बाबा बुल्ले शाह और उनका काव्य

इश्क़ शब्द अरबी के इश्क़िया (عشقیہ)  से निकला है. यह एक प्रकार की वनस्पति है जिसे फ़ारसी में इश्क़ पेचां तथा अरबी में लबलाब कहते हैं. जब यह किसी पेड़ से लिपट जाती है तो वह पूरा वृक्ष सुखा देती है. यही हालत इश्क़ की है. इश्क़ भी जिस तन को लग जाता है वह सूख जाता है. आज हम एक अनोखे सूफ़ी संत की बात करेंगे जिन्होंने इश्क़ को आत्मा का उत्सव बना दिया. यह उत्सव इतना विशाल था कि सम्पूर्ण विश्व इसमें शामिल हो गया. आज वह सूफ़ी हमारे बीच नहीं हैं परन्तु इश्क़ का वह उत्सव निरंतर चल रहा है.इस उत्सव का स्थल है हमारा हृदय जो आज भी उनके कलाम सुनकर धड़क उठता है और महाचेतन की मुरली की धुन पर रक़्स करने लग पड़ता है.

जिस तन लगया इश्क़ कमाल

वो नाचे बे सुर बे ताल

अपने अनुभवों को अपनी रचनाओं में जीवित कर देने वाले उस सूफ़ी का नाम अब्दुल्लाह शाह था जिन्हें दुनिया आज बाबा बुल्ले शाह के नाम से जानती है .

बाबा बुल्ले शाह जी का जन्म लाहौर ज़िले के क़सूर प्रांत में स्थित एक गाँव पाँडोके भट्टीयाँ में सन1680 में हुआ था. यह औरंगज़ेब के शासन काल का इक्कीसवां वर्ष था. बाबा बुल्लेह शाह का दौर जहाँ एक तरफ़ राजनीतिक उथल पुथल का दौर था वहीं यह समय रचनात्मक अभिव्यक्तियों के उत्थान का भी था. इसी काल में मीर तक़ी मीर जैसे शायर भी हुए और अहमद शाह अब्दाली जैसे क्रूर हमलावर भी जिनके विषय में पंजाब का ही एक सूफी शायर लिखता है – खाया पीया लाहे दा – बाकी अहमद शाहे दा अर्थात – जो कुछ खा पी लिया वही तुम्हारा है बाकी सब कुछ अहमद शाह अब्दाली लूट कर ले जाएगा.

जब इस तरह की परिस्थितियां होती हैं तो समाज आध्यात्मिक हो जाता है. चंगेज़ ख़ान के हमलों के समय ईरान में भी यही हुआ था. शैख़ फ़रीदुद्दीन अत्तार और मौलाना रूमी जैसे बड़े शायर उसी समय के हैं.

परिस्थितियां जहाँ अपना काम कर रहीं थी वहीं समाज में भी बड़े परिवर्तन और सुधार हो रहे थे. अब सूफ़ियों के लिए हिन्दुस्तान कोई अनजान जगह नहीं रह गया था और सभी बड़े सूफ़ी यहीं पैदा हुए थे. हिन्दुस्तान की संस्कृति और इसके वेदान्तिक दर्शन का प्रभाव भी सूफ़ी साहित्य पर स्पष्ट परिलक्षित होने लगा था .बाबा बुल्ले शाह के पहले हज़रत शाह हुसैन और हज़रत सुल्तान बाहू ने पंजाबी सूफ़ी साहित्य की मज़बूत ज़मीन तैयार कर रखी थी जिस पर बाबा बुल्ले शाह ने मुहब्बत और रहस्यवाद के सुन्दर फूल खिलाये और अपने बाद  आने वाले सूफ़ियों के लिए चादर ज्यों की त्यों धर दी. बाबा बुल्ले शाह द्वारा स्थापित परंपरा को आने वाले सूफ़ियों यथा हज़रत वारिस शाह, हज़रत ग़ुलाम फ़रीद और हज़रत मियाँ मुहम्मद बख्श ने और भी समृद्ध किया.

पंजाबी सूफ़ी आन्दोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इस आन्दोलन का कोई भी सूफ़ी राज दरबार का आश्रित नहीं रहा. सारे पंजाबी सूफ़ी लोक कवि थे और जन मानस की समस्याओं, उनकी खुशियों और मान्यताओं का उन्हें भली भांति  ज्ञान था. पंजाबी सूफ़ी साहित्य का विकास भी उत्तरोत्तर होता गया और  धीरे धीरे ईश्वर विनती करते करते महबूब बन गया. हज़रत शाह हुसैन का रांझा अपने मल्लाह (मुर्शिद ) से पार लगाने की विनती कर रहा है –

नदीयों पार रांझन दा ठाणा,

कीता कउल ज़रूरी जाणा,

मिन्नतां करां मलाह दे नाल

 वहीं बुल्लेह शाह रांझा रांझा करते आप ही रांझा हो जाते हैं . जब पुकारने वाले और जिसे पुकारा जाय दोनों का भेद मिट जाए तो दुई मिट जाती है सब ईश्वर ही बचता है –

रांझा रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई ।

सद्दो नी मैनूं धीदो रांझा, हीर ना आखो कोई ।

रांझा मैं विच्च मैं रांझे विच्च, होर ख़्याल ना कोई ।

मैं नहीं उह आप है, आपनी आप करे दिलजोई ।

रांझा रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई ।

आगे चलकर हम देखते हैं कि वारिस शाह का राँझा मल्लाह विनती नहीं कर रहा है बल्कि उसका दोस्त बन गया है . यह सम्बन्ध इतना गाढ़ा है कि रांझा मस्जिद में बैठ कर बांसुरी बजा रहा है.

यह पूरा सूफ़ी साहित्य न सिर्फ आध्यात्मिक विकास का एक आईना है बल्कि समाज और समाज में हो रहे परिवर्तन का भी साक्षी है.

हम वापस अपने महबूब सूफ़ी शायर बुल्ले शाह पर लौट आते हैं –

बाबा बुल्ले शाह के पिता हज़रत शाह मुहम्मद दरवेश पहले उच गीलानियाँ  में रहते थे. आजीविका की खोज में वह वहां से परिवार सहित कसूर के दक्षिण पूर्व में चौदह मील दूर बसे पाँडोके भट्टीयाँ में बस गए. बाबा बुल्ले शाह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से ही प्राप्त की. कहते हैं कि एक बार बुल्ले शाह बटाला पहुंचे तो अचानक कहने लगे – मैं अल्ला हाँ ! मैं अल्ला हाँ ! वहां लोग उन्हें विस्मय से देखने लगे. बटाला उस समय फ़ाज़िलिया सिलसिले के सूफ़ियों का केंद्र हुआ करता था. इस सिलसिले के संस्थापक फाज़िलुद्दीन थे .लोग बुल्ले शाह को लेकर उनके पास पहुंचे. उन्होंने बुल्ले शाह को देखते ही फ़रमाया – ठीक ही तो कह रहा है . पंजाबी में अल्ला कच्चे को कहते हैं. यह अभी कच्चा है. तू शाह इनायत के पास जा वही तुम्हारी मंज़िल हैं .

बुल्ले शाह ने वहां से लाहौर की राह ली. हज़रत शाह इनायतुल्लाह क़ादरी जाति के अराई थे और लाहौर के शालीमार बाग़ के मुख्य माली थे. शाह इनायत से बाबा बुल्ले शाह की मुलाक़ात के दो क़िस्से प्रसिद्द हैं –

पहला क़िस्सा यह है कि जब बुल्ले शाह हज़रत के पास पहुंचे तो हज़रत शाह इनायत प्याज की क्यारियां ठीक कर रहे थे. बुल्ले शाह ने उन्हें देखते ही पूछा –

शाह जी रब किवें पावां ( शाह जी ईश्वर को किस प्रकार पाया जाए )

शाह साहब ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया – “बुल्लिहआ रब दा की पौणा। एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा”  (बुल्ला रब को पाने में क्या है – बस इस क्यारी से उखाड़ कर उस क्यारी में लगा देना है ) अर्थात मन को सांसारिक चीज़ों से हटा कर ईश्वर में लगा दो और रब मिल जायेगा !

सूफ़ी हमेशा से यही मानते आए हैं कि ईश्वर आप से दूर हो ही नहीं सकता.आप कितना भी भाग लें सूर्य से आप की दूरी उतनी ही रहती है. बस ज़रुरत है अपनी पीठ घुमाकर सूर्य की तरफ मुंह करने की और सूर्य अपनी पूरी कलाओं के साथ आपके सामने होता है. मुर्शिद का कार्य भी बस यही होता है. आप ने सूर्य की तरफ पीठ की होती है उसे घुमा कर वह आप को सूर्य के सामने कर देता है.

दूसरा क़िस्सा यूँ है कि जब बुल्ले शाह हज़रत शाह इनायत से मिलने पहुंचे तो शालीमार बाग़ आम के पेड़ों से भरा पड़ा था. सब पेड़ों पर आम लदे थे. बुल्ले शाह को भूख भी लगी थी और वह बाग़ के मालिक से बिना पूछे आम भी नहीं तोड़ना चाहते थे. उन्होंने आम के पेड़ की ओर देखा और कहा – अल्लाह ग़नी अर्थात अल्लाह धनवान है. यह कहना था कि एक आम टूटकर उनकी हथेली पर आ गिरा. उन्होंने दोबारा कहा और इस तरह कुछ आम इक्कठे कर के एक पेड़ के नीचे बैठ कर खाने लगे. अभी उन्होंने खाना शुरू ही किया था कि कुछ पहरेदार आये और उन्होंने उन्हें पकड़ लिया. बुल्ले शाह ने उनके सामने ही एक बार अल्लाह ग़नी कहा और एक आम नीचे गिर पड़ा. उसी समय वहां शाह इनायत आये. उन्होंने जब यह देखा तो फ़रमाया अभी मांगने में कमी है. यह कहकर उन्होंने हाथ ऊपर उठाया और कहा  – अल्लाह ग़नी ! और देखते ही देखते आम गिरने शुरू हो गए. सब पेड़ों से इतने आम गिरे कि पूरा बाग़ भर गया.

इस कहानियों में सत्यता का अंश कितना है यह तो नहीं मालूम पर बुल्ले शाह ने हज़रत शाह इनायत को अपना मुर्शिद मान लिया और उनके आध्यात्मिक सफ़र की शुरुआत हुई. बुल्ले शाह स्वयं लिखते हैं –

मेरा मुर्शिद शाह इनायत

ओह लंघाई पार.

बुल्ले शाह सैयद थे और उनके मुर्शिद अराई. इस अदभुत मेल ने सामाजिक ताने-बाने को झकझोर दिया. सदियों से जात-पात और धर्मान्धता ने समाज को जकड़ा हुआ था . समाज ने विरोध किया और यह विरोध समाज के साथ साथ समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार में भी शुरू हो गया. परिवार वालों ने बुल्ले शाह को कोई और ऊँची ज़ात का मुर्शिद तलाश करने की सलाह दी.

एक बार जब मुर्शिद का रंग चढ़ता है फिर सारे रंग फीके पड़ जाते हैं . बुल्ले शाह अपने पीर के रंग में रंग चुके थे. सामाजिक रंग कच्चे थे उनका मुर्शिद पक्का था.

बुल्ले नूं समझावण आइयां

भैणा ते भरजाइयां

मन्न लै बुल्लिआ साडा कहणा

छड दे पल्ला, राइयां।

आल नबी औलाद अ’ली नूं

तूं क्यों लीकां लाइयां?

बुल्ले शाह उनका जवाब भी अपने ही अंदाज़ में देते हैं.

जेहड़ा सानूं सैयद आखे

दोजख मिलण सजाइयां ।

जो कोई सानूं, राईं आखे

भिश्ती पींघां पाइयां।

अर्थात – जो हमे सैयद कहेगा उसे दोजख की सजा मिलेगी और जो हमे अराई कहेगा वह बिहिश्त (स्वर्ग) में झूला झूलेगा।

यह वही अंदाज़ है जो हज़रत अमीर ख़ुसरौ का था –

ख़ल्क़ मी-गोयद कि ‘ख़ुसरौ’ बुत-परस्ती मी-कुनद

आरे आरे मी-कुनेम बा ख़ल्क़-ओ-आ’लम कार नीस्त

लोग कहते हैं कि ‘ख़ुसरौ’ बुत-परस्ती करता है

हाँ हाँ हम करते हैं ! दुनिया से हमारा कोई सरोकार नहीं

सामाजिक कुरीतियाँ जाने अनजाने असर तो डाल ही देती हैं. काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय – एक लीक काजल की लागी है पै लागी है ! और इस एक लीक ने बुल्ले को अपने पीर के क्रोध का भाजन बना दिया. कहते हैं कि बुल्ले शाह के घर में किसी की शादी थी. बुल्ले शाह ने अपने मुर्शिद को भी न्योता भेज दिया. मुर्शिद खुद तो आ न सके, उन्होंने अपने एक मुरीद को शादी में भेज दिया. मुरीद ने फटी हुई गुदड़ी पहन राखी थी. सैयदों का घर और वहां पर एक फटेहाल अराई. यह बात सब को बुरी लगी. बुल्ले शाह बाकी आयोजनों में ऐसे व्यस्त हुए कि उन्होंने अपने पीर भाई पर ध्यान ही नहीं दिया. मुरीद शादी से वापस अपने पीर के पास पहुंचा और सारी बात कह सुनाई. मुर्शिद ने जब यह सुना तो बड़े क्रोधित हुए. फ़रमाया – बुल्ले का चेहरा अब कभी नहीं देखूंगा !

बड़ी बात हो गयी ! मुर्शिद ही रूठ गया. बुल्ले शाह के लिए अब सारी आवाज़ें शोर के सिवा कुछ न रह गयीं…

सानू मिट्ठा न लगदा शोर

हुन मैं ते राज़ी रहना

बुल्ले शाह अपने मुर्शिद को किसी भी प्रकार खुश करने की जुगत में लगे. पता लगा कि मुर्शिद को नृत्य संगीत बड़ा पसंद है. बुल्ले शाह एक नर्तकी के पास पहुंचे और उस से नृत्य और संगीत की शिक्षा ली. एक दिन किसी सूफ़ी बुज़ुर्ग के उर्स पर हज़रत शाह इनायत का आगमन हुआ.वहां कई क़व्वाल कलाम पढ़ रहे थे . बुल्ले शाह ने अपने मुर्शिद की याद में कई काफ़ियां लिखी थी . वह बैठ कर करुण स्वर में गाने लगे. उनके कलाम में ऐसी टीस थी कि मुर्शिद से रहा न गया. मुर्शिद ने पूछा – क्या तू बुल्ला है ? बुल्ले शाह ने जवाब दिया – नहीं हज़रत ! मैं भुल्ला हूँ !

मुर्शिद ने बुल्ले शाह को गले लगा लिया. उस के बाद बुल्ले शाह पूरी उम्र अपने मुर्शिद के साथ ही रहे.

हज़रत शाह इनायत बहुत महान सूफ़ी संत थे. वज़ाइफ़-ए-कलां में उनके विसाल का वर्ष 1735 दिया गया है.शाह इनायत के मुर्शिद हज़रत अ’ली रज़ा शत्तारी थे. हज़रत शाह इनायत ने कई किताबें भी लिखी जिनमें प्रमुख हैं –

इस्लाह उल अमल

लताइफ़ ग़ैबिया

इरशाद उल तालिबीन

हज़रत गौस ग्वालियरी द्वारा लिखित जवाहर ए खम्सा की शरह .

अपनी किताब दस्तूर उल अमल में हज़रत शाह इनायत फ़रमाते हैं कि मुक्ति के लिए हिन्दुओं की पौराणिक किताबों में बहुत कुछ लिखा है. इन पौराणिक किताबों में कई ऐसे साधन बताये गए हैं जिनका अनुसरण कर इंसान परमहंस की अवस्था को प्राप्त कर सकता है. शाह इनायत का मानना है कि ये साधन सबसे पहले सिकंदर की सेना के कुछ सैनिकों ने सीखा और वहां से यह ज्ञान ग्रीक पहुंचा जहाँ से इस्लामी रहस्यवादियों ने यह ज्ञान अर्जित किया .

हज़रत शाह इनायत का अपना बहुत विशाल पुस्तकालय हुआ करता था जो महाराजा रंजीत सिंह के देहांत के बाद नष्ट हो गया.

बुल्ले शाह  ने अपना पूरा जीवन एक सीधे सादे सूफ़ी की तरह बिताया जिसकी हर कविता में लोक समाया हुआ है. कहते हैं एक बार बुल्ले शाह किसी पेड़ के नीचे बैठे हुए थे .उन्होंने तीन औरतों को वहां से जाते देखा – सबसे आगे एक छोटी लड़की थी, बीच में एक सुन्दर जवान महिला थी और पीछे एक बूढी औरत थी. उन्हें देख कर बुल्ले शाह ने कहा –

न अगली तों न पिछली तों

मैं सदके जावां बिचली तों

यह सुनकर उन औरतों ने उनसे जाकर पूछा कि आप कहना क्या चाहते हैं . बुल्ले शाह ने फ़रमाया की मेरा बचपन अज्ञानता में ही निकल गया और बुढ़ापा असमर्थ हो कर बीतेगा. जवानी ही वह स्वर्णिम समय है जब मैं अपने इष्ट का स्मरण कर रहा हूँ. इसलिए मुझे यह अवस्था बड़ी प्रिय है.

बुल्ले शाह कसूर को अपनी काफ़ियों में याद करते हैं –

बुल्ले शाह दा वसन कसूर

जित्थे लमी लमी खजूर

बुल्ले शाह ने अपने पूरे जीवन में शायरी की. उनके सम्पूर्ण कलाम को तीन भागों में बांटा जा सकता  है –

पहला भाग – पहले भाग में बुल्ले शाह के वह कलाम हैं जिनमें इस्लामी रीतियों और मिथकों का समवेश है. इनमे स्वर्ग और नर्क की उलझन है. यह उनके जीवन काल का वह समय था जिसका ज़्यादातर हिस्सा उन्होंने अध्ययन में व्यतीत किया. ये कलाम हालाँकि बड़े प्रसिद्द हैं परन्तु इन में बुल्ले शाह का वह रंग नहीं दिखता जो उन्हें बुल्ले शाह बनाता है –

इक हस्स हस्स गल्ल करदीआं, इक रोंदीआं धोंदीआं मरदीआं,

कहो फुल्ली बसंत बहार नूं, दिल लोचे माही यार नूं ।

मैं न्हाती धोती रह गई, इक गंढ माही दिल बह गई,

भाह लाईए हार शिंगार नूं, दिल लोचे माही यार नूं ।

या

इक रोज़ जहानों जाना है

जा काबे विच समाना है .

दूसरा भाग

इस भाग में बुल्ले शाह की उस अवस्था के कलाम हैं जब वह अपने मुर्शिद के संपर्क में आ चुके थे और वेदान्त दर्शन से भी उनका भली भांति परिचय हो चुका था .

भावें जाण ना जाण वे वेहड़े आ वड़ मेरे ।

मैं तेरे कुरबान वे वेहड़े आ वड़ मेरे ।

तेरे जेहा मैनूं होर ना कोई ढूंडां जंगल बेला रोही,

ढूंडां तां सारा जहान वे वेहड़े आ वड़ मेरे ।

या

पतियाँ लिखां मैं शाम नू मोहे पिया नज़र न आवे

आँगन बना डरावना किस विध रैन विहावे

पांधे पंडित जगत के मैं पूछ रहीयां सारे

पोथी वेद का दोस है जो उल्टे भाग हमारे

भैया वे ज्योतिषिया एक सच्ची बात भी कहियो

जाँ मैं हीनी भाग की ताँ चुप भी न रहियो !

तीसरा भाग

इस भाग में बाबा बुल्ले शाह जी की उस अवस्था के कलाम हैं जब वह पूर्ण हो चुके थे. इन कलाम का कोई सानी पूरे पंजाब तो क्या सम्पूर्ण भारत में नहीं मिलता. इन कलाम में अद्वैत वेदांत और तसव्वुफ़ पंजाब की मीठी चासनी में लिपट कर आत्मा को रस से शराबोर कर देते हैं .

की करदा नी की करदा नी,

कोई पुच्छो खां दिलबर की करदा ।

विच मसीत निमाज़ गुज़ारे, बुतख़ाने जा वड़दा ।

कोई पुच्छो खां दिलबर की करदा ।

आप इक्को कई लक्ख घरां दे, मालक सभ घर घर दा ।

कोई पुच्छो खां दिलबर की करदा ।

मूसा ते फरऔन बना के, दो हो के क्यों लड़दा ।

कोई पुच्छो खां दिलबर की करदा ।

मुर्शिद के बनने की कहानी एक बांसुरी के बनने की कहानी है. एक बांस जिसे अपनी जड़ों से काट दिया जाता है. उसे छीला जाता है, उसमे छेद किये जाते हैं और इतने कष्टों को सहने के पश्चात बांसुरी बनती है. मगर इस बांसुरी को तलाश होती है एक ऐसे वादक की जिसकी सांसें प्रसिक्षित हों. ऐसी प्रसिक्षित साँसों की फूंक जब उन छिद्रों से होकर गुज़रती है तब बांसुरी से मधुर स्वर निकलते हैं. एक सूफ़ी का बनना यही है. यह धुन अनहद की होती है और जब सम्पूर्ण शरीर ही बांसुरी बन जाए तो हर पल अनहद की आवाज़ सुनाई पड़ती है. बुल्ले शाह भी यही कहते प्रतीत होते हैं –

मुरली बाज उठी अणघातां ।

सुन के भुल्ल गईआं सभ बातां ।

लग्ग गए अनहद बान न्यारे, झूठी दुनियां कूड़ पसारे,

साईं मुक्ख वेखन वणजारे, मैनूं भुल्ल गईआं सभ बातां ।

मुरली बाज उठी अणघातां ।

यही बुल्ले शाह अब अपने शौह के साथ होली भी मनाते हैं-

नाम नबी की रतन चढ़ी बून्द पड़ी अल्लाह अल्लाह,

रंग रंगीली ओही खिलावे, जो सिक्खी होवे फ़ना फ़ी-अल्लाह,

होरी खेलूंगी कह बिसमिलाह ।

बाबा बुल्ले शाह ने पंजाबी कविता के हर रंग में शायरी की है. डा. मुहमद बाकर ने बाबा बुल्ले शाह को तजुर्बे और मुशाहदे के बादशाह कहा है. बुल्ले शाह द्वारा रचित साहित्य निम्न है –

दोहडे – 48

गांठे – 40

सिहर्फियाँ -3

अठवारा – 1

बारहमाहा -1

काफ़ियाँ -158  

प्रो. गुरदेव सिंह जी के अनुसार काफ़ियों की गिनती 156 है .

काफ़ी पंजाब की सबसे प्रसिद्द काव्यशैली है. भाई कान्ह सिंह नाभा के अनुसार काफ़ी एक रागिनी है जो काफ़ी ठाठ की सम्पूर्ण रागिनी है जिसमे गांधार और निषाद कोमल और बाकी सारे स्वर शुद्ध लगते हैं . काफ़ी का एक अर्थ ख़ुदा भी है . ईश्वर के नाम की जितनी तारीफ़ें हैं वह सभी इस काव्य शास्त्र में मिलती हैं . काफ़ी का अर्थ है पीछे चलने वाला, अनुचर भी होता है. अनुगामी छंदों का वह पद जो स्थाई हो जिसके पीछे गाते समय अन्य तुकें जोड़ी जाएं. सूफ़ी फ़क़ीर प्रेम के पद गाया करते थे और उनके पीछे मुरीदों की मंडली उसे दोहराती थी. इसे काफ़ी कहा गया. इस काव्य शैली का प्रयोग सब से पहले हज़रत शाह हुसैन ने किया था.यह काव्य रूप पंजाब की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है.

बाबा बुल्ले शाह ने राग आधारित पदों की भी रचना की है. उनके द्वारा प्रयुक्त कुछ प्रमुख राग हैं – झिंझोटी, धनाश्री, जयजयवंती, तिलंग,बिलावल, रामकली, केदार, भैरवी, हिंडोल, विभास, प्रभाती आदि.

बाबा बुल्ले शाह ने अपने अध्यात्मिक जीवन की डोर को हिन्दुस्तान की संस्कृति के रंग में रंग कर अपनी रचनाओं की पतंग उड़ाई. रंग बिरंगी पतंगें तो हिंदुस्तान के पटल पर बारहा रक्स करती दिख जाती हैं परन्तु बुल्ले शाह की पतंग भी रंगीन थी, उनका धागा भी रंगीन था,  उनकी चरखी भी रंगीन थी और वह खुद बुल्ले शाह ! सयाने का पूरा व्यक्तित्व सफ़ेद. सब रंग जब मिल जाते हैं तो सफ़ेद रंग बनता है. बाबा बुल्ले शाह की कहानी भी सब रंगों के आपस  मिल जाने की कहानी है.    

बाबा बुल्ले शाह की दरगाह पाकिस्तान के कसूर प्रान्त में स्थित है. 2007 में बाबा बुल्ले शाह के 250 वें  उर्स के मौके पर विश्व के कई देशों से करीब एक लाख लोग एकत्रित हुए . बाबा बुल्ले शाह अपनी रचनाओं से उस रोमांचक सफ़र के लिए हमें आमंत्रित करते है जिस पर स्वयं चलकर स्वयं को पाया जाता है.

बुल्ला की जाणा मैं कौण

ना मैं मोमन विच मसीतां, ना मैं विच कुफ़र दीआं रीतां,

ना मैं पाकां विच पलीतां, ना मैं मूसा ना फरऔन ।

बुल्ला की जाणा मैं कौण ।

ना मैं अन्दर बेद किताबां, ना विच भंगां ना शराबां,

ना विच रिन्दां मसत खराबां, ना विच जागन ना विच सौण ।

बुल्ला की जाणा मैं कौण ।

ना विच शादी ना ग़मनाकी, ना मैं विच पलीती पाकी,

ना मैं आबी ना मैं ख़ाकी, ना मैं आतिश ना मैं पौण ।

बुल्ला की जाणा मैं कौण ।

ना मैं अरबी ना लाहौरी, ना मैं हिन्दी शहर नगौरी,

ना हिन्दू ना तुर्क पशौरी, ना मैं रहन्दा विच नदौण ।

बुल्ला की जाणा मैं कौण ।

ना मैं भेत मज़हब दा पाइआ, ना मैं आदम हवा जाइआ,

ना मैं आपना नाम धराइआ, ना विच बैठण ना विच भौण ।

बुल्ला की जाणा मैं कौण ।

अव्वल आखर आप नूं जाणां, ना कोई दूजा होर पछाणां,

मैथों होर ना कोई स्याणा, बुल्हा शाह खढ़ा है कौण ।

बुल्ला की जाणा मैं कौण ।

-सुमन मिश्र  

सन्दर्भ –

-ख़ज़ीनात उल अस्फ़ीया – मुफ़्ती गुलाम सरवर लाहौरी

-तहक़ीकात चिश्ती – नूर अहमद चिश्ती

-बाग़ ए औलिया ए हिन्द – मुहम्मद दीन

-क़ानून ए इश्क – अनवर अ’ली शाह रोहतक

– काफ़िया बाबा बुल्ले शाह – भाई प्रेम सिंह

सभी चित्र – विकिमीडिया एवं इन्टरनेट

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