कविवर रहीम-संबंधी कतिपय किवदंतियाँ -याज्ञिकत्रय
प्रसिद्ध पुरुषों के विषय में जो जनश्रुतियाँ साधारण जन-समाज में प्रचलित हो जाती हैं, वे सर्वथा निराधार नहीं होतीं। यद्यपि उनमें कल्पना की मात्रा अधिक होती है, तथापि उनका ऐतिहासिक मूल्य भी कुछ-न-कुछ अवश्य होता है। किवदंतियों में मनोरंजन की सामग्री भी होती है, इस कारण वे मौखिक रूप में हो अनेकों शताब्दियों तक जीवित रहती हैं। भोज और कालिदास अथवा अकबर और बीरबल के नाम से अनेक मनोरंजक दंतकथाएँ प्रचलित हैं, और उनमें सभी इतिहास-सिद्ध नहीं हैं। परंतु उनमें वर्णित विषय से उन पुरुषों के जीवन तथा रहन-सहन-संबंधी अनेक बातों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। अनेक छोटी-छोटी बातों से ही उन महापुरुषों के चरित्र, स्वभाव आदि का भली भाँति ज्ञान हो जाता है। इस कारण किवदंतियों को सर्वथा कपोल-कल्पना समझकर त्याग करना ऐतिहासिक सामग्री का नाश करना है। हिंदी-साहित्य के इतिहास में तो विशेष स्थान किवदंतियों को प्राप्त है, और जो इतिहास-प्रेमी सभी किवदंतियों को भ्रममूलक समझकर कल्पित इतिहास गढ़ते हैं, वे श्रृंखलाबद्ध इतिहास का निर्माण करने में विघ्न उपस्थित करते हैं।
अन्य प्रसिद्ध कवियों के समान नवाब ख़ानख़ाना अब्दुर्रहीम (उपनाम रहीम) के विषय में भी अनेक दंत-कथाएँ प्रचलित हैं। हिंदी-संसार में इन रहीम-विषयक किंवदंतियों का आदर भी प्रत्येक हिंदी-प्रेमी करता है। गो. तुलसीदासजी, रीवा-नरेश राना अमरसिंह आदि अनेक समकालीन पुरुषों से संबंधित रहीम-विषयक जनश्रुतियाँ तो सभी को भली-भाँति विदित ही हैं। इन प्रचलित जनश्रुतियों के अतिरिक्त हमें कुछ और भी मालूम है। हमें ये कथाएँ चकत्ता-वंश-परंपरा नामक एक अज्ञात लेखक की पुस्तक से प्राप्त हुई हैं। इस पुस्तक का पूरा वर्णन फिर कभी किया जाएगा। यहाँ पर केवल इतना ही कह जाता है कि वह पुस्तक संभवतः जयपुर-नरेश सवाई माधोसिंह के समय में, सं. 182 वि. के लगभग रची गई है। इस ग्रंथ में इन महाराज की प्रशंसा भी की गई हैं, और मुगल-राज्य (चकत्ता-वंश)-संबंधी मनोरंजक बातों का वर्णन भी इसी समय तक है। संवत् 1895 वि. में हिंदी-गद्य की क्या अवस्था थी, यह प्रकट करने के हेतु इन दंतकथाओं को यथावत् उद्धृत करते हैं। कोष्ठक में दिए हुए शब्द सुगमता-पूर्वक भाव-प्रदर्शन करने के हेतु हमारी ओर से दिए गए हैं।
(1)
ख़ानख़ाना की पालकी में काहू ने पचसेरी डाली। ता प्रमान ख़ानख़ाना ने (उल्टा उसे) सोना दिवाय दिया और सीख दई। तब काहू ने अरज करी जो थाने (तो) गरदन मारने के काम किए, (उसे) सोना क्यों दिवाय दिया? नवाब (ने) कही…थाने हम कूँ पारस जानि परीक्षा निमित्त पचसेरी पालकी में राखी है।
(2)
एक दरिद्री (ने) ख़ानख़ाना की डयोढ़ी (पर) जाय कही- मैं नवाब का साढ़ू हूं। तब चोबदार (ने) नवाब सूँ खबरि करी। सो नवाब (ने) दरिद्री कूँ बुलाया, (और) शिष्टाचार करि बहौत स्वागत करी। तब काहू ने (नवाब से) पूँछी- यह दरिद्री आपका साढ़ू किस तरह है ? नवाब (ने) कही- संपत्ति-विपत्ति दो भैन हैं। सो संपत्ति हमारे घर में है और विपत्ति याके घर में है तासूँ हमारा साढ़ू है।
(3)
ख़ानख़ाना (ने) चोबदार सूँ कही- रसायनी ज्ञानी ब्राह्मण होयगा जिनो कूँ आने मति देऊ। जो रसायनी ज्ञानी ब्राह्मण होयगा सो हमारे घर (हो) क्यों आवेगा। और (जो) आवता है सो (ब्राह्मण) दगाबाज़ है।
(4)
एक सिद्ध मुख में गोली ले आकास (मार्ग से) जाते हुते। सो (सिद्ध) ख़ानख़ाना के बाग़ में उतरि सोय गया। सो (नींद में) गोली मुख में ते गिर परी। तब ख़ानख़ाना (ने) उठाय लई। अतीत जागि (कर) हेरन लागा। तब ख़ानख़ाना (ने) गोली सोंपि दई। तब उह गुजराति (लौट) गया और गुरु सों मिलि (कर) कह- येक गोली जाती रही (और फिर) ताके सर्व समाचार कहे। सो गुरु ने चेला पठाय दिल्ली कूँ अर रस कूप का (?) की सीसी ख़ानख़ानीजी (के) पास भेजी। ताकी एक बूँद से लाखन मण तामा सौना हो जाय। सो ख़ानख़ानाजू दरयाव (के) पासि चेला सहत गए। सो सीसी जमुना में डारि दई और कही- मोकूँ (तो) ऐसा मारग बतावो जाते संसार ते छूट जावों। दौलत तो पहले ही बहुत है।
(5)
ख़ानख़ाना कहता- आदमी बिना दग़ाबाज़ी काम का नहीं। पर दग़ाबाज़ी की ढाल करना जोग्य, सरवार करना नहीं।
भक्तमाल के आधार पर रहीम-विषयक जो कथा आज कल की प्रकाशित पुस्तकों में मिलती है, उसमें भी थोड़ा-बहुत अंतर पाया जाता है। इस कारण सं. 1814 के लगभग रचित वैष्णवदास कृत ‘भक्तमाल’ की प्राचीन प्रति से यह कथा भी यहाँ उद्धृत की जाती है। भक्तमाल को नाभादासजी ने लिखा था, और उनके शिष्य प्रियादासजी ने उस पर टीका की थी। वैष्णवदासजी इन्हीं प्रियादासजी के पुत्र थे, और उन्होंने ‘भक्तमाल-प्रसंग’ नाम से भक्तमाल की प्रियादासी टीका पर टीका रची है।
एक रहीम नाम पठान विलायति में रहे। ताने सुनी (कि) नाथजी बहुत खूबसूरति हैं। तब बाने (मन में) कही- खूबी बिना मिठाई कोन काम की। यह विचारि फेरि (दर्शन की) चाहि भई। रात दिना चल्योई आयो। जब (रहीम) दरवाज़े पै आयो तब (चोबदार ने) रोक्यो (और कहा) भीतर मत जाय। तब (रहीम) बगदि के बोल्यो- यह साहब अरु यह बेसुरी। चाह क्यों दई (और जो) चाह दई तो जामा मैलो क्यों दयो? (और यह दोहा कहा)-
हरि रहीम ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर।
खैचि आपनी ओर को, डारि दियो पुने दूर।।
तब ऐसे कहि के (रहीम) पर्वत के नीचे जाय बैठे। तब गुसाईंजी ने (यह सब) सुनि के यार को प्रसाद लै के रहीम पै गए। तब बाने (रहीम ने) कही- बाबा तुम यहाँ क्यों आवते हो। तुम सों हमारा क्या काम है। मैं तो जिसन बुलाया हूँ तिसे ही कहता हूँ। तब नाथजी (स्वयं) थार लाये। (परंतु) तब वाने (रहीम ने) पीठ फेरि लई। तापे (यह) दोहा (कह्यो)—
खिंचे चढ़त ढीले ढरत, अहो कौन यह प्रीति।
आजिकालि मोहन गही, बंस दिए की रीति।
यह विचारि के (रहीम ने) पीठ दई। तब (श्रीनाथजी) थारि धरि के चले गए। तब यह पीछे पछतायो “मैंने बुरी करी। वाकों (श्रीनाथजी को) तो मोसे बहुत आसिक है मोको ऐसो मासूक कहाँ। फेरि कहा ह्वै है।” तब विचार (किया कि) अब (तो) दिन कटई करे (केवल) बाकी बासन सों।
तापे (केवल बातों से कैसे दिन फटे) दृष्टांत–
एक बैरागी जैं आयो। दुसरे (बैरागी) पूछें- तेने कहा खायो न्योते में। वाने सब बताय दियो परी, बूरो, लडुवा अरु दही। तब वह बोख्यो फेरि कहो (उसने) फेरि पाठ कीनो। तब वह (फिर) बोल्यो- ‘फेरि दहो’। (बैरागी ने) कही रे बातन सूँ तो पेट नाहिं भरे। तब वह बोल्यो- दिन तो कटे है।
सो अब वह दिन कटई करे हैं—
(श्रीनाथजी के) आइये की छवि कहे हैं—
छबि आवन मोहन लाल की।
काछे काछनि कलित मुरलि कर पीत पिछौरी साल की।
बंक तिलक केसर को कीने, दुति मानो बिधु बाल की।
बिसरत नाहि सखी मो मन ते, चितवनि नैन बिसाल की।
नीकी हँसनि अधर सधराने, छबि लीनी सुमन गुलाल की।
जल सो डारि दियो पुरइनि पै, डोलानी मुकता माल की।
यह सरूप निरखै सेई जाने, या रहमि के हाल की।
कमल दल नैननि की उनमानि।
बिसरत काहिं मदनमोहन की, मंद-मंद मुसकानि।
दसननि की दुति चाला हू तें, चारु चपल चमकानि।
बसुधा की बम करी मधुरता, सुधा-पगी बतरानि।
चढ़ी रहै चित हर बिसाल की, मुक्तमाल लहरानि।
नृत्य समय पीतांबर की वह, फहरि-फहरि फहरानि।
अनुदिन श्रीवृंदावन ब्रज में, आवन जावन जानि।
छबि रहीम चित तें न टरति है, सकल श्याम की बानि।
जिहि रहीम तन मन दियो, कियो हिये बिच भौन।
तोसों दुख-सुख कहन की, रही कथा अब कौन।
मोहन छबि नैननि बसी, पर छबि कहाँ समाय।
भरी सहाय रहीम लखि, पथिक आपु फिरि जाय।
नोट – यह लेख माधुरी पत्रिका में सन 1927 में प्रकाशित हुआ था . अपने सुधी पाठकों के लिए हम यह लेख पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं .
साभार – माधुरी पत्रिका
Picture credit- Wikimedia Commons
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