वेदान्त – हज़रत मैकश अकबराबादी
हम कौन हैं,काएनात क्या है,तख़्लीक़ का मक़्सद क्या है,इस ज़िंदगी के सफ़र की इंतिहा क्या है,नजात और उसके हासिल करने के ज़रीऐ’ क्या हैं,ये और इस क़िस्म के कई अहम सवाल हैं जिनको फ़ल्सफ़ी दलीलों से हल करना चाहते हैं मुक़ल्लिदीन अपने रहबरों के अक़वाल से,आ’रिफ़ अपने कश्फ़-ओ-शुहूद और विज्दान से फ़ल्सफ़ा-ए-हक़ीक़त की जुस्तुजू से।मगर तसव्वुफ़ में हक़ीक़त मुतअ’य्यन है।इसका नसबुल-ऐ’न हक़ीक़त का मुशाहदा है।अगर ज़राऐ’ का इख़्तिलाफ़ न हो तो तसव्वुफ़ फ़ल्स़फ़े से ज़ियादा साइंस से क़रीब है।या’नी ऩज़रिया और अ’मल दोनों का मुर्रतब।
इस रूहानी जिद्द-ओ-जहद की बुनयाद उ’मूमन उन मज़हबी उसूलों पर है जो इस से मुक़द्दम हैं और जिनकी ता’लीम मुख़्तलिफ़ ज़मानों में ख़ुदा के कुछ मख़्सूस बंदे देते रहे हैं। उनहोंने ख़ैर-ओ-शर को मुतअ’य्यन किय।शर से बचने की और ख़ैर को हासिल करने की ता’लीम दी।आ’माल के नताइज से ख़बरदार किया।जज़ा-ओ-सज़ा के वा’दे वई’द किए और एक बर-तर क़ूवव्त का तसव्वुर दिया जिसके सामने जवाब-देह है और तमाम काएनात का सर-चश्मा या ख़ालिक़ है और उन सब का मज़हब है और उस बर-तर क़ूव्वत की दर्याफ़्त का नाम तसव्वुफ़ है।इंसानी फ़ितरत का ख़ास्सा ये है कि वो एक मक़ाम पर क़ानिअ’ नहीं रह सकती उसकी आरज़ूर्ऐं बढती हैं। नए रास्ते और नई मंज़िलें मुतअ’य्यन करती हैं।उसने पैदल चलने पर क़नाअ’त नहीं की।उसने बैल,घोड़े,हाथी और मोटर की सवारी पर बस नहीं किया।वो हवाई जहाज़ की ईजाद से भी मुतमइन नहीं हुआ और अब राकेट की दुनिया में क़दम बढ़ाए चला जा रहा है।
किसी क़ौम का रूहानी सफ़र,उसका मक़्सद और बुनियाद उन रिवायात के सहारे ही मुतअ’य्यन किया जता है जो उसके हादी और रहबर मुतअ’य्यन कर चुके हैं।इसलिए हर क़ौम की रूहानियत और रूहानी तसव्वुर कुछ इम्तियाज़ और ख़ुसूसियत अपने अंदर रखे है।लिहाज़ा ये ज़रूरी है कि हर मकतब-ए-फ़िक्र की रूहानी ख़ुसूसियात और उसके तसव्वुफ़ के इम्तियाज़ी ख़द्द-ओ-ख़ाल अ’लाहिदा अ’लाहिदा इख़्तिसार के साथ बयान कर दिए जाएं।ये इसलिए भी ज़रूरी है कि हमारा अदब जिस अ’ह्द में ता’मीर हो रह था उस ज़माने में उनमें से अकसर नज़रियात आपस में इस तरह ख़लत मलत हो गए थे कि उन में इम्तियाज़ आसान न था और आ’म शोअ’रा उन इख़्तिलाफ़ात और इम्तियाज़ात से कमा-हक़्क़ाहु वाक़िफ़ न थे या वाक़िफ़ होने की ज़रूरत न समझते थे।लेकिन अब ब-हैसियत एक तालिब-ए-इ’ल्म के हमारे लिए ये मा’लूम करना मुफ़ीद होगा कि हमारे अदब में कितनी मुख़्तलिफ़ क़ौमों के सूफ़ियाना नज़रियात मिल गए हैं और कितने ख़ालिस शक्ल में सौजूद हैं।और ये कितने सूफ़ी और शाइ’र उन नज़रियों को मुहक़्क़िक़ की हैसीयत से क़ुबूल कर चुके थे और कितने तक़लीद की रू से या ‘तसव्वुफ़ बरा-ए-शे’र गुफ़्तन ख़ूब अस्त’ की ज़रूरत के पेश-ए-नज़र उनको अपने शे’र-ओ-अदब की ज़ीनत बनाए हुए थे।
नौअ’-ए-इंसान के इस दौर से क़’त-ए’-नज़र कर लिजिए जब वो बुलूग़ को नहीं पुहंची थी बल्कि उस ज़माने का तसव्वुर कीजिए जब उसकी हिदायत के मरकज़ मुतअ’य्यन हो गए थे और उनमें दानिश्वर,हकीम या पैग़मबर और औतार ज़ाहिर होने शुरूअ’ हुए थे और उन्होंने अ’वाम को ता’लीम देना शुरूअ’ कर दिया था।इंसान उन ता’लीमात के फ़ाइदों और नतीजों से आगाह हो गया था और ज़ाहिरी या माद्दी फ़ाइदों के साथ उसके ज़मीर में एक क़िस्म की सलाहियत और पाकीज़गी और ज़ेहन में एक रौशनी और तस्कीन महसूस होने लगी थी।फ़िर ये तसव्वुर किजिए कि कभी उसने उन माद्दी फ़ाइदों और ज़ेहनी सुकून में तज़ाद महसूस किया होगा या फ़ाइदों के बावजूद ज़ेहनी सुकून से महरूम रहा होगा तो उस वक़्त इंसान दो गिरोहों में तक़्सीम हो गए होंगे जो माद्दी फ़वाइद और महासिल ही को ज़िंदगी का हासिल समझते होंगे और बा’ज वो होंगे जिन्होंने ज़ेहनी सुकून और मसर्रत को ही आ’ला-तरीन मक़्सद समझा होगा।इस तरह दोनों गिरोह अपने अपने रास्ते अ’लाहिदा अ’लाहिदा मुतअ’य्यन कर लिए होंगे।रूहानी ज़िंदगी का तसव्वुर,उसकी तलाश और हासिल करने की ख़्वाहिश इंसान में कब पैदा हुई ये मुतअ’य्यन करना मुश्कल है।इस में शक नहीं कि इंसान को उस मंज़िल तक पहुंचने में न जाने कितनी तहज़ीबों,कितने तमद्दुनों और कितने उ’लूम और मज़ाहिब से गुज़रना पड़ा होगा।
अभी ये बात भी यक़ीन के साथ नहीं कही जा सकती कि मौजूदा अक़्वाम में किसकी तहज़ीब सब से क़दीम है।लेकिन ये मुसल्लम है कि हिंदू तहज़ीब दुनिया की क़दीम-तरीन तहज़ीबों में से एक है।
हिंदू क़दीम अदब के मुताले’ से ये वाज़िह हो जाता है कि एक क़ौम किस तरह अपना ज़ेहनी सफ़र शुरू करती है और हैरत, इस्ति’जाब,शक और ख़ौफ़ बहुत सी हालतों से गुज़र कर सदाक़त और हक़ के एहसास तक पहुंच जाती है।वेदों से ले कर उपनिषदों तक हमें उन सारे मराहिल और मंजिल के निशान वाज़िह तौर से मिल जाते हैं।उपनिषद चूंकि वेदों का आख़री हिस्सा है इसलिए उन्हें वेदांत कहते हैं।
संहिता या’नी चारों वेदों के बा’द जो किताबें वेदिक अदब में क़ाबिल-ए-एहतिराम हैं वो बरहमन हैं और उसके बा’द आरण्य और उपनिषद।बरहमनों में ख़ास कर शतपथ बरहमन में ब्रह्म ने बे-हद अहमियत हासिल कर ली थी।ब्रह्म ब-तौर-आ’ला उसूल के है जो देवताओं के पस-ए-पर्दा क़ूव्वत-ए-मुतहर्रिका है।बरहमनों के बा’द आरण्य एक मख़्सूस ज़ेहनी तरक़्क़ी का इज़्हार करते हैं।उन में यज्ञ वग़ैरा वेदिक रस्मों के ख़िलाफ़ रद्द-ए-अ’मल शुरूअ’ हो गया है और ज़ाहिरी रस्मों की बजाए फ़िक्र और मुराक़बों की तरफ़ रुजहान हो चला है। आरण्य के-बा’द उपनिषद आते हैं जिनमें से अकसर तौहीद पर और बा’ज़ सन्वियत और बा’ज़ कसरत पर मुश्तमिल हैं। उपनिषद इल्हामी वेद के आख़री हिस्से हैं इसलिए वेदांत कहलाते हैं।
उपनिषदों की शरह जिन लोगों ने वहदानी नुक़्ता-ए-नज़र से की है उनमें श्री शंकर को एक मख़्सूस मर्ताबा और शोहरत हासिल है।
वेद का रास्ता फ़राईज़ और अ’मल का रास्ता है जिसे कर्म मार्ग कहते हैं लेकिन उपनिषद राह-ए-मा’रिफ़त की तरफ़ हिदायत करते हैं जिसे ज्ञान मार्ग कहते हैं।उपनिषदों की रू से आ’बिद-ओ-मा’बूद के दर्मियान कोई तअ’ल्लुक़ नहीं है।इ’बादत ख़ुदा के हुज़ूर में पेश नही होती है बल्कि सिर्फ़ सदाक़त-ए-आ’लिया की तलाश ही आ’ला-तरीन और इंतिहाई मक़्सद है।श्री शंकर ने कहा कि उपनिषद ऐसे आ’ला-तरीन इंसानों के लिए हैं जो दुनियावी और आसमानी बरकतों से बाला-तर हैं और जिनको वेदिक फ़राईज़ में कोई दिल-चस्पी नहीं रही।इसी क़िस्म के ख़यालात गीता में भी ज़ाहिर किए गए हैं।
श्री शंकराचार्य के नज़दीक ब्रह्म ख़ालिस वजूद,ख़ालिस अ’क़्ल और ख़ालिस आनंद (सुकून-ए-महज़)है।वो तमाम सूरतों में जल्वा-गर है मगर सूरतों पर उसका इत्लाक़ एक धोका है। वो सूरतों से पाक है। हक़ीकी वजूद ब्रह्म का है।
ब्रह्म दूसरी तामाम अश्या से मुख़्तलिफ़ है।वो मुनव्वर बिज़्ज़ात है।वो किसी दूसरे शुऊ’र का हामिल नहीं हो सकता।उसके अ’लावा तमाम अश्या शुऊ’र का हामिल हो सकती हैं।ये आ’लम नुमाईश और धोका के सिवा कुछ नहीं है। जब धोका और सूरतें फ़ना हो जाती हैं तो ब्रह्म का तहक़ीक़ हुआ है।उसका मुनव्वर बिज़्ज़ात होना सूरतों के फ़ना होने पर ही मा’लूम होता है।ब्रह्म आ’लम की आख़री इ’ल्लत है।इ’ल्लत होने में माया (इल्तिबास)भी ब्रह्म का शरीक है। या’नी ब्रह्म अपनी माया के ज़रिऐ’ ब-तौर-ए-सूरत-ए-आ’लम ज़ाहिर होता है।शंकर के नज़दीक सिर्फ़ इ’ल्लत ही हक़ीक़ी है।
सूरत-ए-आ’लम
ये सवाल बहुत अहम है कि ये आ’लम क्या है और ब्रह्म से उसका तअ’ल्लुक़ किस नौइ’य्यत का है।उपनिषदों में उसके मुतअ’ल्लिक़ सिर्फ़ इतना कहा गया है कि ‘‘आ’लम नापाक है और पाक ब्रह्म से अलग है’’।
अस्ल में श्री शंकर और उनके मुत्तबिई’न का कारनामा ये है कि उन्होंने सूरत-ए-आ’लम की नौइ’य्यत की वज़ाहत की और ब्रह्म से उसके तअ’ल्लुक़ को समझाया।
शंकर के नज़दीक सूरत-ए-आ’लम माया या’नी इल्तिबास और धोका है।न उसे नीस्त कह सकते हैं और न हस्त।वो नहीं भी हैं और है भी।सूरत-ए-आ’लम इसलिए हस्त है कि जब तक हम में जिहालत(अविद्या ) क़ायम है उस वक़्त तक वो नज़र आती है।और इललिए नीस्त है कि जब ब्रह्म का इ’र्फ़ान होता है तो ये मा’दूम हो जाती है।हक़ीक़त की शक्लों में जो तग़य्युरात और हरकत महसूस होती है वो धोका है।आ’लम नापाक औऱ बे-अ’क़्ल है क्योंकि उपनिषदों में कहा गया है कि ‘‘आ’लम जो नापाक और बे-शुऊ’र है ब्रह्म से पैदा हुआ है’’ गउपाद ने भी सूरत-ए-आ’लम को ख़्वाब की सूरतों से तश्बीह दी है और कहा है कि बेदारी में देखी हुई अश्या ग़ैर हक़ीक़ी हैं।
अविद्या (जिहालत)
माया जिहालत नहीं है बल्कि एक मुस्तक़िल वुजूद है जो अपनी ज़ात से ना-क़ाबिल-ए-ता’रीफ़ और पुर-असरार माद्दा है। लेकिन जिहालत एक तरफ़ मौज़ूई’ सतह पर नफ़्स और हवास बनता है और दूसरी तरफ़ मा’रूज़ी सतह पर कुल मा’रूज़ी आ’लम बनता है। मंडन के नज़दीक अविद्या न मौजूद है न मा’दूम।इललिए ना-क़ाबिल-ए-तश्रीह और ना-क़ाबिल-ए-बयान है।
उपनिषदों का हक़ीक़ी मक़्सद ये ज़ाहिर करना है कि दिखाई देने वाले आ’लम का कोई वुजूद नहीं है सिर्फ़ इन्फ़िरादी रूहों(जीव)की जिहालत के सबब ये नुमूद-ओ-नुमाइश मा’लूम होती है।श्री शंकर इस नज़र आने वाले आ’लम और इंसानी ख़ुदी को शर,माया और जिहालत नीज़ ब्रह्म से अ’लाहिदा समझते हैं और जब आ’म धोका और मज्मुआ’-ए-शर है तो उस धोका और जिहालत से नजात हासिल करना ही अस्ली नजात है और इसका फ़ना हो जाना ही आख़री मंज़िल-ए-कमाल है क्योंकि बग़ैर इसके फ़ना हुए ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो सकता।
नजात (मुक्ति)
तमाम हिंदू-अर्बाब-ए-फ़िक्र और अस्हाब-ए-मज़हब इस बारे में मुत्तफ़िक़ हैं कि ज़िंदगी और दुनिया सुख से भरी हुई है। लज़्ज़त और अलम और उनका न ख़त्म होने वाला सिलसिला सुकून तक है इसलिए ज़िंदगी से नजात पाना ही हक़ीक़ी नजात है।
हक़ीक़ी नजात फ़ना-ए-कामिल के बग़ैर मुमकिन नहीं है क्यूँकि अगर वक़्ती तौर पर कोई दुख दूर भी कर दिया जाए तो दूसरा उसकी जगह ले लता है।बद-फ़े’ली और ख़ुद-कुशी से भी छुटकारा नहीं मिल सकता क्यूँकि हमारी फ़ितरत हमें अ’मल पर मजबूर करती है और ख़ुद-कुशी की सज़ा दुबारा जन्म और इस तरह वो मज़ीद ग़म-ओ-अलम का सबब बन जाती है। लज़्ज़त सिर्फ़ एक ज़ाहिरी सूरत है।लज़्ज़त को बाक़ी रखने की कोशिश भी तकलीफ़-देह है और उसे हासिल करन की कोशिश भी तकलीफ़-देह,लज़्ज़त का ख़त्म हो जाना भी तकलीफ़-देह। लज़्ज़त और अलम लाज़िम-मल्ज़ूम हैं।दुनिया और उसके अ’मल की इंतिहाई सदाक़त अलम ही है।
इस बात पर भी सब का इत्तिफ़ाक़ है कि अ’मल का सिलसिला पैदाईश से है और दुबारा जन्म के ऐसे नताइज जो ज़माने से चले आते है उनकी इब्तिदा नहीं है मगर इंतिहा ज़रूर है।लेकिन उस इंतहा को अपने अंदर ही तलाश करना चाहिए वर्ना हमें कभी ख़त्म न होने वाली ज़िंदगी में फंसा देंगे क्यूँकि हर अ’मल का एक नतीजा है और अ’मल के बा’द उसका नतीजा भुगतने के लिए जन्म ज़रूरी है।ज्ज़बात, ख़्वाहिशात और तसव्वुरात हमें अ’मल की तरफ़ ले जाते हैं। अगर हम उन चीज़ों से बे-तअ’ल्लुक़ हो जाएं तो हम अपने अंदर एक साकिन,साकित ऐसा अ’मल पाएंगे जो मसर्रत-ओ-अलम से पाक है और दुबारा जन्म नहीं लेती है।
उपनिषदों में नजात या मुक्ति के मा’नी उस इत्लाक़ी हालत या ना-मुतनाहियत के हैं जो इंसान अपनी ज़ात के सही इ’र्फ़ान के ज़रिआ’ हासिल करता है और ब्रह्म हो जाता है जहाँ न हरकत है ने तग़य्युर और न दुबारा ज़िंदगी और उसका दुख है।ये हालत क्या है उसकी तश्रीह नहीं हो सकती है ।वो एक समुंदर के मानिंद है जिसमें मज़हरी हस्ती फ़ना हो जाएगी जिस तरह नमक पानी में घुल जाता है।वेदांत के नज़दीक मुक्ति वो मंज़िल है जहाँ ब्रह्म का ख़लिस नूर(सत्त)ख़ालिस वुजूद-ए-कामिल आनंद के तौर पर अपनी नादिर शान-ओ-अ’ज़्मत के साथ चमकता है और बाक़ी सब कुछ वही और लाशे के ब-तौर बिल्कुल मा’दूम हो जाती है।
जीवन मुक्ति
हिंदू फ़ल्सफ़े में ये सवाल बहुत अहम है कि इस जिस्म के साथ या’नी ज़िदगी में नजात हासिल हो सकती है या नहीं क्यूँकि ये जिस्म और ये माद्दी आ’लम नापाक है और इसके अ’लावा मुक़य्यद है मुतहर्रिक है और अ’मल पर मजबूर है। वेदांत की रू से भी जिस्म अविद्या और माया का मज़हर है इसलिए जिस्म के साथ मुक्ति हासिल होना मुमकिन है। जीवन मुक्ति का लफ़्ज़ शंकर की तसानीफ़ में नहीं मिलता लेकिन कहा गया है कि जीवन मुक्ति ना-मुमकिन है और ज़िंदा नजात पाने वाला उस शख़्स को भी कहा जा सकता है जो किसी नए अ’मल का इक्तिसाब नहीं करता बल्कि सिर्फ़ गुज़िश्ता पके हुए कर्मों के फल बर्दाश्त करता है और जब वो फल ख़त्म हो जाते हैं तो जिस्म को छोड़ देता है और फिर दुबारा पैदा होता है।इस तरह वेदांत की रू से भी अस्ली नजात यही है कि इंसान जिस्म की क़ैद,अ’मल की बंदिश और दुबारा पैदाईश से नजात हासिल कर ले।नजात का मफ़्हूम ये है कि इंसान हस्ती और बार बार पैदा होने से नजात हासिल कर ले जो फ़ना-ए-कामिल ही की सूरत में मुमकिन है।हस्ती चूँकि अ’मल(कर्म) का नतीजा है इसलिए अ’मल को तर्क किए बग़ैर हस्ती से छुटकारा ना मुमकिन है।इस मुश्किल को तस्लीम करते हुए गीता ने ये नज़रिया दर्याफ़्त किया कि अ’मल के बावजूद नफ़्स की यकसूई हासिल की जाए तो अ’मल हमें अपने बंधन में नहीं ला सकते बल्कि अ’मल के बावजूद हमारे नफ़्स को यकसूई हासिल हो जाएगी।इस हालत को या तो हुसूल या फ़ल्सफ़याना अ’क़्ल से या ख़ुदा की भक्ति से हासिल किया जा सकता है लेकिन ख़ुद की भक्ति का रास्ता ज़ियादा आसान है।
वेदांत का ख़ुलासा ये है कि हक़ीक़ी वुजूद ब्रह्म का है ये आ’लम धोका और इल्तिबास है।इसी तरह इंसानी हस्ती और ‘‘अना’’ जिहालत और धोका है जो अ’मल और हरकत से पैदा होती है।इसके बरख़िलाफ़ ब्रह्म कामिल सुकून और फ़ना-ए-महज़ की हालत है।ब्रह्म की हालत तब हासिल होती है जब ये दिखाई देने वाला आ’लम और ये इंसानी हस्ती फ़ना हो जाती है।हस्ती की फ़ना और ब्रह्म की हालत करने के लिए तर्क-ए-अ’मल,तर्क-ए-हरकत और तर्क-ए-ख़्वाहिश वग़ैरा ज़रूरी है।नजात की आख़िरी हालत फ़ना-ए-महज़ की हालत है जो ब्रह्म की ऐ’न है।
नजात के लिए इ’ल्म और अ’मल
शंकर के ख़याल में मुराक़बे और इ’बादत या और किसी अ’मल की ज़रूरत नहीं बल्कि जब किसी पर ये सदाक़त ज़ाहिर हो जाती है कि ब्रह्म ही आख़री हक़ीक़त है तो उस शख़्स को अ’क़्ल-ए-मुत्लक़ और नजात हासिल हो जाती है।
वेद और दूसरे कर्म-कांड(जिनमें अहकाम,अफ़आ’ल और फ़राईज़ का बयान है)अद्ना दर्जे के और आरज़ूओं में फंसे हुए आदमी के लिए हैं लेकिन उपनिषद की ता’लीम में ज्ञान खंड(जो आख़िरी सदाक़त और हक़ीक़त का इज़्हार करते हैं) उन आ’ला और हौसला-मंद अफ़राद के लिए है जो रस्मी और ज़ाहिरी आ’माल-ओ-फ़राइज़ से बुलंद है और जो दुनियावी बरकत और आसमानी मसर्रत की ख़्वाहिश नहीं रखते।
वेदिक फ़राइज़ और उपनीषदों की आ’ला सदाक़त की ता’लीम एक साथ अंजाम नहीं दी जा सकती।जब कोई शख्स ये यक़ीन कर लेता है कि सिर्फ़ ब्रह्म ही हक़ीक़त है और हर चीज़ माया है तो तमाम आ’माल उसके लिए ग़ैर ज़रूरी और बे-असर हो जाते है।उसके बावजूद वेदांत के मुताला’ करने वाले के लिए चंद बातें ज़रूरी हैं।
हवास पर क़ाबू हासिल करना जिसके ज़रिऐ’ हर मुतअस्सिर करने वाली चीज़ को रद किया जाए और नए अ’मल न किए जाएं।हवास से सिर्फ़ वो चीज़ें हासिल की जाएं जो सही इ’ल्म के हसूल में इमदाद करें।
जब हवास को रोक दिया जाए तो ऐसी क़ुव्वत हासिल करना कि ये हवास फ़िर दुनियावी लज़्ज़तों को लालच न करें।
शदीद सर्दी और गर्मी बर्दाश्त करने की क़ूव्वत हासिल करना। सही इ’ल्म के हासिल करने कि तरफ़ नफ़्स को मशग़ूल करना।
उपनिषद और मुर्शिद पर ईमान-ओ-ए’तेक़ाद।
आवागवन(तनासुख़)
हिंदू फ़ल्सफ़े में मौत कोई चीज़ नहीं है।मौत से मुराद एक तग़य्युर है।तमाम आ’लम हर वक़्त बदलता है।मौत से जिस्म के अज्ज़ा मुतफ़र्रिक़ हो जाते हैं लेकिन फ़ना नही होते बल्कि उनसे दूसरे जिस्म पैदा होते हैं और उममें कोई भी दूसरी रूह आती रहती है।
आवागवन से मुराद ये है कि एक इंसान बार बार मरता है और बार बार पैदा होता है।ये पैदाईश उनके आ’माल के मुताबिक़ होती है जो वो पहले जन्म मे कर चुका होता है ताकि वो अपने उन आ’माल का नतीजा बर्दाश्त करे।इस तरह जिस्म बदलता रहता है लेकिन रूह नहीं बदलती।पैदाईश और मौत का या चक्कर कभी ख़त्म न होगा जब तक पुराने अ’मल ख़त्म न हो जाएं और नए अ’मल सर-ज़द होने मौक़ूफ़ न हो जाएं।अ’मल इरादे पर और इरादा ख़्वाहिश पर मुंहसिर है इसलिए कहा गया है
‘‘जब दिल से तमाम ख़्वाहिशात तर्क कर दी जाएं तो फ़ना ग़ैर क़ानूनी हो जाता है और ब्रह्म में फ़ना हो जाता है’’।
इसलिए तमाम हिंदु निज़ाम में तर्क-ए-अ’मल पर ज़ोर दिया गया है क्योंकि तनासुख़ के ये सब मकातिब-ए-फ़िक्र क़ाएल हैं। यहाँ तक कि बौद्ध मत जो किसी क़िस्म के वुजूद को नहीं मानता यहाँ तक कि रूह के वुजूद का भी क़ाइल नहीं है तनासुख़ को तस्लीम करता है और दूसरे तमाम अर्बाब-ए-मज़ाहिब की तरह तनासुख़ से नजात हासिल करने को नजात समझता है।
गीता भी ये तस्लीम करती है कि दुनिया कर्म के असास पर पैदा हुई।इसलिए जब तक अ’मल मौक़ूफ़ न होंगे दूसरा जन्म मौक़ूफ़ न होगा।गीता में नजात का तसव्वुर नफ़ी-ए-ख़ुदी और ब्रह्म में फ़ना हो जाना है चुनांचे कहा गया है:
“वो आ’ली हिम्मत जो इ’र्फ़ान से कमाल को पाता है फिर तनासुख़ की तरफ़ रुजूअ’ नहीं करता क्यूँकि आवागवन सरापा रंज है’’।
जो ख़ुदी को छोड़ देता है वो मौत के चंगुल में फंसता है बल्कि ब्रह्म (अह्दियत) के दर्जे में पहुंचता है।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
- Kaleem Athar
- Khursheed Alam
- Mazhar Farid
- Meher Murshed
- Mustaquim Pervez
- Qurban Ali
- Raiyan Abulolai
- Rekha Pande
- Saabir Raza Rahbar Misbahi
- Shamim Tariq
- Sharid Ansari
- Shashi Tandon
- Sufinama Archive
- Syed Ali Nadeem Rezavi
- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Shamimuddin Ahmad Munemi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi