हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन ग़रीब

नाम-ओ-नसबः-

इस्म-ए-गिरामी बुर्हानुद्दीन था और आ’म तौर पर शैख़ बुर्हानुद्दीन ग़रीब कहलाते थे। सिलसिला-ए-नसब ये हैः

बुर्हानुद्दीन ग़रीब बिन शैख़ मोहम्मद महमूद बिन नासिर हाँस्वी बिन सुल्तान मुज़फ़्फ़र बिन सुल्तान इब्राहीम इब्न-ए-शैख़ अबू बक्र बिन शैख़ अ’ब्दुल्लाह बिन शैख़ अ’ब्दुर्रशीद बिन शैख़ अ’ब्दुस्समद बिन शैख़ अ’ब्दुस्सलाम बिन इमाम-ए-अ’ज़ाम हज़रत अबू हनीफ़ा कूफ़ी।

वतनः-

ख़ानदान शहर-ए-हाँसी में आबाद था। इसी जगह सन 654 हिज्री में शैख़ बुर्हानुद्दीन की विलादत-ए-बा-सआ’दत हुई।

ख़ानदानः-

हज़रत बुर्हानुद्दीन ग़रीब का ख़ानदान मज़हबी और रूहानी हैसियत से मुम्ताज़ था।वालिद-ए-बुज़ुर्गवार मक़्बूल-ए-ख़ास-ओ-आ’म थे। वो जिस मज्लिम में होते लोगों की ख़्वाहिश होती की वो तमाम दिन बातें करते रहें। हज़रत बुर्हानुद्दीन ने अपने वालिद की इस मक़बूलियत की वजह ये बताई है कि वो हर क़ब्रिस्तान पर रोज़ाना सूरा-ए-फ़ातिहा पढ़ा करते थे।हज़रत शैख़ के हक़ीक़ी भाई हज़रत शैख़ मुन्तख़बुद्दीन भी हज़रत महबूब-ए-इलाही या’नी हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के मुम्ताज़ ख़ुलफ़ा में थे।अहल-ए-दकन उनके फ़ुयूज़-ओ-बरकात से मुतमत्तिअ’ हुए।उनका मज़ार-ए-अक़दस ख़ुल्दाबाद में है, जहाँ हर साल बड़े तुज़्क-ओ-एहतिशाम से उनका उ’र्स होता है।हज़रत ख़्वाजा फ़रीदुद्दीन गंज शकर के जलीलुल-क़द्र ख़लीफ़ा हज़रत ख़्वाजा जमालुद्दीन हाँस्वी जिनसे जमालिया सिलसिला जारी हुआ, हज़रत शैख़ के मामूँ थे।और हज़रत महबूब-ए-इलाही के अ’ज़ीमुल-मर्तबत ख़लीफ़ा मौलाना क़ुतुबुद्दीन मुनव्वर मामूँ-ज़ाद भाई थे।

ता’लीमः-

वालिद-ए-बुज़ुर्गवार की निगरानी में अपने चचा से क़ुदूरी पढ़ी। मौलाना ग़ुलाम अ’ली आज़ाद बिल्ग्रामी के रौज़ातुल-औलिया में है, कि हज़रत शैख़ ने फ़िक़्ह-ए-नाफ़े’ को हिफ़्ज़ कर लिया था। मआ’नी, तफ़्सीर,हदीस की भी ता’लीम पाई।हम-अ’स्रों में एक जय्यद आ’लिम का मर्तबा रखते थे।हज़रत ख़्वाजा निजामुद्दीन औलिया जब मुख़ातिब फ़रमाते तो मौलाना बुर्हानुद्दीन कहते।

इ’बादतः-

अय्याम-ए-तिफ़्ली ही में इ’बादत का ज़ौक़-ओ-शौक़ पैदा हुआ। जब उ’म्र शरीफ़ छ:-सात साल की थी तो तंहाई में जा कर कलिमा-ए-तय्यिबा के ज़िक्र पर मुवाज़बत करते।तेरह साल की उ’म्र में अज़दवाजी अ’लाइक़ से आज़ाद रहने का ख़याल पैदा हुआ। चुनाँचे तमाम ज़िंदगी तज्रबों में गुज़री।कुछ दिनों कीमिया बनाने का शैक़ रहा, लेकिन हज़रत महबूब-ए-इलाही की सोहबत-ए-कीमिया-असर में ये शौक़ ज़ाएल हो गया।

क़ियाम-ए-देहलीः

उस ज़मानें में हज़रत महबूब-ए-इलाही के फ़ुयूज़-ओ-बरकात के सर-चश्मा से तमाम हिंदुस्तान सैराब हो रहा था,इसलिए हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन ने भी देहली में ये कशिश पाई, और हाँस्वी से देली खिंच कर चले आए।देहली आ कर एक मस्जिद में क़ियाम फ़रमाया।वहाँ के लोगों ने हज़रत शैख़ में बड़ी जाज़बिय्यत पाई, और मस्जिद में हुजूम रहने लगा।लेकिन लोगों के इस मैलान के बावजूद हज़रत शैख़ उस मस्जिद में इस तरह रहे जैसे कोई अजनबी और ग़रीबुल-वतन रहता है।

इरादतः-

एक रात ख़्वाब में देखा कि वो एक ख़ंदक़ में गिर पड़े हैं, और उस से बाहर निकलना चाहते हैं, लेकिन निकल नहीं सकते।यका-यक हज़रत महबूब-ए-इलाही ने अपना हाथ उनके हाथ में देकर बाहर निकाला।इस ख़्वाब के बा’द हज़रत महबूब-ए-इलाही की ख़ानक़ाह में तशरीफ़ ले गए।हज़रत महबूब-ए-इलाही के ख़ादिम-ए-ख़ास इक़बाल ने ख़िदमत में जाकर अ’र्ज़ किया कि बुर्हानुद्दीन आए है।महबूब-ए-इलाही ने फ़रमाया अब तो उनसे तमाम लोग आशना हो गए हैं ,अभी तक वो ग़रीब (अजनबी) हैं।उसी के बा’द से वो ग़रीब के लक़ब से मशहूर हुए।इरादत के बा’द हज़रत महबूब-ए-इलाही की ख़िदमत में बड़ा तक़र्रुब हासिल किया और बावर्ची-ख़ाना के निगराँ मुक़र्रर हुए।

मक़बूलियतः-

थोड़े ही अ’र्सा में हज़रत शैख़ को अपने हम-चश्मों में भी बड़ी मक़बूलियत हासिल हो गई।हज़रत महबूब-ए-इलाही के मुरीदों में अमीर ख़ुसरौ, अमीर हसन संजरी, मौलाना इब्राहीम तश्त-दार, सय्यद ख़ामोश, ख़्वाजा मुबश्शिर, सय्यद हुसैन और इक़बाल ख़ादिम बराबर उनकी सोहबत में रहते, और उनकी शीरीं-कलामी और बज़्ला-संजी से बुहत लुत्फ़-ओ-हज़ उठाते।लताएफ़-ए-अशरफ़ी में हैः

“दर वादियः-ए-ख़िल्क़त अज़ हमः सबक़त कर्दंद, दर ज़राफ़त-ए-तब्अ’ आयती बूद कि दर शान-ए-ऊ नुज़ूल याफ़्तः, चुनाँकि मीर हसन अमीर ख़ुसरो-ओ-ख़ुश-तब्आ’न-ए-दीगर ब-वसीलः लताफ़त-ए-ऊ फ़रेफ़्त: बूंदद” सफ़हा 357)

हज़रत शैख़ नसीरुद्दीन महमूद जब अवध से देहली तशरीफ़ लाते तो हज़रत शैख़ ही के साथ क़ियाम फ़रमाते, और कभी-कभी दर्स भी लेते।

इ’ताब-ए-मुर्शिदः-

एक मौक़ा’ पर मुर्शिद को कुछ बातें ना-गवार गुज़रीं, जिससे शैख़ को इब्तिला-ओ-आज़माइश की कठिन घड़ियाँ गुज़ारनी पड़ीं। अ’ली ज़ंबली और मलिक नुसरत ने जो सुल्तान अ’लाउद्दीन ख़िल्जी के रिश्तादार थे, हज़रत महबूब-ए-इलाही की ख़िदमत में हाज़िर हो कर असना-ए-गुफ़्तुगू में ये बयान किया कि मौलाना बुर्हानुद्दीन मशाइख़ की तरह सज्जादे पर बैठते हैं।वो जिस्मानी हैसियत से नहीफ़-ओ-मुंहनी थे ।किब्र-ए-सिन्नी की वजह से दोनों ज़ानूओं में दर्द रहा करता था, इसलिए कम्बल को दो तह कर के उस पर बैठते थे। इसी की तरफ़ अ’ली ज़ंबली और मलिक नुसरत ने इशारा किया, लेकिन नशिश्त का ये तरीक़ा हज़रत महबूब-ए-इलाही को ना-गवार गुज़रा, इसलिए जब हज़रत शैख़ ख़िदमत में हाज़िर हुए, तो उनसे मुख़ातिब होना पसंद नहीं फ़रमाया।और जब जमाअ’त-ख़ाना में तशरीफ़ लाए तो अपने ख़ादिम इक़बाल से उनको ये कहला भेजा कि वो जमाअ’त-ख़ाना में बैठें। हज़रत शैख़ ये सुन कर परेशान और सरासीमा हुए। घर जाकर सोग में बैठ गए, और बराबर रोते रहते। लोग उनको देखन के लिए आते, और उनको रोता देख कर ख़ुद भी रोने लगते।चंद रोज़ के बा’द हज़रत अमीर ख़ुसरो अपनी दस्तार गर्दन में लटका कर हज़रत महबूब-ए-इलाही की ख़िदमत में हाज़िर हुए।हज़रत महबूब-ए-इलाही ने उनको इस तरह देख कर पूछा “तुर्क क्या है”। “अ’र्ज़ किया, मौलाना बुर्हानुद्दीन की मुआ’फ़ी चाहता हूँ” । मुतबस्सिम हो कर पूछा “वो कहाँ हैं”।मौलाना बुर्हानुद्दीन भी अपनी दस्तार गर्दन में डाल कर हाज़िर हुए, और सफ़-ए-निआ’ल में खड़े हो गए।हज़रत महबूब-ए-इलाही ने तक़्सीर मुआ’फ़ की और तज्दीद-ए-बैअ’त से मुशर्रफ़ किया।

ख़िलाफ़तः-

रफ़्ता-रफ़्ता हज़रत शैख़ दर्जा-ए-कमाल को पहुँचे तो मुर्शिद की तरफ़ से ख़िलाफ़त मिली।ख़िलाफ़त के बा’द मुर्शिद ने कई बार अपने बुलंद-मर्तबा मुरीद के कमालात का इज़हार किया।

एक मौक़ा’ पर हज़रत महबूब-ए-इलाही की मज्लिस में हज़रत बायज़ीद बुस्तामी की बुज़ुर्गी का ज़िक्र आया।महबूब-ए-इलाही ने फ़रमाया हम भी, एक बायज़ीद रखते है।किसी ने पूछा वो कहाँ हैं ।फ़रमाया जमाअ’त-ख़ाना में।इक़बाल ख़ादिम ने जमाअ’त-ख़ाना मे जाकर देखा तो वहाँ उस वक़्त हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन बैठे थे।

एक मौक़ा’ पर हज़रत महबूब-ए-इलाही ने हज़रत शैख़ को अपना फ़रज़न्द-ए-शाइस्ता बताया, और फ़रमाया जो शख़्स मौलाना बुर्हानुद्दीन के साथ रहेगा वो भी साहिब-ए-हशमत होगा।एक दूसरे मौक़ा’ पर इर्शाद फ़रमाया मौलाना बुर्हानुद्दीन अख़्लाक़, ने’मतों, और उ’लूम-ए-लदुन्नी के मज्मूआ’ हैं।

एहतिराम-ए-मुर्शिदः-

हज़रत शैख़ को भी अपने मुर्शिद से बड़ी मोहब्बत-ओ-अ’क़ीदत रही।मुर्शिद की वफ़ात के बा’द कभी अपनी पुश्त ग़यासपुर की तरफ़ नहीं की, जहाँ उनका मर्क़द-ए-मुबारक है।

दकन को रवानगीः-

हज़रत शैख़ के भाई हज़रत मुंतख़बुद्दीन की वफ़ात के बा’द हज़रत महबूब-ए-इ’लाही न इस्लाम की तब्लीग़-ओ-इशाअ’त और मुसलमानों के रुश्द-ओ-हिदायत की ग़र्ज़ से हज़रत शैख़ को दकन जाने का हुक्म दिया।हज़रत शैख़ को मुर्शिद की मुफ़ारक़त पसंद न थी, इसलिए ये हुक्म सुन कर अ’र्ज़ किया कि ना’लैन-ए-मुबारक से जुदा हो जाउँगा।हज़रत महबूब-ए-इलाही ने फ़रमाया, ना’लैन भी हमराह ले जाओ।फिर अ’र्ज़ किया, मज्लिस, से दूर हो जाउँगा।मुर्शिद ने फ़रमाया, इस वक़्त मज्लिस में जितने लोग बैठे हैं, उनको भी साथ ले जाओ।कहा जाता है, कि मज्लिस में सात सौ मुरीदीन बैठे थे, जिन में हज़रत अमीर हसन संजरी, शैख़ कमाल ख़ुजंदी, शैख़ जाम, और शैख़ फ़ख़्रुद्दीन वग़ैरा भी थे।हज़रत शैख़ को मुर्शिद का हुक्म बजा लाना पड़ा, और सात सौ हम-राहियों के साथ दौलताबाद रवाना हो गए।ये गोया दकन में रूहानी सिपाहियों की फ़ौज-कशी थी।रुख़्सत करते वक़्त मुर्शिद ने कुछ नसीहतें कीं जिनमें दो ये थीं की जुमआ’ की नमाज़ तर्क न कना, और अपनी वालिदा की ख़ुशी हर काम पर मुक़द्दम रखने को रहमत-ए-हक़ तसव्वुर करना।

दौलताबाद पहुँ कर यहाँ अट्ठाइस उन्तीस साल क़ियाम फ़रमाया, और यहीं वासिल ब-हक़ हुए। इस मुद्दत में अपने आ’दात-ओ-अतवार, मुआ’मलात-ओ-इ’बादात और कश्फ़-ओ-करामात की बिना पर अ’वाम-ओ-ख़्वास, उमरा-ओ-सलातीन के क़ुलूब पर फ़रमाँ-रवाई करते रहे।

रुश्द-ओ-हिदायतः-

आ’म मुसलमानों ने भी हर तरह का इस्तिफ़ादा किया, और जौक़-दर जौक़ हल्क़ा-ए-इरादत में दाख़िल हुए।सिर्फ़ हज़रत रुकनुद्दीन काशानी की विसातत से एक हज़ार आदमियों ने बैअ’त की। इन मुरीदों को जो मज़हबी और रूहानी ता’लीमात दीं उनकी तफ़्सील तो आगे आऐगी,जब हम हज़रत शैख़ के मुरीदों की ऐसी तसानीफ़ का ज़िक्र करेंगे जो ख़ास उनकी फ़रमाइश से लिखी गईं।यहाँ पर इजमाली तौर से हम उन ता’लीमात को पेश करते हैं, जिनसे हज़रत शैख़ ने अपने मुरीदों की अख़्लाक़ और मुआ’शरती हालत संवारने की कोशिश की।

तलब-ए-हक़

एक मुसाफ़िर हज़रत शैख़ की ख़िदमत में आया और अ’र्ज़ किया की मैं आपके पास दो चीज़ों के वास्ते आया हूँ।एक तो दीन हासिल करने के लिए क्यूँकि आप पेश्वा-ए-दीन, सर्व-ए-विलायत और साहिब-ए-कश्फ़-ओ-करामत हैं।दूसरे दुनिया हासिल करने के लिए क्यूँकि सलातीन और उमरा आपके मुतीअ’-ओ-फ़रमाँ-बर्दार हैं।हज़रत शैख़ ने फ़रमाया, एक ख़ुदा तुमको दोनों चीज़ें पहुँचा देगा।ख़ुदा को हासिल कर लो, सारी चीज़ ख़ुद-ब-ख़ुद हासिल हो जाएगी।

कमाल-ए-इंसान

मौलाना वजीहुद्दीन यूसुफ़ ने हज़रत शैख़ की ख़िदमत में अ’र्ज़ किया कि मैं जिस क़दर नफ़्स के उ’यूब को दूर करता हूँ उसी क़दर  ज़ियादा उ’यूब नज़र आते हैं।हज़रत शैख़ ने फ़रमाया, ये एक इंसान का कमाल है, क्यूँकि इंसान जब कमाल को पहुँचता है तो उसकी नज़र अपने उ’यूब पर ज़ियादा पड़ती है।

दुनिया की हक़ीक़तः-

एक मौक़ा’ पर मुरीदों को मुखातब कर के फ़रमाया, दुनिया साया के मानिंद है।जब आदमी साया की तरफ़ मुँह करता है तो वो आगे आगे चलता है, और जब पीठ फेरता है, तो पीछे पीछे आता है।एक और मौक़ा’ पर फ़रमाया कि मुझको शर्क़ से ग़र्ब तक तमाम  आ’लम ऐसा मा’लूम होता है जैसे हथेली पर मुर्ग़ी का अंड़ा हो।

फ़ज़ीलत-ए-मोहब्बतः-

दिल की माहियत ये बताई कि ये एक ज़र्फ़ के मानिंद है।जब तक ज़र्फ़ ख़ाली है, हवा से पुर रहता है और जब उस में कोई चीज़ रख दी जाती है, तो हवा से ख़ाली हो जाता है। इसी तरह दिल दुनिया की ख़्वाहिश से पुर होता है, लेकिन जब उसमें मोहब्बत भर जाती है तो ख़्वाहिश-ए-नफ़्स दूर हो जाती है, और फिर अल्लाह की मोहब्बत भर जाती है।

राहत-रसानीः-

मो’तक़िदों को तल्क़ीन की कि लोगों की राहत-रसानी में कोशाँ रहें।इस सिलसिला में फ़रमाया, एक दरख़्त ख़ुद तो धूप में खड़ा रहता है, लेकिन दूसरों को साया देता है, लकड़ी ख़ुद तो जलती है, लेकिन औरों को आराम पहुँचाती है, इसी तरह इंसान ख़ुद तकलीफ़ उठाए और अपनी तकलीफ़ का ख़याल न करे, लेकिन दूसरों को फ़ाइदा और आराम पहुँचाए।

ऐ’ब-जोईः-

लोगों की ऐ’ब-जोई के सिलसिले में मुरीदों को बताया कि अगर तुम्हारा कोई ऐ’ब ज़ाहिर करे तो ये देखो कि तुम में वो ऐ’ब है या नहीं।अगर है तो उस से बाज़ आओ, और ऐ’ब ज़ाहिर करने वाले से कहो तुम ने मुझ पर करम किया कि मेरा ऐ’ब मुझको बता दिया, और अगर तुम में ये ऐ’ब नहीं है तो दुआ’ करो कि इलाही उस ऐ’ब ज़ाहिर करने वाले को ऐ’ब-जोई से बजाए, और मुझको भी बद-कलामी से महफ़ूज़ रखे।

बुख़्ल-ओ-सख़ावतः-

फ़रमाया एक सख़ी होता है, और एक बख़ील।सख़ी वो है जो मेहमान को दोस्त रखता है, और बख़ील वो है जो दौलत को मेहमान रखता है।

मेहमान-नवाज़ीः-

मेहमान-नवाज़ी के मुतअ’ल्लिक़ ये ता’लीम दी कि जब कोई मुसाफ़िर मुक़ीम के पास पहुँचे तो मुक़ीम को मुसाफ़िर के सामने दो क़िस्म का गर्म पानी पेश करना चाहिए।एक गर्म पानी हाथ और मुँह धोने के लिए और दूसरा गर्म शोरबा।

अ’द्ल-ओ-इंसाफ़ः-

अ’द्ल-ओ-एहसान की तल्क़ीन करते हुए फ़रमाया कि लोगों को एक दूसरे के साथ अ’द्ल भी करना चाहिए और एहसान भी।अ’द्ल तो ये है कि खाने के वक़्त हम-प्याला के साथ लुक़्मा का इंसाफ़ करे, या’नी बराबर खाए, और एहसान ये है कि हम-प्याला के साथ अपना लुक़्मा छोटा उठाए, और जो चीज़ लज़ीज़ और अच्छी हो उस से ईसार करे।

शैख़ के अक़्वाल की मक़बूलियतः-

हज़रत शैख़ की ज़बान-ए-मुबारक से जो कोई बात निकल जाती, उसको आ’म तौर से लोग बहुत ही हुस्न-ए-अ’क़ीदत से सुनते और उस पर अ’मल करने की कोशिश करते।एक नव-जवान सिपाही मैदान-ए-जंग में गया तो वो बिलकुल निडर हो कर मा’रका-ए-कारज़ार में पेश-पेश रहता।लोगों ने उससे एहतियात करने को कहा तो उसने कहा, मैं जवानी में मर नहीं सकता, क्यूँकि हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन ने फ़रमाया है कि जब तक तू बूढ़ा ने होगा न मरेगा।

शैख़ की शीरीं-कलामीः-

हज़रत शैख़ अपनी मज्लिसों में ता’लीम-ओ-तर्बियत के सिलसिले में जो कुछ फ़रमाते उसमें बड़ी शीरीनी, फ़साहत, बलाग़त, और तासीर होती, इसलिए, सामिई’न मज्लिसों से उठते तो अपने क़ल्ब को पाकीज़ा और ज़ेहन को मुसफ़्फ़ा पाते।सियरुल-औलिया में हैः-

हर कि यक साअ’त ब-ख़िदमत-ए-इब्न-ए-बुज़ुर्ग बूदे अज़ ज़ौक़-ए-कलाम-ए-इ’श्क़-आमीज़-ओ-सफ़ाई-ए-मुहावरा-ए-दिल-फ़रेब-ए-ऊ आ’शिक़-ए-जमाल-ए-विलायत गश्ते”। (सफ़हा 279)

मुस्तफ़िदीनः-

हज़रत शैख़ की सोहबत-ए-कीमिया-असर से जिन बुज़ुर्गों ने रूहानी कमालात हासिल किए उनमें बा’ज़ के मुख़्तसर हालात हसब-ए-ज़ैल हैं-

हज़रत सय्यद ज़ैनुद्दीन:

नाम सय्यद दाऊद हुसैन, लक़ब सय्यद ज़ैनुद्दीन और वतन शीराज़ था।शीराज़ से देहली आए और देहली से दौलताबात मुंतक़िल हुए।बड़े जय्यद आ’लिम थे।इसलिए दौलताबाद में उ’लमा और तलबा का हुजूम उनके गिर्द रहता था।एक मस्जिद में तफ़्सीर और हदीस का दर्स देते थे।अपने इ’ल्म के ग़ुरूर में सूफ़िया और मशाइख़ की सोहबत से एहतिराज़ करते, और उनके मुतअ’ल्लिक़ तंज़-ओ-तशनीअ’ फ़रमाते।एक रोज़ मौलाना सय्यद ज़ैनुद्दीन का एक शागिर्द हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन के पास मिश्क़ातुल-मसाबीह पढ़ने गया।दर्स के बा’द महफ़िल-ए-समाअ’ थी उसमें भी शरीक़ हो गया।मौलाना सयय्द ज़ैनुद्दीन को मा’लूम हुआ तो उस पर बरहम हुए कि नाच-गाने की महफ़िलों में क्यूँ शिरकत की।उसी बरहमी में शागिर्द से कहा कि अगर शैख़ बुर्हानुद्दीन साहिब-ए-फ़ज़ीलत और साहिब-ए-इ’ल्म हैं तो उन से मेरे चंद सवालों को हल करा के ला।

उसके बा’द उन सवालों को काग़ज़ पर लिख कर शागिर्द के हवाला किया।ये बा’ज़ इ’ल्मी सवालात थे, जिनका जवाब मौलाना के असातिज़ा भी न दे सकते थे, और अपनी मा’मूली क़ाबलियत के बावजूद उनके हल करने से क़ासिर और मा’ज़ूर थे, उनको लिख रखा था कि बैतुल्लाह जाकर हरमैन के उ’लमा से हल कराएंगे।जब शागिर्द ये सवालात हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन के पास ले के पहुँचा, तो शैख़ ने उनके कई कई जवाबात लिखे, और जब उनको मौलाना ज़ैनुद्दीन ने पढ़ा तो उनके इ’ल्म का सारा ग़ुरूर और पिंदार जाता रहा। उनकी आँखों से आँसू जारी हो गाए और हज़रत शैख़ की तरफ़ ग़ैर मा’मूली कशिश महसूस की।मौलाना रुकनुद्दीन काशानी को लेकर हज़रत शैख़ की क़ियाम-गाह पर पहुँचे और जब सामना हुआ तो दौड़ कर पेशानी क़दमों पर झुका दी।शैख़ ने फ़रमाया हाँ दाऊद हुसैन ये रस्म शरीअ’त में जाएज़ नहीं।मौलाना ने कहा, जब तक मैं इस रस्म को शरीअ’त के ख़िलाफ़ जानता था, ने’मत-ए-बातिनी से महरूम था और फिर ये शे’र पढ़ाः

दस्त अज़ तलब न-दारम ता कार-ए-मन बर आयद

या जाँ रसद ब-जानाँ या जाँ ज़े-तन बर आयद

और उसी वक़्त बै’अत की। उसके बा’द दर्स-ओ-तदरीस का सिलसिला ख़त्म कर दिया और मुर्शिद की सोहबत-ए-बा-बरकत में रहने लगे।एक रोज़ मुर्शिद ने कहा, दाऊद सलाहियत पैदा करने के लिए कोई किताब पढ़ो।अ’र्ज़ किया, जिस किताब का हुक्म हो वही पढ़ूँ ।मुर्शिद ने फ़रमाया, मिर्सादुल-इ’बाद पढ़ो।मौलाना ज़ैनुद्दीन मिर्सादुल-इ’बाद पढ़ चुके थे, और शागिर्दों को भी पढ़ा चुके थे, लेकिन मुर्शिद के हुक्म से उसको अज़ सर-ए-नव पढ़ना शुरुअ’ किया।तीन बार उसको ख़त्म किया, और हर बार कहते, वल्लाह ये वो मिर्साद नहीं जो मैं ने पहले पढ़ी थी।रफ़्ता रफ़्ता मौलाना ज़ैनुद्दीन ने दरवेशी में बड़ी फ़ज़ीलत हासलि की।ख़्वास-ओ-अ’वाम-ओ-सलातीन उनके बहुत मो’तक़िद रहे।सुल्तान मोहम्मद शाह बहमनी उन्हीं के हाथों पर अपने आ’माल-ए-क़बीहा से ताएब हुआ, और उन्हीं के रुश्द-ओ-हिदायत से अपनी मम्लूकत में शरीअ’त को रिवाज दिया।शराब-फ़रोशी की दुकानें बंद कराईं, चोरों और रहज़नों का इस्तिहसाल किया।ख़ानदेस के वाली नसीर ख़ान फ़ारूक़ी ने भी हज़रत सय्यद ज़ैनुद्दीन से फ़ुयूज़-ओ-बरकात हासिल किए, और उनके नाम पर एक शहर ज़ैनाबाद आबाद किया।

एक बार हज़रत शैख़ ज़ैनुद्दीन देहली तशरीफ़ ले गए, तो सुल्तान फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ ने देहली में मुस्तक़िल इक़ामत के लिए इसरार किया, लेकिन इर्शाद फ़रमाया कि मैं अपने शैख़ के आस्ताना ही पर मरना चाहता हूँ।मज़ार-ए-अक़दस ख़ुल्दाबाद में है, जहाँ हर साल उ’र्स होता है, और अहल-ए-दकन उनको जलीलुल-क़द्र औलियाअल्लाह में शुमार करते हैं।हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन ने उनको ज़ैनुद्दीन का लक़ब अ’ता किया था।

हज़रत बुर्हानुद्दीन की सोहबत में हज़रत फ़रीदुद्दीन भी रूहानी तौर पर दर्जा-ए-कमाल को पहुँचे। जब अट्ठारह साल के थे तो बै’अत की, और रफ़्ता-रफ़्ता मुर्शिद की नज़र-ए-इ’नायत से तमाम ज़ाहरी-ओ-बातिनी ने’मतों से माला-माल हुए।मशहूर था कि उनका घर अनवार-ए-इलाही से मुनव्वर रहता है।जब नमाज़ पढ़ते तो ऐसा मा’लूम होता कि उनकी गर्दन की हर रग से अल्लाह-अल्लाह की सदा बुलंद हो रही है।हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन फ़रमाते, अगर क़ियामत के दिन अल्लाह तआ’ला पूछेगा कि क्या लाए तो कहूँगा फ़रीद को लाया हूँ।हज़रत फ़रीदुद्दीन भी मुर्शिद का बड़ा अदब करते, और उसी अदब के लिए फ़रीदुद्दीन अदीब मशहूर हुए।वफ़ात से कुछ दिनों पहले एक रोज़ रोते दिखाई दिए।रोने का सबब पूछा गया तो फ़रमाया, शैख़ ने इर्शाद फ़रमाया है कि मेरी वफ़ात के बा’द फ़रीद मेरी जगह बैठेगा, लेकिन ये किस की ताक़त है कि शैख़ की जगह पर बैठे, इसलिए मैंने अल्लाह तआ’ला से इल्तिजा की है कि शैख़ से पहले मुझे दुनिया से उठा ले।आख़िर ऐसा ही हुआ।अपने मुर्शिद से तेरह दिन पहले 29 मुहर्रम सन 738 हिज्री में वफ़ात पाई।मज़ार शरीफ़ ख़ुल्दाबाद में है।

हज़रत फ़ख़्रुद्दीन दौलताबाद के जलीलुल-क़द्र उमरा में थे।हज़रत शैख़ दौलताबाद तशरीफ़ लाए तो कुछ दिनों उन्हीं के यहाँ क़ियाम फ़रमाया।हज़रत फ़ख़्रुद्दीन ने हल्क़ा-ए-इरादत में दाख़िल हो कर इमारत में दरवेशी की शान पैदा की, और इ’बादत-ओ-रियाज़त में मशग़ूल रहते।शाही दरबार की तलब पर देलही गए, और वहाँ से मुर्शिद के हुक्म से हरमैन-ए-शरीफ़ैन की ज़ियारत से मुशर्रफ़ हुए। वहाँ से वापसी के बा’द हज़रत शैख़ ने उनको ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त और इरादत का इजाज़त-नामा भेजा लेकिन क़ासिद उस वक़्त देहली पहुँचा जब हज़रत शैख़ का विसाल हो चुका था।हज़रत फ़ख़्रुद्दीन इजाज़त-नामा पढ़ कर रोते और कहते कि अफ़्सोस मेरी उ’म्र दुनिया-दारों में गुज़री।अब ये शब-ए-हिज्र कैसे तमाम होगी, और सुब्ह-ए-मुराद क्यूँ कर हासिल होगी।उसी वक़्त तमाम अम्लाक छोड़ कर दौलताबाद आए, और बक़िया उ’म्र शैख़ के तरीक़ा पर गुज़री। हज़रत फ़ख़्रुद्दीन पहले ख़लीफ़ा हैं जिनको हज़हत शैख़ ने मुरीद करने की इजाज़त दी।शैख़ के हुक्म के ब-मोजिब बहुत से सालिकान-ए-तीक़त को दाख़िल-ए-बैअ’त किया।

हज़रत काका सा’द बख़्त (या शाद बख़्त):

शीराज़ के रहने वाले थे। वतन-ए-मालूफ़ से देहली और वहाँ से दौलताबाद आए।हज़रत शैख़ जब दौलताबाद पहुँचे तो उन्हीं के दौलत-कदा पर क़ियाम फ़रमाया।उसके बा’द हज़रत फ़ख़्रुद्दीन के यहाँ मुंतक़िल हो गाए। हज़रत काका ने इरादत के बा’द अपनी तमाम ज़िंदगी मुर्शिद की ख़िदमत और ग़म-ख़्वारी में गुज़ार दी। हज़रत शैख़ के बावर्ची-ख़ाना के वही निगराँ रहे।हज़रत शैख़ भी उनसे बहुत ख़ुश रहते  और फ़रमाते कि काका नेक और पाक लोगों में हैं।इसीलिए वो मंज़ूर-ए-औलिया, और मक़बूलुल-अत्क़िया कहलाए।मुर्शिद की वफ़ात के बा’द भी नौ साल तक मज़ार-ए-मुबारक की तौलियत की।शैख़ के पाईन  में मदफ़ून हैं।

हज़रत रुकनुद्दीन काशानी हज़रत हम्मद काशानी और हज़रत मुजद्द्दीन तीनों भाई थे।हज़रत शैख़ की नज़र-ए-कीमिया-असर से सुलूक के आ’ला मदारिज को पहुँचे और मुम्ताज़ ख़लीफ़ा हुए।उन की तसानीफ़ का ज़िक्र आगे आएगा।

क़ुतलुग़ ख़ान दबीर और रफ़ीउ’द्दीन दौलताबाद के यके बा’द दीगरे सूबा-दार हुए और दोनों हज़रत शैख़ की सोहबत से फ़ैज़याब हुआ करते थे।

हज़रत शैख़ से सलातीन की अ’क़ीदतः-

नसीरुद्दीन फ़ारूक़ी ने दरिया-ए-तापती के किनारे हज़रत शैख़ ही के इस्म-ए-मुबारक पर एक शहर बुर्हानपुर आबाद किया।रौज़तुल-औलिया में है, कि “मुलूक-ए-ज़माना में से किसी ने हज़रत शैख़ से दरख़्वास्त की कि उसके लिए दु’आ करें कि अल्लाह तआ’ला उसको फ़रज़न्द अ’ता फ़रमाए।हज़रत शैख़ ने फ़रमाया कि उसको एक नहीं चार फ़रज़न्द अ’ता होंगे, लेकिन वो चारों उसके काम के न होंगे।चुनाँचे ऐसा ही हुआ।उसके चार लड़के ख़्वाजा ख़ैरुद्दीन, ख़्वाजा क़ुबूल, ख़्वाजा अ’ब्दुर्रहमान और ख़्वाजा जल्दक हुए और चारों ने हज़रत शैख़ की ख़िदमत में ज़िंदगी गुज़ारी।हज़रत शैख़ फ़रमाते ये मेरे ग़ुलाम भी है और फ़रज़न्द भी।

सुल्तान मोहम्मद तुग़लक़ को भी हज़रत शैख़ से अ’क़ीदत थी। एक रोज़ दौलताबाद में जामे’ क़ुतुबी में जुमआ’ की नमाज़ पढ़ कर उनकी मुलाक़ात के लिए रवाना हुआ। हज़रत शैख़ अपने मुर्शिद की तरह बादशाहों की मुलाक़ात-ओ-सोहबत को ना-पसंद करते थे।जब अपनी क़ियाम-गाह की तरफ़ शाही सवारी के आने की ख़बर सुनी तो अल्लाह तआ’ला से दु’आ करने लगे कि बादशाह से मुलाक़ात न हो।मा’लूम नहीं सुल्तान के दिल में क्या बात आई कि रास्ते से वापस चला गया ।सुल्तान ने एक मौक़ा’ पर तीन हज़ार सोने के टंके हज़रत शैख़ की ख़िदमत में भेजे।मलिक नाइब बारबक ये रक़म ले कर पहुँचा तो उन्हों ने उस रक़म के लेने से इंकार किया कि इस की ज़रूरत नहीं।लेकिन सुल्तान ने मलिक नाइब बारबक को ये कह कर फिर भेजा कि ये रक़म उनके लिए नहीं, बल्कि उनके ख़िदमत-गुज़ारों के लिए है।हज़रत शैख़ ने ये रक़म ले ली, और ख़ादिम-ए-ख़ास को बुलाया कि घर में जो कुछ मौजूद हो लाओ।ख़ादिम ने बीस टंके लाकर पेश किए। फ़रमाया, इनको सुल्तान के तीन हज़ार टंके में मिला कर फ़ुक़रा में तक़्सीम कर दो। चुनाँचे ऐसा ही किया गया।

ज़ौक़-ए-समाअ’-

समाअ’ से बड़ा शग़फ़ रखते थे, और जब वज्द में आते तो उन पर ग़ैर मा’मूली कैफ़ियत तारी हो जाती।सियरुल-औलिया में हैः

“दर समाअ’ ग़ुलू-ए-तमाम बूद-ओ-ज़ौक़-ए-बिस्यार,ऊ रा –ओ-यारान-ए-ऊ रा दर रक़्स तर्ज़े अ’लाहिदा बूद चुनाँकि अस्हाब-ए-ईं बुज़ुर्ग मियान-ए-यारान-ए-बुर्हानी गुफ़्तंदे” (सफ़हा 279)

रियाज़ः-

रुश्द-ओ-हिदायत की मशग़ूलियत के बा-वजूद इ’बादत-ओ-मुजाहदा में किसी क़िस्म की कमी नहीं की।तज़्किरा नवीस लिखते हैं कि इ’शा के वज़ू से सुब्ह की नमाज़ अदा फ़रमाते, और ये मा’मूल पचीस साल तक रहा।मुसल्ला ही ओढ़ना बिछौना होता।तीस साल तक दाऊदी रोज़े रखे ।सुब्ह की नमाज़ के बा’द औराद-ओ-वज़ाइफ़ में मशग़ूल रहते। इश्राक़ की नमाज़ के बा’द सलातुत्तहज्जुद और उसके बा’द चाश्त की नमाज़ पढ़ते।फिर कलाम-ए-पाक के तीन पारे की तिलावत फ़रमाते, जिसके बा’द क़ब्रिस्तान की ज़ियारत को तशरीफ़ ले जाते।वहाँ कभी पाँच सौ और कभी हज़ार बार सूरा-ए-इख़्लास पढ़ते।ज़ियरत के बा’द क़ैलूला करते।इस रियाज़त के बावजूद फ़रमाते, ये क्या नमाज़ और सज्दा है जो हम करते हैं।सज्दा वो है जो नबातात करते हैं कि जब से उगते हैं, उनका सर सज्दा में होता है, यहाँ तक कि ख़ुश्क हो जाते हैं।कभी फ़रमाते ऐ नफ़्स मैं कहता था कि तुझको ख़ूब पामाल करूँगा, एक मुद्दत हो गई लेकिन कुछ न कर सका।

ग़िज़ा:ऊपर ज़िक्र आया है कि तीस साल तक दाऊदी रेज़े रखे  । इफ़्तार कभी सिर्फ़ पानी, कभी सिर्फ़ सिर्का और कभी सिर्फ़ दही से फ़रमाते।हफ़्ते में सिर्फ़ दो दिन आधा पेट खाते थे।लोबिया और नान-ए-जौ पसंद थी।एक दफ़्आ’ हज़रत काका सा’द बख़्त ने मग़्ज़-ए-बादाम और मिस्री पेश की।चंद दाने खा कर फ़रमाया, काका इसमें किसी क़िस्म की लज़्ज़त महसूस नहीं होती।हज़रत काका बोले एक वक़्त था कि शौक़ से लोबिया और जौ की रोटी तनाउल फ़रमाते थे ,अब मिस्री के साथ मग़्ज़-ए-बादाम पसंद नहीं।फ़रमाया सच कहता हूँ, जो लज़्ज़त-ओ-हलावत जौ की रोटी और लोबिया में पाता था, अब किसी खाने में नहीं पाता ।वो मुजाहदे का वक़्त और महबूब से फ़िराक़ का दौर था।अब विसाल-ए-ईलाही का ज़माना है। इस बादाम और इस मिस्री में क्या लज़्ज़त मिल सकती है।

लिबास-ओ-असबाबः-

अ’मामा, कुर्ता, अ’बा और तहबंद ज़ेब-तन फ़रमाते।वफ़ात के वक़्त ज़ाती मिल्क में कोई चीज़ नहीं छोड़ी।घर में जो कुछ होता राह-ए-ख़ुदा में दे देते।एक मुसल्ला पर छ: साल नमाज़ पढ़ी।कभी उस पर सो रहते, और कभी उसको ओढ़ लेते।

अ’लालतः-

वफ़ात से पहले तीन साल तक मुसलसल अ’लील रहे, लेकिन अ’लालत के ज़माने में भी रुश्द-ओ-हिदायत और इ’बादत-ओ-रियाज़त का सिलसिला जारी रखा।इ’लाज कराने के क़ाइल न थे। फ़रमाते तबीबी ज़िक्र-ए-हबीबी, या’नी मेरे दोस्त की याद मेरा तबीब है।कभी रोया करते, लेकिन मुरीदों से कहते कि ये न समझना कि मैं बीमारी की तक्लीफ़ से रोता हूँ।एक लम्हा भी ख़ुदा की याद से बाज़ रहता हूँ, तो रोता हूँ। आख़िर वक़्त में मुरीदों ने देहली ले जाना चाहा, लेकिन जहाँ मर्क़द-ए-मुबारक है,उसकी तरफ़ इशारा कर के फ़रमाया, मैं इस मक़ाम से जा नहीं सकता।

वफ़ातः-

आख़िर वक़्त में एक रोज़ मुरीदों को बुला कर नसीहतें कीं और उनमें से हर एक को दस्त-ए-मुबारक से कुछ कपड़े इ’नायत किए। वफ़ात के रोज़ अपने मुर्शिद ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया की तस्बीह मंगवाई।उसको सामने रखा और अपनी दस्तार गले में ड़ाल कर कहने लगे, मुसलमान हूँ, उम्मत-ए-रसूल हूँ, शैख़ का मुरीद हूँ, मैं नेक न था, नेक ज़िंदगी भी बसर नहीं की, अपना इंसाफ़ ख़ुद करता हूँ।फिर मुर्शिद की तस्बीह से तज्दीद-ए-बैअ’त की और ज़ार-ज़ार रोने लगे।चाश्त के वक़्त ख़ादिम-ए-ख़ास से कहा कि बावर्ची-ख़ाना में दोस्तों को लेजा कर खाना खिला दो।वहाँ कुछ बाक़ी न रहे।और जब यारान-ए-तरीक़त खाना खा रहे थे, तो हज़रत शैख़ ने मुर्शिद का ख़िर्क़ा और तबर्रुकात लाने को कहा ।और उसी वक़्त रूह क़फ़स-ए-उ’न्सुरी से परवाज़ कर गई।नफ़ाइसुल-अंफ़ास में वफ़ात की तारीख़ सफ़र सन 738 लिखी हुई है। मरक़द-ए-मुबारक ख़ुल्दाबाद में है।

दर्जा-ओ-मक़ामः-

तज़्किरों में हज़रत शैख़ के इस्म-ए-मुबारक के साथ असदुल-औलिया-वल-आ’रिफ़ीन, क़ुतुब-ए-आ’लम,मज़हर-ए-ऊलूहियत,तैर-ए-ला-मकान, क़ुतुबुल-मदार,बायज़ीद-ए-सानी वग़ैरा अलक़ाब लिखे जाते हैं।

मल्फ़ूज़ातः

हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन ग़रीब के मल्फ़ूज़ात के तीन मज्मुओं’ के नाम मा’लूम हो सके हैं।

1.     हुसूलुल-उसूल: इसको हज़रत शैख़ के मुरीद ख़्वाजा हम्माद काशानी ने जम्अ’ किया।

2.     हिदायतुल-क़ुलूब: इसको एक दूसरे मुरीद शैख़ हुसैन ने क़ल-मबंद किया।

3.     नफ़ाइसुल-अंफ़ास: इसको एक तीसरे मुरीद ख़्वाजा रुकनुद्दीन बिन इ’मादुद्दीन काशानी ने मुरत्तब किया।

4.    मौलाना हमीद शाइ’र-ए-क़लंदर ने भी ग़ालिबन मल्फ़ूज़ात का कोई मज्मुआ’ तय्यार किया था।

राक़िम को उन मलफ़ूज़ात में सिर्फ़ नफ़ाइसुल-अंफ़ास का एक किर्म-ख़ुर्दा और बद-ख़त क़लमी नुस्ख़ा नद्वतुल-उ’लमा लखनऊ के कुतुब-ख़ाना से दस्तियाब हुआ है।इसकी इब्तिदा रमज़ानुल मुबारक सन 732 हिज्री से की गई है और सफ़र सन 738 हिज्री तक के मल्फ़ूज़ात दर्ज कर के ख़त्म कर दिया गया है।यही तारीख़ हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन की वफ़ात की है। इन मल्फ़ूज़ात को फ़वाइदुल-फ़ुवाद के तर्ज़ पर जम्अ’ करने की कोशिश की गई है।

मुरत्तिब ख़्वाजा रुकनुद्दीन काशानी को अपने मुर्शिद से बड़ी अ’क़ीदत थी, इसलिए नफ़ासुल-अंफ़ास के दीबाचा में मुर्शिद के लिए ये अलक़ाब इस्ति’माल करते हैः (सफ़हा 3)

ख़त्मुल-मशाइख़-वल-आ’शिक़ीन, मल्जउल-औताद वल-मुज्तहिदीन, बुर्हानुल-हक़ वश्शरआ’-वद्दीन, हुज्जुतुल-इस्लाम-वद्दीन, ज़ुब्दतुल-अत्क़िया,ज़ैनुल-औलिया,काशिफ़-ए-असरारुल-मआ’नी, शारिह-ए- रुमूज़ुस्सबइ’ल-मसानी, इ’ल्मुल-हुदा,अ’ल्लामतुल-वरा, ग़ौसुस्सक़लैन,अल-ख़ाफ़िक़ीन,अल-जुनैद फ़ी ज़मानिहि व-लफ़ज़्ल फ़ी-अवानिहि अश्शिबिली फ़ी इ’बादतिहि,वन्नूरी फ़ी ज़ुहादतिही, कहफ़ुस्सिद्क़ि वल-यक़ीन,मलाज़ुल-अक़्ताब-वल-मुहक़्क़िक़ीन, मुहम्मद महमूद नासिर ,अल-मद्ऊ’ बिल-ग़रीब।बैत:

ग़रीब अस्त ईं मुहिब्ब-ए-हक़ ब-दुनिया

हबीबुल्लाह फ़िद्दुनिया ग़रीबुन

नफ़ाइसुल-अंफ़ास का पेश-ए-नज़र क़लमी नुस्ख़ा 168 सफ़हा पर मुश्तमिल है।इसमें तसव्वुफ़ की तमाम-तर वही ता’लीमात हैं जिनको हम गुज़िश्ता सफ़हात में बुज़ुर्गान-ए-चिश्त के मल्फ़ूज़ात से पेश कर चुके हैं,और जस्ता-जस्ता हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन ग़रीब के रुश्द-ओ-हिदायत के सिलसिला में भी हदिया-ए-नाज़िरीन किया जा चुका है।लेकिन यहाँ पर हम हज़रत शैख़ की कुछ रूहानी ता’लीमात को उनके ख़ुलफ़ा की तसानीफ़ की मदद से पेश करने की सआ’दत हासिल करते हैं।

शमाइलुल-अत्क़ियाः-

नफ़ाइसुल-अंफ़ास के मुरत्तिब ख़्वाजा रुकनुद्दीन बिन इ’मादुद्दीन दबीर काशानी ने अपने मुर्शिद की फ़रमाइश से शमाइलुल-अत्क़िया लिखी,जो अब तक फ़न्न-ए-तसव्वुफ़ में एक अहम तस्नीफ़ समझी जाती है।ये किताब चार क़िस्मों में तक़्सीम है। पहली क़िस्म अस्हाब-ए-तरीक़त के अफ़्आ’ल,दूसरी क़िस्म अर्बाब-ए-हक़ीक़त के अहवाल, तीसरी क़िस्म वजूद-ए-बारी तआ’ला के औसाफ़ और चौथी क़िस्म बंदों के फज़ाइल पर है।कुल 91 बयानात (या’नी अबवाब) हैं।इस किताब की तालीफ़ में फ़ाज़िल मुअ’ल्लिफ़ ने तक़रीबन दो सौ किताबों से इस्तिफ़ादा किया है, जिससे उनके इ’ल्मी तबह्हुर और उ’स्अ’त-ए-नज़र का अंदाज़ा होता है।दीबाचा में इन तमाम किताबों के नाम दर्ज हैं।तसव्वुफ़ का कोई ऐसा मस्अला नहीं जो इस किताब में मौज़ूद न हो, लेकिन मुअल्लिफ़ ने उन मसाएल पर कोई मुरत्तब और मुदलल्ल बह्स नहीं की है, बल्कि हर मस्अला पर शुरुअ’ में अपनी राय का इज़हार कर के कलाम-ए-पाक की आयत,तफ़ासीर की तशरीहात, अहादीस-ए-नबवी,सहाबा-ए-किराम, ताबिई’न-ए-उ’ज़्ज़ाम, बुज़ुर्गान–ए-इ’ल्म-ए-तरीक़त-ओ-हक़ीक़त के अक़्वाल और मुख़्तलिफ़ अर्बाब-ए-तसानीफ़ की राय नक़ल कर दी हैं।इसका सबब ख़ुद बताया है कि ‘’अगर कसे रा दर रवायते निज़ाअ’ उफ़्तद–ओ-दर मुक़द्दमः-ओ-कलिमः शुब्हः बर ख़ातिर गुज़रद दर कुतुब-ओ-नसख़-ए-मज़्कूर नज़र फ़र्मायद ता-ब-तहक़ीक़-ओ-तयक़्क़ुन अंजामद’’।

शमाएलुल-अत्क़िया के इस तर्ज़-ए-तालीफ़ से रहरवान-ए-सुलूक को तसव्वुफ़ के तमाम मसाएल को मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ों के ख़यालात की रौशनी में इ’ल्मी नुक़्ता-ए-नज़र से मुतालआ’ करने में बड़ी आसानी और सुहूलत पैदा हो जाती है।अहल-ए-नज़र ने इसको जामे’, मुफ़स्सल और दिल-चस्प तस्नीफ़ बताया है।

ख़्वाजा रुकनुद्दीन बिन इ’मादुद्दीन काशानी की कुछ और तसानीफ़ रसाएल के नाम ये हैं।रिसाला-ए-ग़रीब, रुमूज़ुल-वालिहीन, अज़्कारुल-मज़्कूर,तफ़्सीर-ए-रुमूज़, लेकिन ये सब ना-पैद हैं। अलबत्ता इनके इक़्तिबासात कसरत से शमाइलुल-अत्क़िया में मिलते हैं।

रिसाला-ए-ग़रीबः-

रिसाला-ए-ग़रीब जैसा नाम से ज़ाहिर है हज़रत ख़्वाजा बुर्हानुद्दीन ग़रीब के नाम से मौसूम है। इसमें वही ता’लीमात दी गई हैं, जो हज़रत ख़्वाजा ग़रीब ने बुज़ुर्गान-ए-चिश्त से पाई थीं।इन ता’लीमात को ख़ास ख़ास उ’न्वानात के तहत हम क़लम-बंद करते हैं।

नमाज़ः-

ज़ाहिरी नमाज़ का तअ’ल्लुक़ शरीअ’त के मुताबिक़ आ’ज़ा से है, और बातिन की नमाज़ तरीक़त के रू से दिल का तफ़क्कुर है। और क़ल्ब-ओ-रूह की नमाज़ फ़ैज़ से हासिल होती है, और वो हक़ीक़त की नमाज़ है। ख़्वास ज़ाहिर में तो का’बा की तरफ़ रुख़ करते हैं, लेकिन उनकी तवज्जोह का’बा की तरफ़ होती है।सज्दा-ए-जिस्म तो ख़ुज़ूअ’ है, और सज्दा-ए-दिल ख़ुशूअ’।सज्दा में पेशानी अगर ज़मीन पर है और दिल हर तरफ़ दौड़ रहा है तो ऐसा सज्दा मस्ज़ूद तक नहीं पहुँचता बल्कि मरदूद हो जाता है। हुज़ूर-ए-दिल के साथ थोड़ी सी नमाज़ बे-हुज़ूरी की बहुत सी नमाज़ों से अफ़ज़ल है।नमाज़ पढ़ने वाले अगर अपनी नमाज़ की बराबरी से वाक़िफ़ हो जाते हैं, या’नी उनको मा’लूम हो जाता है कि उनकी नमाज़ कुबूल नहीं हुई तो फिर उनको दु’आ माँगने में शर्मिंदगी महसूस होती है।

तिलावत-ए-कलाम-ए-पाकः-

 तिलावत-ए-क़ुरआन मजीद के वक़्त अगर अ’ज़ाब-ओ-रहमत की आयत आए तो उस वक़्त तिलावत करने वाले तअम्मुल और तफ़क्कुल करें।अगर हक़-तआ’ला की सिफ़ात की आयात आएं तो वो तवाज़ोअ’-ओ-इज़्ज़त करें।और जब हक़-तआ’ला और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि वसलल्लम के साथ कुफ़्फ़ार की जसारत का ज़िक्र हो तो, उसको आहिस्ता और शर्म के साथ पढ़ें।  तिलावत के वक़्त ये ख़याल रहे कि ख़ुद ख़ुदावंद-तआ’ला उनसे कहुछ कह रहा है।ख़ुदावंद-तआ’ला कि तजल्ली कलाम-ए-पाक के हुरूफ़ में तब्दील कर दी गई है, इसी वजह से आँख और दिल उस तजल्ली की ताब ला सकते हैं, वर्ना ज़मीन और आस्मान भी उसकी तजल्ली के मुतहम्मिल नहीं हो सकते।

रोज़ाः-

रोज़ा हक़-तआ’ला की सिफ़त है।रोज़े से हैवानी सिफ़ात दूर होती हैं, और ख़ुदावंद-तआ’ला की सिफ़तें पैदा होती हैं।हर इ’बादत-ओ-इताअ’त की जज़ा तो बहिश्त है, लेकिन रोज़े की जज़ा ख़ुद हक़-तआ’ला है।रोज़ा-दारों की मख़्सूस जगह रय्यान है।

ज़कातः-

अल्लाह की ज़कात ये है कि वो अपने ख़ास और आ’म बंदों को सफ़र में चार रकअ’त के बजाए दो ही रकअ’त पढ़ने को कहता है।वो अपनी ग़फ़्फ़ारी से बख़्श देता है, और अपनी रहमानी से रहमत नाज़िल करता है।अंबिया की ज़कात ये है कि वो अपनी ने’मत-ए-नबुव्वत की वजह से ख़ल्क़ुल्लाह को अम्र-ओ-नवाही से आगाह करते हैं।बरगुज़ीदा औलिया-अल्लाह की ज़कात ये है कि वो तस्फ़िया-ए-दिल-ओ-तजल्लिया-ए-रूह के ज़रिआ’ से इ’श्क़, मोहब्बत और मा’रिफ़त हासिल करते हैं ।मशाइख़ की ज़कात ये है कि वो अपने मुरीदों को इ’ल्म-ए-सुलूक की तल्क़ीन करते हैं। उ’लमा की ज़कात ये है कि कलाम-ए-पाक, अहादीस-ए-नबवी, और फ़िक़्ह की ता’लीम देते हैं।और अग़्निया की ज़कात ये है कि दो सौ दीनार में पाँच दीनार ग़ुरबा को दे देते हैं।

हज-

आ’म हाजियों का हज दीनी-ओ-दुनियावी मक़ासिद के लिए होता है।वो ख़ाना-ए-का’बा का तवाफ़ इसलिए करते हैं कि उनके गुनाह मुआ’फ़ कर दिए जाएं, लेकिन आ’शिक़ान-ए-ख़ुदा का हज रब्ब-ए-का’बा से क़ुर्बत हासिल करने के लिए होता है।वो एहराम इसलिए बाँधते हैं कि असरार-ए-उलूहियत मा’लूम करें।एक हाजी हज में अपनी मग़फ़िरत के ख़याल से ख़ुश होता है, लेकिन एक आ’शिक़-ए-ख़ुदा हज में अपनी जान नज़्र करने में फ़रहत-ओ-मसर्रत महसूस करता है, क्यूँकि का’बा ही में उसको मक़्सूद-ए-अस्ली-ओ-मतलूब-ए-कुल्ली नज़र आता है।

इ’बादतः-

बिला-उ’ज़्र इ’बात का तर्क करना फ़िस्क़ है, और इ’बादत से मुँह  मोड़ना कुफ़्र है।

शरीअ’त, तरीक़त-ओ-हक़ीक़त-

अवामिर-ओ-नवाही का पाबंद होना शरीअ’त है।दिल की सफ़ाई करना और बुराइयों को अच्छाइयों से बदल देना तरीक़त है, और मा-सिवल्लाह की बातों को दिफ़ाअ’ कर के रूह में तजल्ली पैदा करना हक़ीक़त है।

सुलूक-ए-मलकूतीः-

सुलूक-ए-मलकूती ये है कि अख़्लाक़-ए-नबवी और अफ़्आ’ल-ए-नबवी की मुताबअ’त की जाए।अख़्लाक़-ओ-आ’माल-ए-नबवी के इत्तिबाअ’ के बा’द अहवाल-ए-मुस्तफ़वी की मुताबअ’त ज़रूरी है, और इसी से अनवार-ए-इलाही ज़ाहिर होते हैं, जिसके बा’द सालिक आ’लम-ए-जबरूत में पहुँच कर सिफ़ात-ए-ख़ुदावंदी से हज़ उठाता है।

ज़िक्रः-

ज़िक्र चार क़िस्म का होता है:

1.    लिसानी जिस से दिल पर असर होता है।

2.    क़ल्बी, जिस से तमाम आ’ज़ा मुतअस्सिर होते हैं।

3.     तबई’ या’नी उठने, बैठने, चलने फिरने में भी हर उ’ज़्व से ज़िक्र हो, और कान में जो आवाज़ें पड़े वो भी ज़िक्र हो।

4.    मुस्त्वल्ली, या’नी ज़िक्र का ऐसा इस्तेला हो कि न ज़िक्र रहे, न ज़ाकिर, बल्कि सिर्फ़ मज़्कूर रहे।

जम्अ’-ओ-तफ़रिक़ा:

 ताफ़रिक़ा फ़स्ल पैदा करता है और जम्अ’ से वस्ल होता है। मज्नूँ के बातिन की जमई’यत लैला से थी, इसलिए वो जुम्ला मौजूदात को लैला की सूरत में देखता था, इसी तरह जो दिल हक़-तआ’ला में जम्अ’ है वो तमाम मख़लूक़ात के अंदेशा से मुतफ़र्रिक़ या’नी अ’लाहिदा रहता है।औऱ जब वो तमाम तक्वीनी क़ूव्वतों से रुख़ फेर लेता है, तो उसका रुख़ हक़ की तरफ़ हो जाता है।तफ़रिक़ा कसब से हासिल होता है, और जम्अ’ अ’तिया-ए-इलाही है।औलिया-अल्लाह असरार-ए-बातिन को जम्अ’ रखते हैं, और मुआ’मलात-ए-ज़ाहिर से मुतफ़र्रिक़ या’नी अ’लाहिदा रहते हैं।

इ’ल्मुल-यक़ीन-ओ-ऐ’नुल-यक़ीनः

दुनिया में इ’ल्मुल-यक़ीन की तमीज़ हुज़ूर-ए-क़ल्ब की हालत में होती है।और जब एक सालिक हुज़ूर से ग़ैबत में होता है, तो हालत तमीज़ में बदल जाती है, और ऐ’नुल-यक़ीन ज़ाहिर होता है।एक सालिक को पहले इ’ल्मुल-ए-यक़ीन हासिल होता है। इ’ल्मुल-यक़ीन से ऐ’नुल-यक़ीन और ऐ’नुल-यक़ीन से हक़्क़ुल-यक़ीन हासिल होता है।अहल-ए-यक़ीन दोज़ख़ की आग से महफ़ूज़ रहते हैं, और इसी यक़ीन की बदौलत पानी को ज़मीन, ज़मीन को पानी, सर्द को गर्म और गर्म को सर्द बना सकते हैं।

मौतः-

मौत तीन क़िस्म की होती है ।सुवरी, मा’नवी और हक़ीक़ी।सुवरी तो ये है कि जिस्म से रूह निकल जाती है, और ये शरई’ मौत है, जिसको मौत-ए-सुग़रा कहते हैं।मा’नवी ये कि एक मुरीद किसी ग़ैर शैख़ से कुछ इल्तिजा करे।ये मौत-ए-तरीक़त और मौत-ए-कुबरा है।और मौत-ए-हक़ीक़ी ये है कि कोई ग़ैर-ए-हक़ से कुछ इल्तिजा करे और ये मौत-ए-अकबर है।

रज़ा-ओ-सब्रः-

रज़ा ये है कि जब कोई मुसीबत आए तो उससे कराहत पैदा न हो, लेकिन अगर उससे कराहत पैदा हो, और उसका इज़हार न करे तो ये सब्र है।या’नी मुसीबत को शैक़ से बर्दाश्त करना रज़ा है, और कराहत के साथ बर्दाशत करना सब्र है।

हुज़ूरः-

हुज़ूर से मुराद हक़-तआ’ला को देखना है, न कि उससे गुफ़्तुगू करना है।हुज़ूर में गुफ़्तुगू करना बे-अदबी है, और बे-अदब इस मक़ाम तक पहुँच नहीं सकता।अगर गुफ़्तुगू हो तो सिर्फ़ सुनने के लिए हो, और सुनना सिर्फ़ जानने के लिए हो, और जानना तमाम चीज़ों से फ़ारिग़ होने के लिए हो।इसका तालिब अगर सौ साल तक मशग़ूल रहे, और एक लहज़ा के लिए भी ग़ाएब हो जाए, तो उससे जो चीज़ खो जाती है, वो फिर वापस नहीं होती।हुज़ूर-ए- दिल के लिए मुराक़ाब लाज़मी है, और मुराक़बा ब-ग़ैर हुज़ूर के मुमकिन नहीं।इसी तरह मुराक़बा के ब-ग़ैर मुशाहदा नहीं हो सकता।

रूयतः-

रूयत-ए-ख़ुदा तीन क़िस्म की होती है।यक़ीनी,मुशाहदा और अ’यानी।यक़ीनी तो ये है कि अ’वाम में से हर मोमिन ये यक़ीन रखता है कि हक़ तआ’ला की एक हक़ीक़त है जो नज़र आएगी। ख़्वास का मुशाहदा ये है कि वो दुनिया में दिल की आँख से हक़-तआ’ला को देख लेते हैं, और अ’यानी ये है कि क़ियामत के रोज़ आँखों से देखेंगे।

रुमूज़ुल-वालिहीनः-

हज़रत ख़्वाजा रुकनुद्दीन की एक तस्नीफ़ रुमूज़ुल-वालिहीन है।  इसकी ता’लीमात ये हैं।

फ़क़्रः-

फ़क़्र इ’श्क़ है। फ़क़्र-ए-राह-ए-तरीक़त-ओ-हक़ीक़त का आ’शिक़ या’नी आ’शिक़-ए-लिक़ा-उल्लाह है। इस इ’श्क़ में उसको किसी और चीज़ की आरज़ू नहीं होती। और जब लिक़ाउल्लाह में उसको इस्तिग़राक़ हो जाता है, तो सिफ़त-ए-बक़ा से मौसूफ़ होता है, और वो जमालुल्लाह के अनवार की तजल्ली पाता है।और “हुवियत” की सिफ़त से मख़्सूस हो जाता है। इसके बा’द फ़क़्र का दर्जा ख़त्म हो जाता है।

सह्व-ओ-सुक्रः-

हर सह्व में सुक्र और हर सुक्र में सह्व है।जब सालिक सह्व में होता है, तो एक ऐसे मक़ाम में पहुँचता है जहाँ वो हैरान रहता है। इसके बा’द वो सुक्र में आ जाता है, और जब इस मक़ाम में उसकी हैरानी दूर हो जातीह है, तो सह्व में चला जाता है।इसके बा’द फिर कोई बुलंद-तर मक़ाम पर उसकी नज़र पड़ती है, फिर सुक्र में हो जाता है।इस मक़ाम-ए-ख़ास में कभी सुक्र में और कभी सह्व में होता है।ये अहवाल ज़ैक़ से पैदा होते हैं।

तक्वीन-ओ-तमकीनः

सालकि जब फ़िक्र करता है तो दो मक़ाम आते हैं, तलवीन और तमकीन। मक़ाम-ए-तलवीन में सिफ़ात-ए-सल्बी और मक़ाम-ए-तमकीन में सिफ़ात-ए-सुबूती पैदा होती हैं, जिसके बा’द नफ़सानी ख़्वाहिशात बिलकुल नहीं रहती हैं।

जलाल-ओ-जमालः

हक़-तआ’ला जब किसी पर इ’नायत करता है तो पहले उस पर अपने जलाल का क़हर नाज़िल करता है।अगर वो उस जलाल का मुतहम्मिल होता है, और उस जलाल में लुत्फ़ महसूस कर के उसकी ज़ियादती के लिए दु’आ करता है, तो गोया उस में  अस्ली मोहब्बत-ओ-हक़ीक़ी इ’श्क़ का जज़्बा पैदा होने लगता है।और जब जलाल में उसको लज़्ज़त महसूस होती रहती है तो वो जमाल-ए-हक़-तआ’ला से सरफ़राज़ किया जाता है।अंबिया जमाल से जलाल की तरफ़ आते है, लेकिन औलिया जलाल से जमाल की तरफ़ जाते हैं।

हज़रत ग़रीब की मुरीदों की तसानीफ़ः-

ख़्वाजा रुकनुद्दीन के दो भाई ख़्वाजा हम्मादुद्दीन और ख़्वाजा मज्दुद्दीन भी साहिब-ए-तसानीफ़ थे और अव्वलुज़्ज़िक्र की तस्नीफ़ात के नाम ये हैं।

1. हुसूलुल-उसूल 2. असरार-ए-तरीक़त 3. अहसनुल-अक़्वाल (मल्फ़ूज़ात-ए-हज़रत ख़्वजा बुर्हानुद्दीन ग़रीब)

मुअख़्ख़रुज़्ज़िक्र की दो किताबों के नाम मा’लूम हो सके हैं, ग़राइबुल-करामत-ओ-बक़ियतुल-ग़राइब।इन दोनों में हज़रत बुर्हानुद्दीन ग़रीब के ख़वारिक़-ए-आ’दात-ओ-करामात का ज़िक्र है।

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