बर्र-ए-सग़ीर में अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ के रिवाज पर चंद शवाहिद-(आठवीं सदी हिज्री तक)-डॉक्टर आ’रिफ़ नौशाही
शैख़ गंज शकर 569-664 हिज्री) अ’वारिफ़ का दर्स देते थे। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने अ’वारिफ़ के पाँच अबवाब उन्हीं से पढ़े थे। गंज शकर का पढ़ाने का अंदाज़ बहुत दिल-नशीन था और कोई दूसरा उन जैसा अ’वारिफ़ नहीं पढ़ा सकता था। बारहा ऐसा हुआ कि सुनने वाला उनके ज़ौक़-ए-बयान में ऐसा मह्व हुआ कि ये तमन्ना करते पाया गया कि काश उसी लम्हे मौत आ जाए तो बेहतर है। एक दिन ये किताब शैख़ की ख़िदमत में लाई गई तो इत्तिफ़ाक़ से उसी दिन उनके हाँ लड़का पैदा हुआ। शैख़ुश्शुयूख़ के लक़ब की मुनासबत से उस का लक़ब “शहाबुद्दीन” रखा गया।