हज़रत सय्यिद मेहर अ’ली शाह – डॉक्टर सय्यिद नसीम बुख़ारी कलीमी फ़रीदी
हज़रत सय्यिद मेहर अ’ली शाह1859 ई’स्वी में रावलपिंडी से ग्यारह मील के फ़ासिला पर क़िला गोलड़ा में पैदा हुए। आपके वालिद हज़रत सय्यिद नज़र शाह को आपकी विलादत की ख़ुश-ख़बरी एक मज्ज़ूब ने दी थी। मज्ज़ूब ना-मा’लूम इ’लाक़ा से आया था और सय्यिद मेहर अ’ली शाह की विलादत के फ़ौरन बा’द आप की ज़ियारत कर के वहाँ से ऐसा ग़ाएब हुआ कि उसका किसी को पता न चल सका।
सय्यिद नज़र अ’ली शाह फ़रमाते हैं कि जब मेहर अ’ली मेरे सुल्ब में थे तो मुझ पर इस क़दर बे-क़रारी तारी हुआ करती थी कि चैन की कोई सूरत नज़र न आती थी। मैं सारी रात इ’बादत में गुज़ार देता। पूरे क़स्बा में जितनी मसाजिद थीं उनमें पानी भर दिया करता था मगर सुकून था कि मेरे दिल से और दिमाग़ से कोसों दूर था। बस इ’श्क़-ए-इलाही की एक जिद्दत थी जो नज़र शाह को अंदर ही अंदर जला रही थी और ये ख़ुदा का आ’शिक़ उसकी तलब में जान को जान-आफ़रीं के सुपुर्द करने को बे-क़रार था।
सय्यिद मेहर अ’ली शाह ने चार साल की उ’म्र में इब्तिदाई ता’लीम का आग़ाज़ किया। आपको अ’रबी, फ़ारसी, सर्फ़ और नह्व की ता’लीम हज़ारे के एक आ’लिम मौलाना ग़ुलाम मुहीउद्दीन साहिब ने दी थी। क़ाफ़िया भी शाह साहिब ने मौलाना ग़ुलाम मुहीउद्दीन साहिब से पढ़ी। शाह साहिब का हाफ़िज़ा ऐसा था कि जो पारा एक रोज़ पढ़ते अगले रोज़ अज़-बर होता। इस तरह आपने क़ुरआन-ए-मजीद बहुत जल्द हिफ़्ज़ फ़र्मा लिया।
एक मर्तबा मौलाना ग़ुलाम मुहीउद्दीन साहिब ने आपकी पैदाइशी विलाएत को आज़माना चाहा ।उन्हों ने एक ऐसी किताब जिसकी कुछ इ’बारत किर्म-ख़ुर्दा थी और उसको पढ़ाना और उसके मुतअ’ल्लिक़ अंदाज़ा लगाना आ’म आदमी के लिए मुश्किल था, सय्यिद मेहर अ’ली शाह को दी और कहा अगले रोज़ किताब के ये किर्म-ख़ुर्दा सफ़हात अज़-बर होने चाहिऐं वर्ना सख़्त सज़ा मिलेगी। शाह साहिब ने अगले रोज़ वो सफ़हात मौलाना को ज़बानी सुना दिए। मौलाना हैरान तो हुए मगर तस्दीक़ के लिए उनको रावलपिंडी जाना पड़ा। वहाँ किताब के अस्ल और सही नुस्ख़ा से किर्म-ख़ुर्दा इ’बारत के मुतअल्लिक़ पढ़ा और अंगुश्त ब-दंदाँ रह गए कि इ’बारत बिल्कुल वही थी जो सय्यिद मेहर अ’ली शाह ने सुनाई थी। उस दिन के बा’द मौलाना ग़ुलाम मुहीउद्दीन साहिब ने पीर मेहर अ’ली शाह साहिब को ता’लीम देने से मा’ज़रत करते हुए कहा, अ’र्श की तरफ़ पर्वाज़ करने वाले शाहीन को मा’मूली सा आदमी क्या ता’लीम दे सकता है।
पीर मेहर अ’ली शाह ने मौलाना मोहम्मद शफ़ी’ क़ुरैशी साहिब की दर्स-गाह से मंतिक़-ओ-नह्व की ता’लीम हासिल की। आप उ’मूमन रोज़े से रहा करते थे और अपने घर से जो ख़र्चा मिलता वो आप नादार साथियों में तक़सीम कर दिया करते। एक दफ़आ’ क़सीदा-ए-ग़ौसिया के एक आ’मिल मौलाना सुल्तान महमूद के दर्स तशरीफ़ लाए। तमाम तलबा उनकी तअ’ज़ीम के लिए उठ खड़े हुए मगर मेहर अ’ली शाह बैठे रहे। ये देखकर आ’मिल-ए-क़सीदा-ए-ग़ौसिया को सख़्त ग़ुस्सा आया और मेहर अ’ली शाह से मुख़ातिब हो कर बोले क़सीदा पढो या ता’ज़ीम के लिए खड़े हो।
जवाबन मेहर अ’ली शाह बोले तुम क़सीदा पढ़ो और मैं क़सीदे वाले को बुलाता हूँ। ये सुनकर आ’मिल को ग़श आ गया। मौलवी सुल्तान महमूद को जब क़िस्सा मा’लूम हुआ तो तशरीफ़ लाए और मेहर अ’ली शाह से कहा तुम शरई’ दर्स-गाह के तालिब-ए-इ’ल्म हो। शरई’ हुदूद से तवाज़ुअ’ ना करो। मेहर अ’ली शाह ने नदामत से सर झुका लिया। मा’ज़रत की और अ’र्ज़ किया उस्ताद-ए-मोहतरम! आप भी ऐसे शौ’बदा-बाज़ों को यहाँ आने से रोकें। मेहर अ’ली शाह को अपने मुर्शिद ख़्वाजा शम्सुल-आ’रिफ़ीन से इतनी अ’क़ीदत और मोहब्बत थी कि एक रोज़ ख़्वाजा शमसुल-आ’रिफ़ीन (हज़रत ख़्वाजा शमसुद्दीन) सियालवी अपने मुरीदों में तशरीफ़ फ़रमा थे। अचानक ख़्वाजा साहिब ने अपने मुरीदों से फ़रमाया जाओ मस्जिद के सहन में वहाँ हज़रत अ’लैहिस्सलाम तशरीफ़ लाए हुए हैं। उनसे अपनी अपनी मुश्किलात के हल मा’लूम कर लो। लोग एक दम मस्जिद के सहन की तरफ़ भागे। नफ़्सा-नफ़्सी का समां पैदा हो गया मगर मेहर अ’ली शाह अपनी जगह पर जूं कि तूं बैठे रहे।
आपकी इस तरह की बे-नियाज़ी को ख़्वाजा शम्सुल-आ’रिफ़ीन ने बहुत मह्सूस किया और फ़रमाया! मेहर अ’ली तुमको हज़रत अ’लैहिस्सलाम से कुछ नहीं तलब करना है? मेहर अ’ली शाह ने अ’र्ज़ की ‘ हज़रत मैं तो एक दरगीर मुहकम-गीर का क़ाइल हूँ’।
ख़्वाजा शम्सुल-आ’रिफ़ीन ये सुनकर इतने ख़ुश हुए कि मेहर अ’ली शाह को ज़ाहिरी-ओ-बातिनी तौर पर माला-माल कर दिया । लोग हज़रत ख़िज़्र से उतना कुछ हासिल न कर सके जितना मेहर अ’ली शाह ने अपने मुर्शिद से हासिल किया।
एक मर्तबा मौलाना सुल्तान महमूद जो मेहर अ’ली शाह के उस्ताद-ए-मोहतरम थे किसी सफ़र पर रवाना हुए। वो घोड़े पर सवार थे और मेहर अ’ली शाह उनके घोड़े की लगाम थामे चल रहे थे । ये मंज़र देखकर सुल्तान बाहू की एक मुरीद ख़ातून जो आ’बिदा और ज़ाहिदा थीं बोलीं मौलवी सुल्तान महमूद! तुम्हें उस सय्यिद-ज़ादे के मर्तबा का इ’ल्म नहीं है वर्ना तुम यूं घोड़े पर सवार हो कर लगाम उनके हाथ न थमाते। एक दिन आएगा जब तुम उसके घोड़े के पीछे भागोगे।
चुनांचे उस अ’फ़ीफ़ा मुत्ताक़िया ख़ातून की पेश-गोई बिल्कुल सही साबित हुई। पीर मेहर अ’ली शाह जब शम्सुल-आ’रिफ़ीन से बैअ’त हो चुके और रूहानियत में आ’ला मर्तबा तय कर चुके तो एक रोज़ मेहर अ’ली शाह साहिब घोड़े पर सवार उ’र्स में आ रहे थे। उनको देखकर मौलाना सुल्तान महमूद ने दौड़ना शुरू’ कर दिया। उनको दौड़ता देखकर एहतिरामन मेहर अ’ली शाह घोड़े से उतरने लगे तो मौलाना ने उनको सख़्ती से रोका और कहा अगर तुम मेरे एहतिराम के लिए घोड़े से उतरे तो मैं तुम्हें अपनी शागिर्दी से ख़ारिज कर दूंगा ।मजबूरन पीर मेहर अ’ली को घोड़े पर बैठे रहना पड़ा।
यूं मौलाना सुल्तान महमूद ने इस वाक़िआ’ की तलाफ़ी की जब उनके घोड़े की लगाम पीर मेहर अ’ली थाम कर चले थे।
हज़रत मेहर अ’ली शाह कानपूर मौलाना अहमद हसन मुहद्दिस के पास हुसूल-ए-ता’लीम की ख़ातिर तशरीफ़ ले गए। तब शाह साहिब की उ’म्र15 साल थी। मौलाना उन दिनों हज के लिए जा रहे थे। लिहाज़ा शाह साहिब मौलाना की उस्तादी से महरूम रहे और अ’लीगढ में मौलाना लुत्फ़ुल्लाह के तलामज़ा में शामिल हो गए। बहुत अ’र्सा गुज़र जाने के बा’द जब हज़रत मेहर अ’ली शाह रुहानी कमालात और तक़्वा की इंतिहाई मंज़िल पर फ़िरौ-कश हुए तो मौलाना अहमद मुहद्दिस बहुत मुतअस्सिफ़ हुए कि काश उस आ’ली शाह इन्सान की उस्तादी के फ़राइज़ मुझे नसीब हुए होते तो मेरी भी बख़्शिश का सामान होता। इसी एहसास-ए-महरूमी को लिए एक रोज़ मौलाना बाबा फ़रीद गंज शकर के रौज़ा-ए-पाक पट्टन शरीफ़ हाज़िर हुए। वहाँ हज़रत मेहर अ’ली शाह भी तशरीफ़ फ़रमा थे। मौलाना अहमद हसन मुहद्दिस को देखकर एहतिरामन उठ खड़े हुए और उनको अपने घर ले गए। मौलाना ने हज़रत मेहर अ’ली से अ’र्ज़ की काश आपकी उस्तादी मुझे हासिल हो जाती और मैं भी आपकी दुआ’ओं और तलत्तुफ़ में शामिल हो जाता। मेहर अ’ली शाह साहिब ने जब ये बात सुनी तो उस दिन से वो मौलाना अहमद हसन मुहद्दिस को अपने हुजरे में साथ बैठाया करते थे और इंतिहाई मोहब्बत और तलत्तुफ़ फ़रमाया करते। मौलाना अहमद हसन मुहद्दिस के विसाल के बा’द भी कसरत से याद करते और फ़रमाते मौलाना जैसा इन्सान अब दुनिया में नहीं आएगा।
1876 ई’सवी में पीर साहिब की शादी हुई लेकिन आप पर जज़्ब की कैफ़िय्यत इस क़दर तारी रहती कि आप अक्सर औक़ात घर से बाहर ही रहा करते थे। इस आ’लम में आप कई कई महीने जंगलों में रह कर औराद-ओ-वज़ाइफ़ में मशग़ूल रहते। आप आगरा ,दिल्ली, अजमेर शरीफ़ की दरगाहों में ज़ियारत के बा’द हज के सफ़र पर भी गए।अजमेर शरीफ़ में रह कर आप को असरार-ओ-रुमूज़ की तालीम-ए-ग़ैबी भी मिली और तवील सियाहत के बा’द1307 हिज्री में आप गोलड़ा शरीफ़ वापस आ गए।
चिश्ती सिल्सिला के एक बुज़ुर्ग के मुरीद ग़ुलाम फ़रीद नामी आपके अ’क़ीदत-मंद थे और मे’मारों का काम किया करते थे। उनको अह्लुल्लाह से मुलाक़ातों और उनकी करामत-ओ-दीदार के शौक़ के अ’लावा उनको ज़ाती तजल्ली का शौक़ था। उन्होंने अपने मुर्शिद से तहरीरी इजाज़त ले ली कि मैं ज़ाती तजल्ली के लिए किसी भी बुज़ुर्ग की ख़िदमत में जा सकता हूँ। इस मुआ’मला में उन्होंने किसी साहिब-ए-इर्शाद हस्ती को तलाश करने में कई साल गुज़ार दिए। जंगलों, वीरानों, शहरों क़स्बों ग़रज़ कि जहाँ तक उनकी हिम्मत हुई उन्होंने तलाश किया। हुसूल-ए-मक़सद की ख़ातिर हज़रत दाता गंज बख़्श के मज़ार पर चिल्ला भी किया। इस चिल्ला के दौरान एक दिन आ’लम-ए-रूया में उनकी एक गेसू-दराज़ ख़ुश-पोश बुज़ुर्ग से मुलाक़ात हुई। फिर यही ख़्वाब ग़ुलाम फ़रीद देखते रहे। मगर जगह मा’लूम होती तो ख़्वाब में नज़र आने वाले बुज़ुर्ग को ढूंडते। हज़रत दातागंज बख़्श के मज़ार पर एक बुज़ुर्ग आए और बताया कि गोलड़ा में एक बुज़ुर्ग हैं वो ज़ाती तजल्ली कराने पर क़ादिर हैं।
ग़ुलाम फ़रीद उसी वक़्त गोलड़ा के लिए आ’ज़िम-ए-सफ़र हुए। जब गोलड़ा पहुंचे तो उन्होंने शाह साहिब को देखा तो उन पर बे-होशी तारी हो गई।मुर्ग़-ए-बिस्मिल की तरह तड़पने लगे। ख़ुद्दाम उठाने लगे कि होश में लाएं। आपने मन्अ’ किया और कहा उनको ऐसे ही पड़ा रहने दो। दूसरे रोज़ पीर साहिब को बतलाया गया कि ग़ुलाम फ़रीद की तड़प बाक़ी है। इसपर आपने फ़रमाया ग़ुलाम से कहो अगर औराद-ओ-वज़ाइफ़ से तुम्हारी तसल्ली नहीं होती तो मुसलसल चालीस यौम का रोज़ा रखो। ग़ुलाम फ़रीद ने सोचा तड़प तो रहा हूँ अगर चालीस यौम का रोज़ा रखा तो सुकून से दम निकल जाएगा और जान की ख़लासी हो जाएगी। कई रोज़ भूक और प्यास की शिद्दत बर्दाश्त किए हुए गुज़र गए। एक रोज़ अचानक मेहर अ’ली शाह ने अपने ख़ादिम से फ़रमाया! ग़ुलाम फ़रीद को लाओ।ग़ुलाम फ़रीद को लाया गया। आपने कहा ख़ुश-ख़बरी मुबारक हो। तुम्हारे पीर के सदक़े में तुम्हारा काम हो गया। अब रोज़ा इफ़्तार कर लो।
चुनांचे ग़ुलाम फ़रीद ने रोज़ा का इफ़्तार किया। उस के बा’द ग़ुलाम फ़रीद ने मा’मूल बना लिया। हर वक़्त शैख़ का तसव्वुर होता और हर वक़्त औराद-ओ-वज़ाइफ़ में लगे रहते और एक चादर में आप अपने को लपेटे रहते। कुछ अ’र्सा बा’द हज़रत मेहर अ’ली शाह के पास आकर रोने लगे और कहा ऐ मुर्शिद! आप यहाँ भी मेरे सामने और वहाँ भी मेरे सामने थे तो फिर मुझे अपनी शान दिखाने के लिए इतनी दूर क्यों भेजा। इस बूढ़े को अपने ही क़दमों में रहने देते। ये सुनकर आप मुस्कुराए और ग़ुलाम फ़रीद की जानिब ख़ुसूसी तवज्जोह देने लगे।
एक मर्तबा आप और मौलाना लुत्फ़ुल्लाह साहिब मस्तूरात के हम-राह बहली पर सफ़र को जा रहे थे कि रास्ते में आपने डाकूओं के सरदार को कहा तुम औ’रतों से दूर रहो हम लोग अपना माल-ओ-ज़र तुम्हारे हवाले किए देते हैं। सरदार रज़ा-मंद हो गया। आपने सारे क़ाफ़िला में जितनी औ’रतें थीं सबसे माल-ओ-ज़र, नक़्द, ज़ेवरात वग़ैरा हस्ब-ए-वा’दा डाकूओं के हवाला कर दिया। जब डकू चले गए तो काफ़िला में से एक औ’रत ने आपको बतलाया कि मैंने किसी तरह डाकूओं से अपने ज़ेवरात बचा लिए। शाह साहिब को बहुत अफ़्सोस हुआ । उन्होंने फ़ौरन औ’रत से ज़ेवर उतरवाए और डाकूओं का पीछा किया और उन तक पहुंच कर कहा वा’दा-ख़िलाफ़ी हुई है। एक औ’रत का ज़ेवर रह गया था देने आया हूँ और वा’दा-ख़िलाफ़ी की मा’ज़रत चाहता हूँ। डाकूओं का सरदार इस तर्ज़-ए-अ’मल से इस क़दर मुतअस्सिर हुआ कि फ़ौरन अपने साथियों समेत आपके हाथ पर ताइब हो गया और हमेशा के लिए रह-ज़नी से किनारा-कश हो गया।
शाह साहिब अपने हज के अहवाल में बयान फ़रमाते हैं कि वादी-ए-हमरा में डाकूओं के ख़ौफ़ की वजह से मैंने इ’शा की सुन्नतें वजह-ए-मजबूरी मौक़ूफ़ कर दीं और मैंने रात को ख़ुद को मस्जिद-ए-नबवी में पाया और देखा कि हुज़ूर-ए-अकरम सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम तशरीफ़ लाए हैं और मुझको बुलाते भी नहीं। मैं दरख़्वास्त करता हूँ या रसूलल्लाह मैं इतनी दूर से दीदार के लिए आया हूँ लेकिन आपने मुझे अपने लुत्फ़-ओ-करम से महरूम रखा। आपने फ़रमाया तुमने मेरी सुन्नतें तर्क कर दी हैं तो फिर तुल्फ़ का मुतालबा कैसा? उसी दम पीर साहिब की आँख खुल गई। फ़ौरन दुबारा इ’शा की नमाज़ मुकम्मल की और हुज़ूर से इस क़दर इ’श्क़-ओ-मोहब्बत आपके दिल के अंदर पैदा हुई कि आपने अपी मशहूर ना’त इसी शुक्र-ओ-जज़्ब से मग़्लूब हो कर कही।
किथे मेहर अ’ली किथे तेरी सना
गुस्ताख़ अँखियाँ किथे जा लड़ियाँ
आपका मा’मूल था कि फ़ज्र के वक़्त से दस बजे दिन तक ज़िक्र-ओ-अज़्कार में अपने आपको मश्ग़ूल रखते। आपके औराद-ओ-वज़ाइफ़ इस क़दर जलाली हुआ करते कि मुज्रे के हुदूद में जो भी आता बे-होश हो जाता। दस बजे के बा’द इर्शाद-ओ-तलक़ीन का सिल्सिला जारी होता। दूर-दराज़ से लोग अपनी तकालीफ़, मसाएल और उम्मीद ले कर हाज़िर-ए-ख़िदमत होते और दामन-ए-उम्मीद भर कर जाते।
आपका दस्तूर था आप कम खाते, कम बोलते और कम सोते ।कड़ी इ’बादात ने आपको नींद से बे-नियाज़ कर दिया था। अक्सर औक़ात मुराक़बे में रहते। ख़ल्वत हो या जल्वत विज्दानी कैफ़िय्यत तारी रहती जिसको मुस्कुराकर देख लेते उसकी तक़दीर बदल जाती।
आपसे किसी ने सवाल किया शाह साहिब आप सय्यिद घराने से तअ’ल्लुक़ रखते हैं और आल-ए-रसूल हैं मगर बैअ’त आपने जट घराने के मुर्शिद से की। इसकी वजह क्या है? ये सादात की तौहीन के मुतरादिफ़ नहीं? शाह साहिब मुस्कुराए और फ़रमाया।’जट के सब्ज़ खेत अपनी हरियाली की वजह से उपनी तरफ़ खींच कर ले गए। जट के पास कुछ था जब ही तो सय्यिद ने उसकी ग़ुलामी क़ुबूल कर ली। मो’तरिज़ ख़ामोश हो गया।
वक़्त-ए-विसाल आप उठकर बैठ गए। क़ुरआन-ए-मजीद की एक आयत पढ़ी जिसका तर्जुमा है ‘बे-शक जिन लोगों ने कहा हमारा परवर-दिगार अल्लाह है और इस बात पर साबित-क़दम रहे उनपर मलाइका नाज़िल होते हैं और कहते हैं कि ख़ौफ़ मत करो और ग़म मत खाओ और बिशारत सुनो उस जन्नत की जिसका तुमसे वा’दा किया गया था। हम दुनिया में भी तुम्हारे दोस्त हैं और आख़िरत में भी और तुम्हारे लिए वो सब कुछ है, जिसकी तुम ख़्वाहिश करो और माँगो’।
जब ये आयत पढ़ रहे थे आपका चेहरा नूर-ए-इलाही से मुनव्वर था। उसके बा’द लेट गए। मुँह से इस्म-ए-ज़ात का ज़िक्र करना शुरूअ’ किया और उसी ज़िक्र में आप पर्दा फ़रमा गए और यूं इस ख़ुरशीद-ए-तरीक़त का विसाल हो गया।
साभार – मुनादी पत्रिका
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