अमीर ख़ुसरो बुज़ुर्ग और दरवेश की हैसियत से-मौलाना अ’ब्दुल माजिद दरियाबादी

ख़ालिक़-बारी का नाम भी आज के लड़कों ने न सुना होगा। कल के बूढ़ों के दिल से कोई पूछे किताब की किताब अज़-बर थी।ज़्यादा नहीं पुश्त दो पुश्त उधर की बात है कि किताब थी मकतबों में चली हुई, घरों में फैली हुई, ज़बानों पर चढ़ी हुई| गोया अपने ज़माना-ए-तस्नीफ़ से सदियों तक मक़्बूल-ओ-ज़िंदा, मश्हूर-ओ-ताबिंदा।

दस्त-ए-क़ुदरत ने जिसकी ज़बान में ये मोहिनी रख दी थी ,जिसके कलाम में हुस्न-ए-क़ुबूल की दौलत दे दी थी उसी का नाम था अमीर ख़ुसरो। अमीरों में अमीर,फ़क़ीरों में फ़क़ीर, आ’रिफ़ों के सरदार, शाइ’रों का ताज-दार, शे’र-ओ-अदब के दीवान उसकी अ’ज़मत के गवाह| ख़ानक़ाहें और सज्जादे उसके मर्तबा से आगाह।सर-ए-मुशा’इरा आ जाए तो मीर-ए-मह्फ़िल उसे पाए। ख़ानदान-ए-चिश्त अह्ल-ए-बहिश्त के कूचा में आ निकले तो हल्क़ा-ए-ज़िक्र-ओ-फ़िक्र में सर-ए-मस्नद जल्वा उसका देखे।अच्छे अच्छे शैख़ दम उस का भर रहे हैं। मा’रिफ़त-ओ-तरीक़त के ख़िर्क़ा-पोश कलिमा उसके नाम का पढ़ रहे हैं।

वालिदैन ने नाम अबुल-हसन रखा।शोहरत-ए-आ’म के नक़ीबों ने अमीर-ख़ुसरो कह कर पुकारा।साल-ए-विलादत हिज्री का छः सौ इक्यावन (651)और ई’स्वी का बारह सौ तिरपन। तुर्किस्तान के इ’लाक़ा-ए-बल्ख़ में कोई बस्ती हज़ारे कहलाती है ये गौहर उसी कान से निकला। तुर्कों का एक क़बीला लाचीन के नाम से मौसूम था।ये जौहर उसी ख़ानदान से चमका।वालिद-ए-बुजु़र्ग-वार का नाम था अमीर शम्सुद्दीन महमूद शम्सी।चंगेज़-ख़ाँ के ज़माना में तर्क-ए-वतन कर हिन्दुस्तान पहुंचे।यहाँ एक मक़ाम पटियाली उ’र्फ़ मोमिनाबाद था वहाँ आ बसे। पुराने तज़्किरा-नवीसों ने धुँदली सी निशानदिही की है कि शहर कहीं नवाह-ए-संभल या मुज़ाफ़ात-ए-दिल्ली में था। नए जुगराफ़िया ने नक़्शा पर उंगली रखकर दिखा दिया कि ज़िला ईटा में एक क़स्बा है|शादी यहीं हुई बस्ती के नामवर दरवेश-मनिश रईस और ज़िला के मंसब-दार नवाब इ’मादुल-मुल्क की साहिब-ज़ादी के साथ।यहीं अमीर की पैदाइश भी हुई।

तारीख़ ख़ुश ए’तिक़ादी की ज़बान से रिवायत ये बयान करती है कि पड़ोस में कोई मज्ज़ूब रहते थे।साहिब-ए-कश्फ़ लोग ख़िर्क़ा में लिपट कर बच्चा को उन की ख़िदमत में लाए। देखते ही बोले ये किसको लेकर आए| ये तो ख़ाक़ानी से भी दो क़दम आगे बढ़कर रहेगा। मज्ज़ूब साहिब की निगाह-ए- कशफ़ी शाइ’री की हद तक रही।बच्चा ने फ़क़्र-ओ-दरवेशी में वो मक़ाम हासिल किया कि शाइ’री मुँह देखती रह गई।

तअ’ल्लुक़ उ’म्र-भर कहना चाहिए कि सरकार-ओ-दरबार से रहा। कभी बराह-ए-रास्त शाही दरबार से कभी उमरा-ए-नाम-दार से।और सरकारें भी एक दो नहीं, खिल्जी और तुग़लक़ मिला कर सात सात बादशाहों की देख डालीं।फिर शख़्सी सल्तनतों की नैरंगियाँ,इन्क़िलाबात के तूफ़ान-ए-क़ियामत-ख़ेज़।देस में भी रहे  परदेस भी गए। बंगाल भी घूमे अवध की भी सैर की लेकिन दिल जहाँ अटका था वहीं अटका रहा। नज़र जिस रुख़ पर एक-बार पड़ी थी उसी पर जमी रही।अभी आठ ही बरस के थे कि अ’कीदत-मंद बाप ने लाकर सुल्तानुल-औलिया  ख़्वाजा निज़ामुद्दीन के क़दमों पर डाल दिया।सिन्न-ए-रुश्द को पहुंचे तो बै’अत की तजदीद की।बै’अत रस्मी न थी एक निस्बत-ए-इ’श्क़ी थी कि दोनों तरफ़ से क़ाइम हो गई थी। ख़्वाजा का मर्तबा दयार-ए-मोहब्बत-ओ-मा’रिफ़त में इसी से ज़ाहिर है कि औलिया-ए-किराम ने मक़्बूलीन-ए-अनाम ने बक़ा-ए-दवाम के दरबार में महबूब-ए-इलाही कह कर पुकारा। अमीर को दौलत मिली मोहब्बत की थी। सारा साज़-ओ-सामान खड़े खड़े लुटा दिया। जो नक़्द-ए-दिल निसार कर चुका हो उसे ज़र-ओ-माल लुटा देते देर ही किया लग सकती है।

कहते हैं कि आज से पहले, बहुत पहले, कोई छः सात सौ बरस पहले  बाहर से आए हुए एक अमीर कबीर मुसाफ़िर, एक सरा में आकर उतरे। कनीज़, ख़ुद्दाम, ज़र,जवाहर, बेश-क़ीमत माल-ओ-अस्बाब सब कुछ साथ| इत्तिफ़ाक़ से उसी ज़माना में एक दूसरा मुसाफ़िर, मुफ़्लिस-ओ-मफ़्लूकुल-हाल, दिल्ली से वापस होते हुए उसी सरा में ठहरा।रईस को बू-ए-उन्स महसूस हुई। बढ़कर पूछा किधर से आए हो? जवाब मिला दिल्ली से।पूछने वाले का इश्तियाक़ दिल्ली का नाम सुन कर तेज़ हुआ।पूछा उस शहर में एक दरवेश ख़्वाजा निज़ामुद्दीन हैं वहाँ भी हाज़िरी का इत्तिफ़ाक़ हुआ था।मुफ़्लिस बोला इत्तिफ़ाक़ कैसा।उन्हीं के पास तो गया था। हाजत-मंद हूँ चाहता था कि कुछ मिल जाए। मेरी क़िस्मत कि वहाँ कुछ मौजूद ही न था। पीर की पहनी हुई जूतियाँ पड़ी थीं वही मेरे हवाले कर दीं। उन्हीं को लिए चला आ रहा हूँ”। सुनने वाला अब शौक़-ओ-इश्तियाक़ से बे-ख़ुद था। बोला ख़ुदा के लिए वो जो तूतियाँ मेरे हवाले कर दो और ये मेरा साज़-ओ-सामान सब तुम्हारी नज़्र है।साएल दंग-ओ-हैरान कि जूतियों के इ’वज़ ये लाखों की दौलत? रईस साहिब कहीं मुझ बे-नवा से दिल-लगी तो नहीं कर रहे हैं। उधर रईस साहिब अपने होश में थे कब और हंसी दिल-लगी की सकत ही उनमें कहाँ थी? रावी कहते हैं कि ये सौदा चार पाँच लाख में पड़ा और रईस साहिब ने वो पैर की उतरी जूतियाँ आँखों लाग कर, सर पर रख, पगड़ी के अंदर लपेट लीं। जूतियाँ जिस महबूब की थीं  वो तो वही हैं जिन्हें ज़बान-ए-ख़ल्क़ महबूब-ए-इलाही के नाम से पुकारती है और अमीर वही अमीर ख़ुसरो रहमतुल्लाहि अ’लैह थे जिनका ये फ़ारसी शे’र उस वक़्त तक से अब तक ख़ुदा मा’लूम कितने दिलों को  हाल-ओ-क़ाल की मह्फ़िलों को गरमा चुका है।

मता-ए’-वस्ल-ए-जानाँ बस गिराँ अस्त।
गर ईं सौदा ब-जाँ बूदे चे बूदे।।

ये रक़म तो ख़ैर लाखों की थी। कहने वाला तो ये कह रहा है कि महबूब तक रसाई अगर नक़्द-ए-जाँ के मुआ’वज़ा में हो जाए तो भी ये सौदा निहायत अर्ज़ां है।

आगे चलिए दुनियाई उ’म्र चंद साल और खिसकी। खिल्जी-ओ-तुग़्लक़ की बहार रुख़्सत हुई।दिल्ली के तख़्त पर अब आल-ए-तैमूर का इक़्बाल चमक रहा है। सुख़न-संज-ओ-सुख़्न-गुस्तर बादशाह के हुज़ूर में महफ़िल-ए-समाअ’ गर्म है|जब मुतरिब इस शे’र पर पहुंचा:

तू शबाना मी-नुमाई ब-मेह्र कि बूदी इम-शब
कि हनूज़ चश्म-ए-मस्तत असर-ए-ख़ुमार दारद

बादशाह का ज़िहन क़ुदरतन शे’र के ज़ाहिरी मफ़्हूम की तरफ़ गया और क़रीब था कि शाइ’र की बे-हयाई का ख़म्याज़ा क़व्वाल ग़रीब को इ’ताब-ए-सुल्तानी की शक्ल में उठाना पड़े कि एक मिज़ाज-दान-ओ-अदब-शनास नदीम ने झट हाथ बांध अ’र्ज़ की कि “पीर-ओ-मर्शिद ग़ज़ल ख़ुसरो की है। तस्वीर खींच रहे हैं अपने तहज्जुद-गुज़ार, शब-बेदार महबूब, महबूब-ए-इलाही की|सारी रात किन किन अज़्कार, किन किन अश्ग़ाल में गुज़ारी, कौन कौन से अहवाल-ओ-मक़ामात तय किए कि जागने का असर इस वक़्त तक दिन में बाक़ी है| मअ’न इ’ताब लुत्फ़ में और ना-गवारी वाह में तब्दील हो कर रही।

वक़्त की महदूद गुंजाइश के मा-तहत सिर्फ़ एक शे’र नमूना के तौर पर पेश कर दिया गया, वर्ना ग़ज़लों की ग़ज़लें नहीं दीवान के दीवान लबरेज़ हैं। उन्हीं मवाजीद-ओ-अह्वाल की तल्मीह से, रुमूज़-ओ-असरार–ए-आ’रफीन की तौज़ीह से, हिन्दी के दोहे और ठुमिरियाँ, एक दो की ता’दाद में नहीं पचासों और सैकड़ों सब में यही नक़्शा जमा हुआ,यही रंग भरा हुआ। हद ये है कि मुर्शिद ख़ुद फ़रमाया करते थे कि ख़ुदा क़ियामत में पूछेगा क्या लाए हो? जवाब में अ’र्ज़ करूँगा कि ख़ुसरो रहमतुल्लाहि अलै’ह को।गिर्या-ओ-मुनाजात में होते तो अ’र्ज़ करते कि इलाही मेरी मग़्फ़िरत उसी तुर्क के सोज़-ए-दिल के तुफ़ैल कर दे। बड़ों का और मुर्शिद का वसीला पकड़ते हुए सबने देखा, छोटों के और मुरीदों के वसीला बनने की मिसाल हज़रत अमीर ख़ुसरो रहमतुल्लाहि अलै’ह के नसीब में आई।

सोज़-ए-दिल और ज़ौक़-ए-इ’बादत का आ’लम ये था कि पिछली रात नमाज़ पढ़ने खड़े होते तो सात सात पारे क़ुरआन-ए-मजीद के पढ़ जाते।जब तक दिल ऐसा ही दर्द-ओ-ख़शिय्यत से चू-चूर न हो इतना बड़ा मुजाहदा किसके बस की बात है? अवध में एक बड़े रईस के दरबार में थे। माँ ने दिल्ली में याद किया।मा’क़ूल मुशाहरा पर लात मार माँ के पास पहुंचे।माँ की वफ़ात पर पुर-दर्द मर्सिया लिखा।ब-क़ौल मौलाना शिब्ली अड़तालीस साल की उ’म्र में माँ की याद में इस तरह आँसू बहाते हैं कि गोया कोई कम-सिन बच्चा बिलक-बिलक कर रो रहा है।ये सब परतव है उसी सोज़-ओ-गुदाज़ का जिसका वास्ता दिला-दिला कर ख़ुद मुर्शिद अ’लैहिर्रहमा अपनी नजात के तालिब रहते थे।
सन 725 हिज्री का माह-ए-रबीउ’स्सानी था कि हज़रत महबूब-ए-इलाही जन्नत को सिधारे।अमीर उस वक़्त बंगाल में थे। ख़बर सुनी तो भागा भागा दिल्ली पहुंचे।मज़ार पर हाज़िर हुए तो अह्ल-ए-इरादत की रिवायत के मुताबिक़ हिन्दी का ये शे’र उसी वक़्त पढ़ा।

गोरी सोए सेज पर मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने साँझ भई जो देस।।

मातमी लिबास पहन लिया।सब कुछ लुटा दिया।ख़ाली हाथ हो बैठे ग़म की आग में जलते,हिज्र की भट्टी में तपते, ख़ुद अपने वक़्त का इंतिज़ार करने लगे।इधर महीने की मुद्दत पूरी हुई कि उधर18 शव्वाल सन725 हिज्री (मुताबिक़)1325 ई’स्वी को ख़ुद भी अपने महबूब से जा मिले। हज़रत फ़ातिमा-ज़ुहरा भी मुर्शिद-ए-काएनात का ग़म  में इस से ज़्यादा कब बर्दाश्त कर सकी थीं। तज्वीज़ पेश हुई कि दफ़्न मुर्शिद ही के तुर्बत में किए जाएं।एहतिराम-ए-शरीअ’त ग़ालिब आया।पाएन्ती की जानिब चंद गज़ हट कर क़ब्र बनी।अह्ल-ए-दिल अपना तजुर्बा बयान करते हैं कि आस्ताना-ए-सुल्तानुल-मशाइख़ से पहले अगर उस कुश्त-ए-इ’शक़-ओ-मोहब्बत और मुजस्सम-ए-सोज़-ओ-गुदाज़ के मर्क़द पर फ़ातिहा-ख़्वानी कर ली जाए तो दिल की अँगेठी की चिंगारियाँ और तेज़-ओ-रौशन हो जाती हैं।

साभार – फ़रोग़-ए-उर्दू – अमीर-ख़ुसरौ नंबर

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