्षा (4) सं. 1634-37 तीन वर्षों तक मानस की कथा का श्रवण (5) सं. 1671 में प्रेमवाटिका की रचना तथा (6) लगभग 85 वर्ष की आयु में सं. 1675 के आसपास मृत्यु। ये निष्कर्ष अन्य विद्वानों के पूर्वोल्लिखित निष्कर्षों से भिन्न है तथा उनके तर्कों और प्रमाणों को देखते हुए अधिक विश्वसनीय भी जान पड़ते हैं।

सैयद इब्राहीम पिहानीवाले और रसखान

      रसखान के नाम की छाप तीन रूपों में उनकी रचनाओं में देखने को मिलती है- ‘रसखानि’, ‘रसखान’ और ‘रसखाँ’। ‘शिवसिंह सरोज’ में इन्हें ‘सैयद इब्राहीम पिहानीवाले’ बतलाया गया है। कुछ अन्य विद्वानों ने भी इसी आधार पर रसखान का असली नाम सैयद इब्राहीम और इन्हें पिहानी का निवासी कहा है। किन्तु अधिकांश विद्वान् रसखान को पिहानी (जिला हरदोई) का रहने वाला नहीं मानते, वरन् राजवंशी पठान या बादशाह वंश का बतलाते हैं और इन्हें दिल्ली का निवासी स्वीकार करते हैं। रसखान के पठान और दिल्ली निवासी तथा गो. बिट्ठलनाथ के शिष्य होने की बात ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के आधार पर ही विद्वानों द्वारा गृहीत हुई है। इनके दिल्ली निवासी होने की बात ‘देखि गदर हित साहिबी’ वाले दोहे में भी आई है। पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने पिहानी के सैयद इब्राहीम और रसखान को एक ही व्यक्ति सिद्ध करने की चेष्टा की है। किन्तु डॉ. भवानी शंकर याज्ञिक ऐसा नहीं मानते।

रसखान का प्रारम्भिक जीवन

चूँकि रसखान बादशाह वंश में पैदा हुए थे, इसलिए अनुमान किया जा सकता है कि इनका प्रारम्भिक जीवन बड़े सुख से व्यतीत हुआ होगा। सांसारिक दृष्टि से वह जीवन पूर्ण सुख-समृद्धि और ठसक का रहा होगा। इनकी शिक्षा-दीक्षा भी अच्छी तरह हुई होगी। लगभग 25 वर्ष की आयु तक इनका जीवन निर्द्वन्द रहा होगा। यह तो कहा ही जाता है कि श्रीमद्भागवत का ये फारसी अनुवाद पढ़ा करते थे। इससे जाहिर है कि फ़ारसी का इन्हें अच्छा ज्ञान रहा होगा।

देखि गदर हित साहिबी

उपर्युक्त दोहांश से स्पष्ट है कि दिल्ली में साहिबी (राजगद्दी) के लिए कोई विप्लव या ग़दर हुआ, जिसमें भीषण रक्तपात हुआ। उसने रसखान की मनोभूमि में बीजरूप में स्थित विरक्ति के भाव को अंकुरित कर दिया और ये शाही ठसक छोड़कर मथुरा-वृन्दावन चले आए। ये घटना रसखान के जीवन के जीवन में एक नया मोड़ ले आनेवाली सबसे महत्वपूर्ण घटना है जिसके न घटने पर रसखान ‘रसखान’ न होते और हम इस महान् प्रेमी और भक्त कवि की काव्य-संपदा से वंचित रह जाते। यह घटना भी रसखान के जीवन और उनकी वृत्ति पर सम्यक प्रकाश डालने वाली है। एक प्रश्न जिस पर प्रारम्भ में विद्वानों ने प्रायः विचार नहीं किया था, वह यह है कि रसखान ने दिल्ली कब छोड़ी और उनमें विरक्ति जगा देने वाला ग़दर कब हुआ। रसखान के जीवन से सम्बन्धित उस महत्वपूर्ण घटना के काल की भी छानबीन की जानी चाहिए जिसका बहुत स्पष्ट संकेत उन्होंने स्वतः अपनी ‘प्रेमवाटिका’ में किया हैं—–

देखि ग़दर हित साहिबी दिल्ली नगर मसान।

छिनहिं बादसा बंस की ठसक छाँड़ि रसखान।।

इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य यह है कि वह घटना कौन सी है और कब हुई जिसमें दिल्ली नगर श्मशान के रूप में परिणत हो गया था और जिसने रसखान को सुख-समृद्धि पूर्ण जीवन से वैराग्य लेने को बाध्य कर दिया, उन्होंने बादशाही खानदान में उत्पन्न होने की ठसक छोड़ दी और श्रीवन में गोवर्धनधाम में आकर बस गए जहाँ राधा-कृष्ण के ललाम स्वरूप में उन्हें परम शान्ति प्राप्त हुई—-

प्रेम निकेतन श्रीबनहिं, आइ गोवर्धन धाम।

लह्यौं सरन जित चाहिं कै, जुगल-सरूप ललाम।।

इस सम्बन्ध में, जहाँ तक हमारी जानकारी है, सर्वप्रथम ‘रसखान रत्नावली’ के सम्पादक किंकर जी ने विचार किया था। किंकर जी का कहना है कि सं. 1640 वि. के लगभग रसखान ने दिल्ली में होने वाले गृदर के बाद विरक्त हो गो. विट्ठलनाथ के पास आकर दीक्षा ली होगी। यह समय दिल्ली के सिंहासन पर अकबर के राज्य करने का है। इस समय इतिहास में ऐसी किसी राज्यक्रान्ति का उल्लेख नहीं मिलता जिसमें दिल्ली नगर श्मशान हो गया हो। संभवतः किसी छोटी-मोटी घटना को रसखान ने बड़ी भारी राज्य-क्रान्ति का नाम दे दिया है। किंकर जी ने लिखा है- “यह अशान्ति अकबर के सौतेले भाई मिर्जा मुहम्मद हकीम के असन्तोष के कारण हुई थी, जो काबुल के शासक होते हुए भी दिल्ली के सिंहासन पर अपना दाँत लगाए हुए थे। इनके दरबारी भी अकबर के विरुद्ध इन्हें भड़काते रहते थे। फलतः सं. 1638 में अकबर ने अफगानिस्तान पर आक्रमण करके अपने अधिकार में कर लिया और सं. 1642 में मिर्जा हकीम की मृत्यु के अनंतर उसे दिल्ली राज्य का सूबा बना लिया। इसी अशान्ति को रसखान ने राज्य क्रांति कहा है।” यह भी एक प्रकार का इतिहास-विषयक अनुमान ही है। किंकर जी जिस युद्ध या विप्लव को रसखान द्वारा संकेतित क्रान्ति ठहरा रहे हैं, उसमें दिल्ली में किसी घटना के होने का जिक्र नहीं है। युद्ध हुआ या रक्तपात हुआ- वह तो अफगानिस्तान में। दिल्ली में क्या विप्लव मचा ? क्या खून खराबी हुई ? अतएव यह अनुमान भी शिथिल जान पड़ता है। किंकर जी द्वारा सर्व-प्रथम अनुमित इस ऐतिहासिक कारण को ही लेकर श्री चन्द्रशेखर पाँडे और पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र आगे बढ़े हैं। इन लोगों के अनुसार वह घटना जिससे रसखान द्वारा वर्णित ग़दर का सम्बन्ध हो सकता है, इस प्रकार है। अकबर का सौतेला भाई मिर्ज़ा मुहम्मद हकीम काबुल का शासक था। वह दिल्ली के सिंहासन पर स्वयं बैठना चाहता था। इसी उद्देश्य से उसने थोड़ा बहुत उपद्रव किया था। मुहम्मद हकीम का साथ दिल्ली के कई अमीर भी गुप्त रूप से दे रहे थे जिनमें स्वयं अकबर का मंत्री शाह मंसूर अग्रणी था। उसके कई पत्र पहले भी पकड़े गए थे, किन्तु अकबर ने समझा कि यह सब शाह मंसूर से ईर्ष्या रखने वालों की कारस्तानी है। अकबर जिस समय बंगाल में था, मिर्ज़ा मुहम्मद हकीम ने पंजाब पर हमला कर दिया। अकबर शीघ्र ही लौटकर दिल्ली आया और वहां से हकीम को दबाने के लिये चल पड़ा। अकबर के साथ में शाह मंसूर भी था। अकबर को इसी समय यह बात निश्चित रूप से ज्ञात हुई कि हकीम के विद्रोह में शाह मंसूर का भी हाथ है, क्योंकि उसके कुछ पत्र और भी पकड़े गए। उसने तुरन्त शाह मंसूर को बबूल के पेड़ में लटकाकर मार डाला। संभव है हकीम और शाह मंसूर के और साथी दिल्ली ही में मारे गए हों। संभव है कुछ पठानों को भी विद्रोह और षंडयंत्र में सम्मिलित होने के कारण मृत्यु-दण्ड मिला हो। ये पठान, हो सकता है, रसखान के निकट सम्बन्धी रहे हों। यह बात ध्यान रखने की है कि शाह मंसूर को दिल्ली से कुछ ही कोसों की दूरी पर फाँसी दी गई थी। अन्य दरबारी जो उक्त षड्यन्त्र में शाह मंसूर के साथ थे, संभवतः दिल्ली में ही मारे गए। वैसे किसी भीषण विप्लव और मारकाट का, जो अकबर के समय में दिल्ली में हुआ हो, कोई उल्लेख मिश्र जी के मतानुसार अकबरनामा, तबकाते अकबरी, आईने-अकबरी आदि में नहीं है, परन्तु शाह मंसूर की फाँसी इतिहास-प्रसिद्ध घटना है। रसखान ने यह भी स्पष्ट तौर से लिखा है कि उपद्रव (ग़दर) साहबी या राज्यप्राप्ति के लिये हुआ था, अतः बहुत सम्भावना इसी बात की है कि शाह मंसूर और उसके साथियों, दरबारियों एवं पठानों को मृत्युदण्ड मिला होगा और उसी को रसखाने ग़दर का नाम दिया और उसी ने उनके मन में विरक्ति पैदा की। भावुक और सरल हृदय रसखान, धन और राज्यलिप्सा की ऐसी परिणति देखकर ही संसार से विरक्त हुए होंगे। शाह मंसूर को फाँसी सन् 1585 (सं. 1642) में दी गई। समय की दृष्टि से भी इस घटना की संगति रसखान के वैराग्य और वृन्दावन में जाकर दीक्षा ग्रहण करने से बैठ जाती है। यहाँ भी संगति बिठाने और एक अनुमान को कुछ और तर्को द्वारा पुष्ट करने का ही प्रयत्न है। इस सम्बन्ध में डॉ. भवानीशंकर याज्ञिक ने अच्छी खोजबीन की है और उन्होंने एक भिन्न मत सामने रक्खा है जो अधिक विश्वसनीय है। उन्हेंने बताया है कि रसखान ने जिस गदर की चर्चा अपने दोहे में की है, वह सं. 1612 का ग़दर या विप्लव है। उन्होंने ऐतिहासिक आधारों पर बताया है कि यह गदर पठानों के द्वारा ही मचाया गया था, मुसलमानों के द्वारा नहीं ।रसखान को अपनी ही जातिवालों के पारस्परिक विग्रह से विरक्ति हुई थी। यह विग्रह, फूट, पारस्परिक मारकाट और ग़दर हुआ भी उत्तराधिकार (साहबी) के लिए। शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारी और सम्बन्धी राज्य-प्राप्ति के लिये एक दूसरे के खूने के प्यासे हो रहे थे। सं. 1602 में इस कलह का बीजारोपण तब हुआ, जब शेरशाह के छोटे पुत्र सलीमशाह ने अपने बड़े भाई आदिल खाँ का राज्य हड़प लिया। वह आमोद-प्रमोद में लिप्त रहने वाला एक व्यसनी व्यक्ति था। उसकी ओर से राज्याधिकार प्राप्त करने का कोई भी उद्योग न हुआ, फिर भी सलीमशाह उसकी हत्या की ताक में लगा हुआ था। उसके स्वेच्छाचारों और अन्यायों के कारण ईर्ष्या, द्वेष, हत्या और दमन की भीषण अग्नि खूब भड़की और सं. 1611-12 मे भयंकर रूप से फैल गई, जिसके कारण पठानों का सर्वनाश हो गया। दो वर्षो के अनवरत युद्ध और कतह के कारण दिल्ली नगर श्मशान में परिणत हो गया था। इसी वर्ष सं. 1612 में जनता भी भीषण अकाल से पीड़ित हुई और सर्वत्र घोर अराजकता का साम्राज्य छा गया था। इस दुर्भिक्ष और हाहाकार का, इतिहासकार बदायुँनी ने अत्यन्त हृदयविदारक विवरण दिया है। नरहरि कवि ने भी अपने आश्रयदाता सलीमशाह की मृत्यु के बाद देश की इसी दुरवस्था का चित्रण अपने एक छप्पय में इस प्रकार किया है—-

उदक बनिज सुखि गयेउ भयेउ नहिं पुहुमि अन्न फल।

प्रजा दुखित दलमलित गयेउ फटि फुटि पठाँन दल।।

दत्त सत्त गरुबत रहेउ धन धरम कित्ति नति।

मँडन सोर चहुँ ओर बहुरि सँवरेउ मुगुलपति।

जगदीश दिखावहि दिख्खिए, कहिं नरहरि निस दिन शुरक।

सूरन बिन साह सलेम बिन, अकल विकल हिंदू तुरक।।

इस प्रकार सं. 1612 विक्रमी की इन्ही घटनाओं से संत्रस्त होकर अपनी प्राणरक्षा के लिए या संसार से विरक्त होकर रसखान में दिल्ली छोड़ दी। याज्ञिक जी ने लिखा है कि पठान-वंश के ग़दर से हो उन्हें घृणा हो सकती थी। मुग़लवंश का गृह-कलह उनके वैराग्य का कारण नहीं हो सकता था।

रसखान ने शाही वेशभूषा और ठसक छोड़ दी तथा मानवती प्रेमिका को भी तिलांजलि दे दी। सं. 1612 में वे दिल्ली से ब्रज भाग आए और छद्मवेश में हिन्दू साधु या भक्त के रूप में ब्रजप्रदेश में ही रहे और धीरे-धीरे हिन्दू से ही हो गए। उस समय मुगल सैनिक शाहीवंश के पठानों के दमन में तत्पर थे, फलस्वरूप रसखान को अपना नाम, गॉव आदि गुप्त रखकर जीवनयापन करना पड़ा। अपनी रक्षा के लिए उन्होंने अपना वासस्थान, असली नाम, माता-पिता का नाम किसी को न बताया होगा, इसी में उनका हित था। समय बीतते पर उन्होंने वृद्धावस्था में ‘प्रेमवाटिका’ में अपना सांकेतिक परिचय देकर जीवन के इतने बड़े रहस्य का उद्घाटन किया है। वे हज-यात्रा के लिए भी आत्मरक्षा के कारणों से ही न गए होंगे।

साहूकार के बेटे के प्रति रसखान की आसक्ति

रसखान के जीवन की एक प्रमुख घटना की ओर सभी ने ध्यान आकृष्ट किया है और वह यह कि इनका प्रारम्भिक जीवन अत्यंत लौकिक प्रेम में फँसा हुआ था। ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ में उल्लिखित किसी साहूकार के सुन्दर लड़के के प्रति इनकी आसक्ति की चर्चा इस प्रकार की गई है- “अब श्री गोस्वामी जी के सेवक रसखान पठान जो दिल्ली में रहते थे उनकी वार्ता सुनिये। दिल्ली में एक साहूकार रहता था, उसके एक बहुत सुन्दर बेटा था। उस छोरे से रसखान का मन बहुत लग गया, वे उसी के पीछे फिरा करते थे और उसका जूठा खाते और आठों पहर उसी की गुलामी करते थे। पगार कुछ लेते नहीं थे, रात दिन उसी में आसक्त रहते थे। दूसरी बड़ी जात वाले मुसलमान रसखान की बहुत निन्दा करते थे, पर रसखान किसी की सुनते नहीं थे और आठों पहर उनका चित्त उसी साहूकार के बेटे में लगा रहता था।

एक दिन चार वैष्णव मिलकर भगवद्वार्ता कर रहे थे, करते-करते ऐसी बात निकली कि प्रभु में ऐसा चित्त लगाया जाय जैसा रसखान का चित्त साहूकार के बेटे में लगा है। इसी बीच रसखान उस रास्ते से निकले, उन्होंने ये बातें सुनी। रसखान ने कहा- ये तुम लोग मेरी बात क्यों कर रहे हो, तब वैष्णवों ने जो बात थी सो कही। तब रसखान बोले- प्रभु का स्वरूप जब दिखाई दे तब तो चित्त लगाया जाय। तब उस वैष्णव ने उन्हें श्रीनाथ जी का चित्र दिखाया। उसे देखते ही रसखान ने वह चित्र ले लिया और मन में ऐसा संकल्प किया कि जब ऐसा रूप देखूँगा तभी अन्न ग्रहण करूँगा। लौकिक संबंधो से वितृष्ण होते ही रसखान घोड़े पर सवार हो रातों रात दिल्ली से वृन्दावन पहुँचे और वेश बदल कर सभी मंदिरों में दर्शन करते फिरे, किन्तु जैसी छबि उनकी आँखो में थी कहीं न मिली।श्रीनाथ जी के मंदिर में जब प्रवेश करने लगे तो भगवद्प्रेरणा से सिंहपौर के प्रहरी ने उन्हें मुसलमान समझ जाने से रोका और धक्के मारकर बाहर कर दिया। परिणामस्वरूप ये तीन दिन तक बिना खाए-पिए गोविन्द कुंड पर पड़े रहे। इनके सच्चे प्रेम से प्रसन्न होकर श्रीनाथ जी ने स्वयं इन्हें दर्शन दिया और भगवद्प्रेरणा से गो. बिट्ठलनाथ ने इन्हें अपने भक्ति-संप्रदाय में दीक्षित किया।

श्रीनाथ जी के स्वरूप में आसक्त हो ये ज्यों-ज्यों आत्मविभोर होते गये, वे इन्हें अपने स्वरूप और लीलाओं का दर्शन और साक्षात्कार कराते गये। रसखान ने धीरे-धीरे श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन और कीर्तन करना शुरु किया। इस प्रकार उनकी गलत ढंग की प्रेम-वासना चार महात्माओं के संसर्ग से भगवद्भक्ति में परिणत हो गई। लौकिक विषय-वासना और सांसारिक लिप्सा की यह प्रतिक्रिया इतनी तीव्र हुई कि वे सच्चे भगवद्प्रेमी होकर ही रहे। यही कारण है कि गो. विट्ठलनाथ ने उन्हें अपने भक्तो की मंडली में स्थान दिया। ये उनसे दीक्षित हो श्रीकृष्ण के परमप्रेमी भक्त हो गये तथा ब्रजभूमि की महिमा का साक्षात्कार  करते हुए ये उसी की महत्ता के गीत गाने लगे और अपने छंदो मे कृष्ण-प्रेम और लीलाओं का आख्यान करने लगे। इनका कृष्णानुराग इस प्रकार भौतिक प्रेम की प्रतिक्रिया स्वरूप था।” ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के आधार पर दी गई उक्त घटना से एक बात विदित हुए बिना नहीं रहती और वह यह कि प्रेम भक्ति, धर्म ऐसे सद्वृत्तियों के बीज उनमें प्रारंभ से ही निहित था। ये जाति के पठान थे तथा इन्हें भारतवासी हिन्दुओं के प्रति विशेष सद्भाव था। पठान भारत के पुराने शासक थे और वे मुगलों को विदेशी तथा अपने को देशी समझते थे। भारत के प्राचीन हिन्दू निवासियों के प्रति उनका अच्छा व्यवहार था और वे भारत को अपनी देशी भूमि समझते थे। यही कारण है कि ये लोग मुगलों से बराबर षडयंत्र और विद्रोह करते रहे।

दीक्षा के बाद

दीक्षा लेने के बाद रसखान पूर्ण कृष्णभक्त हो गये होंगे तथा कृष्णभक्ति में लीन होकर कृष्ण-चरित्र का कवित्त-सवैयों में गान करते रहे होंगे। वैष्णवों के बीच इनका अच्छा सम्मान रहा होगा। भगवद्-प्रसाद इनका भोजन रहा होगा और साधु-संगीत जीवन। गो. बिट्ठलनाथ जी के शिष्य होकर ये भक्तिपूर्वक कृष्ण की गोचारण, वेणुवादन, दधिदान, रास आदि विविध लीलाओं का जिस रूप में दर्शन करते, उसी रूप में उन्हें अंकित करते चलते। यह बात इनकी रचनाओं से भी स्पष्ट है। प्रतिदिन गोपीकृष्ण संबंधी होने वाली घटनाओं या क्रीड़ाओं का जीता-जागता चित्र इनकी रचनाओं में देखा जा सकता है। ‘वार्ता’ में वैष्णव भक्तों द्वारा दिखाये गये चित्र को देख रसखान में कृष्णानुराग की लालसा जगी, यह बात ‘प्रेमवाटिका’ की इस पंक्ति से भी प्रमाणित होती है- “प्रेमदेव की छबिहिं लखि भये मियाँ रसखान।” यह कहा गया है कि रसखान ने श्रीमद्भागवत का फ़ारसी अनुवाद पढ़ा था तथा ये भक्त होकर पंडितों के संसर्ग में रहे जिसके कारण इन्हें संस्कृत का भी ज्ञान हुआ। ब्रज-प्रदेश में बहुत समय तक रहने के कारण भाषा-काव्यग्रन्थों का भी इन्होंने पर्याप्त अध्ययन किया। इसी कारण भाषा, शब्दावली और व्यंजना का वैसा ही सरस, मधुर स्वाभाविक रूप उनकी रचनाओं में गोचर होता है जैसा बड़े से बड़े ब्रजभाषा कवि में देखा जाता है। भाषा के पारखियों ने तो रसखान को भाषा की दृष्टि से ब्रजभाषा के उत्तमोत्तम कवियों में परिगणित किया है। जैसी ब्रजभाषा इन्होंने लिखी है, उससे यही सिद्ध होता है कि ये ब्रज-प्रदेश में काफी समय तक रहे थे तथा ब्रज-साहित्य का इन्होंने पर्याप्त आस्वादन किया था।

रसखान का रामायण पाठ सुनना

बाबा वेणीमाधव दास रचित ‘मूल गुसांई चरित’ को एक अप्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है, फिर भी डॉ. याज्ञिक ने उसमें दिये गये रसखान संबंधी विवरण को मान्य ठहराया है। ‘मूल गोसाई चरित’ में कहा गया है कि संडीले (ज़िला हरदोई) के स्वामी दयालदास से तीन वर्ष (सं. 1634 से 1637) तक रसखान ने रामचरित-मानस की कथा सुनी। डॉ. याज्ञिक का कथन है कि जिन रसखान ने शिव, गंगा आदि पर भक्ति, प्रेम और निष्ठापूर्ण रचनाएँ की हों, वे यदि रामभक्त और मानस-प्रेमी भी रहे हों तो कोई आश्चर्य की बात नही। अतएव असंभव नहीं कि रसखान ने काफी समय तक रामायण-पाठ किया या सुना हो। इस स्वीकृति के विपक्ष में यह कहा जा सकता है कि यदि रसखान ने तीन वर्षों तक मानस का परायण किया अथवा सुना तो उन्होंने रामभक्ति या रामचरित्र का वर्णन करने वाले छंद क्यों नहीं लिखे ? किन्तु यह भी संभव है कि उनके तत्संबंधी छंद अंधकार के गर्त में अब भी छिपे पड़े हों। जो हो, ‘गुसाई चरित्र’ वाला रसखान विषयक विवरण भी एक सूचना ही है जो उनसे संबंधित जानकारी की आंशिक वृद्धि करता है।

कंठीमाला-धारण प्रसंग

नाभादास रचित ‘भक्तमाल’ में रसखान का नाम नहीं आया है, क्योंकि उसने सं. 1643 तक के भक्तों का ही विवरण है और उस समय तक रसखान की विशेष ख्याति न रही होगी। कालांतर में मूल ‘भक्तमाल’ में नये-नये भक्तों का विवऱण जुड़ता रहा। प्रियादास जी ने भी रसखान का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु सं. 1844 में लिखित अपने ‘भक्तमाल प्रसंग’ में वैष्णवदास जी ने रसखान का विवरण इस प्रकार किया है- “बादशाह ने देखा कि तुर्क भी कंठीमाला (काठ की माला गले में) पहनने लगे, तब उन्होंने रसखान को बुलवाया। देखा कि रसखान के गले में कंठी पड़ी हुई है। उन्होंने पूछा- रसखान ! कंठी क्यों पहनते हो? रसखान ने कहा- हजरत! काठ की नाव पर सवार हो पत्थर भी तर जाता है, इसी से मैंने भी काठ की माला पहन रखी है। ये काठ है, मै पत्थर हूँ, इसीलिये इसे कंठ में रखता हूँ। तब शाह ने कहा- अच्छा ये तो बताओं कि यहाँ तो कितने हिन्दू भी कंठी नहीं धारण करते ? इस पर रसखान ने कहा कि वे हल्के है, मैं भारी पत्थर हूँ।” इस परम प्रवीण उत्तर से रसखान की निष्ठा और बुद्धिमत्ता का पता चलता है और यह भी पता चलता है कि रसखान के समसामयिक बादशाह ने ‘कंठीमाला धारण’ न करने की राजाज्ञा प्रचारित कर रक्खी थी।

आगे चलकर अंबाला के तुलसीदास जी ने ‘भक्तमाल’ और उसकी टीका का सं. 1913 में फारसी-उर्दू रूपांतर ‘भक्तमाल प्रदीपन’ नाम से किया और संवत् 1923 में उसी का हिन्दी रूपान्तर ‘भक्त कल्पद्रुम’ नाम से हुआ। इन दोनों ग्रंथों में भी उक्त विवरण मिलता है। साथ ही यह भी कहा गया है कि रसखान मुसलमान थे तथा अपने किसी पीर के साथ वृन्दावन पहुँचे और श्रीकृष्ण का दर्शन पाकर वहीं रहने लगे। अपने पीर के बहुत कहने पर भी उन्होंने ब्रजभूमि नहीं छोड़ी। ब्रजभूमि के प्रति अनन्य आसक्ति विषयक कितनी ही रचनाएँ इस तथ्य को प्रमाणित करती है।

डॉ. भवानीशंकर याज्ञिक के मतानुसार कंठी-माला-धारण-निषेधाज्ञा के संबंध में इतिहास मौन है। किन्तु वल्लभ-संप्रदाय के इतिहास में ‘माला प्रसंग’ नाम से इस राजाज्ञा का विवरण उपलब्ध है। उसके अनुसार सम्राट जहाँगीर ने किसी चिद्रूप नामक संन्यासी के कहने से कंठीमाला-धारण के विरोध में एक आदेश निकाला था। वैष्णव भक्तों के बीच इसका तीव्र विरोध हुआ। गोकुलनाथ जी 70 वर्ष की वृद्धावस्था में जहाँगीर से मिलने काश्मीर गये और इस आज्ञा का उन्होंने विरोध किया तथा उसे हटवाने में सफल रहे। कंठीमाला-धारण के पक्ष में गो. गोकुलनाथ का सफल प्रयास उनके जीवन की एक प्रधान घटना कही जाती है। इसके फलस्वरूप संप्रदाय में गोकुलनाथ जी की विशेष प्रतिष्ठा हुई। इससे ‘भक्तमाला प्रसंग’ के संबंधी वृत्त की पुष्टि होती है। डॉ. याज्ञिक ने लिखा है कि चिद्रूप सन्यासी से जहाँगीर की भेंट सं. 1673 तथा सं. 1676 में हुई थी। इधर ‘प्रेमवाटिका’ रसखान ने सं. 1671 में लिखी। इस कारण माला-प्रसंग के समय का रसखान के समय से मेल बैठ जाता है। गो. गोकुलनाथ जी की काश्मीर यात्रा और कंठीमाला-धारण-निषेध की आज्ञा वापस लेने का समय भी सं. 1684 (जहाँगीर के मृत्यु-काल) के पूर्व होना चाहिये।

उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि रसखान दिल्ली के निवासी थे, पठान बादशाहों के वंश के थे और राजनैतिक षड्यंत्रों तथा दिल्ली के रक्तपात आदि के वीभत्स दृश्यों से विरक्त हो उन्होंने शाही ठाठबाट छोड़ दिया था, साथ ही अपने लौकिक प्रिया का भी त्याग कर वृन्दावन में आकर बस गये थे। श्रीकृष्ण का चित्र देखकर इन्हे भगवद्-दर्शन की उत्कट इच्छा हुई। गो. बिट्ठलनाथ ने इनकी अनन्य निष्ठा देख अपने भक्तों में स्थान दिया और वे कंठी-माला धारण कर हिन्दू-भक्तों के समान जीवनयापन करने लगे। तीन वर्ष (सं. 1634-37) तक इन्होंने मानस की कथा सुनी तथा सं. 1671 में ‘प्रेमवाटिका’ की रचना की।

किंवदंतियाँ

रसखान के जीवन से संबंधित अनेक किंवदंतियाँ भी प्रचलित हैं। इनसे भी उनके जीवन पर अंशतः प्रकाश पड़ता है। पहली किवदंती तो किसी साहूकार के बेटे पर रसखान की आसक्ति से संबंधित है। जिसका विवरण ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ में आया है और जो पहले दिया भी जा चुका है। दूसरी किवदंती यह है कि रसखान किसी स्त्री पर आसक्त थे जो बड़ी मानवती और अभिमानिनी थी। ये उससे बड़ा लगाव रखते थे, पर वह इनका अनादर और तिरस्कार किया करती थी। एक दिन ये श्रीमद्भागवत का फ़ारसी अनुवाद पढ़ रहे थे। उसमें वर्णित गोपियों का विरह देख इन्हें अपनी प्रिया के प्रति घृणा का भाव जागृत हुआ और श्रीकृष्ण के प्रति आसक्ति का। उन्होंने सोचा कि जिस कृष्ण पर हजारो गोपियाँ जान देती थीं, उसी से क्यो न इश्क किया जाय। इसी भाव से भावित हो वे वृन्दावन चले आये। उनका निम्नलिखित दोहा इसी घटना की ओर संकेत करने वाला बतलाया जाता है-

तोरि मामिनी तैं हियों, फोरि मोहनी मान।

प्रेमदेव की छबिहिं लखि, भये मियाँ रसखान।।

तीसरी किंवदन्ती यह है कि इनकी एक प्रेमिका ने इन्हें ताना दिया कि जितना तुम हमें चाहते हो, उतना यदि उसे चाहते जिसे लाखों गोपियाँ चाहती है तो तुम कितने पागल हो जाते ? इस बात की चोट खा वे सब कुछ छोड़ वृन्दावन चले आये।

चौथी किंवदंती यह है कि कहीं पर श्रीमद्भागवत की कथा होती थी। वहीं पर श्रीकृष्ण का सुन्दर चित्र रक्ख देखकर ये मुग्ध हो गये। रसखान ने व्यास जी से उस ‘साँवली सूरत वाले’ का नाम और वासस्थान पूछा। व्यास ने इन्हें भगवान का नाम ‘रसखान’ और वासस्थान ‘वृन्दावन’ बताया ये वृन्दावन चले आये परन्तु यहाँ इन्हें किसी ने मंदिरों में न जाने दिया। तब यमुना-पुलिन की रेत में बैठ कर भगवान का नाम पुकारने लगे। लोग इन्हें पागल समझ कर तंग करने लगे। वस्तुतः ये पागल हो चुके थे। इन्हें भक्तवत्सल भगवान ने तीसरे दिन अनुग्रह पूर्वक दर्शन किया। तब से नित्य इन्हें गोपी, ग्वाल और कृष्ण के दर्शन होते। कहा जाता है कि इनकी अन्त्येष्टि क्रिया भगवान ने ही की।

संभव है रेत में बैठ कर ‘रसखान-रसखान’ पुकारने के कारण ही पागल समझ लोगों ने इनका नाम ‘रसखान’ रख दिया हो और बड़ी प्रचलित हो गया हो। तीसरी किंवदंती दूसरी से मिलती-जुलती है औऱ चौथी किंवदंती का एक अंश ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ की कथा के एक अंश से मिलता है जिसमें ईश्वर-दर्शन के लिये यमुना-पुलिन या देवालय के समक्ष बिना खाये-पिये तीन दिनों तक रसखान के पड़े रहने की बात कही गई है। इन किंवदंतियों का उल्लेख श्री किशोरीलाल गोस्वामी ने अपने ‘सुजान रसखान’ नामक संकलन में किया है और उसी आधार पर रसखान के काव्य के समस्त परवर्ती संकलनों में आया है। उक्त सभी किंवदंतियों से ऐसा पता चलता है कि रसखान का युवाकालीन जीवन असंयत और कुत्सित था। पता नहीं वे किसी मानिनी स्त्री के प्रति आसक्त थे या किसी साहूकार के छोरे पर अथवा जैसा मिश्र जी ने अनुमान किया है किसी साहूकार की छोरी पर। जो हो, ईश्वरीय आधार पाते ही लौकिक आधार छूट गया ओर रसखान की प्रणय-भावना पवित्र ईश्वरीय प्रेम की मंदाकिनी में स्नान कर पवित्र हो उठी। रसखान के संबंध में प्रचलित उपर्युक्त समस्त जनश्रुतियों का संबंध रसखान के जीवन की एक ही घटना से है- लौकिक प्रिय से वैराग्य तथा अलौकिक प्रिय से अनुराग। वास्तव में ये विभिन्न किंवदंतियाँ एक ही घटना के विभिन्न संस्करण है।

“नामूला तु जनश्रुतिः” के अनुसार इन किंवदन्तियों के घटाटोप के बीच से एक सत्य झलक रहा है और वह यह कि किसी समय रसखान लौकिक प्रेम में असाधारण रूप से लिप्त थे तथा उनके जीवन में अवश्य ही कोई ऐसी घटना घटी जिसने उनके मन की धारा को बदल दिया। वे कृष्णभक्त हो वृन्दावन में रहने लगे, श्रीकृष्ण का उन्हें साक्षात्कार हुआ उनके लीलाओं के प्रति अनुरक्ति हुई। संसार की संपदा और शक्ति को उन्होंने जिलांजलि दे दी, ब्रज-रज के समक्ष बादशाहत की ठसक झूठी नज़र आई। वे परमभक्तों और ईश्वर-प्रेमियों की कोटि में पहुँच गये। उनके संबंध में एक किंवदन्ती और है जिसका विवरण परवर्ती संकलनों में मिलता है। किसी समय ये अपनी रियासत के कई मुसलमानों के साथ मक्का-मदीना हज करने जा रहे थे। बीच में ब्रज में ठहरे। वहाँ किसी प्रकार से इन को कृष्ण से इश्क हो गया। तब इन्होंने साथियों को यह कहकर कि मैं तो अब यहीं रहूँगा, और लोग हज को तशरीफ ले जायँ, विदा किया और आप वहीं रह गये। यह समाचार बादशाह तक पहुँचा और किसी ने रसखान से भी आकर कह दिया कि बादशाह से किसी ने चुगली खाई कि वह तो ‘काफिर’ हो गया, इसलिये आप सम्हल जाइए। यह सुन आने यह दोहा पढ़ा-

कहा करै रसखान को, कोऊ चुगुल लबार।

जो पै राखनहार है, माखन-चाखन हार।।

और उसी तरह ब्रज में बने रहे, कुछ भी परवाह न की। इस संबंध में पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है कि उस समय मियाँ लोग मक्के बहुत जाते थे। जाते भी थे और भेजे भी जाते थे। बादशाह अकबर जिनसे अप्रसन्न हो जाता था उन्हें मक्के भेज देता था।

हो सकता है कि इन्हें अपने परिवार वालों सहित बादशाह ने मक्के जाने की आज्ञा दी हो, पर ये मक्का न जाकर वृन्दावन चले आये और कृष्ण-भक्त हो गए। किसी ने इनके काफिर हो जाने की चुगली की होगी जिसका पता ‘चुगुल लबार’ वाला दोहा दे रहा है। हो सकता है कि अकबर ने इनसे ‘दीन-ए-इलाही’ में सम्मिलित हो जाने को कहा हो, पर ये उसमें शामिल न होकर कृष्ण-भक्त हो गए। यह भी बादशाह की नराज़गी का कारण हो सकता है। पर धर्म के मामले में उसकी नीति उदार थी, इसलिये उसने रसखान का कोई प्रत्यक्ष अहित न किया होगा।

रसखान की कृतियाँ

रसखान की लिखी दो कृतियाँ की चर्चा प्रायः इतिहास-ग्रंथों में मिलती है- 1. सुजान रसखान, 2. प्रेमवाटिका। ‘सुजान रसखान’ में सामान्यतया 129 छंदो के होने का उल्लेख पुराने विवरणों में मिलता है जिनमें 10 दोहे और सोरठे तथा शेष कवित्त और सवैया छंद बताये गये हैं। ‘प्रेमवाटिका’ दोहों में लिखी गई है और इसमें 52 दोहों का होना बताया गया है। इसमें कुछ सोरठे भी हैं। ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ में रसखान के कीर्तनों का भी उल्लेख है। रसखान का लिखा एक पद ऐसा मिलता है जिससे ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के कथन की सत्यता अंशतः प्रमाणित हो जाती है। किन्तु अन्य पदो की उपलब्धि अभी तक नहीं हो सकी है। रसखान की रचनाओं के अनेक संग्रह समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। उत्तरवर्ती संग्रहों में रसखान-विरचित छंदों की संख्या उत्तरोत्तर अधिक होती गई है। ‘प्रेमवाटिका’ के दोहों की संख्या में तो कोई वृद्धि नहीं हुई है, किन्तु ‘सुजान रसखान’ के कवित्त-सवैयों की संख्या अवश्य बढ़ी है। ‘सुजान रसखान’ के नवीनतम संस्करण में छंदों की संख्या 129 से बढ़कर 214 तक जा पहुँची है। डॉ. भवानीशंकर याज्ञिक के पास रसखान की रचनाओं का जो संग्रह है, उसमें कुछ ऐसे भी छंद हैं जो अद्यावधि प्रकाश में नहीं आ सके है। उन्होंने बड़े परिश्रम से देश के विविध भागों से छानबीन करके रसखान के अधिकाधिक छंदों की उपलब्ध करने की चेष्टा की है। अब तो पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा संपादित ‘रसखानि ग्रन्थावली’ के प्रकाशन से रसखान के कुल 281 छंद प्रकाश में आ गये हैं। डॉ. याज्ञिक के संग्रह में प्राप्त रसखान के कुल छंदों की संख्या 310 है। डॉ. याज्ञिक का कहना है कि अब इससे अधिक सामग्री के प्राप्त होने की आशा नहीं है। रसखान की रचनाओं के जो विविध उल्लेखनीय संस्करण समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं उनका संक्षिप्त विवरण देना यहाँ अनुचित न होगाः—-

(1) आधुनिक काल के प्रारंभ में ही इस दिशा में सर्वप्रथम भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के मित्र और अनन्य साहित्यानुरागी श्री किशोरीलाल जी गोस्वामी ने बड़े मनोयोग और परिश्रम के साथ रसखान की रचनाओं का संकलन और प्रकाशन किया। रसखान की कृतियों से हिन्दी साहित्य की समृद्ध करने की सबसे अधिक श्रेय उन्हीं की है। वे रसखान की रचनाओं के अनन्य प्रेमी थे। उन्होंने कानपुर, दिल्ली, वृन्दावन, पटना इत्यादि नगरो में अपने मित्रों के पास  पत्र भेजा, किन्तु उन्हें उनसे एक-एक, दो-दो छन्द ही मिल सके। रसखान की कृतियों के रसिक भारतेन्दु जी से भी उन्हें इस संबंध में कोई सामग्री प्राप्त न हो सकी। किन्तु उन्होंने अनेक लोगों की सहायता से धीरे-धीरेरसखान की 105 कविताएँ संग्रहीत कर ली और उन्हें ‘रसखान शतक’ नाम से खड्ग विलास प्रेस, बाँकीपुर से प्रकाशित कराया। यह संग्रह उन्होंने भारतेन्दुजी को समर्पित किया, क्योंकि वे भी रसखान की रचनाओं के अनन्य प्रेमी थे। किन्तु अब वह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। इसके बाद रसखान के बनाये हुए दो ग्रन्थ 1. सुजान रसखान, 2. प्रेम वाटिका। गोस्वामी जी को अपने दो मित्रों- पं. जगन्नाथ त्रिपाठी और कविवर पं. अंबाशंकर व्यास- की सहायता से प्राप्त हुए। ‘सुजान रसखान’ नामक ग्रंथ सन् 1891 (सं. 1948) में भारत जीवन प्रेस, काशी से प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ में कवित्त, सवैया, सोरठा और दोहा लेकर कुल 128 छंद हैं। दूसरी बार यह ग्रंथ संवत 1976 में छपा। कुछ समय पश्चात रसखान के दोहों का संग्रह ‘प्रेमवाटिका’ किशोरीलाल गोस्वामी ने पहले तो हरिप्रकाश यंत्रालय से प्रकाशित कराया, फिर हितचिंतक यंत्रालय से (सं. 1963 में)।

(2) सं. 1986 (सन् 1929) में श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने ‘रसखान-पदावली’ नाम से एक संग्रह हिन्दी मंदिर, प्रयाग द्वारा प्रकाशित कराया जिसमें ‘सुजान रसखान’ के 122 छंदों के अतिरिक्त भी 12 छंद संग्रहीत हुए हैं जिन्हें संपादक ने ‘रागरत्नाकर’ से ढूँढ़ कर संकलित किया था।

(3) इसके पश्चात् नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के अनुरोध पर श्री अमीर सिंह ने ‘रसखान और घनानंद’ नाम से एक संग्रह प्रस्तुत किया जो सं. 1986 में प्रकाशित हुआ। इसमें किशोरीलाल गोस्वामी के संग्रहों में प्राप्त छंदों के अतिरिक्त भी कुछ सवैये रखे गये। इसमें ‘प्रेम-वाटिका’ शीर्षक से 53 दोहे और ‘सुजान रसखान’ शीर्षक से 133 छंद संकलित है जिनमें कवित्त सवैया के अलावा कुछ दोहे और सोरठे तथा एक पद भी सम्मिलित है।

(4) इसके बाद जालंधर के लाला भक्तराम ने व्यंकटेश्वर प्रेस, बंबई से प्रकाशित ‘राग रत्नाकर’ में रसखान के 109 छंद प्रकाशित किये।

(5) लखनऊ निवासी लाल केदारनाथ ने ‘रसखान के कवित्त सवैया’ नाम से 105 छंदों का संकलन दो बार प्रकाशित किया। दूसरी बार यह प्रकाशन सं. 1971 में हुआ।

(6) सन् 1939 में हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि श्री रूपनारायण पांडेय द्वारा प्रस्तुत ‘रसखान कवितावली’ नामक संग्रह नवल किशोर प्रेस, लखनऊ ने प्रकाशित किया। इसमें 96 छंद, ‘प्रेमवाटिका’ के 57 दोहे और रसखान का परिचय देने वाले 5 और दोहे संकलित है।

(7) सन् 1941 में आलोक पुस्तक माला के प्रथम पुष्प के रूप में कवि किंकर द्वारा संपादित ‘रसखान रत्नावली’ भारतवासी प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई। इसमें 120 कवित्त-सवैये और 64 दोहे संकलित है। इसकी विशेषता यह है कि छन्दों का वर्गीकरण किया गया है।

(8) सं. 1999 (सन् 1942) में पं. चंद्रशेखर पांडे द्वारा लिखित ‘रसखान और उनका काव्य’ शीर्षक ग्रन्थों हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से प्रकाशित हुआ जिसमें रसखान के काव्य की विशद आलोचना सहित उनकी समस्त उपलब्ध रचनाएँ प्रकाशित की गई है। इसमें कवित्त-सवैये शीर्षक से 135 छन्द, प्रेमवाटिका के 50 दोहे तथा परिशिष्ट के अन्तर्गत 17 दोहे और 1 पद संकलित है।

(9) अहमदाबाद से भक्तिग्रंथ माला में ‘महानुभाव रसखान’ नाम से एक ग्रंथ प्रकाशित हुआ।

(10) सं. 2010 (सन् 1953) में पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने वाणी वितान, ब्रह्मनाल, काशी से ‘रसखानि ग्रंथावली’ नाम से एक ग्रंथ प्रकाशित किया जिसमें हस्तलिखित और मुद्रित ग्रन्थों के आधार पर रसखान के काव्य का विधिवत सम्पादन किया गया है। इसमें ‘दानलीला’ नामक एक नई रचना का भी समावेश रसखान के नाम से किया गया है जिसमें 11 कवित्त-सवैये हैं। ‘सुजान रसखान’ में 214 छन्द और ‘प्रेमवाटिका’ के अन्तर्गत 53 दोहे संकलित है। रसखान के नाम से प्राप्य एक मात्र पद प्रकीर्णक शीर्षक से रक्खा गया है। ग्रन्थावली की प्रस्तावना में मध्यकालीन स्वच्छंद काव्यधारा का संक्षिप्त विवेचन और मियाँ रसखान का जीवन परिचय दिया गया है।

रसखान की रचनाओं के उल्लेखनीय संस्करण ये ही है। संभव है उनकी कविताओं के कुछ अन्य संस्करणों भी हों या कुछ अन्य संग्रह भी यत्र-तत्र प्रकाशित हुए हों, परन्तु प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक को वे संग्रह देखने को नहीं मिले।

नोट -यह लेख हिन्दुस्तानी पत्रिका में सन 1966 में प्रकाशित हुआ था. अपने सुधी पाठकों के लिए हम यह लेख दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं

साभार – हिन्दुस्तानी पत्रिका

सभी चित्र – Wikimedia Commons

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