मंसूर हल्लाज
हज़रत हुसैन बिन मंसूर हल्लाज की शहादत का क़िस्सा लिखने से पहले ये बता देना ज़रूरी है कि आपका फ़साना इस क़दर पेचीदा और पुर-असरार है कि इस मुख़्तसर बयान में समाता मा’लूम नहीं होता।
शोर-ए-मंसूर अज़ कुजा-ओ-दार-ए-मंसूर अज़ कुजा।
ख़ुद ज़दी बांग-ए-अनल-हक़ बर सर-ए-दार आमदी।।
ये कुछ ईरान-ओ-अ’रबिस्तान ही में नहीं बल्कि अक्सर मुल्कों का क़ाइ’दा है कि बेटे के नाम के साथ बाप का नाम भी ज़रूर लिया जाता है लेकिन हाँ इन हज़रत “हुसैन बिन मंसूर में ये एक ख़ास और दिलचस्प बात थी कि उन्होंने अपने नाम को अपने बाप के नाम में फ़ना कर दिया और मंसूर ही मंसूर रह गए। न हुसैन न हुसैन बिन मंसूर सिर्फ़ मंसूर। ये फ़नाइयत की पहली मंज़िल थी जो क़ुदरत ने ख़ुद ब-ख़ुद इस मक़बूल-ए-बारगाह से तय करवाई। वो मंसूर जिनके ये मंसूर एक जुज़्व थे (या’नी हमारे मंसूर के वालिद) एक नौ-मुस्लिम शख़्स थे जो ईरान के एक बैज़ा नामी गाँव में रहते थे। वहीं इसी गाँव में ये हज़रत पैदा हुए लेकिन शायद उनकी पैदाइश के बा’द उनके वालिद का ज़्यादा दिन वहाँ रहना नहीं हुआ। क्योंकि अ’ल्लामा इब्न-ए-ख़ल्क़ान का बयान है कि उन्होंने होश इ’राक़ में सँभाला। उस के बा’द उन की ता’लीम-ओ-तर्बियत शुरूअ’ हुई। इसने उन से इराक़ भी छुड़वाया और ये शहर शुस्तर में आकर सुहैल बिन अ’ब्दुल्लाह (रहमतुल्लाहि-अ’लैह) के शागिर्द हुए। अठारह बरस की उ’म्र तक उनकी ख़िदमत में रहे और उ’लूम-ए-ज़ाहिरी की तह्सील कर करा के इ’राक़, अ’रब की तरफ़ चले गए।वहाँ उस ज़माना में तसव्वुफ़ ने अपना नया-नया रंग दिखाना शुरूअ’ किया था और इस फ़ल्सफ़ा-ए-इलाहिया ने फ़ल्सफ़ा-ए-मशानिया को बिल्कुल बे-हक़ीक़त कर दिया था। बड़े बड़े आ’लिम उसे छोड़ छोड़ कर इस के वालिह-ओ-शैदा बन रहे थे। ये मंसूर भी आए और इसी के गर्वीदा हो गए।
सूफ़ियों की सोह्बत
सूफ़ियों की सोहबत इख़्तियार की।अ’बुल-हुसैन सौरी रहमतुल्लाहि अ’लैह जैसे ख़ुदा-रसीदा और बा-असर बुज़ुर्गों में मिलकर बैठने का चस्का पड़ गया।बसरा गए और उ’म्र बिन उ’स्मान मक्की रहमतुल्लाहि अ’लैह की ख़िदमत में रहने लगे। यहाँ से दूसरा रंग चढ़ना शुरूअ’ हुआ।उ’म्र बिन उ’स्मान रहमतुल्लाहि-अ’लैह एक बड़े ज़बरदस्त-पाया के बुज़ुर्ग थे। उन्होंने इ’ल्म-ए-तसव्वुफ़ में कई मा’रकतुल-आरा किताबें लिखीं थीं लेकिन वो इन किताबों को अपने से जुदा न होने देते थे और न हर कस-ओ-ना-कस को उन्हें दिखाते थे, इन हज़रत के कहीं वो हाथ लग गईं। अव़्वल तो आपने उन्हें पढ़ा और फिर कुछ ऐसी कैफ़िय्यत तारी हुई कि जिन बातों को तमाम सूफ़ी अ’वाम के आगे कहना ख़िलाफ़-ए-मस्लिहत समझते थे ये उन्हें सर-ए-बाज़ार खड़े हो हो कर लोगों को सुनाने लगे। ज़ाहिर में और असरार-ए-बातिनी से बे-ख़बर लोग भला इन बातों को क्या समझ सकते थे और कब उनकी ताब ला सकते थे। वो उन के दुश्मन हो गए और जब उन्हें मा’लूम हुआ कि ये सब हज़रत उ’मर बिन उ’स्मान रहमतुल्लाहि-अ’लैह का नतीजा है तो उन्हें उनसे भी नफ़रत हो गई। चारों तरफ़ से उनकी मुख़ालफ़त होने लगी।
हज़रत उ’मर बिन उ’स्मान रहमतुल्लाहि-अ’लैह को मंसूर की ये हरकत सख़्त ना-गवार गुज़री और वो उन से ऐसे कबीदा-ख़ातिर और बे-ज़ार हुए कि उन्हें अपने से अलग कर दिया और ये उनके फ़ैज़-ए-सोह्बत से महरूम हो गए। यहाँ तक कि बसरा छोड़कर फिर बग़्दाद पहुंचे और दुबारा हज़रत जुनैद की सोह्बत में शरीक हो गए। यहाँ आकर भी वही बातें शुरूअ’ कीं।
एक दिन हज़रत जुनैद रहमतुल्लाहि-अ’लैह से कुछ सवाल पूछे। आपने उन के जवाब में फ़रमाया कि वो दिन बहुत क़रीब है कि एक लकड़ी का सिरा तेरे ख़ून से लाल होगा। मंसूर को भी इस पर जोश आ गया। हज़रत जुनैद से कहा हाँ ! बे-शक मेरे ख़ून से तो लकड़ी रंगीन होगी लेकिन आपको भी उस से पहले लिबास तब्दील करना पड़ेगा। चुनांचे ऐसा ही हुआ। दोनों के क़ौल पूरे हुए जिसकी कैफ़िय्यत आगे आएगी।
मुख़्तसर ये कि इस सवाल-ओ-जवाब के बा’द आपने बग़्दाद को भी ख़ैर-बाद कहा और शुस्तर जा पहुंचे।वहाँ तबीअ’त में कुछ ऐसा इन्क़िलाब पैदा हुआ कि वो तमाम बातें जाती रहीं और महज़ आ’लिमाना शान ने ज़िंदगी बसर करनी शुरूअ’ की।लोगों पर बड़ा असर जम गया। सब वक़्अ’त और इ’ज़्ज़त करने लगे लेकिलन इस हालत में थोड़े ही दिन गुज़रे थे कि फिर सब छोड़ छाड़ कर सय्याही करने लगे। दूर-दूर गए और सफ़र में भी तहरीर-ओ-तक़रीर,पंद-ओ-नसाइह से ख़लक़ुल्लाह को फ़ाइदा ही पहुंचाते रहे।जहाँ गए लोगों को नेक राह बताई।आख़िर ख़ुरासान मा-वराउन्नहर,सीस्तान, फ़ारस,किरमान,बसरा वग़ैरा देखते दिखाते मक्का मुअ’ज़्ज़मा पहुंचे। इस सफ़र में उन के साथ चार-सौ मशाइख़ थे। दीगर मो’तक़िदीन की क्या गिनती हो सकती है। लेकिन जब आप हज से फ़ारिग़ हुए तो उन सबको रुख़्सत कर दिया और ख़ुद वहीं ठहर गए और सख़्त सख़्त
रियाज़तें करनी शुरूअ’ कीं।
हज़रत मंसूर हमेशा से बड़े आ’बिद,ज़ाहिद शख़्स थे। एक मा’मूल उनका ये था कि दिन-रात में चार-सौ रक्अतें नमाज़ पढ़ते थे लेकिन यहाँ रह कर जैसी-जैसी सख़्तियाँ उन्होंने झेलीं और मेहनतें गवारा कीं उनको सुन सुन कर रोंगटे खड़े होते हैं। पूरे एक साल तक नंगे का’बा के सामने खड़े रहे।कपकपाते हुए जाड़े और अ’रब की पिघला देने वाली धूप सर पर लीं। यहाँ तक कि खाल चटख़ने लगी और चर्बी पिघल पिघल कर बहने लगी। 24 घंटे के अ’र्सा में एक रोटी खाने को उन्हें ग़ैब से मिल जाती थी। उससे वो अपना दिन रात का रोज़ा इफ़्तार करते थे। जब साल तमाम हुआ तो दूसरा हज किया और फिर सैर-ओ-सियाहत को चल दिए। अब की बार हिन्दुस्तान और चीन तक आए और चीन में बहुत कुछ तब्लीग़-ए-इस्लाम करते रहे। चीन से फिर बग़्दाद, बसरा होते हुए मक्के पहुंचे और पूरे दो साल क़ियाम किया।बस अब के वो रंग पुख़्ता हो गया जिसमें वो अ’र्सा से ग़ोते लगा रहे थे। एक इस्तिग़राक़ और महवियत की कैफ़िय्य्त तारी हो गई । मस्त-ओ-अज़-ख़ुद-रफ़्ता रहने लगे।
अ’वाम तो अ’वाम उनकी बातें ख़्वास की समझ में भी न आती थीं। सब नफ़रत करने लगे। जिधर जाते उधर से दूर हो दूर हो की आवाज़ें आतीं। लिखा है कि इस हाल में पच्चास शहरों में गए और किसी शहर में रहना न मिला। सब जगह से निकाले गए।आख़िर फिर बग़्दाद आए और वहीं मक़ाम कर लिया।
हज़रत शिब्ली रहमतुल्लाहि-अ’लैह से जाकर मिले और कहा कि एक बड़ी मुहिम दर-पेश है।मेरी नज़र से कुल मौजूदात ग़ाइब है। ख़ुद मैं एक अथाह समुंद्र में भटकता फिर रहा हूँ। हक़ यगानगी का इज़हार करता है और मंसूर का कहीं पता नहीं चलता|
हज़रत शिब्ली रहमतुल्लाहि-अ’लैह ने समझाया और नसीहत की कि दोस्त के राज़ को छुपाना चाहिए।आप पर इस बात का बहुत असर हुआ और बड़ी कोशिश से असरार को छुपाने लगे लेकिन ये कहाँ मुम्किन था। बहुत ज़ब्त किया मगर उसका नतीजा ये हुआ कि एक दम अनल-हक़्क़ का ना’रा शुरूअ’ हो गया जिसने अ’वाम और ख़्वास सबको हैरत में डाल दिया। उ’लमा ने समझाना शुरूअ’ किया कि ये कुफ़्र के कलिमे हैं।सुफ़िया ने भी उनकी हम-नवाई की लेकिन वो जोश-ए-वहदत में अपने आपसे निकल चुके थे। सिवा-ए-हक़ के उन्हें कुछ सुझाई ही न देता था।ये बातें मुतलक़ कारगर न हुईं। रोज़ ब-रोज़ कैफ़िय्य्त बढ़ती गई। एक दिन ये क़ित्आ’ कहा जिसका तर्जुमा है कि मैं वही हूँ जिसे मैं चाहता हूँ और जिस को मैं चाहता हूँ वो मैं ही हूँ। हम दोनों दो रूहें हैं जिन्हों ने एक क़ालिब में हुलूल किया है इसीलिए जब वो मुझे देखता है मैं उसे देखता हूँ और जब मैं उसे देखता हूँ तो वो मुझे देखता है।
अब लोग और बरहम हुए और उ’लमा-ए-ज़ाहिर से जा-जा कर शिकायत करने लगे कि उन्हें क्यों सज़ा नहीं दी जाती । उ’लमा ने सूफ़िया से सलाह-ओ-मश्वरे करने शुरूअ’ किए और आख़िर फ़त्वा-ए-कुफ़्र मंसूर पर लग गया।सूफ़िया सब रम्ज़ों को समझते थे और हाल-ए-मंसूर से ख़ूब वाक़िफ़ थे लेकिन शरीअ’त को भी न छोड़ सकते थे। वो ख़ामोश रहे। उन्होंने न इधर की कही न उधर की। लोगों ने उनकी ख़ामोशी को नीम-रज़ा पर मह्मूल कर के मंसूर को पक्का काफ़िर समझ लिया लेकिन मंसूर काफ़िर बनने से क्या डरते थे। उनका क़ौल था ”ऐ मुतहय्यरों के रहनुमा अगर मैं काफ़िर हूँ तो मेरे कुफ़्र को बढ़ा । उन्होंने इन फ़त्वों की कुछ पर्वा न की और पर्वा क्या करते उन्हें ख़बर ही न थी कि क्या हो रहा है। इसी तरह हक़ हक़ हक़ अनल-हक़ कहते रहे।यहाँ तक कि कुफ़्र के फ़त्वे से क़ैद और क़ैद से फ़त्वा-ए-क़त्ल की नौबत आ गई।
ज़ाहिद-ए-गुमराह के मैं किस तरह हम-राह हूँ।
वो कहे अल्लाह हू और मैं कहूं अल्लाह हूँ।।
मुख़ालिफ़ीन ने कोशिश करनी शुरूअ’ की कि किसी तरह मंसूर दार पर खिंच जाएं। अ’ल्लामा अबुल-अ’ब्बास जो एक बड़े ज़बरदस्त फ़ाज़िल गुज़रे हैं उस ज़माने में मुफ़्ती थे। उनसे जाकर पूछा कि आप मंसूर के बारे में क्या फ़रमाते हैं? उन्होंने कुछ जवाब न दिया और बिल्कुल ख़ामोश रहे। इस्रार किया गया तो ये कहा कि उस शख़्स का हाल मुझसे पोशीदा है। मैं उसकी निस्बत कुछ राय नहीं लगा सकता।जब यहाँ से मायूसी हुई तो ख़लीफ़ा मुक़्तदिर बिल्लाह के वज़ीर हामिद बिन अ’ब्बास से बराह-ए-रास्त जाकर कहा और मज़हब के साथ पोलिटिकल (मुल्की) रंग भी दे दिया।कहा कि ये शख़्स अपने तईं ज़मीन का मालिक बताता है और बहुत से लोग उसके साथ हो गए हैं जिससे सल्तनत को सख़्त नुक़्सान पहुंचने का अंदेशा है। इस दा’वे के सुबुत में कुछ झूटे सच्चे गवाह भी पेश कर दिए और वज़ीर को ऐसा भरा कि वो भी मंसूर के दर-पे हो गया और उ’लमा से उनके क़त्ल के फ़त्वे तलब करने लगा।
अव़्वल अव़्वल तो बात कुछ टलती नज़र आई और उ’लमा यका-य़क क़त्ल का फ़त्वा देने पर तैयार न हुए लेकिन मुख़ालफ़त की आग बुरी होती है| जिन्हों ने मंसूर का पीछा पकड़ लिया था वो फ़िक्र में रहे और ढूंढ कर के आख़िर मंसूर की एक ऐसी तस्नीफ़ निकाल लाए जिसमें कुछ बातें ख़िलाफ़-ए-शरीअ’त लिखी थीं |क्योंकि उ’लमा ने कहा था कि जब तक मंसूर की कोई तहरीर ख़िलाफ़-ए-शरीअ’त नहीं दिखाओगे उनके क़त्ल का फ़त्वा नहीं दिया जाएगा। अब हामिद वज़ीर ने उ’लमा को जम्अ’ करे के वो किताब उनके सामने पेश की और मंसूर से बुलवा कर पूछा कि ये इ’बारत ख़िलाफ़त-ए-शरीअ’त तुमने क्यों लिखी है? मंसूर ने जवाब दिया कि ये इ’बारत मेरी अपनी नहीं है| मैंने इसे फ़ुलाँ किताब से नक़्ल किया है। इस पर कहीं क़ाज़ी अबू उ’मर मक्की की ज़बान से निकल गया कि “ओ कुश्तनी मैंने तो वो किताब अव़्वल से आख़िर तक पढ़ी है। मैंने उसमें ये इ’बारत नहीं देखी’’ । बस काफ़ी बहाना मिल गया। वज़ीर ने फ़ौरन कहा कि फ़त्वा-ए-क़त्ल हो गया। क़ाज़ी साहिब ने मंसूर को कुश्तनी कह दिया।अब क़ाज़ी साहिब आप फ़त्वा लिख दीजिए कि मंसूर का ख़ून मबाह है। क़ाज़ी साहिब ने बहुतेरा चाहा कि बात टल जाए मगर वज़ीर मंसूर के ख़ून का प्यासा हो गया था इसलिए उन्हें मजबूर किया और क़ाज़ी साहिब ने उसकी नाराज़गी का ख़्याल करके फ़त्वा लिख दिया जिस पर तमाम हाज़िर उ’लमा ने दस्तख़त कर दिए। वज़ीर ने फ़ौरन मंसूर को क़ैद-ख़ाने भेज दिया और क़त्ल की इजाज़त के लिए ख़लीफ़ा के सामने पेश कर दिया ।
ख़लीफ़ा ने कहा कि शैख़ जुनैद रहमतुल्लाहि-अ’लैह (बग़्दादी) जब तक मंसूर को वाजिबुल-क़त्ल न लिख देंगे मैं कोई हुक्म सादिर नहीं करूँगा। वज़ीर ने हज़रत जुनैद से अ’र्ज़ किया। अव़्वल अव़्वल तो उन्होंने भी इस मुआ’मला में पड़ना मुनासिब न जाना। लेकिन आख़िर-कार उन्होंने भी सूफ़ियाना लिबास उतार कर आ’लिमाना लिबास पहना और लिख दिया कि ज़ाहिर के लिहाज़ से फ़त्वा-ए-क़त्ल दिया जाता है लेकिन बातिन का हाल अल्लाह ही ख़ूब जानता है| लोग कहते हैं कि ये मंसूर की वो पेश-गोई पूरी हुई जो उन्होंने अपनी इस हालत के शुरूअ’ शुरूअ’ में की थी कि मेरे ख़ून से तो लकड़ी लाल होगी मगर तुमको भी उस वक़्त लिबास तब्दील करना पड़ेगा। बा’ज़ के नज़दीक ये वाक़िआ’ का वाक़िआ’ ही ग़लत और बे-बुनियाद है| इसकी दलील वो ये देते हैं कि हज़रत जुनैद रहमतुल्लाहि अ’लैह का इस सूली के वाक़िआ’ से पहले इंतिक़ाल हो चुका था।
बहर-हाल ख़लीफ़ा ने साल भर तक हुक्म-ए-क़त्ल को मा’रिज़-ए-इल्तिवा में डाले रखा और पूरा साल मंसूर को क़ैद-ख़ाने में काटना पड़ा।
वो रिंद थे कि उन्हें हथकड़ी से बैअ’त थी।
मिला था गेसू-ए-जानाँ से सिल्सिला दिल का ।।
असीरी के ज़माना में एक दफ़ा’ इब्न-ए-अ’ता ने उन्हें किसी की ज़बानी कहला भेजा कि भाई अपने कहे की मुआ’फ़ी मांग लो रिहा हो जाओगे। आपने जवाब दिया कि मुआ’फ़ी मांगने वाला ही मौजूद नहीं है जो मुआ’फ़ी मांगे।
क़ैद-ख़ाने में उनसे बहुत सी करामातें ज़ाहिर हुईं जिनमें सबसे आख़िरी करामत ये थी कि एक दफ़ा’ आपने क़ैद-ख़ाना में जितने क़ैदी थे सब को आज़ाद कर दिया। क़ैद-ख़ाने की दीवार की तरफ़ उंगली से इशारा किया वो शक़ हो गई और सब क़ैदी बाहर चले गए। एक क़ैदी ने अ’र्ज़ किया कि आप अन्दर क्यों रुके खड़े हैं। आप भी निकल आईए। फ़रमाया तुम ख़लीफ़ा के क़ैदी हो और हम अल्लाह के क़ैदी हैं।तुम आज़ाद हो सकते हो मैं नहीं हो सकता। बयान किया जाता है कि इस वाक़िआ’ की इत्तिलाअ’-याबी पर ख़लिफ़ा ने आपकी सूली का हुक्म दे दिया।
ग़र्ज़ ये कि कोई बात हो। मुख़्तसर ये है कि पूरे एक बरस तक क़ैद-रखने के बाद ब-तारीख़ 24 ज़ीक़ा’दा सन 309 हिज्री मंसूर को क़त्ल-गाह में लाया गया और मुख़ालिफ़ीन की तमन्नाएं पूरी हुईं। लिखा है कि जिस दिन उनको सूली दी गई बग़्दाद में अतराफ़-ओ-जवानिब से इतनी ख़िल्क़त जम्अ’ हो गई थी कि क़ियास से उस का अंदाज़ा नहीं हो सकता। वज़ीर ने जल्लाद को हुक्म दिया था कि पहले आपको एक हज़ार कोड़े मारे। अगर उससे दम निकल जाए तो ख़ैर वर्ना और हज़ार कोड़े लगाए और अगर उस पर भी दम न निकले तो फिर सूली दे दे।
चुनांचे ऐसा ही किया गया। आ’शिक़-ए-ख़ुदा ने पूरे दो हज़ार कोड़े खाए और उफ़ तक न की और आख़िर-कार गर्दन कटवा कर जान दे दी।
ज़ाहिद ब-ख़याल-ए-ख़्वेश मस्तम दानद।
काफ़िर ब-गुमां ख़ुदा परस्तम दानद।।
मुर्दम ज़े-ग़लत-फ़ह्मे मुर्दम-मुर्दम।
ऐ काश कसे हर आँ चे हस्तम दानद।।
क़त्ल के हालात ये हैं कि जब उन्हें मक़्तल की तरफ़ ले चले तो निहायत वज़्नी वज़्नी हथकड़ियाँ उन्हें पहना दीं लेकिन उन पर उन हथकड़ियों का कुछ बोझ न मा’लूम होता था बिल्कुल आराम के साथ चल रहे थे। जब क़त्ल-गाह में पहुंचे तो ख़िल्क़त पर नज़र डाली और ना’रा लगाया।हक़ हक़ हक़ अनल-हक़।उस वक़्त एक फ़क़ीर आगे बढ़ा और उसने आपसे सवाल किया कि इ’श्क़ किसे कहते हैं।जवाब दिया आज-कल और परसों में देख लोगे।या’नी आज आ’शिक़ को सूली दी जाएगी,कल उसे जलाया जाएगा,परसों उस की ख़ाक उड़ाई जाएगी। चुनांचे ऐसा ही हुआ।जब मंसूर को सूली पर चढ़ाया गया तो उन्होंने अपने एक मुरीद को ये नसीहत की कि”अपने नफ़्स को इ’बादत और रियाज़त के बोझ में दबाए रखना कि बुरे कामों की तरफ़ तेरा मैलान न हो।बेटे से फ़रमाया कि हक़ की याद के ब-ग़ैर एक सांस लेना दा’वेदार-ए-इ’बादत पर हराम है।
क़त्ल के बाद
बयान किया गया है कि जब उन के जिस्म से ख़ून के क़तरे टपकते थे तो ज़मीन पर हर हर क़तरे से अनल-हक़ का नक़्श बन जाता था।जब उनकी ख़ाक दरिया में डाली गई तो पानी पर भी वही कैफ़िय्य्त हुई। जलाने से पहले उनके एक एक रोंगटे से अनल-हक़ की सदा आती थी।जब ख़ाक हो गए तो उसमें से भी वही आवाज़ आती रही।दरिया में जब उनकी ख़ाक को डाला गया तो उसमें ऐसा सख़्त तूफ़ान आया कि शहर के डूब जाने का अंदेशा हो गया। बड़ी मुश्किल से वो तुग़्यानी ख़त्म हुई।
मंसूर की निस्बत अ’वाम-ओ-ख़्वास के ख़्यालात निहायत अ’जीब और दिलचस्प हैं।इनसे ज़ाहिर होता है कि ख़्वाह कोई कैसे से कैसा दुनिया और दुनिया के लोगों से बे-तअ’ल्लुक़ शख़्स को क्यों न दुनिया वाले उसे बुरा-भला कहें बग़ैर नहीं मानते। मंसूर के ज़माना के अ’वाम ने तो ख़ैर उन्हें काफ़िर, मुर्तद,मर्दूद सब कुछ बनाया ही था लेकिन उस वक़्त के बा’ज़ बा’ज़ मशाइख़ और उ’लमा-ए-तसव्वुफ़ भी उनके कमालात के मुंकिर थे।ता-हम बड़े बड़े कामिलीन और सूफ़िया-ए-उ’ज़्ज़ाम ने उनकी ता’रीफ़ें की हैं और उन्हें एक निहायत मुक़द्दस बुज़ुर्ग माना है।
हज़रत शैख़ शिब्ली रहमतुल्लाहि अ’लैह फ़रमाते हैं कि मैंने एक दफ़ा’ मंसूर रहमतुल्लाहि अ’लैह को ख़्वाब में देखा और उनसे पूछा कि कहो अल्लाह पाक से आपकी क्या गुज़री।जवाब दिया कि मुझे मक़ाम-ए-सिद्क़ में उतारा और मेरी बड़ी इ’ज़्ज़त-ओ-तौक़ीर फ़रमाई। मैंने दर्याफ़्त किया कि तुम्हारे मुवाफ़िक़-ओ-मुख़ालिफ़ गुरोहों की निस्बत क्या रहा।कहा दोनों गुरोहों पर रहमत नाज़िल की क्योंकि दोनों मा’ज़ूर थे। जिस गुरोह ने मुझे पहचान लिया था वो मेरी मुवाफ़क़त पर मजबूर था और जिसने मुझे पहचाना नहीं था उस को शरीअ’त के मुवाफ़िक़ अ’मल-दरामद करना लाज़िमी था।
एक और बुज़ुर्ग ने ख़्वाब में देखा कि हश्र बरपा है और मंसूर सर ब-ग़ैर एक हाथ में जाम लिए खड़े हैं। बुज़ुर्ग ने पूछा क्या हाल है। कहा सर-कटों को शराब-ए-वहदत का जाम पिला रहा हूँ।
शैख़ अबू सई’द रहमतुल्लाहि अ’लैह का क़ौल है कि मंसूर बड़े आ’ली-मर्तबा बुज़ुर्ग थे।वो अपने ज़माने में फ़र्द थे।
ख़्वाजा फ़रीदुद्दीन अ’त्तार रहमतुल्लाहि अ’लैह फ़रमाते हैं कि मंसूर बड़े पारसा और मुत्तक़ी शख़्स थे।उनका सारा वक़्त इ’बादत-ओ-रियाज़त में ही गुज़रता था। पैरवी-ए-सुन्नत और अदा-ए-फ़राइज़ में हर्गिज़ ग़फ़्लत न करते थे।वादी-ए-मा’रिफ़त के पूरे सालिक थे।जज़्बे और अज़ ख़ुद-रफ़्तगी की हालत में उनसे एक बात ख़िलाफ़-ए-तरीक़ा-ए-सूफ़िया निकल गई। इस से उन पर कुफ़्र कभी आ’इद नहीं हो सकता। जिसके दिमाग़ में थोड़ी सी भी बू-ए-तौहीद पहुंच चुकी है उसे उनके हुलूली होने का ख़्याल आ नहीं सकता।जो उन्हें बुरा कहता है वो असरार-ए-तौहीद से बिल्कुल बे-ख़बर है”।
हज़रत अमीर ख़ुसरौ रहमतुल्लाहि अ’लैह लिखते हैं कि एक दिन हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़ महबूब-ए-इलाही के सामने ख़्वाजा मंसूर का ज़िक्र आया।आप बहुत देर तक उनकी बुजु़र्गी की ता’रीफ़ करते रहे और फ़रमाने लगे कि जब मंसूर सूली के पास पहुंचे तो शैख़ शिब्ली रहमतुल्लाहि अ’लैह ने उनसे पूछा कि इ’शक़ में सब्र क्या है।मंसूर ने जवाब दिया कि महबूब की ख़ातिर हाथ और पाँव कटवा देवे और सूली पर चढ़ जाए और दम न मारे।ये कह कर हज़रत महबूब-ए-इलाही चश्म-ए-पुर-आब हो गए और फ़रमाया कि बड़े सादिक़ आ’शिक़ थे।
अस्ल ये है कि मंसूर जो थोड़े बहुत बद-नाम हो गए वो कुछ तो मुख़ालफ़त की वजह से हुए और कुछ उनके अपने मो’तक़िदों और मुरीदों ने भी उनपर धब्बे लगवाए।उन मुरीदों ने उन के क़त्ल के बा’द बनावटी ख़्यालात ज़ाहिर करने शुरूअ’ किए और मुबालग़ा करने में ज़मीन-ओ-आसमान के क़लाबे मिला दिए। उस के बा’द उन के मो’तक़िदों में एक गिरोह पैदा हो गया जो ज़िंदीक़ के नाम से मौसूम किया जाता है।ये गुरोह वो अक्सर बातें खिलाफ़-ए-इस्लाम करता था। हुलूल और इत्तिहाद के मुतअ’ल्लिक़ उसके बड़े ग़लत ख़्यालात थे। हज़रत मंसूर की ख़्वाह-म-ख़्वाह तक़लीद करता था और मरने और जल जाने को फ़ख़्र समझता था।लोग इन बातों का भी उनको ही इल्ज़ाम देते थे और कहते थे कि ये उन लोगों में सब मंसूर ही की ता’लीम-ओ-तलक़ीन का असर है।
अब इस मज़्मून को मंसूर के चंद अक़्वाल पर ख़त्म किया जाता है। मंसूर एक बड़े फ़ाज़िल शख़्स थे। शरीअ’त,तरीक़त असरार-ओ-मआ’रिफ़ इन मज़ामीन में उन्होंने बड़ी बड़ी दक़ीक़ किताबें लिखी हैं। शाइ’र भी आ’ला पाया के थे। निहायत फ़सीह,निहायत बलीग़,लियाक़त-ओ-फ़िरासत उनके अक़्वाल से ज़ाहिर होती है। फ़रमाते हैं
तर्क-ए-दुनिया नफ़्स का ज़ोह्द है और तर्क-ए-आख़िरत दिल का ज़ोह्द।
ख़ुदा और बंदे के दर्मियान सिर्फ़ दो क़दम का फ़ासिला है।एक क़दम दुनिया से उठा लो और दूसरा उ’क़्बा से अपने मौला को पा लोगे|
सूफ़ी की ता’रीफ़ करते हैं कि वो वाहिद फ़िज़-ज़ात होता है न वो किसी को जानता है और न कोई और उसे पहचानता है।
फ़रमाते हैं अह्ल-ए-बसीरत एक ही नज़र में मक़सूद को पा लेते हैं।
“अंबिया अ’लैहिमुस्सलाम तो हाल पर ग़ालिब होते थे इस वास्ते हाल उनकी हालत को बदल नहीं सकता था मगर अंबिया के सिवा सब पर हाल का ग़लबा होता है ।”
साभार – निज़ाम उल मशायख़ 1910 ई.
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