हज़रत बख़्तियार काकी रहमतुल्लाहि अ’लैह-मोहम्मद अल-वाहिदी
ज़िंदः-ए-जावेदाँ ज़े-फ़ैज़-ए-अ’मीम
कुश्तः-ए-ज़ख़्म-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम
आपका पूरा नाम ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी है। सरज़मीन-ए-अद्श में (जो मावराऊन्नहर के इ’लाक़ा में वाक़े’ है) पैदा हुए थे। आपकी निस्बत बहुत से ऐसे वाक़िआ’त बयान किए जाते हैं जिनसे मा’लूम होता है कि आपकी विलायत का सिक्का आपकी विलादत-ए-बा-सआ’दत से पहले ही बैठना शुरूअ’ हो गया था। लेकिन अफ़्सोस है अ’जीब-ओ-ग़रीब बातों को देखने के बा’द भी किसी ने उस ग़ैरमा’मूली शान के इन्सान की तारीख़-ए-पैदाइश को ख़याल से न याद रखा और आज हम उसे कामिल तहक़ीक़ और वसूक़ के साथ आपके सामने पेश नहीं कर सकते। फ़तिहा-ए-मुर्शिदया में आपकी उ’म्र शरीफ़ और सन-ए-वफ़ात से हिसाब लगा कर सन 561 हिज्री निकाले गए हैं।
हज़रत ख़्वाजा का सिल्सिला-ए-नसब कुल चौदह वास्तों के बा’द हज़रत इमाम हुसैन अ’लैहिस्सलाम से जा मिलता है। आपके वालिद भी एक बुज़ुर्ग शख़्स थे जिनका इस्म-ए-मुबारक ख़्वाजा कमालुद्दीन अहमद था लेकिन उनके ज़ेर-ए-साया आपने अपनी उ’म्र का कुल डेढ़ साल ही गुज़रा था कि उनका इंतिक़ाल हो गया और आपका सारा बोझ आपकी वालिदा माजिदा पर पड़ गया । उन्होंने अपने मक़्दूर भर अपने लख़्त-ए-जिगर की ता’लीम-ओ-तर्बियत में बहुत कोशिश की लेकिन वहाँ तो न बाप के साया की ज़रूरत थी और न माँ की तग-ओ-दौ की हाजत।ख़्वाजा का ख़ुद ख़ुदा मुंतज़िम था|फ़रिश्ता ने ब-हवाला-ए-किताब-ए-ख़ैरुल-मजालिस आपके बचपन के हालात में लिखा है कि जब आपकी उ’म्र शरीफ़ पढ़ने के क़ाबिल हुई तो आपकी वालिदा ने आपको अपने किसी पड़ोसी के सुपुर्द किया और फ़रमाया कि जाकर किसी मक्तब में बिठाओ। वो शख़्स आपको लेकर जा रहा था कि रास्ते में उसे एक बुज़ुर्ग मिले जिन्होंने उससे पूछा कि ये बच्चा किसका है।उसने जवाब में सारा हाल सुना दिया और कहा कि इस तरह मैं इसे मक्तब में दाख़िल कराने ले जा रहा हूँ।उन बुज़ुर्ग ने फ़रमाया कि भाई ये काम तुम मेरे सुपुर्द करो। मैं इस बच्चे को एक ऐसे उस्ताद के पास पहुंचा दूँगा जिसकी सोहबत की बरकत से ये ला-सानी इन्सान बन जाएगा।उसने कहा बिस्मिल्लाह बड़ी ख़ुशी के साथ।ग़र्ज़ कि ये दोनों उन बुज़ुर्ग के साथ हो लिए और चलते चलते अबू हफ़्स नामी एक बुज़ुर्ग के मकान पर पहुंचे।अबू हफ़्स अपने ज़माना में बड़े साहिब-ए-कमाल शख़्स थे।हक़-तआ’ला ने उन्हें उ’लूम-ए-ज़ाहिरी बातिनी दोनों में बहरा-ए-वाफ़िर अ’ता फ़रमाया था।राह-गीर बुज़ुर्ग ने उनके हाथ में हज़रत ख़्वाजा का हाथ दिया और कहा कि”ऐ अबू हफ़्स ये बच्चा एक दिन सुल्तानुल-औलिया होने वाला है।इसे ख़ास ग़ौर-ओ-तवज्जोह से पढ़ाईगा। बस इतना कह कर वो बुज़ुर्ग फ़ौरन बाहर चले गए।अबू हफ़्स ने हज़रत ख़्वाजा के साथी से दरयाफ़्त किया जानते हो ये कौन बुज़ुर्ग थे|उसने कहा नहीं मुझे तो ये आज ही इत्तिफ़ाक़िया रास्ते में मिल गए थे। इस से पहले मैंने उन्हें कभी नहीं देखा।”अबू हफ़्स ने फ़रमाया “ये हज़रत ख़िज़्र अ’लैहिस्सलाम थे”।
इसी क़िस्म के और बहुत वाक़िआ’त पेश आते रहे लेकिन वो सब इस छोटे से मज़मून में नहीं समा सकते इसलिए नज़र-अंदाज किए जाते हैं। मुख़्तसर ये कि हज़रत ख़्वाजा ने अबू हफ़्स की ता’लीम से ख़ूब लियाक़त हासिल की और थोड़े ही अ’र्सा में आप एक जय्यिद आ’लिम बन गए। उ’लूम-ए-ज़ाहिरी की तह्सील के बा’द हज़रत ख़्वाजा के उस ख़ुदा-दाद माद्दे ने अपना काम शुरूअ’ किया जिसकी झलकियाँ अक्सर देखने में आया करती थीं। शुरूअ’ में इशारतन ज़िक्र आ चुका है कि आप वली-ए-मादर-ज़ाद थे लेकिन इस सूरत में भी ज़रूरत थी कि कोई ऐसा शैख़-ए-कामिल मिले जो हाथ पकड़ कर आपको सुलूक की तमाम मंज़िलें तय करा दे। चुनांचे आपको उसकी तलाश हुई और आप उसी धुन में फिरते-फिरते बग़्दाद पहुंचे। इस में मुवर्रिख़ीन का इख़्तिलाफ़ है।साहिब-ए-सब्आ’-ए- सनाबिला लिखते हैं कि हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती संजरी ख़ुद ही सैर करते-करते अद्श में पहुंच गए थे और घर बैठे हज़रत ख़्वाजा को गौहर-ए-मुराद हाथ आ गया था। लेकिन सियारुल-औलिया जो सब्आ’-ए-सनाबिला से ज़्यादा क़दीम किताब है उसमें यही लिखा है कि हज़रत ख़्वाजा बग़्दाद गए और वहाँ अबुल-लैस समरक़ंदी की मस्जिद में शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी,शैख़ औहदुद्दीन किरमानी,शैख़ बुर्रहानुद्दीन चिश्ती और शैख़ महमूद अस्फ़हानी की मौजूदगी में ख़्वाजा बुज़ुर्ग के मुरीद हुए।
मुरीद होने के बा’द हज़रत ख़्वाजा ने ख़्वाजा बुज़ुर्ग की ख़िदमत में रहना इख़्तियार किया और अ’र्सा तक हज़रत के साथ इ’बादत और रियाज़त में मसरूफ़ रहे।इस अस्ना में इतना तअ’ल्लुक़ बढ़ा कि जब ख़्वाजा बुज़ुर्ग बग़्दाद छोड़कर हिंदुस्चान चले आए और मुस्तक़िल तौर से अजमेर शरीफ़ में मुक़ीम हो गए तो आपसे ये फुर्क़त गवारा न हो सकी और आपने भी वतन को ख़ैर-बाद कहा और राही-ए-हिन्दुस्तान हो गए।पहले सीधे मुल्तान पहुंचे और कुछ दिन शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया रहमतुल्लाहि अ’लैह और शैख़ जलालुद्दीन तबरेज़ी के यहाँ मेहमान रह कर दिल्ली आए और यहाँ आकर ख़्वाजा बुज़ुर्ग की ख़िदमत-ए-अक़्दस में इस मज़मून की इर्साल की कि शौक़-ए-क़दम-बोसी कशाँ कशाँ यहाँ तक ले आया है।अब इर्शाद हो तो हाज़िर हो कर आस्तान-ए-आ’ली पर जब्हा-साई करूँ। लेकिन ख़्वाजा बुज़ुर्ग ने जवाब में लिख दिया कि क़ुर्ब-ए-रुहानी के आगे बो’द-ए-मकानी कोई चीज़ नहीं है। हमारे लिए दूरी-ओ-नज़दीकी यकसाँ है।तुम्हें वहीं दिल्ली में क़ियाम करना चाहिए। मैं अ’न-क़रीब ख़ुद वहाँ आकर तुमसे मिलूँगा। हज़रत ख़्वाजा ने पीर के हुक्म की ता’मील की और शहर से बाहर मौज़ा-ए-किलूखरी में बर लब-ए-दरिया-ए-जमन सुकूनत इख़्तियार की।
सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश की हुकूमत का ज़माना था। सुल्तान शम्सुद्दीन बादशाहों में आ’ला दर्जा का साहिब-ए-कैफ़-ओ-ए’तिक़ाद बादशाह गुज़रा है।उसे बुज़ुर्गों से बड़ी मोहब्बत थी और उसी मोहब्बत का नतीजा था कि आख़िर-कार उसे विलायत का दर्जा हासिल हो गया और और इक़लीम-ए-बातिन की बादशाही भी उसके हिस्सा में आई।सियारुल-आ’रिफ़ीन में लिखा है कि जब उसे मा’लूम हुआ कि हज़रत दिल्ली में तशरीफ़ लाए हैं और आपने किलोखरी में क़ियाम किया है तो सज्दा-ए-शुक्र बजा लाया और हाज़िर-ए-ख़िदमत हो कर मुल्तजी हुआ कि हुज़ूर जंगल से शहर में चले चलें और उसे अपने क़ुदूम-ए-मैमनत से बरकत बख़्शें ।लेकिन आपने उ’ज़्र कर दिया कि शहर में पानी की कमयाबी है इसलिए मैं वहाँ नहीं रह सकता। बिल-आख़िर उसने ख़ुद अपने लिए मुक़र्रर कर लिया कि हफ़्ता में दो बार आता और हज़रत की ज़ियारत और सोहबत से फ़ैज़याब हो कर चला जाता।मगर कुछ अ’र्सा के बा’द हज़रत ख़्वाजा शहर चलने पर राज़ी हो गए और सुल्तान ने अ’लाहिदा एक जगह पर आपको ठहरा दिया। ये वो ज़माना था कि हज़रत ख़्वाजा कुछ ज़्यादा मशहूर तो नहीं हुए थे लेकिन जो एक दफ़ा’ आपको देख लेता था आपका मो’तक़िद बल्कि वालिह-ओ-शैदा बन जाता था।आपके मुल्तान जाने के ख़याल में ग़ालिबन हमने ये नहीं लिखा कि सुल्तान नासिरुद्दीन क़ुबाचा और सारे मुल्तान वाले आपसे अ’र्ज़ करते रहे कि आप यहाँ से न जाईए लेकिन आप इ’श्क़ में ऐसे सरशार थे कि वहाँ न रह सके और जब शैख़ ही ने हुक्म दे दिया कि दिल्ली में रहो तब मजबूर हो गए वर्ना दिली तमन्ना तो उनकी शैख़ की ख़िदमत में रहने की थी। अब जब दिल्ली में रिहाइश इख़्तियार की तो यहाँ की भी सारी ख़िल्क़त आपकी तरफ़ रुजूअ’ हो गई। अ’वाम-ओ-ख़्वास, ग़रीब-ओ-अमीर सब आपके मो’तक़िद हो गए। ख़ुद बादशाह ने आपके हाथ पर बैअ’त की।
इस मौक़ा’ पर पहुंच कर मुवर्रिख़ीन एक निहायत ग़ैरत-नाक और सबक़-आमोज़ वाक़िआ’ लिखते हैं। या’नी शैख़ नज्मुद्दीन सोग़रा रहमतुल्लाहि अ’लैह के रश्क-ओ-हसद का हाल। ये बातें अगर किसी आ’म या दुनियादार इन्सान से सरज़द हुई होतीं तो कोई महल्ल-ए-तअ’ज्जुब न था लेकिन जब मा’लूम होता है कि शैख़ नज्मुद्दीन सोग़रा जैसे यगाना-ए-रोज़गार शख़्स से उनका इर्तिकाब हुआ तो ख़ुदा की शान नज़र आने लगती है। अस्ल ये है कि दुनिया बड़े इम्तिहान की जगह है। यहाँ बड़े-बड़े इन्सान क़दम-क़दम पर ठोकरें खाते हैं।ख़ैर क़िस्सा इस तरह पर है कि हज़रत ख़्वाजा को शहर में आए हुए थोड़े ही दिन गुज़रे थे कि शैख़ुल-इस्लाम मौलाना जमालुद्दीन बुस्तामी रहमतुल्लाहि अ’लैह का इंतिक़ाल हो गया। बादशाह अल्तमश ने आपसे दरख़्वास्त की कि आप शैख़ुल-इस्लाम का ओ’ह्दा क़ुबूल फ़रमाइए लेकिन आपने मंज़ूर न किया और बिल-आख़िर वो जगह शैख़ नज्मुद्दीन सोग़रा को दे दी गई। शैख़ नज्मुद्दीन सोग़रा हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग के मिलने वाले और बड़े बा-ख़ुदा शख़्स थे लेकिन इस ओ’ह्दा-ए-जलीला पर मुमताज़ होते ही ख़ुदा जाने उन्हें क्या हो गया कि ख़्वाह-म-ख़ाह हज़रत ख़्वाजा से रश्क करने लगे और इस रश्क के माद्दे ने इतनी तरक़्क़ी की कि हसद-ओ-बुग़्ज़ के दर्जे तक पहुंच गया।
हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़ महबूब-ए-इलाही फ़रमाते हैं कि एक दफ़ा’ ख़्वाजा बुज़ुर्ग हज़रत ख़्वाजा के पास दिल्ली तशरीफ़ लाए तो सारा शहर उमड कर उनकी ज़ियारत को चला गया लेकिन शैख़ नज्मुद्दीन बावजूद तअ’ल्लुक़ रखने के उनसे मिलने नही आए । ख़्वाजा बुज़ुर्ग को मा’लूम हुआ कि नज्मुद्दीन सोग़रा उनसे मिलने नहीं आए तो वो उनके मकान पर तशरीफ़ ले गए मगर वो इस पर भी आपसे बिल्कुल बे-इत्तिफ़ाक़ी और कज-ख़ुल्क़ी से पेश आए तो आख़िर ख़्वाजा बुज़ुर्ग ने फ़रमाया कि “नज्मुद्दीन शायद शैख़ुल-इस्लाम ने तुम्हारा दिमाग़ बिगाड़ दिया है जो दोस्तों से इस क़दर निख़्वत से पेश आते हो| इस पर शैख़ खुल गए और बोले कि हज़रत मैं तो आपका वैसा ही अ’क़ीदत-केश हूँ जैसा पहले था लेकिन आपने इस शहर में अपना एक मुरीद ऐसा छोड़ रखा है जिसके सामने मेरी शैख़ुल-इस्लामी की ज़र्रा भर क़दर नहीं हुई”। ख़्वाजा बुज़ुर्ग ने फ़रमाया ख़ातिर जम्अ’ रखो। मैं बाबा क़ुतुबुद्दीन को अपने हम-राह अजमेर लिए जाता हूँ। ये सुनकर शैख़ रहमतुल्लाहि अ’लैह ने हज़रत की ख़ातिर-तवाज़ुअ’ शुरूअ’ की। मगर आप जल्दी उठकर चले आए और हज़रत ख़्वाजा से फ़रमाया कि बाबा बख़्तियार यहाँ तुम्हारी शोहरत से लोगों को तकलीफ़ पहुँचती है तुम मेरे साथ अजमेर चले चलो। हज़रत ख़्वाजा को क्या उ’ज़्र था वो तैयार हो गए। लेकिन जब आपकी रवानगी की ख़बर शहर में पहुँची तो लोग चीख़ उट्ठे और बादशाह, अमीर-ओ-ग़रीब सब रोते हुए आपके पास आए। ये देखकर ख़्वाजा बुज़ुर्ग ने अपनी राय को बदल दिया और फ़रमाया बाबा मैं इतने दिलों को सदमा पहुंचाना नहीं चाहता। तुम यहीं रहो मैं तुहें अल्लाह के सुपुर्द करता हूँ और दिल्ली को तुम्हारे सपुर्द।अह्ल-ए-शहर ने जब ये सुना तो उनकी तो जान में जान आ गई लेकिन शैख़ का रंज और बढ़ गया और उसी रंज-ओ-हसद में आख़िर-कार सुल्तान की नाराज़ी का शिकार हो कर ओ’हदा-ए-शैख़ुल-ईस्लामी से मा’ज़ूल हुए और रुस्वाई-ओ-परेशानी की तकलीफ़ उठा कर दुनिया से चल बसे।
रियाज़त-ओ-मुजाहदा
फ़रिश्ता लिखता है कि जिस वक़्त हज़रत ख़्वाजा ख़्वाजा बुज़ुर्ग के मुरीद हुए उस वक़्त आपकी उ’म्र-ए-मुबारक कुल बीस साल की थी। इस तअ’ल्लुक़ के पैदा करने से पहले आपकी रियाज़त-ओ-इ’बादत का ये हाल था कि दिन-रात में ढाई सौ रकअ’तें नमाज़ की पढ़ते थे और तीन हज़ार दफ़ा’ ये दुरूद हज़रत रिसालत-मआब सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम की रूह-ए-पाक पर पहुंचाते थे। अल्लाहुम्मा सल्लि-अ’ला मोहम्मदिन अ’ब्दिक-व-बैतिक-व-हबीबिक-व-रसूलिकल उम्मी व-आलिहि व-सल्लम।
हज़रत महबूब-ए-इलाही रहमतुल्लाह से मनक़ूल है कि क़स्बा-ए-ओश में एक रईस हज़रत ख़्वाजा का मुरीद था। उसने एक शब ख़्वाब में देखा कि एक आ’लीशान मकान है जिसके गिर्द लोगों का हुजूम हो रहा है और एक निहायत नूरानी शक्ल का शख़्स है कि वो बार-बार उन लोगों के पास आता है और एक-आध बात कर के फिर अन्दर चला जाता है। उन मुरीद साहिब ने हाज़िरीन में से किसी से पूछा कि ये क्या मुआ’मला है। उसने जवाब दिया कि इस महल-ए-आ’लीशान के अंदर हज़रत रसूल-ए-मक़्बूल सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम तशरीफ़ फ़रमा हैं और ये साहिब जिनका नाम अ’ब्दुल्लाह मसऊ’द है हज़रत का पयाम नाम ब-नाम उन लोगों को पहुंचा रहे हैं। हज़रत ख़्वाजा के मुरीद ने अ’ब्दुल्लाह मसऊ’द से कहा कि हुज़ूर से अ’र्ज़ कीजिए कि फ़ुलाँ शख़्स दीदार का मुश्ताक़ है। अ’ब्दुल्लाह अंदर गए और हुज़ूर का जवाब लाए कि तुम में अभी हमारे देखने की क़ाबिलिय्यत नहीं है। तुम जाओ और क़ुतुबुद्दीन को हमारी तरफ़ से सलाम कह कर कहो कि जो तोहफ़ा तुम हर शब हमारे लिए भेजा करते थे तीन शब से हमारे पास नहीं पहुंचा। जब उसकी आँख खुली तो वो फ़ौरन हज़रत ख़्वाजा के पास गया और उसने सारी कैफ़ियत हज़रत को सुना दी।मा’लूम हुआ कि हज़रत ने निकाह किया है और उसकी वजह से तीन शब से दुरूद शरीफ़ का विर्द नाग़ा हो जाता है।हज़रत ने ख़्वाब का हाल सुनते ही बीवी को तलाक़ दे दी।
साहिब-ए-जवामिउ’ल-कलिम लिखते हैं कि एक दफ़ा’ नौ उ’म्री ही के ज़माना में आपको शौक़ पैदा हुआ कि किसी तरह हज़रत-ए-ख़िज़्र अ’लैहिस्सलाम से मुलाक़ात हो। एक साहिब ने बतलाया कि यहाँ एक मिनारा है उसके पास हज़रत-ए-ख़िज़्र अ’लैहिस्सलाम रोज़ शब को तशरीफ़ लाते हैं और जो शख़्स वहाँ बैठ कर रात-भर बेदार रहता है और दुआ’ करता है उस से मुलाक़ात करते हैं |ख़्वाजा साहिब वहाँ गए और सारी रात इ’बादत-ए-ख़ुदा में मश्ग़ूल रहे लेकिन कोई दिखाई तक न दिया। आख़िर मायूस हो कर घर को चले। रास्ते में एक शख़्स ने सामने आकर आपसे पूछा कि ख़्वाजा कहाँ गए थे”। फ़रमाया यहीं उस मिनारे तक गया था। उसने कहा वो मक़ाम तो निहायत ख़राब और वह्शत-नाक है। वहाँ क्यों गए थे। आपने फ़रमाया एक शख़्स ने कहा था कि वहाँ रात-भर दुआ’ करने से ख़िज़्र अ’लैहिस्सलाम की ज़ियारत हो जाती है इसलिए गया था”। उस शख़्स ने पूछा फिर मुलाक़ात हुई या नहीं। फ़रमाया”नहीं”।उस शख़्स ने सवाल किया कि अगर मुलाक़ात हो जाती तो तुम उनसे क्या मांगते। फ़रमाया ख़ुदा की मोहब्बत मांगता और क्या मांगता। वो शख़्स इस जवाब को सुनकर बहुत ख़ुश हुआ और कहने लगा कि “ख़्वाजा ख़िज़्र अ’लैहिस्सलाम की तलाश में क्यों फिरते हो। वो ख़ुद तुम्हारी तरह सरगर्दां रहता है लेकिन यहीं इसी शहर में एक बुज़ुर्ग रहते हैं जिनके पास हज़रत ख़िज़्र ख़ुद आया करते हैं।वो शख़्स सिर्फ़ इतना कहने पाया था कि एक सफ़ैद ररीश बुज़ुर्ग बराबर से निकल कर आए।वो उन से मुख़ातिब हुआ और कहने लगा कि ये साहिब-ज़ादे आपसे मिलने के मुतमन्नी थे”। हज़रत ख़्वाजा समझ गए कि यही नौ-वारिद बुज़ुर्ग हज़रत ख़िज़्र अ’लैहिस्सलाम हैं। बहुत ख़ुश हुए लेकिन वो दोनों के दोनों आनन फ़ानन में नज़रों से ग़ाएब हो गए। ता-हम हज़रत ख़्वाजा कामयाब घर वापस आए|
साहिब-ए-सियारुल-औलिया का बयान है कि हज़रत ख़्वाजा अवाइल-ए-उ’म्र में तो ग़लबा-ए-ख़्वाब से किसी क़दर आराम कर भी लिया रकते थे लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता आख़िर-ए-उ’म्र तक आपने इतना आराम करना भी तर्क कर दिया था।दिन रात बेदार रहते थे और 24 घंटे याद-ए-ख़ुदा में गुज़ारते थे| हज़रत ख़्वाजा अमीर हसन अ’ला संजरी रहमतुल्लाहि अ’लैह अपनी मशहूर किताब ‘फ़वाइदुल-फ़ुवाद में नाक़िल हैं कि हज़रत ख़्वाजा बहुत छुपा कर इ’बादत किया करते थे और अपने मुरीदों को भी इसी क़िस्म की ता’लीम देते थे। एक दफ़ा’ हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन गंज शकर रहमतुल्लाहि अ’लैह ने आपसे अ’र्ज़ किया कि मैं एक मुक़र्ररा वक़्त पर औराद-ओ-वज़ाइफ़ करना चाहता हूँ| हज़रत ख़्वाजा ने मन्अ’ फ़रमाया और कहा कि हमारे पीरों का ये क़ाइ’दा नहीं रहा। इस से शोहरत होती है और फ़क़ीरों के लिए शोहरत रवा नही है”। शैख़ ने अ’र्ज़ किया कि मैं इस से शोहरत हासिल करनी नहीं चाहता “। हज़रत ख़्वाजा को आपका ये कहना पसंद न आया और आप ख़ामोश हो गए। हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन गंज शकर रहमतुल्लाहि अ’लैह अफ़्सोस किया करते थे कि मैंने हज़रत को क्यों ऐसा जवाब दिया जो हज़रत को नागवार गुज़रा।
सब्र-ओ-क़नाअ’त
हज़रत ख़्वाजा सब्र-ओ-क़नाअ’त में भी फ़र्द थे।अक्सर आप पर और आपके अह्ल-ओ-अ’याल-ओ-दीगर मुतअ’ल्लिक़ीन पर फ़ाक़े गुज़रते थे लेकिन आपकी सोहबत का असर था कि छोटे से लेकर बड़े तक किसी को क़िस्मत से शिकायत न होती थी। सब अ’ला कुल्लि हाल शाकिर रहते थे।साहिब-ए-असरारुल-औलिया एक निहायत मुवस्सिर और दिल-चस्प वाक़िआ’ लिखते हैं कि आपके पड़ोस में एक मुसलमान बक़्क़ाल रहता था।अक्सर आप उससे ब-वक़्त-ए-ज़रूरत क़र्ज़ लिया करते थे।एक दिन कहीं उस बक़्क़ाल की बीवी को उसपर ग़ुरूर आ गया और हज़रत ख़्वाजा के अह्ल-ए-ख़ाना से बातें करते बोल उट्ठी कि हम यहाँ न होते तो तुम्हें कौन क़र्ज़ देता और क्योंकर तुम्हारा गुज़ारा होता”। हज़रत ख़्वाजा के अह्ल-ए-ख़ाना को उसका ये ता’ना नागवार गुज़रा और उन्होंने हज़रत ख़्वाजा से इसकी शिकायत की। हज़रत ने फ़रमाया आइन्दा से क़र्ज़ न लिया करो ।मेरे इस-ए-मुसल्ले के नीचे से तुम्हें ज़रूरत के मुवाफ़िक़ काक (रोटियाँ) मिल जाया करेंगी। चुनांचे एक ज़माना तक उसी ख़ुदाई ख़्वान से हज़रत का कुम्बा पलता रहा।आप अपनी ज़रूरत से ज़्यादा अपने पास रुपया पैसा न रखते थे और अगर कोई कुछ नज़र करता था तो ब-ज़रूरत उसे हर्गिज़ क़ुबूल न करते थे।तज़्किरातुल-अस्फ़िया में मंक़ूल है कि एक दफ़ा’ सुल्तान शम्सुद्दीन रहमतुल्लाहि अ’लैह ने कुछ थैलियाँ अशर्फ़ियों की आपकी ख़िदमत में भेजीं। आपने उन्हें वापस कर दिया और कहला भेजा कि बादशाह मैं तो तुम्हें अपना दोस्त समझता हूँ लेकिन तुम मेरे साथ दुश्मनी करनी चाहते हो”। एक और मौक़ा’ पर बादशाह ने छः गाँव आपकी नज़्र करनी चाही लेकिन आपने मुस्कुरा कर जवाब दे दिया कि मेरे पीरों का ये शेवा नहीं रहा। मैं उन के ख़िलाफ़ कर के उन्हें क्या मुँह दिखलाऊँगा और बहुतेरे ज़रूरत-मंद मिल जाऐंगे उन्हें ये गांव दे दिए जाए।
करामात
साहिब-ए-सियारुल-औलिया लिखते हैं कि जिस ज़माना में हज़रत ख़्वाजा ने अपने वतन हिन्दुस्तान आते हुए मुल्तान में हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के मेहमान हुए थे उस ज़माना में मुल्तान में कुछ लोगों ने बहुत शोरिश बरपा कर रखी थी।एक दिन उन्होंने शहर को घेर लिया और इतना सख़्त मुहासरा किया कि मुल्तान का हाकिम सुल्तान नासिरुद्दीन क़ुबाचा परेशान हो कर हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया रहमतुल्लाह अ’लैह से बातिनी इम्दाद तलब करने के लिए आपके मकान पर हाज़िर हुआ।हज़रत ख़्वाजा भी उस वक़्त शैख़ के पास बैठे हुए थे। उसने आपसे भी दुआ’ के वास्ते दरख़्वास्त की। हज़रत ख़्वाजा के हाथ में उस वक़्त एक तीर था। आपने वो तीर उसे दे दिया और फ़रमाया कि ये ले जाओ और जिधर दुश्मन का लश्कर पड़ा हुआ हो उधर छोड़ दो। उसने वैसा ही किया। जिस का नतीजा ये हुआ कि दुश्मन आप ही आप थोड़ी देर में तितर बितर हो गए।
जवाहिर-ए-फ़रीदी से मंक़ूल है कि सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश रहमतुल्लाहि अ’लैह की दाद-ओ-हिहिश और हिम्मत-ओ-सख़ावत का शोहरा सुनकर ईरान के मशहूर शाइ’र नासरी ने उसकी शान में एक क़सीदा लिखा और दिल्ली में आया। जब उनसे क़सीदा पेश करने की इजाज़त मिल गई तो वो शाह की हुज़ूरी में जाने से पहले हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर हो कर मुल्तमिस हुआ कि मैं इतनी दूर-दराज़ की मसाफ़त तय कर के यहाँ आया हूँ और अब दरबार में क़सीदा पढ़ने के लिए जाता हूँ।आप मेरी कामयाबी के लिए दुआ’ फ़रमाईए।हज़रत ख़्वाजा ने इर्शाद फ़रमाया जाओ कामयाबी होगी।वो ख़ुश ख़ुश दरबार में पहुंचा।बादशाह ने क़सीदा पढ़ने का हुक्म दिया। उसने शुरूअ’ किया लेकिन इत्तिफ़ाक़न किसी वजह से बादशाह की तवज्जोह हट गई। नासरी ने हज़रत ख़्वाजा का तसव्वुर किया। बादशाह फिर उस से मुख़ातिब हुआ और बोला हाँ पढ़ो और शुरूअ’ से पढ़ो। उसने दोबारा शुरूअ’ किया।
जब मक़्ता’ पर पहुंचा तो बादशाह ने फ़रमाया सारे क़सीदे को एक दफ़ा’ और पढ़ो। उसने फिर सुना दिया। बादशाह ने पूछा कि क़सीदा में कितनी बैतैं हैं। नासरी ने अ’र्ज़ किया छप्पन। हुक्म दिया कि छप्पन हज़ार अशर्फ़ियाँ इनआ’म में दे दी जाएं। नासरी को हर्गिज़ इतने इनआ’म की उम्मीद न थी। वो अशर्फ़ियाँ लेकर हज़रत ख़्वाजा की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। निस्फ़ अशर्फ़ियाँ आपकी नज़्र करने लगा।आपने लेने से इन्कार फ़रमाया और उसे रुख़्सत कर दिया।
किताब-ए-फ़िर्दौसिया क़ुद्सिया में लिखा है कि एक रोज़ शाही नानबाई से ख़ास सुल्तान अल्तमश के काक जल गए। नाबनाई बहुत परेशान और हरासाँ हुआ। इत्तिफ़ाक़िया आपका उधर से गुज़र हुआ। उस का ये हाल देखकर आपने फ़रमाया कि तरद्दुद की क्या बात है।बिसमिल्लाह कह कर हाथ डाल और काक निकाल ले। उसने ता’मील की।देखा तो सब काक बे जले थे।वो बहुत ख़ुश हुआ और उस दिन से आपका मो’तक़िद हो गया।कहते हैं कि इसी वाक़िआ’ की वजह से काकी आपका लक़ब मशहूर हो गया।
ज़ौक़-ओ-शौक़ और विसाल
हज़रत ख़्वाजा को शुरअ’ से समाअ’ की जानिब बहुत मैलान था।उ’लमा-ए-ज़वाहिर हमेशा सुल्तान अल्तमश से अ’र्ज़ करते कि आप जैसे हामी-ए-शरीअ’त बादशाह के ज़माना में गाने बजाने के जल्से होते हैं और आप कुछ तदारुक नहीं फ़रमाते। सुल्तान जवाब देता कि बाबा तुम क्या जानो। जिस पर तुम इल्ज़ाम लगाते हो वो गाने की सलाहियत रखता है। मेरी इतनी मजाल नहीं कि उसको रोकूँ।उ’लमा ने कहा कि मह्फ़िल-ए-समाअ’ में अमरद लड़कों का शरीक होना तो ख़ुद ख़्वाजगान-ए-चिश्त के अ’क़ीदा के बर-ख़िलाफ़ है।फिर हज़रत ख़्वाजा जो डाढ़ी मूंछ नहीं रखते क्यों गाने में शरीक होते हैं। उनकी उ’म्र अभी जवाज़ की हद को नहीं पहुंची।सुल्तान ने कहा कि अच्छा जाओ और इस मुआ’मला को हज़रत ख़्वाजा ही से तय कर लो।
उ’लमा ख़ानक़ाह में हाज़िर हुए और अ’र्ज़ किया कि आपके अभी डाढ़ी मूंछ नहीं निकली। आप अमरद के हुक्म में हैं। तरीक़-ए-चिश्तिया के मुवाफ़िक़ मह्फ़िल-ए-समाअ’ में शरीक होना आपको किसी सूरत रवा नहीं। हज़रत ने तबस्सुम फ़रमाया और चेहरा पर हाथ फेर कर कहा देखो तो। बस ये कहना था कि उ’लमा की आँखों से हिजाबात उठ गए और उन्होंने देखा कि एक दराज़ रीश फ़रिश्ता सूरत-ए-बुज़ुर्ग सामने तशरीफ़ रखते हैं।गोया हज़रत ख़्वाजा ने अपनी शक्ल-ए- हक़ीक़त का उनको मुशाहदा करा दिया।ये देखकर तमाम क़दमों पर गिर पड़े और मुआ’फ़ी मांगी।
अल-क़िस्सा सारी उ’म्र ज़ौक़-ए-समाअ में गुज़री।लोगों ने हर-चंद तरह तरह के ख़लजान पैदा किए और आपको उस शौक़ से रोकना चाहा मगर हमेशा सबको नाकामी हुई और हज़रत का मक़ाम उस कूचा में रोज़ बरोज़ बढ़ता गया।आख़िर वो दिन आ पहुंचा कि ख़ंजर-ए-तस्लीम मियान से निकल कर मुश्ताक़ान-ए-शहादत को देखने लगा मगर सिवाए हज़रत ख़्वाजा के और कोई उसकी निगाह में न जचा। इसलिए उसने जान-ए- ग़ैब को ज़माना के मुख़्तलिफ़ पर्दों से समेट कर दिल्ली के एक नूरानी मक़ाम में जम्अ’ करना शुरूअ’ किया।
या’नी वो वक़्त आ गया कि अरबाब-ए-ज़ौक़ की क़ुर्बान-गाह में ख़ंजर-ए-तस्लीम से एक सर तन से जुदा हो और लोगों के मुर्दा दिलों में जान डाले। चुनांचे एक दिन शैख़ अ’ली संजरी की ख़ानक़ाह में जो हज़रत ख़्वाजा के मख़्सूस मुख़लिसीन में थे मह्फ़िल-ए-समाअ’ मुनाक़िद हुई। हज़रत ख़्वाजा भी तशरीफ़ ले गए। क़व्वालों ने जिस वक़्त हज़रत अहमद जाम का ये शेइ’र पढ़ा:
कुश्तगान-ए-ख़न्जर-ए-तस्लीम रा।
हर ज़माँ अज़ ग़ैब जाने दीगरस्त।।
तो हज़रत ख़्वाजा ने इस शे’र की अपनी ज़ुबान-ए-मुबारक से तकरार की और बेहोश हो गए| लोगों ने बेहोशी में हालत-ए-नज़ा’ महसूस की तो आपको ख़ानक़ाह में ले आए। यहाँ आकर फिर क़व्वाली शुरूअ’ हुई और कामिल चार रोज़ इसी शे’र की तकरार रही। नमाज़ के वक़्त आपको होश आ जाता था और नमाज़ से फ़ारिग़ होते ही फिर बे-ख़ुदी तारी हो जाती थी। कैफ़िय्यत ये थी कि जब पहला मिस्रा’ पढ़ा जाता तो आप बिल्कुल बे-हिस-ओ-हरकत हो जाते और ऐसा मा’लूम होता गोया बे-जान हैं।मगर दूसरा मिस्रा’ पढ़ते ही आप जुंबिश करने लगते।आख़िर लोगों की राय से दूसरे मिस्रा’ को बंद कर दिया गया और पहले मिस्रा’ के ख़ंजर-ए-तस्लीम ने दो चार ही ज़र्बों में आपका काम तमाम कर दिया।
जिस वक़्त ये आस्मान-ए-विलायत का क़ुतुब जिस्म-ए-ख़ाकी से जुदा हुआ और मोहब्बत के ख़ंजर ने दिल-ओ-जिगर के टुकड़े कर डाले तो हज़रत क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी ने आपके सर-ए-मुबारक को अपनी गोद में ले लिया और शैख़ बदरुद्दीन ग़ज़्नवी ने आपके क़दम अपनी आग़ोश में रख लिए और रूह-ए-पाक ग़ैब की बे-शुमार जानों के जमघटे को साथ लेकर अपने नूरानी पर्दों से आ’लम-ए-राज़ में उड़ गई।
इन्ना लिल्लाहि-व-इन्ना-इलैहि राजिऊ’न।
ये शहादत-ए-कुबरा दो शंबा की रात को रबीउ’ल-अव्वल की 14 तारीख़ सन 633 हिज्री में वाक़े’ हुई। सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश रहमतुल्लाहि अ’लैहि ने ख़ुद अपने हाथ से जिस्म-ए-शहीद को ग़ुस्ल दिया,नमाज़ पढ़ाई और उस मक़ाम पर दफ़्न किया जिसको हज़रत ख़्वाजा ने आ’लम-ए-हयात-ए-ज़ाहिरी में चश्म-ए-हक़ीक़त से मुनव्वर मुशाहदा कर के अपने मर्क़द के लिए ख़रीद लिया था।
रिह्लत से पहले हज़रत ख़्वाजा ने अपना ख़िर्क़ा,ना’लैन मुसल्ला वग़ैरा लोगों को देकर इर्शाद फ़रमाया कि ये फ़रीदुद्दीन मसऊ’द का हक़ है। वह हाँसी से आए तो दे देना।
गोया इस तरह हज़रत ख़्वाजा ने हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन मसऊ’द गंज शकर को अपना जांनशीन-ए-ख़ास मुक़र्रर फ़रमाया।अगर्चे ख़्वाजा के फ़र्ज़न्द मौजूद थे मगर आपने ख़िलाफ़त-ए-जांनशीनी का अस्ली मुस्तहिक़ अपने मा’नवी फ़र्ज़न्द हज़रत गंज शकर को क़रार दिया।
ये अम्र अच्छी तरह तहक़ीक़ ना हो सका कि आपकी औलाद का नस्बी सिल्सिला चला या नहीं क्योंकि ख़ानक़ाह में छः सौ के क़रीब पीरा-ज़ादे रहते हैं मगर वो या तो हज़रत हमीदुद्दीन नागौरी की औलाद हैं या हज़रत नूरुद्दीन मुबारक ग़ज़्नवी की ।उनके अ’लावा दो और बुज़ुर्गों की औलाद भी वहाँ पाई जाती है लेकिन उनके अस्मा-ए-गिरामी हमें मा’लूम न हो सके।
हज़रत ख़्वाजा का मज़ार बिल्कुल आ’म है और उस पर कोई छत या गुंबद नहीं है। फ़र्रूख़ सियर के ज़माना में संग-मरमर का एक इहाता मज़ार शरीफ़ के गिर्द बना दिया गया है जिसके अंदर अ’लावा हज़रत के मज़ार के और भी मुतअ’द्दिद मज़ारात हैं। हज़रत ख़्वाजा के पाइं बुलंद चबूतरा पर हज़रत क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी का मज़ार है।
मज़ार-ए-मुबारक से दो हज़ार क़दम के फ़ासिला पर औलिया मस्जिद और हौज़-ए-शम्सी मशहूर मक़ामात हैं।औलिया मस्जिद में दो मुसल्ले बने हुए हैं जिनकी निस्बत बयान किया जाता है कि हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग अजमेरी और हज़रत ख़्वाजा बख़्तियार काकी ने उनपर नमाज़ पढ़ी है। ये मक़ाम बड़ा दिलचस्प-ओ-पुर-तासीर है।अगर वहाँ ख़ुलूस-ओ-यकसूई से दुआ’ की जाए तो क़ल्ब को उसी वक़्त मक़बूलियत का यक़ीन हो जाता है।
औलिया मस्जिद के मुत्तसिल शम्सी तालाब वाक़े’ है। ये तालाब किसी ज़माना में मशहूर तारीख़ी मक़ाम था।इसके चारों तरफ़ तमाम मश्हूर बुज़ुर्गों की ख़ान-क़ाहें थीं जिनके तज़्किरे या तो किताबों में नज़र आते हैं या उन खंडरों से मा’लूम होते हैं जो अब तक शिकस्तगी के आ’लम में सर झुकाए खड़े हैं।
इन्हीं खंडरों में हज़रत मौलाना समाउद्दीन की ख़ानक़ाह और मज़ार भी है।
हज़रत ख़्वाजा के आसार-ए-क़दीम में कई चीज़ें अब तक मौजूद नहीं। कुतुबमीनार के क़रीब आपकी ख़ास हवेली क़ाइम है जो एक दफ़ा’ आर्या समाज वालों के क़ब्ज़ा में आ गई थी और क़रीब था कि उसमें घोड़ों का अस्बतल बना लिया जाता मगर साहिब-ज़ादगान-ए-दरगाह-ए-हज़रत ख़्वाजा ने बर-वक़्त कोशिश शुरूअ’ कर दी और ख़ान बहादुर डिप्टी मोहम्मद एकराम और ख़ाँ साहिब मरहूम के ज़रिआ’ उस को इस फ़ित्ना से महफ़ूज़ करा लिया।
मौक़ा’ हुआ तो इंशा-अल्लाह वहाँ की मौजूदा हालत के मुतअल्लिक़ आइंदा किसी मौक़ा’ पर लिखा जाएगा।
अब हज़रत ख़्वाजा के चंद मल्फ़ूज़ात और नसीहत-आमेज़ अक़्वाल पर इस मज़मून को ख़त्म किया जाता है।
फ़रमाते हैं अगर तू मर्द-ए-कामिल बनना चाहता है तो लोगों से सोहबत रखनी कम कर दे। थोड़ा बोल,थोड़ा खा,थोड़ा सो जवाहिर-ए-दरवेशी पैदा हो जाएंगे।
फ़रमाते हैं शैख़ में इतनी क़ुव्वत और क़ुदरत होनी चाहिए कि जो कोई मुरीद होने आए उसके सीना की कुदूरत और ज़ंगार नज़र-ए-बातिन के ज़ोर से साफ़ कर दे फिर हाथ पकड़े और ख़ुदा तक पहुचा दे।अगर इतनी क़ुव्वत पीर में नहीं है तो वो भी गुमराह और उस का मुरीद भी।
फ़रमाते हैं दरवेश की शान ये है कि आलाइश-ए-दुनिया से अपने तईं पाक रखे।ब-जुज़ ख़ुदा के किसी को दिल में जगह न दे और असरार-ए-मा’रिफ़त को छुपाए। एक ख़ुम में मस्त न हो जाए बल्कि क़दह पिए और फिर हल-मिम-मज़ीद कहे।
फ़रमाते हैं आ’शिक़ आ’लम-ए-तहय्युर में होता है। गले पर छुरियाँ फिरतीं हैं,सर पर आरे चलते हैं लेकिन आ’शिक़ को ख़बर नहीं होती। वो हर बात में लुत्फ़ लेता है और कहता है
” हर चेः अज़ दोस्त मी-रसद नेकोस्त’’
फ़रमाते हैं अगर दरवेश तवंगरी चाहता है तो ज़ुह्द-ओ-ताअ’त बहुत करे।अगर फ़क़्र चाहता है तो ना-मुरादी इख़्तियार करे और अगर क़ुर्ब चाहता है तो उम्मीदी पैदा करे।
फ़रमाते हैं अह्ल-ए-सुलूक का क़ौल है कि तरीक़त का रास्ता बहुत पुर-ख़ौफ़ है। इस में क़दम रखकर बड़ी एहतियात से काम लेना चाहिए।
साभार – निज़ाम उल मशायख़ पत्रिका
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