जिन नैनन में पी बसे दूजा कौन समाय

हज़रत अमीर ख़ुसरौ का उर्स आज से शुरूअ हो गया है. आज सुबह ही हमारी प्यारी सी डॉक्टर आंटी का फ़ोन आया कि कोरोना की सारी दवाइयाँ तत्काल प्रभाव से बंद कर दूँ.

इसी महीने की 6 तारीख़ को मेरी रिपोर्ट पॉजिटिव आई थी और उसके बाद जैसे सब कुछ बदल गया. उस बीच मैं हज़रत राबिया बसरी को पढ़ रहा था. हज़रत राबिया एक बार बहुत बीमार पड़ीं. कुछ मुरीदों ने अर्ज़ किया- हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि आप जल्द ठीक हो जाएँ. राबिया ने मुस्कुरा कर जवाब दिया – यह बीमारी देने वाला भी वही है और शिफ़ा देने वाला भी वही. जो दौड़ आयोजित करता है उसे दौड़ने वालों की शक्ति का भी पता होता है और दौड़ की लम्बाई का भी. यह कहानी मुझे हमेशा नई उम्मीद दे कर जाती है. हालांकि हज़रत राबिया बसरी का यक़ीन शायद अभी मुझमे नहीं था इसलिए मैंने पॉजिटिव आते ही सब से पहले अपने डॉक्टर को संपर्क किया जिन्होंने मेरी हालत देख कर बताया कि इन्फेक्शन ज़्यादा है और तत्काल दवाई शुरूअ’ कर दी.

चिश्ती सूफ़ी बुजुर्गों में बाबा फ़रीद र.अ. के समय से एक परंपरा रही है कि जब कोई सूफ़ी बीमार होता था तो उसके मुरीद जाकर उस के लिए किसी सूफ़ी बुज़ुर्ग की दरगाह पर प्रार्थना करते थे और उनकी तबीयत सही हो जाती थी. हमने भी तुरंत हज़रत महबूब-ए-इलाही के साहिब-ए-सज्जादा और प्यारे दोस्त सय्यद अजमल निज़ामी साहब को फ़ोन किया. कहा- साहब ! दिल में तो निज़ाम बसे हैं ये कोरोना कहाँ से आ गया? निज़ाम से कहिये कोरोना रुपी ऊधो से कहें – एक थो सो गयो निज़ाम संग- को अराधे…

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया र.अ. जब बीमार होते थे तो अपने सारे मुरीदों को तलब करते और उनसे उनकी ज़िन्दगी की कुछ कहानियाँ सुनते थे. निज़ामी बंसरी में यह ज़िक्र आया है –

“उस सुबह हज़रत का आदेश हुआ कि मैं ख्व़ाजा  हसन सिजज़ी की छावनी छोड़ दूँ जहाँ देवगढ़ से आने के पश्चात मैं रह रहा था। आदेश हुआ कि मैं उनके पीर साहब के नाती ख्व़ाजा  सैयद मोहम्मद के साथ रहूँ । उन्होंने कहा कि वह मुझसे हिंदू संतों के विषय में जानना चाहते हैं । और उनसे मुझे मुस्लिम संतों के विषय में जानने को मिलेगा ।

जिस वक्त मैं ख्व़ाजा  सैयद मुहम्मद से बातें कर रहा था उसी वक्त हज़रत के ख़ादिम, ख्व़ाजा मुबस्सिर तशरीफ़ लाए और कहा कि हज़रत ने हम दोनों बुला भेजा है । कहलवाया है कि उन्हें बुखार था । जैसे ही हमने यह सुना, हम दोनों ने तुरंत कपड़े पहने और हज़रत के हुज़ूर पेश हुए। हज़रत का बिस्तर आठ कोने वाले चबूतरे पर लगा था । वह बिस्तर पर लेटे हुए थे और उनके हाथ में माला थी। अमीर खुसरो, ख्व़ाजा  हसन सिजज़ी  और हज़रत की बहन के बेटे ख्व़ाजा रफ़ीअ नीचे बैठे थे।

जब हम कमरे में पहुँचे तो हमने चौखट पर अपना माथा टेका । हज़रत ने मुझे संबोधित करते हुए कहा- हरदेव! मुझे आज बुखार हो गया है। मैं तुम लोगों से बात करना चाहता हूँ ताकि मेरा मन हल्का हो जाए। मैं अदब से खड़ा हुआ, दोनों हाथ जोड़े और कहा- ख़ुदा हज़रत को जल्द सेहतमंद करे । हम ख़ादिम सेवा के लिए खड़े है।

हज़रत ने फरमाया- आज तुम सब मुझे अपनी-अपनी ज़िंदगी का कोई दुख भरा वाकिया सुनाओ और अंत में मैं भी सुनाऊँगा।

मुझसे कहा गया कि चूंकि मैं शहर से बाहर का हूँ इसलिये मुझे सबसे पहले एक दुखांत वाला क़िस्सा सुनाना है।

मैं खड़ा हुआ, अपने हाथ जोड़े और कहना प्रारंभ किया- अलाउद्दीन ख़िलजी, जो अभी दिल्ली के शहंशाह हैं, ने जब मेरे राज्य देवगढ़ पर आक्रमण किया तो मैं, मेरे पिता, मेरी माँ और दूसरे रिश्तेदार बंदी बना लिए गये। हम देवगढ़ किले के बाहर रहते थे। इसलिए सिपाहियों ने हमारे घर को लूट लिया। तब मैं छोटा था परंतु सिपाहियों ने बिल्कुल दया नहीं दिखायी और बड़ा ही क्रूर बर्ताव किया। मैं हज़रत के पैरों की सौगंध खाकर कहता हूँ कि हमारे पास खाने के लिये भी पर्याप्त राशन नहीं था। यह सब दो-तीन दिन चला। वो दिन जो मैंने अलाउद्दीन खिलज़ी की कैद में बिताए, वह मेरी ज़िंदगी के सबसे बुरे दिन थे। हालाँकि जब शांति की घोषणा हुई, तो हमें छोड़ दिया गया लेकिन जब मैं उस कैद को याद करता हूँ तो दुनियाँ के सारे सुख भूल जाता हूँ। मैं दुआ करता हूँ कि कोई किसी का बंदी ना बने । यह कहकर मैं झुका, क़दमबोसी की और अपनी जगह बैठ गया।

हज़रत निजामुद्दीन औलिया ने फरमाया- हरदेव! हर व्यक्ति के जीवन में कष्ट इसलिये आते हैं ताकि वह खुशी में कष्ट को ना भूले और खुशी के पल उसका सर ना चढ़ा दे।

इसके बाद हज़रत ने फ़रमाया- अब ख्व़ाजा  मोहम्मद अपने अनुभव बताएंगेः

मेरी तरह उन्होंने भी क़दमबोसी की, हाथ जोड़ कर खड़े हुए और कहना शुरु किया- जब मेरे नाना हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंजशकर (रह.) और मेरे वालिद हज़रत सैयद बुरहानुद्दीन (रह.) का इंतकाल हुआ, तब मख़्दूम (हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया) ने हम दोनों भाइयों को अजोधन से दिल्ली आने का हुक्म दिया। हमें दिल्ली बुलाकर, वह अजोधन शरीफ चले गए। इधर कुछ लोगों ने हमसे कहा कि मख़्दूम, पीर साहब की बेटी और तुम्हारी माँ से निकाह करना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने तुम लोगों को यहाँ बुलाया है। हमने यह बात अपनी माँ को बतायी। यह बात सुनकर हमारी माँ रोने लगी और उन्हें बुखार हो गया। मैंने और मेरे भाई ने कई दिनों तक उनकी खूब सेवा की, मगर कुछ ही दिनों में उनका इंतकाल हो गया। हालाँकि मख़्दूम     के ख़ादिम ने मेरे और मेरे भाई के खाने-पीने का पूरा ध्यान रखा था। मैं अपने नाना और माता-पिता को याद करता रहा। आख़िरकार मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि मख़्दूम     ही हमारे एकमात्र अभिभावक है और जब वह अपने पीर की मज़ार से लौटेंगे तो हमें संतावना देंगे। और यही हुआ। उन्होंने हमें इतना प्रेम दिया कि अब हम अपने नाना और माता-पिता की कमी बिल्कुल महसूस नहीं करते। हालाँकि वह बहुत छोटा वक्त था, पर था दर्द से भरा। ऐसा जैसे कि दिल में कोई काँटा सा चुभा हो।

इतना कहकर ख्व़ाजा  मोहम्मद ने ज़मीन को चूमा और अपने पैरों को अदब से मोड़कर बैठ गए।

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने फ़रमाया- इस जहाँ में जब कोई रिश्ता टूटता है तो ख़ुदा उसके बदले एक नया रिश्ता भेजता है, और दुख ख़त्म हो जाते हैं।

उसके बाद हज़रत ने अपनी बहन के पोते की ओर देखा- ख्व़ाजा सैयद रफ़ीउद्दीन हारुन खड़े हुए, हाथ जोड़े और कहा- ख़ुदा मख़्दूम  को हमेशा अपनी छाया में रखे। मेरी ज़िंदगी में कभी कोई दर्दनाक हादसा नहीं हुआ। मैंने कभी दुख का अनुभव नहीं किया। मुझे समझ नहीं आ रहा कि हज़रत के सामने कौन सा कष्ट बयान करूँ । यह कहकर उन्होंने ज़मीन बोसी और बैठ गए।

हज़रत ने फरमाया- तुम अभी जवान हो। तुम्हें हमेशा अपने आप को गर्व और मिथ्याभिमान से बचाना चाहिये। घमंड से उत्पन्न सुख कभी लाभकारी नहीं होता । यह भावना हमेशा दिल में बलवती होनी चाहिये। ऐसी कि यह तुम्हारी खुशहाल ज़िंदगी में दर्द का नासूर बन जाएं ।

इसके बाद हज़रत ने ख्व़ाजा  अलाउद्दीन सिजज़ी की सम्त देखा। वह खड़े हुए और कहा- मैं बचपन से ही हज़रत के पास आता रहा हूँ । जवानी में बुरी संगत में पड़कर मुझे शराब पीने की लत लग गयी थी। जब उन दिनों मैं यहाँ आता था तो हमेशा यह डर लगा रहता था, कि मख़्दूम को मेरी ग़लती का पता ना चल जाए। खैर ! बहुत दिन यूँ ही गुजरे और एक दिन मख़्दूम ने मुझे शराब पीते देख लिया, जब मैं नशे में था। मैंने पूछा- अगर कोई अच्छे की संगत में रहकर अच्छा बन जाता है तो मुझ पर क्यूँ कोई प्रभाव नहीं पड़ा? भाई अमीर खुसरो हुजूर के साथ थे। उन्होंने मुझे फटकारा और कहा- पानी से सब चीज़ों की दुर्गंध दूर हो जाती है, परंतु यह मछली की ही दुर्गंध नहीं मिटा पाता जबकि, मछली पानी में ही रहती है। यहाँ यह मछली का गुण है, जिसका यह दोष है, पानी का नहीं । यह सुनकर हज़रत ने कहा- बाबा हसन की सोहबत का दूसरों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है ।

मैं उनके कदमों पर गिर पड़ा और सी पल शराब से तौबा की। मैंने यह शेर पढ़ा-

ऐ हसन तुम अपने गुनाहों से तौबा करते हो,

जबकि तुमनें पाप करने की ताकत ही नहीं।

यह मेरी ज़िंदगी की किताब का सबसे स्याह पन्ना है। जब मैं सोचता हूँ तो बड़ा दुख होता है कि मैंने अपनी कितनी ज़िंदगी इस पाप में बर्बाद कर दी।

यह कहकर हसन ने भी ज़मींबोसी की और बैठ गए।

हज़रत ने फरमाया- यह मेरे लिए भी एक दुखद वाकिया था। पर हसन ! चुने जाने की शराब जो ख़ुदा ने तुम्हें बख़्शी, वह सबसे बड़ी खुशी है। इसके बाद हज़रत ने अमीर खुसरो की ओर देखा और फ़रमाया- मेरा तुर्क अभी तक ख़ामोश है।

अमीर खुसरो ने झुककर जमीनबोसी की और कहा- वक्ता तो केवल एक है। वही सबमें बोलता है।

हज़रत ने पूछा- वह वक्ता तुम्हारे भीतर क्या बोलता है?

जब बन्दा आपकी चाकरी में बहाल हुआ तो मख़्दूम ने मेरा निमंत्रण स्वीकार किया और मेरे नाना के घर में रहना स्वीकार किया। वह अपने सगे संबंधियों के साथ रहने आ गए। उसके बाद जब मैं अपने मामा की जायदाद का निरीक्षण करने पटियाली गया हुआ था, तब मेरे रोकने के बावजूद हज़रत मस्जिद में रहने चले गए। वहाँ शाद काज़ी ने जब उन्हें अपने घर में रहने को कहा तो मख़्दूम ने जवाब दिया- तुम भी खुसरो की तरह कहीं जाओंगे और तुम्हारे रिश्तेदार आकर मुझे चले जाने को कहेंगे । अब मैं ऐसी जगह पर हूँ जो ऐसी ज़ात का है जहाँ से कोई मुझे बाहर नहीं निकाल सकता ।

इस वाकिये का ख्याल जब भी जहन में आता है तो वह उम्र भर लंबा दर्द दे जाता है । मुझे बड़ा सम्मान मिला है। चाहे वह मोहम्मद ख़ान शाहिद हो चाहे उसका पोता । चाहे मोइनुद्दीन कैकूबाद हो, सुल्तान जलालुद्दीन ख़िलज़ी हो या चाहे सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलज़ी, सबने मुझे इतना सम्मान दिया है कि दूसरे लोग मुझसे ईर्ष्या करते हैं। लेकिन जो बुरा बर्ताव मेरे मामा ने मेरे हज़रत के साथ किया, वह मैं कभी नहीं भूल सकता।

यह सुनकर हज़रत उत्साहित होकर बिस्तर से खड़े हो गए और हँसने लगे। फरमाया- हम सब को अपने नफ़्स की गुस्ताख़ियों से निज़ात पाना चाहिये और शरीर रूपी इस निवास में घमंड से बचना चाहिये। तुम्हारे मामा ने मुझे जाने के लिये नहीं कहा था, वरन यह मेरे भीतर के अहंकार की कमजोरी थी जो लोगों द्वारा मेरे हाथ तथा पैर चूमने की वजह से आयी थी। उसी ने मुझे घर से निकाला।

फिर हज़रत हमसे कहने लगे- ध्यान दो, एक अजनबी यहाँ आया और कहने लगा- आप दुनियाँ के सबसे भाग्यशाली व्यक्ति हैं। जो सौभाग्य आपको मिला है वह अद्भुत है। सबको आपके चरणों पर उसने लाकर रख दिया है। दुनियाँ में हर व्यक्ति को कुछ ना कुछ चिंता होती है। लेकिन आपको ना तो खाने की चिंता है ना कपड़ों की और ना ही फुतूह (दान) देने वाले व्यक्तियों की। आपके पास सब कुछ है।

जब मैंने उस अजनबी को सुना तो उसे कहा- लोग मुझपर चीज़े न्योछावर करते हैं क्योंकि वह उन चीज़ों के साथ आते हैं जो उन्हें परेशान करती हैं और उन्हें यकीन होता है कि मैं दुआ करके उनकी परेशानियाँ दूर कर दूँगा। इस तरह अगर सुबह से शाम तक 50 लोग आते हैं तो मेरे पास सुनने को 50 दुख और परेशानियाँ होती हैं। जब मैं अल्लाह से दुआ करता हूँ कि वह उनके दुख दूर कर दे, तो मुझे भी उनके दर्द में डूबना पड़ता है। नहीं तो मेरी प्रार्थना कुबूल नहीं होगी। एक व्यक्ति जो हर दिन 50 से 100 दुख-दर्द सुनता है, परेशानियाँ सुनता है, वह ना तो ख़िदमत में खुश रह सकता है और ना ही सौभाग्य से । हज़रत ने यह बात इस अंदाज़ में कही कि हम सभी दुखी हो गए । हम सब रोने लगे। हज़रत की आँखे भी नम थी।

इसके बाद हज़रत ने फ़रमाया- मेरा बुखार उतर गया है। अब आप लोग कृपया अपने-अपने घर पधारें।

हम सभी ने ज़मीनबोसी की और वहाँ से प्रस्थान किया। हम अपना हर कदम अदब से रख रहे थे। मैं इन कहानियों से बड़ा प्रभावित हुआ। मैं उनमें इतना खोया हुआ था कि मेरी नींद गायब हो गयी थी”।   

इन कहानियों के बीच शुरूआती पांच दिन निकल गए और पांचवे दिन अचानक खाँसी बढ़ गई और कफ़ का रंग भी सुर्ख हो गया.यह संकेत था कि अन्दर वायरस अपना काम कर चुका है और फेफड़ों को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर चुका है. बड़ा ही विचित्र और भयावह समय था.मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में कभी इतने एम्बुलेंस की आवाजें नही सुनीं. पत्नी जो खुद पॉजिटिव थी अपना दर्द भूल कर मुझे ठीक करने में लग गई. मुझे उस दिन से लेकर दसवे दिन तक जो कुछ भी हुआ याद नहीं है. पर दवाइयाँ और इंजेक्शन शुरू हो गए थे और उन दवाइयों के प्रभाव से कुछ अलग ही अनुभव हो रहे थे. हर दिन मैं किसी अलग जगह होता था. चिंता को दूर करने वाली दवाइयाँ आप को एक भ्रमलोक में रखती हैं ताकि आप का शरीर अपनी क्षतिपूर्ति कर सके. परन्तु यह भ्रम लोक भी अनजाना नहीं था. जिन सूफ़ी संतों को अब तक पढ़ता आया था वह सब मानो सजीव हो गए थे. मुझे पता था कि हृदय में महबूब के अलावा कोई नहीं.यह सारी दवाइयाँ उसी एकत्व को स्थापित करने का जतन थीं.

इसी बीच बिरादर-ए-तरीक़त हसन नवाज़ शाह साहब का फ़ोन आया. उन्होंने ख्व़ाजा ग़ुलाम फ़रीद की एक कहानी सुनाई – एक जंगल था जिसमे एक आदमखोर बाघ रहता था. एक दिन लोगों ने देखा कि एक सूफ़ी उस जंगल की सम्त बढ़ा जा रहा है.सब ने मिलकर उसे रोका और ख़बरदार किया. सूफ़ी ने जब पूरी बात सुनी तो उस ने मुस्कुराकर कहा – मैं जाऊँगा तब तो मुझे वह आदमखोर पकड़ेगा. जंगल से तो मेरे मुर्शिद जा रहे हैं. सूफ़ी ने अपनी ज़ात के ऊपर अपने मुर्शिद को ओढ़ लिया और जंगल पार कर गया. यह कहानी एक सीख देती है. मृत्यु के पूर्व मरने की–यही बात तो रूमी भी कहते हैं. एक मछली जो जाल में मरने का नाटक करती है उसे मछवारा वापस नदी में फेंक देता है. मृत्यु को जीतने का यह एक तरीक़ा है.

मौलाना रूमी भी तो फ़रमाते हैं-

ब-मीरेद ब-मीरेद दर ईं इश्क़ ब-मीरेद

दर ईं इश्क़ चू मुर्दीद हम: रूह-पज़ीरेद

ब-मीरेद ब-मीरेद व-ज़े-ईं मर्ग म-तर्सीद

कज़ ईं ख़ाक बरआएद समावात ब-गीरेद

ब-मीरेद ब-मीरेद व-ज़े-ईं नफ़्स ब-बुर्रीद

कि ईं नफ़्स चू बंद-अस्त व शुमा हम-चू असीरेद

आख़िरकार वही हुआ. तेरहवें दिन जब थोड़ा होश आया, सामने किताबें थीं जिनपर पड़ी धूल आमंत्रण दे रही थी.

पत्नी के चेहरे पर इतने दिनों में पहली बार थोड़ी राहत दिखी. रिपोर्ट सुधरने लगी थी. इस मुश्किल समय में सूफ़ी संतों का कलाम और उनकी वाणी आप को हारने नहीं देती. कुछ लोग भी संतों के कलाम की ही तरह होते हैं, वह आप की ज़िन्दगी में आते हैं, दिशा दिखाते हैं और आप के जीवन में संगीत भर जाते हैं. ऐसे ही कुछ लोग इस समय मिले. प्रियंका भास्कर जैसी एक रूहानी बहन, जिस ने शुरू से आख़िर तक जैसे मेरी जिम्मेदारी ले ली. अरुण प्रकाश राय जैसे सहृदय दोस्त जिन्होंने न जाने कितनी दुआएं की, और भी न जाने कितने नाम जिन्हें मैं जानता भी नहीं, पर उनके दिलों के तार ऐसे जुड़े, मानो मुझे वापस ले आने की ठान चुके थे.

यह प्रेम की डोर ही जीवन है. इस से बंध कर ही आत्मा की पतंग उड़ती है. कभी कभी ऐसा भ्रम होता है कि यह डोर न होती तो शायद पतंग और ऊँचे जाती परन्तु जैसे ही यह डोर टूटती है पतंग सीधी ज़मीन पर आ गिरती है.

हज़रत अमीर ख़ुसरौ का उर्स आप सभी दोस्तों को बहुत मुबारक.

-सुमन मिश्र

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