
ख़ानक़ाह-ए-फुलवारी शरीफ़ के मरासिम-ए-उ’र्स

फुलवारी की ख़नाकाह और सज्जादा-ओ-सिलसिला-ए-हज़रत ताजुल-आ’रिफ़ीन आ’फ़्ताब-ए-तरीक़त मख़दूम शाह मोहम्मद मुजीबुल्लाह क़ादरी क़लंदर फुलवारवी की ज़ात-ए-बा-बरकात से वाबस्ता और उन्हीं के नाम-ए-नामी पर मौसूम है।
ज़ैल में उस ख़ानकाह के मा’मूलात-ओ-मरासिम-ए-उ’र्स हदिया -ए-नाज़िरीन किए जाते हैं।यहाँ आ’रास की तक़रीबें मुतअ’द्दिद और ब-कसरत होती हैं लेकिन सब से पहला और मुक़द्दस और सब से ज़ियादा मुहतम-बिश्शान उ’र्स माह-ए-रबीउ’ल-अव्वल की याज़्दहुम-ओ-द्वाज़दहुम को ख़ास हुज़ूर-ए-पुर-नूर सर्वर-ए-आ’लम सय्यिदना-ओ-मौलाना-ओ-हबीबना मोहम्मद रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहि तआ’ला अ’लैहि व-आलिहि-व-सल्लम का होता है।इस उ’र्स के मौक़ा’ पर न सिर्फ़ सूबा-ए-बिहार और अतराफ़-ओ-जवानिब के मशाईख़-ओ-अहल-ए-इ’ल्म-ओ-मुअ’ज्ज़िज़ीन और अ’वामुन्नास का मज्मा’ होता हैं बल्कि दूर-दराज़ से हर तबक़ा के लोग आते हैं और शरीक-ए-उ’र्स होते हैं।

रबीउ’ल-अव्वल की इब्तिदाई तारीख़ों से मेहमानों की आमद शुरुअ’ हो जाती है और दसवीं तक बहुत बड़ा मज्मा’ हो जाता है।शब-ए-याज़्दहुम से उ’र्स शुरुअ’ होता है। वो इस तौर पर कि 3 बजे शब से फ़र्श-ओ-फ़ुरूश और रौशनी वग़ैरह का पूरा एहतिमाम किया जाता है और तमाम लोग तहज़ीब और क़रीना से आ कर बैठ जाते हैं।क़रीब सुब्ह-ए-सादिक़ हज़रत सज्जादा-नशीन मद्दाज़िल्लहु अपनी ख़ल्वत से ख़ानकाह के समा’अ-ख़ाना में तशरीफ़ लाते हैं।
क़ुल के लिए दसतर-ख़्वान बिछाया जाता है जिस पर मिठाई लाकर सामने रख दी जाती है और एक तरफ़ सिलसिला-वार मुतअ’द्दिद खुशबू-दार चीज़ें जला दी जाती हैं।दसतर-ख़्वान के किनारे मगर साहिब-ए-सज्जादा दामत बरकातुहु के मुवाजिह में क़ुरआन-ख़्वानों की एक मुक़र्रा जमाअ’त सफ़-बस्ता और तर्तीब-वार बैठ जाती है और हज़रत सज्जादा साहिब क़िबला की ख़ामोश इजाज़त का इशारा पा कर उन्हीं में का पहला शख़्श सूरा-ए-फ़ातिहा से क़ुल का इफ़्तिताह करता है।और तर्तीब-वार मुक़र्रा अश्ख़्वास मुक़र्रा सूरतों को पढ़ कर ख़त्म करते हैं।आख़िर में वही पहला शख़्स वो ख़ास दुरूद शरीफ़ पढ़ता है जिसमें द्वाज़्दा अइम्मा-ए-अहल-ए-बैत अ’लैहिमुस्सलाम के अस्मा-ए-गिरामी निहायत ख़ूबी के साथ मज़कूर हैं।फ़िर फ़ातिहा के बा’द शीरीनी और संदल और बर्ग-ए-तंबूल बिल्कुल बा-क़ाइ’दा तौर पर तक़्सीम किए जाते हैं। इसी तौर पर गुलाब-पाश से साहिब-ए-सज्जादा और तमाम हाज़िरीन पर गुलाब-पाशी की जाती है फिर महफ़िल-ए-समा’अ शुरूअ’ होती है।मज्लिस में निहायत अदब और इन्तिहाई तहज़ीब बरती जाती है।तमाम लोग दो ज़ानू बैठते हैं।शुरुअ’ से आख़िर तक इसी निशस्त की सख़्त पाबंदी की जाती है।कोई शख़्स मज्लिस के अंदर दूसरी निशस्त या आदाब-ए-महफ़िल के ख़िलाफ़ कोई काम करने का मजाज़ नहीं होता।जोश-ओ-ख़रोश करने वाले जब तक अपने जोश और वज्द से फ़ारिग़ हो कर ख़ुद बैठ न जाएं साहिब-ए-सज्जादा और सब लोग खड़े रहेंगे।इस हालत में चाहे कितना ही अ’र्सा गुज़र जाए लेकिन न तो साहिब-ए-हाल को रोका जा सकता है और न कोई शख़्स दर्मियान में बैठ सकता है।
इस सुहाने वक़्त की मज्लिस-ए-ममाअ’ वाक़ई’ एक ख़ास असर और अ’जीब लुत्फ़ रख़ती है।इस वक़्त महफ़िल अकसर गर्म हो जाती है।लेकिन चूँकि फ़ौरन सुब्ह नुमूदार हो जाती है इसलिए नमाज़ के लिए थोड़ी देर तक समा’अ मौक़ूफ़ कर दी जाती है क्योंकि मुव्वज़िन सुब्ह नुमूदार होते ही अपने वक़्त-ए-मुक़र्रा पर अज़ान दे देता है और लोगों के जोश-ओ-ख़रोश या महफ़िल से गर्म होने की पर्वाह नहीं की जाती।क़व्वाल अल्लाहु अकबर की आवाज़ बुलंद होते ही फ़िल-फ़ौर ख़मोश हो जाते हैं।अज़ान कि दुआ’ पढ़ लेने के बा’द चूँकि ग़ल्स (अंधेरा) बाक़ी रहता है इसलिए फिर कुछ देर के लिए क़व्वाली शुरूअ’ होती है और जब अस्फ़ार का वक़्त आता है तो समाअ’ मौक़ूफ़ होकर मस्जिद में जो समाअ’-ख़ाना के बिल्कुल ही मुत्तसिल है बा-जमाअ’त नमाज़ अदा की जाती है।नमाज़ वग़ैरा से फ़ारिग़ होने के बा’द फिर महफ़िल-ए-समाअ’ उस वक़्त से ग्यारह बारह बजे तक गर्म रहती है और इब्तिदा से इन्तिहा तक साहिब-ए-सज्जादा लाज़िमी तौर पर महफ़िल में तशरीफ़ फ़रमा होते हैं। महफ़िल बरख़्वास्त होने के बा’द हज़रत सज्जादा साहिब अपनी ख़ल्वत में तशरीफ़ ले जाते हैं।
शब-ए-द्वाज़दहुम को पहले बा’द नमज़-ए-इ’शा मौलूद-शरीफ़ बिल्कुल सूफ़ियाना रंग में निहायत जोश-ओ-ख़रोश के साथ होता है।बा’दहु शीरीनी तक़्सीम होती है फिर सुब्ह-ए-सादिक़ के क़रीब हसब-ए-मा’मूल क़ुल-ओ-फ़ातिहा और नमाज़ बा-जमाअ’त और मज्लिस-ए-क़व्वाली उस वक़्त से 12 बजे दिन तक गर्म रहती है।इस वक़्त फिर दस्तर-ख़्वान पर क़ुल पुहंचाया जाता है और क़ुल-ओ-फ़ातिहा और तक़्सीम-ए-शीरीनी-ओ-शर्बत-ओ-संदल की जाती है और गुलाब-पाशी हसब-ए-दस्तूर-ए-मुक़र्रा होती है।अब इस वक़्त से ज़ियारत-ए-मू-ए-मुबारक का एहतिमाम शुरूअ’ हो जाता है।2 बजे ज़ुहर की अज़ान होती है और सज्जादा-नशीन दामत-बरकातुहु ख़ल्वत से मस्जिद में तशरीफ़ लाकर नमाज़-बा-जमाअ’त अदा फ़रमाते हैं।इस वक़्त तमाम ख़ानकाह शरीफ़ के वसीअ’ हल्क़ा में इस क़दर मज्मा-ए’-कसीर और जम्म-ए-ग़फ़ीर अ’वाम-ओ-ख़्वास का होता है कि शाना से शाना छिलता है।समाअ’-ख़ाना के एक जानिब ज़ियारत-गाह निहायत अदब,ता’ज़ीम और ख़ूबी और ख़ुश-उस्लूबी से लोहे के मज़्बूत खड़ों के हल्क़ा में मुर्तसिम की जाती है।साहिब-ए-सज्जादा दा-म मजदुहु बा’द नमाज़ वहीं आ कर मुअद्दब-ओ-ख़ामोश खड़े हो जाते हैं।साहिब-ए-सज्जादा और चंद ख़ास मुहतमिमीन और मद्ह-ख़्वानों के अ’लावा आ’म ज़ाइरीन खड़े से बाहर हल्क़ा किए हुए खड़े होते हैं।थोड़ी देर में हज़रत सज्जादा-नशीन की ख़ल्वत शरीफ़ की जानिब से सलात-ओ-सलाम की बुलंद आवाज़ लोगों की मुश्ताक़ नज़रों को अपनी तरफ़ मुतवज्जिह कर देती है और एक मुअ’म्मर बुज़ुर्ग अपने सर पर आसार शरीफ़ का बस्ता लिए हुए और चंद हज़रात उन के पीछे मोरछल-रानी करते हुवे ज़ियारत-गाह में आते हुए दिखाई पड़ते हैं।इस वक़्त सब लोग अदब से सर झुका देते है और सर-ए-तसलीम ख़म कर के आहिस्ता-आहिस्ता सलात-ओ-सलाम पढ़ते हैं।मद्ह-ख़्वानी शुरूअ’ हो जाती है और चोब-बर्दार एक मुक़र्रा सीट पर अपनी अपनी जगह पर खड़े होकर मोरछल-रानी करते रहते हैं।वो सेह्रा-ए-मुबारक-ओ-मुक़द्दस का डिब्बा जिसमें रसूल-ए-ख़ुदा सल्लल्लाहु-अ’लैहि-व-सल्लम और सय्यिदिना इमाम हसन अ’लैहिस्साम के मू-ए-मुबारक हैं और जो बहुतेरे ज़र्रीं-ओ-नफ़ीस-ओ-मुअ’त्तर कपड़ों में लपेटा हुआ होता है खोला जाता हैं।जिस वक़्त साहिब-ए-सज्जादा इस डिब्बा को अपना सर लगा कर खोलते हैं हाज़िरीन की आमद-ओ-रफ़्त के लिए कई दरवाज़े बा’ज़ दाख़िला के लिए और बा’ज़ बाहर निकलने के लिए पहले से बनाए जाते हैं।और हर दरवाज़े पर मज़बूत आदमी ज़ियारत कराने वाले मुक़र्र होते हैं।जिस वक़्त ज़ियारत शुरूअ’ होती है एक दरवाज़े से लोग आते हैं और ज़ियारत करा के फ़ौरन दूसरी जानिब से वो बाहर कर दिए जाते हैं।दौरान-ए-ज़ियारत जो लोग वहाँ पर सर रखना या बोसा देना या हाथ बढ़ा कर ड़िब्बा को छूना चाहते हैं वो इस हरकत से रोक दिए जाते हैं।

हर ज़ाइर का इज़्दिहाम और बार बार रेला कर के एक का दूसरे पर सबक़त करने की कोशिश में आपस का धक्कम-धक्का,ज़ियारत कराने वालों और मुंतज़िमीन का पसीना में ढूबना,इधर ना’त-ख़्वानी की मस्ती-ओ-ज़ौक़ के साथ ना’त ख़्वानी,अहल-ए-दिल बुज़ुर्गों का जोश-ओ-खरोश के आ’लम में हू हक़ के ना’रे लागना और लोगों की आह-ओ-बुका की आवाज़ें,ये तमाम बातें अ’जीब पुर-लुत्फ़ और मुवस्सिर समाँ पैदा कर देती हैं।
अल्लाहुममा-सल्लि-व-सल्लिम-अ’ला हबीबिहि मोहम्मदिन-व-आलिही-व-असहाबिहि-अज्मई’न*
दो तिहाई घंटा में ज़ियारत तमाम होकर शीरीनी तक़्सीम होती है और ग़ुस्ल का पानी गुलाब में मिला कर हाज़िरीन को तक़्सीम किया जाता है और महज़ थोड़ी देर के लिए फिर मज्लिस-ए-समाअ’ होती है जो उ’र्स-ए-रबीउ’ल-अव्वल की गोया आख़री-ओ-इख़्तितामी तक़रीब है।
अ’स्र की नमाज़ बा-जमाअ’त के बा’द हज़रत सज्जादा-नशीन अपने रोज़ाना के मा’मूल के मुताबिक़ दरगाह शरीफ़ पर फ़ातिहा-ओ-ज़ियारत के लिए तशरीफ़ ले जाते और दरगाह शरीफ़ से आकर मग़्रिब तक हसब-ए-मा’मूल रोज़ाना मस्जिद के क़रीब बैठते और मेहमनों से मुलाक़ात-ओ-मुदारात फ़रमाते हैं।
उ’र्स की कुल तक़रीबें ख़ानकाह के अंदर होती हैं।इनका मज़ारात से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं होता।मज़ारात पर सिवाए सलाम-ओ-ज़ियारत-ओ-फ़ातिहा के जो साहिब-ए-सज्जादा के दवामी मा’मूलात से हैं कोई और रस्म किसी ज़माने में नहीं अदा की जाती।समाअ’-ख़ाना ख़ानकाह के अंदर है।मज्लिसें वहीं होती हैं।क़ुल या ख़तमात-ए-क़ुरआन वग़ैरा भी समाअ’-ख़ाना ही में होते हैं।हाँ कभी कभी बा’ज़ मुतवस्सिलीन-ए-ख़ानकाह मज़ार पर क़व्वाली के साथ चादर ले जाते हैं और हज़रत साहिब-ए-सज्जादा की शिरकत की ग़र्ज से चादर ले जाने का वक़्त अ’स्र का वक़्त मुक़र्र कर लेते हैं।और चूँकि वो वक़्त सज्जादा-नशीन के मज़ार का होता है इसलिए चादर चढ़ाने में उनकी मई’यत होती है और क़व्वाली के साथ मज़ार पर चादर चढ़ाई जाती है।
सूबा-ए-बिहार की मश्हूर ख़ानकाहों और दरगाहों में उ’मूमन और फुलवारी में ख़ुसूसन उ’र्स के मौक़ा’ पर या किसी ज़माने में बाज़ारी औ’रतो का नाचना गाना या आना जाना बिल्कुल ममनूअ’-ओ-मसदूद है।वल-हम्दुलिल्लाहि अ’ला ज़ालिक।
मेला-ए-उ’र्स
उ’र्स रबीउ’ल-अव्वल शरीफ़ के मौक़ा’ पर कसरत-ए-इज़्दिहाम की वजह से ख़ासा मेला हो जाता है।ये मेला 7-8 रबीउ’ल-अव्वल से शुरूअ’ होकर 10 तक दरगाह से अंदरून-ए-ख़ानकाह तक पूरा मेला जम जाता है।सहन-ए-ख़ानकाह के अंदर हर तरह की छोटी बड़ी चीज़ों की दुकानें आ जाती हैं जिनकी वजह से मेहमानों को बहुत कुछ आराम हासिल होता है। दुकानदार अपनी दुकानों को मौक़ा’ और सलीक़ा से सजाते हैं। मेला साफ़-सुथरा होता है और बहुतेरे दुकानदार अपनी औ’रतों और बच्चों के साथ होते हैं इसलिए मज़ारात के आदाब में यक़ीनन कमी वाक़िअ’ होती होगी।ख़ुदा इस कमी को भी पूरा कर दे।
मेला के अय्याम में इसका ख़ास ख़याल रखा जाता है कि बाज़ारी औ’रतें दरगाह शरीफ़ पर गश्त लगाने के लिए हर्गिज़ न आने पाएं।अगर कोई बाज़ारी औ’रत इत्तिफ़ाक़न आ जाती है तो उसे दरगाह-ओ-ख़ानकाह के इहाता में ठहरने की क़तअ’न इजाज़त नहीं दी जाती।या अगर कोई बद-मआ’श नशा-बाज़ वग़ैरा बद-मस्ती में ख़ानकाह के अंदर आ जाता है या मेला में उसकी कोई शरारत देखी जाती है तो उसको फ़ौरन तंबीह की जाती है।
ज़नाना मेला और ज़ियारत
ख़ास ज़नाना मेला-ओ-बाज़ार,ख़ानकाह-ओ-दरागह के मेला से बिल्कुल अलग हवेली में होता है जिसका सिलसिला मुतअ’द्दिद मुत्तसिल ज़नाना मकानों और गलियों तक रहता है।इस ज़नाना मेला-ओ-बाज़ार को मर्दाना हिस्सा से मुतलक़ कोई तअ’ल्लुक़ नहीं होता है।यहाँ सारा साज़-ओ-सामान और दुकानें बिल्कुल औ’रतों की होती हैं जिन में शरीफ़ बीबियों की दिल-बस्तगी और ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त के अस्बाब और शीरीनी-ओ-मिठाई के अ’लावा हर क़िस्म की ज़नाना ज़रूरत की अश्या मौजूद होती हैं।इस मौक़ा’ पर तमाम अतराफ़-ओ-जवानिब की शरीफ़ ख़ातूनें ब-कसरत आती हैं और उनकी मेहमानदारी-ओ-राहत-रसानी का पूरा इंतिज़ाम किया जाता है।
द्वाज़दहुम रबीउ’ल अव्वल की सुब्ह से 12 बजे तक हवेली में भी ज़नाना ज़ियारत-ए-मू-ए-मुबारक का एहतिमाम पूरे इन्तिज़ाम के साथ होता है।यहाँ भी पूरा साज़-ओ-सामान वही होता है जो बाहर ख़ानकाह शरीफ़ में ज़ियारत के मुतअ’ल्लिक़ मा’मूल है।आसार शरीफ़ का लाना,ज़ियारत करना,ना’त-ख़्वानी वग़ैरा।सारा इन्तिज़ाम इस ख़ानदान-ए-मुजीबी की मोहतरम ख़ातूनें अंजाम देती हैं।
13 ता 14 रबीउ’ल-अव्वल को ज़नाना मज्लिस को ज़नाना मौलूद शरीफ़ की हवेली में धूम-धाम से बरपा किया जता है।
तआ’म-दारी
ख़ानकाह शरीफ़ की तरफ़ से अंदरून और बाहर नीज़ बस्ती में आ’म तौर पर खाना तक़्सीम किया जाता है और तमाम मेहमानों की तआ’म-दारी की जाती है।
छोटी ख़ानकाह (जो दर अस्ल ख़ानकाह-ए-हज़रत पीर मुजीब की एक शाख़ और निस्बती तअ’ल्लुक़ की हैसियत से फ़रीदी ख़ानकाह है) में भी 9 ता 10 रबीउ’ल-अव्वल नीज़ याज़दहुम और द्वाज़दहुम को उ’र्स होता है।याज़्दहुम को यहाँ गागरी की रस्म भी अदा की जाती है।मेहमानों की तआ’म-दारी भी होती है।
हज़रत क़िब्ला-ए-आ’लम मौलाना शाह मोहम्मद सुलैमान साहिब क़ादरी चिश्ती मद्द-ज़िल्लहुल-आ’ली के ख़ास मकान में पहली तारीख़ रबीउ’ल-अव्वल से हर शब को ज़िक्र-ए-रसूल की मज्लिस होती है जिममें हुज़ूर-ए-पुर-नूर की सवानिह-ए-उ’म्री तर्तीब-वार अज़ विलादत ता वफ़ात हसब-ए-गुंजाइश-ए-औक़ात बयान की जाती है और शब-ए-द्वाज़दहुम को यही मज्लिस बजाए यहाँ के ख़ानकाह-ए-आ’लम-पनाह में ब-तक़रीब-ए- मौलूद-शरीफ़ होती है।
हज़रत शाह वहीदुल-हक़ साहिब मुनइ’मी अबुल-उ’लाई सज्जादा नशीन, संगीन मस्जिद,फुलवारी,रहमतुल्लाहि अ’लैह के यहाँ भी याज़्दहुम रबीउ’ल-अव्वल को बा’द-ए-ज़ुहर मौलूद शरीफ़ और ज़ियारत-ए-मू-ए-मुबारक होती है।
दिगर आ’रास-ए-ख़ानकाह-ए-मुजीबिया
रबीउ’ल-अव्वल के उस उ’र्स के अ’लावा बहुतेरे दीगर आ’रास भी ख़ानकाह शरीफ़ में होते हैं।मस्लन शब-ए-चहारदहुम रबीउ’ल-अव्व्ल को हज़रत क़ुतुबुल-अक़ताब ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी और रबीउ’स्सानी में हज़रत ग़ौसुस्सक़लैन का उ’र्स धूम धाम से होता है जब कि 27 शब को बारहवीं शरीफ़ की तक़रीब निहायत एहतिमाम से होती है।रौशनी बहुत कसरत से होती है और एक बजे तक समाअ’ की महफ़िल गर्म रहती है और 21 रमज़ान को हज़रत मौला-ए-काएनात अ’लैहिस्सलाम का उ’र्स होता है और 29 सफ़र को इमाम-ए- हुसैन का उ’र्स होता है।और दसवीं मुहर्रम को हज़रत सय्यदुश्शोहदा का उ’र्स होता है।क़ुल-ओ-फ़ातिहा के बा’द असामी-ए-शोहदा-ए-कर्बला पढ़े जाते हैं लेकिन मज्लिस-ए-समाअ’ नहीं होती।और हज़रत ताजुल-आ’रिफ़ीन मख़्दूम शाह मोहम्मद मुजीबुल्लाह और उनके शैख़-ओ-मुर्शिद और तमामी गुज़िश्ता सज्जादा-नशीनान-ए-ख़ानकाह-ए-मुजीबिया के आ’रास उनकी वफ़ात की तारीख़ों में होते हैं।
हज़रत सरवर-ए-आ’लम और अमीरुल-मुमिनीन अ’लैहिस्सलाम और हज़रत ग़ौसुल-आ’ज़म और हज़रत पीर मुजीब नीज़ दीगर बुज़र्गान-ए-सिलसिला के माहाना क़ुल (बिला मज्लिस-ए-समाअ’) 24-21-1211 (234) वग़ैरा तारीख़ों में हर महीने होते हैं और हर महीने की याज़्दहुम हमेशा ज़ुहर के बा’द।
साभार – निज़ाम उल मशायख़ पत्रिका
चित्र सन्दर्भ – ख़ानक़ाह मुजीबिया फेसबुक पेज
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