अमीर ख़ुसरो और इन्सान-दोस्ती-डॉक्टर ज़हीर अहमद सिद्दीक़ी

आज जिस मौज़ूअ’ पर दा’वत-ए-फ़िक्र दी गई है वो “अमीर ख़ुसरो और इन्सान-दोस्ती का मौज़ूअ’ है । देखना ये है कि हज़रत अमीर ख़ुसरो ने ज़िंदगी की इस रंगा-रंगी को किस नज़र से देखा है और इसको किस तरह बरता है । इन्सान-दोस्ती का वो कौन सा नसबुल-ऐ’न है जो अमीर ख़ुसरो के सिल्सिला से मिलकर तमाम हिन्दुस्तान बल्कि आ’लम का मत्मह-ए-नज़र बन गया है । लेकिन इजाज़त दीजिए कि इस मौज़ूअ’ पर आने से पहले चंद कलिमात ख़ुद “इन्सान-दोस्ती या “इन्सानियत के बारे में अ’र्ज़ कर दूँ ताकि ये बात वाज़िह हो जाए कि इन्सान-दोस्ती का वो कौनसा तसव्वुर था जिसको अमीर ख़ुसरो ने अपनाया था।सब जानते हैं कि इन्सान-दोस्ती की मंज़िल तक पहुंचने के लिए फ़लसफ़ियों के यहाँ मुख़्तलिफ़ नुक़्ताहा-ए-नज़र हैं।एक तब्क़ा तो वो है जो मज़्हब का मुन्किर है मगर इन्सान-दोस्ती का हामी।इस का ख़याल है कि मज़्हब से अलग हट कर भी इन्सान-दोस्ती की तब्लीग़ की जा सकती है बल्कि उनमें जो ज़्यादा मुतशद्दिद हैं उनका ख़याल है कि मज़्हब इन्सान-दोस्ती के मुनाफ़ी है।इनके नज़दीक मज़्हब की हैसियत फ़र्द के अ’मल की है किसी मस्लक के मिज़ाज की नहीं है । दूसरा तब्क़ा वो है जिसका ईमान है कि मज़्हब इन्सानियत का एहतिराम सिखाता है और मज़्हब की हैसियत अक़दार की है जिनके ब-ग़ैर तकमील-ए-इन्सानियत मुम्किन नहीं है और ये रास्ता है जिसके डांडे सूफ़ियाना अफ़्कार से मिल जाते हैं । मगर ये दोनों तब्क़े अपने नज़रियाती इख़्तिलाफ़ात के बावजूद सय्यिदैन साहिब के इस क़ौल की ताईद करते हुए नज़र आते हैं ।

“हर इन्सान उस मुश्तरक इन्सानियत के रिश्ता का एहतिराम करे जो उसे दूसरों से मिलता है और ख़ारिजी या नुमाइशी फ़र्क़ की वजह से ख़ुद को दूसरों से बर-तर और आ’ला न समझे।”

पैग़ंबर-ए-इस्लाम का इर्शाद-ए-गिरामी है कि क़ियामत के दिन अल्लाह अपने बंदों से पूछेगा कि मैं भूका था तुमने खाना नहीं खिलाया। मैं बरहना था तुमने मुझे कपड़ा नहीं दिया।वो अ’र्ज़ करेंगे कि ख़ुदाया तेरी ज़ात बे-नियाज़ है तुझे खाने और कपड़े की क्या हाजत । इर्शाद होगा कि मेरे बंदे भूके और प्यासे और बरहना तुम्हरे दरवाज़े पर आए उनका देना  मेरा ही देना था।

प्रोफ़ेसर ज़फ़र अहमद सिद्दीक़ी ने इन्हीं जज़्बात को नज़्म के पैराया में बड़ी ख़ूबी से पेश किया है ।

ग़म-ए-इंसाँ को देकर वो कहते हैं मुझसे ।
ये ग़म है हमारा इसे खो न देना ।।
अगर जज़्बा-ए-शौक़ बे-चैन कर दे ।
किसी टूटे-दिल में हमें ढूंढ लेना ।।
हम आएँगे इस तर्ह से भेस बदले ।
तुम्हारी नज़र को ख़बर भी न होगी ।।
न पहचान पाए तो इतना समझ लो ।
शब-ए-हिज्र की फिर सहर भी न होगी ।।

तम्हीद ज़रा तवील हो गई मगर इसके ब-ग़ैर ख़ुसरो के मिज़ाज की वज़ाहत मुम्किन न थी । ख़ुसरो का तअ’ल्लुक़ उस तब्क़ा से है जिसने मज़्हब को इन्सानियत का मर्कज़ समझा । उसका अ’क़ीदा था कि मज़्हब इन्सान को मुनाफ़रत और निफ़ाक़ नहीं सिखाता । जो लोग ये ख़याल करते हैं उनके सोचने का अंदाज़ मह्दूद है और यही जज़्बा-ए-फ़िक्र है जो ख़ुसरो को तसव्वुफ़ की तरफ़ ले जाता है।गोया एक मुसल्लस बन जाता है जो काएनात की अस्ल है । ख़ुसरो की शख़्सियत बड़ी अ’जीब-ओ-ग़रीब है ।अगर ये कहा जाए कि उनकी ज़ात मुल्की यक-जेहती,हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद और इन्सानी उख़ुव्वत का पैकर थी तो इसमें क़तअ’न मुबालग़ा न होगा ।

वो एक तुर्क बाप और हिन्दुस्तानी माँ के फ़र्ज़न्द थे । ये भी एक इत्तिफ़ाक़ है कि ज़िला ईटा के दो क़स्बों को ये शरफ़ हासिल हुआ कि वहाँ दो मुबल्लिग़ीन-ए-इन्सानियत पैदा हुए। सोरो में तुलसी  दास और पटियाली में ख़ुसरो । और ये भी दिलचस्प इत्तिफ़ाक़ है कि उनको मुर्शिद ऐसा मिला जिसका दामन-ए- फ़ैज़ हिन्दुस्तान के हर मज़्हब और हर गिरोह के लिए कुशादा था।मेरी मुराद हज़रत निज़ामुद्दीन महबूब-ए-इलाही बदायूनी से है ।आप ही का फ़ैज़ान था कि ख़ुसरो हमेशा अम्न और शांति के तराने गाते रहे थे।ख़ुसरो न सिर्फ़ शाइ’र बल्कि सूफ़ी भी थे जिनका काम लोगों से नफ़रत नहीं बल्कि मोहब्बत से उनके दिलों को खींचना था|उनके ये ख़यालात उनके कलाम में बिखरे पड़े हैं ।

हज़रत अमीर ख़ुसरो अपने शैख़ के उस क़ौल को अक्सर दुहराया करते थे कि मुआ’मलात-ए-ख़ल्क़ तीन क़िस्म के होते हैं ।अव़्वल क़िस्म ये है कि एक शख़्स को दूसरे से फ़ाइदा हो न नुक़्सान।दूसरी क़िस्म ये है कि एक शख़्स को दूसरे से सिर्फ़ नफ़अ’ पहुंचे । तीसरी क़िस्म इन दोनों से बेहतर है कि एक शख़्स से दूसरों को फ़ाइदा पहुंचे और कोई नुक़्सान पहुंचाए तो बर्दाश्त करे और बदला लेने की कोशिश न करे और ये मर्तबा सिद्दीक़ीन का है ।

बर-न्युफ़तद आख़िर अज़ आ’लम निशान-ए-मर्दुमी
शर्म दार अज़ मर्दुमाँ-ओ-मर्दुम-आज़ारी म-कुन

मैंने अ’र्ज़ किया कि रवा-दारी और क़ौमी यक-जेहती का नक़्श-ए-अव्वल अमीर ख़ुसरो के यहाँ मिलता है। जिस मीज़ान-ए-क़द्र में उन्होंने ज़िंदगी के मसाएल को तौला वो आइंदा के लिए अख़्लाक़ का मे’यार बन गए । उनकी पूरी ज़िंदगी शराफ़त-ए-इन्सानी का ऐसा मुरक़्क़ा थी जिसने शाइस्तगी और तहज़ीब का पैमाना मुतअ’य्यन कर दिया।जिस ज़ाबता-ए-अख़्लाक़ की उन्होंने निशानदेही की वो ज़िंदगी की शाहराहों के लिए संग-ए-मील बन गई और उसके लिए जो नफ़सियाती पैरा-ए-बयान इख़्तियार किया है वो बे-पनाह है । मिसाल मुलाहिज़ा हो ।

चर्ख़ कि अज़ गौहर-ए-एहसानत साख़्त
आईनः सूरत-ए-रहमानत साख़्त


आईनः ज़ीं गूनः कि दारी ब-जंग

आह हज़ार आह कि दारी ब-ज़ंग


इन्सान को उसकी अ’ज़्मत का एहसास दिलाता है कि इन्सान तो वो है जिसको देखकर ख़ुदा नज़र आ जाए । इन्सान की हैसियत एक आईना की है जिसमें रहमान की सूरत नज़र आती है।अगर उस आईना पर ग़फ़्लतों का ज़ंग चढ़ जाए तो इससे ज़्यादा और क्या बद-बख़्ती हो सकती है । इसी के साथ उसको एहसास भी दिलाते हैं कि

गंज-ए-ख़ुदा रा तू कलीद आमदी
ने पय-ए-बाज़ीचः ब-दीद आमदी

ख़ुसरो ने जिसको अपनी ज़िंदगी और शाइ’री का मस्लक क़रार दिया वो उनका नासिहाना पहलू है जिसमें तल्ख़ी या ना-गवारी का एहसास तक पैदा नहीं होता।तवाज़ो’ और ख़ाकसारी,काहिली से नफ़रत,हुनर की अहमियत,हिम्मत की बुलंदी,हिर्स की पस्ती,रज़ा-ए-इलाही ।और फ़य्याज़ी के सिल्सिले में वो रिवायत मशहूर है कि किसी बादशाह ने इतना इनआ’म-ओ-इकराम से नवाज़ा कि सोना चांदी गाड़ियों में इस तरह भर कर ला रहे थे जैसे कोई सामान लाद कर लाता है। मगर वतन पहुंचते पहुंचते तमाम गाड़ियाँ तक़्सीम कर चुके थे।बीवी जो लड़की की शादी के लिए इस उम्मीद पर बैठी थीं कि ख़ुसरो इनआ’म-ओ-इकराम लाते होंगे उनको ख़ाली हाथ आते देखकर ग़म से बे-क़रार हो गईं । मगर ख़ुसरो तवक्कुल  का पैकर अपने इस अ’मल पर नाज़ाँ था । इस अस्ना में एक हिंदू साहू-कार आया और रूपयों की गाड़ी पेश कर दी और कहा कि ख़ुसरो की इस सख़ावत से मुझे ख़द्शा पैदा हो गया था कि वो घर ख़ाली हाथ पहुँचेंगे । इसलिए मैं भी सवाली बन कर उनके पास आया था वर्ना उनकी दुआ’ से मेरे पास कोई  कमी नहीं है । सर-ए-दस्त इस से बहस नहीं कि इस क़िस्से में सदाक़त कहाँ तक है । कहने का मक़्सद ये है कि इस क़िस्से के पीछे जो ख़ाका मुरत्तब होता है वो ख़ुसरो की सीरत से किस क़दर क़रीब है।अगर ये कहा जाए कि ख़ुसरो मुअ’ल्लिम-ए-अख़्लाक़ थे तो ग़लत न होगा।जब वो ये कहना चाहते हैं कि इन्सान को अपने फ़राइज़ से ग़ाफ़िल नहीं रहना चाहिए ख़्वाह वो बे-शुमार दौलत ही का क्यों न मालिक हो तो कहते हैं ।

सरमाया-ए-मर्दुमी कुन गुम ।
कज़ मर्दुमी अस्त तू मर्दुम ।।
गर ज़रत अज़ अ’दद बुवद बेश ।
दरवेश नवाज़ बाश-ओ-दरवेश ।।

आ’माल’-ए-सालिह ख़्वाह कम हों मगर बेहतर हैं उस माल-ओ-दौलत से जो न कोई फ़ायदा पहुंचा सके ।

यक शाख़ कि मेव: देहद तर ।
बेहतर ज़े-हज़ार बाग़-ए-बे बर।।
इन्सान को राज़ी ब-रज़ा रहना चाहिए।
आंचे मुक़द्दर शुद अस्त चूँ न-बुवद बेश-ओ-कम।
गर ब-रसद ख़ुर्रम वर्ना रसद बाक नीस्त।।

मुस्तक़िल-मिज़ाजी से हालात का मुक़ाबला करना चाहिए।

मर्द न तर्सद ज़े-फ़क़्र शेर न तर्सद ज़े-ज़ख़्म ।
मज़्हब-ए-अ’य्यारियत बीम-ए-अ’सस दाश्तन ।।

उनके नज़रियात की वज़ाहत ज़ैल के अश्आ’र के तर्जुमा से होती है।

1۔ अगर इन्सान जन्नत में भी रहता हो तो उसको वो मसर्रत हासिल न होती अगर आदम न होते तो आदमी का वुजूद भी न होता।

2۔ लोगों की दिल-जोई कर कि कहीं अंजाम-ए-कार दुनिया से इन्सानियत का नाम-ओ-निशान ही न ख़त्म हो जाए ।

3۔ मैं इ’श्क़ में काफ़िर हो गया हूँ मुझे इस्लाम की ज़रूरत नहीं है। मेरी रग ज़ुन्नार बन गई है मुझे ज़ुन्नार की क्या हाजत है ।

4۔ मस्जिद, मंदिर, मय-कदा और कलीसा में हर जगह सिर्फ़ तेरा ही ज़िक्र है।

हमारा ख़याल है कि इंसान फ़ितरतन बद नहीं है।वो फ़साद को नहीं अम्न,नफ़रत को नहीं मोहब्बत को पसंद करता है । अगर चंद मफ़ाद-परस्त अफ़राद की रेशा-दवानियाँ और अरबाब-ए-सियासत की दख़्ल-अंदाज़ियाँ न हों तो आज भी ख़ुसरो का वो पैग़ाम हमारी ज़िंदगी की आवाज़ बन सकता है।

मा-ओ-इ’श्क़-ए-यार अगर दर-ए-का’ब:-ओ-दर बुत-कदः।
आ’शिक़ान-ए-दोस्त रा बा-कुफ़्र-ओ-ईमां कार नीस्त।।

(ऑल इंडिया रेडियो से शुक्रिया के साथ)

साभार – फ़रोग़-ए-उर्दू (अमीर ख़ुसरौ नंबर)

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