उ’र्फ़ी हिन्दी ज़बान में-मक़्बूल हुसैन अहमदपुरी
दूसरे मशाहीर-ए-अ’हद-ए-मुग़लिया की तरह उ’र्फ़ी भी संस्कृत या हिन्दी ज़बान न जानता था।लेकिन हिंदूओं के रस्म-ओ-रिवाज और उनके अ’क़ाइद के मुतअ’ल्लिक़ आ’म बातों से वाक़िफ़ था।चुनाँचे उसने अपने अश्आ’र में जा-ब-जा अहल-ए-हिंद के रुसूम की तरफ़ इशारा किया है।और ये दिल-फ़रेब किनाए ज़्यादा-तर उसके ग़ज़लियात के मज्मूआ’ में पाए जाते हैं।
ब-हैसियत-ए-इन्सान उ’र्फ़ी की हक़ीक़ी खूबियाँ पर्दा-ए-ख़िफ़ा में रहीं क्योंकि नक़्क़ादान-ए-अदब ने उसके साथ रवादारी बरतने में बहुत बुख़्ल से काम लिया है।ख़ुद हमारे दौर के एक वक़ीअ’ मुसन्निफ़ या’नी मौलाना शिबली ने शे’रुल-अ’जम में उ’र्फ़ी के कलाम पर तन्क़ीद करते हुए कम-ओ-बेश उसके अख़्लाक़ पर भी नुक्ता-चीनी की जो उ’र्फ़ी के हम-अ’स्र सवानिह-निगारों की हम-नवाई से ज़्यादा वक़्अ’त नहीं रखती। ता-हम मौलाना मरहूम को भी उ’र्फ़ी की जिद्दत-ए-तबअ’ का ए’तराफ़ करना पड़ा है और अगर वो उसके हम-अ’स्रों की तन्क़ीदों से क़त्-ए’-नज़र कर के अपने तौर पर कोई राय-ज़नी करते तो उन्हें उ’र्फ़ी में महासिन ही नज़र आते लेकिन मौलाना ने रवादारी से काम लिया और तन्क़ीद में कोई जिद्दत पैदा न कर सके।
इसमें कोई शक नहीं कि उ’र्फ़ी का दिल बड़ा ग़यूर था।ओछे-पन को उसकी सरिश्त में बिल्कुल दख़्ल न था।वो दिन को दिन और रात को रात कहता था।लगी-लिपटी बातें उसे पसंद न थीं।
बेशतर फ़ारसी शो’रा की तरह उ’र्फ़ी को हिंदूओं के रस्म-ओ-रिवाज से दिल-चस्पी थी। और जिस तरह उसने उनका ज़िक्र किया है उस से हमदर्दी सी पाई जाती है।
उ’र्फ़ी के ख़यालात दुनिया के लिटरेचर में जगह पाने के मुस्तहिक़ हैं। क्योंकि उफ़्ताद-ए-तब्अ’ ने उसके ख़यालात में एक ख़ास नुदरत पैदा कर दी थी और अगर हिंदी ज़बान में उस के ख़्यालात पेश कर दिए जाएं तो वो एक महाकवि या’नी बड़े शाइ’र के ख़्यालात मा’लूम होंगे।
उ’र्फ़ी की ये ख़ुसूसियत उसकी अनोखी तबीअ’त का नतीजा है, जो ख़ुद्दारी, संजीदगी और आज़ादा-रवी का मज्मूआ’ थी।इसी वजह से उसके अश्आ’र में ग़म-ओ-इंबिसात दोनों के मुतज़ाद पहलू तासीर और दिल-फ़रेबी का बाइ’स हैं।लुत्फ़ ये कि उसके कलाम की तासीर रुलाने वाली नहीं बल्कि हिम्मत बंधाने वाली है। उसका मज़ाक़-ए-सुख़न(Humour) ज़राफ़त के बजाय मिज़ाह का पहलू लिए हुए था। मिसाल के तौर पर एक शे’र लिखा जाता है जो इन तमाम ख़ुसूसियत का मुरक़्क़ा’ है। वो लिखता है कि :
कुफ़्र नय इस्लाम नय इस्लाम-ए-कुफ़्र-आमेज़ नय
हिक्मत-ए-एज़द न-दानम चीस्त दर ईजाद-ए-मा
(तर्जुमा)-
कुफ़्र नहीं, इस्लाम नहीं और कुफ़्र मिला इस्लाम नहीं,
मैंने ये भेद न पाया कि ख़ालिक़ ने मुझे क्यों बनाया।
उ’र्फ़ी के हम-अ’स्रों को इस बात से तअ’ज्जुब होता था कि वो दूसरों के बर-अ’क्स क्यों दरयूज़ा-गरी की ज़िंदगी से बे-ज़ार रहता है। इस बे-नियाज़ी की अस्ल वजह ये थी कि वो ज़माना-साज़ लोगों की सत्ही ज़ेहनियत को ब-ख़ूबी समझे हुए थे।उस ज़माना में सुसाइटी के दो पहलू ख़ास-तौर पर नुमायाँ थे।एक आ’म दूसरा ख़ास बल्कि ख़ासुल-ख़ास।उनमें से एक मज़हब था और दूसरा चापलूसी।मज़हब और उस से मुतअ’ल्लिक़ तावीलात के बारे में उ’र्फ़ी ने क्या ख़ूब लिखा है ।
हरम जोयाँ दरे रा मी-परस्तंद
फ़क़ीहाँ दफ़्तरे रा मी-परस्तंद
बर-अफ़गन पर्दः ता-मा’लूम गर्दद
कि याराँ दीगरे रा मी-परस्तंद
तर्जुमा:
दर को पूजें का’बे वाले
पंडित पूजें पोथी
खींच ले पर्दा देख लें सूरत
नहीं वो दिल में जो थी
या’नी हरम-ए-का’बा के ख़्वास्तगार हक़ीक़तन एक मा’मूली दर (दरवाज़ा-ए-हरम) के परस्तार हैं और आ’लिमों या पंडितों की वही सूरत है जो किताब के कीड़ों की है।अगर हक़ीक़त अपने रुख़ से नक़ाब हटा दे तो मा’लूम हो जाए कि उनमें कोई हक़ीक़त का परस्तार न था बल्कि हर शख़्स एक मस्नूई’ पैकर की परस्तिश कर रहा था जो उस की ख़ाम-ख़याली ने ईजाद की थी।
चापलूसी से उ’र्फ़ी को दिली नफ़रत थी। उसका ये मस्लक था कि हक़ मुस्तहिक़ के लिए है ना-अहल या मंज़ूर-ए-नज़र के लिए नहीं है। चुनाँचे यही मस्लक उ’र्फ़ी ने ज़ैल के शे’र में नुमायाँ कर दिया है:
गिरफ़्तम आँ कि बहिश्तम देहंद बे-ताअ’त
क़ुबूल कर्दन-ओ-रफ़्तन न शर्त-ए-इन्साफ़ अस्त
तर्जुमा:
हमने माना बाग़-ए-जन्नत बे-इ’बादत ही मिले
लेकिन इस तरह वहाँ जाना सरासर ज़ुल्म है
ग़ालिबन इसी उसूल को मद्द-ए-नज़र रखते हुए उ’र्फ़ी ने बहुत कम क़साएद लिखे और जो क़साएद लिखे भी वो ज़्यादा-तर पेशवायान-ए-दीन की मद्ह में हैं।उसने इक्के दुक्के क़साएद उमरा की मद्ह में भी लिखे जो ग़ालिबन उसे मज्बूरन लिखना पड़े।क्योंकि बादशाहों के दरबार में नज़्र पेश करने की रस्म आदाब-ए-दरबार से थी मगर शाइ’र उ’मूमन ना-दार होते थे उन में नज़्र की इस्तिताअत’ कहाँ। इसके अ’लावा शाइरों से नक़्द रक़म की सूरत में क़ुबूल करना मा’यूब भी समझा जाता था इसलिए शाइरों को ख़्वाह-म-ख़ाह क़सीदा लिखना पड़ता था।उ’र्फ़ी ने भी इसी बिना पर चंद क़सीदे लिखे और उन पर ख़ासा इन्आ’म पाया।
अपनी आज़ाद-मनिश उफ़्ताद-ए-तबीअ’त की बिना पर उ’र्फ़ी को ख़्वाजा हाफ़िज़ से दिली अ’क़ीदत थी मगर दूसरे शाइ’रों से भी उसे कोई बैर न था।चुनाँचे उसने कभी किसी हम-अ’स्रों की हज्व नहीं लिखी।
चूँकि उ’र्फ़ी के शबाब का ज़माना हिन्दुस्तान ही में गुज़रा इसलिए हिंद की निगाहों से उसका कलाम ओझल न रहना चाहिए।हम इसी जज़्बे के मा-तहत उसके चंद मशहूर अश्आ’र को दोहों की सूरत में तर्जुमा कर के लिखते हैं और आसान हिन्दुस्तानी में एक ग़ज़ल का तर्जुमा भी ब-तौर-ए-तम्सील दिए देते हैं ताकि अहल-ए-ज़ौक़ उस बड़े शाइ’र से ब-ख़ूबी रु-शनास हो जाएं। पहले उसके दो निहायत मशहूर अश्आ’र का तर्जुमा आ’म हिन्दुस्तानी में पेश किया जाता है ताकि उ’र्फ़ी की उ’लू-ए-हिम्मती का अंदाज़ा हो सके।उसके एक मशहूर क़सीदे का मत्ला’ ये है:
इक़्बाल-ए-करम मी-गुज़द अरबाब-ए-हिमम रा
हिम्मत न-ख़ूरद नेश्तर ला-ओ-नअ’म रा
तर्जुमा:
साधू के अभिमान को दुख देती है दया दयालूओं की
हाँ और नहीं से दब नहीं सकती,शक्ति हिम्मत वालों की
इसी क़सीदे में एक जगह और लिखता है कि
बे-बर्गी-ए-मन दाग़ निहद बर दिल-ए-सामाँ
बे-मेहरी-ए-मन ज़र्द कुनद रू-ए-दिरम रा
तर्जुमा:
है कंगाल अपने में मेरे शोभा दौलत वालों की
कंचन मुख पड़ता है पीला धीरज से कंगालों की
इन अश्आ’र के बाद उ’र्फ़ी के दोहे मुलाहज़ा हों।
1۔ न-ख़ूरम ज़ख़्म दराँ कूच: कि मरहम बाशद
न-शवम कुश्तः दराँ शहर कि मातम बाशद
तर्जुमा:
मैं वहाँ चोट नहीं खाता जहाँ मरहम हो।उस शहर में क़त्ल होता हूँ जहाँ मातम बरपा हो।
दोहा:
मलहम दारू मिल सके जहाँ घाव मत खा
जिस नगरी में बैन हो मृत्यु वहाँ मत आ
2۔ फ़ुग़ाँ न शेव:-ए-अहल-ए-दिल अस्त ऐ बुल्बुल
व-गर्ना मन ज़े-तू अफ़्ज़ूँ ख़रोश मी-कर्दम
तर्जुमा:
ऐ बुल्बुल नाला-ओ-फ़र्याद दिल-वालों का दस्तूर नहीं है वर्ना मैं तुझसे भी ज़्यादा नाला फ़र्याद करता।
दोहा:
सुन रे पपीहे बावरे बानी पे आये न कूक
प्रीति नियम कहता यही साध ले मन में हूक
3۔ग़ैरतम बीं कि बर आरंद हाजात हनूज़
अज़ लबम नाम-ए-तू हंगाम-ए-दुआ’ शुनीदः अस्त
तर्जुमा:
मेरी ग़ैरत देखो कि दुआ’ के वक़्त भी ख़ुदा ने तेरा नाम मेरे मुँह से नहीं सुना
दोहा:
लाज हमारी देखिए आपका इतना पास
नाम बराया आपका हरि से जो मांगी आस
4۔ मा लज़्ज़त-ए- फ़क़्रेम सख़ा रा न-शनासेम
नासूरे ज़े-ज़ख़्मेम शिफ़ा रा न-शनासेम
तर्जुमा:
हम फ़क़ीरी की लज़्ज़त से आश्ना हैं इसलिए सख़ावत को नहीं पहचानते, हम ऐसे ज़ख़्म के नासूर हैं जो अच्छा होना नहीं जानता
दोहा:
प्रेम भिखारी हम बने, छोड़ दया की आस
प्रीत के घाव को छाजे,न मलहम बू-बास
5۔ दर मलामत सब्र कुन उ’र्फ़ी कि आख़िर फ़ैज़-ए-इ’श्क़
ज़ीं चमन गुलहा बदामान-ए-ज़ुलेख़ा कर्द: बूद
तर्जुमा:
उ’र्फ़ी मलामत के मौक़ा’ पर सब्र करो, क्योंकि आख़िर-कार बावुजूद मलामातों के ज़ुलेख़ा का दामन-ए-मुराद इ’श्क़ की दौलत या’नी गुल- हा-ए-मुराद से मा’मूर कर दिया गया था
दोहा:
उ’र्फ़ी धीरज राखिए जो भी नाम धराए
पीत लगे जिस शूल को तुरत फूल हो जाए
6۔ कफ़न शोयम ब-खून-ए-दीदः ने दर चश्म:-ए-ज़मज़म
परस्तार-ए-सनम रा हस्त उ’र्फ़ी ज़मज़मे दीगर
तर्जुमा:
मैं ख़ून दीदा या’नी आँसुओं से कफ़न धोता हूँ, ज़मज़म के पानी से नहीं क्योंकि ऐ उ’र्फ़ी मा’शूक़ के पुजारी के लिए दूसरा ही ज़मज़म चाहिए।
दोहा:
प्रीत गंग नैनां भए पानी भयो शरीर
प्रेम पुजारी को न लखे दूसर गंगा नीर
7۔ म-फ़रोश नाज़-ओ-इ’स्मत क़द्ह-ए-शराब दर कश
कि बिह अस्त शर्म-ए-इ’स्याँ ज़े-ग़ुरूर-ए-बे-गुनाही
दोहा:
आन बान क्यूँ बेचते, पियो पिलाओ आज
भक्ति के अभिमान से भली पाप की लाज
8۔ गाहे ब-याद-ए-सर्व-क़दे गिर्यः हम ख़ुशस्त
ता के ज़े-शौक़-ए-सिद्रः-ओ-तूबा गिरीस्तन
तर्जुमा:
कभी कभी किसी हसीन मा’शूक़ की याद में रो लेना भी ग़ैर-मुनासिब नहीं है।सिद्रा-ओ-तूबा के शौक़ में कब तक कोई रोए।या’नी तौबा-ओ-इस्तिग़फ़ार।रोने से मतलब ये है कि ख़ुदा हिम्मत दे, ऐसा रोना तो ब-क़ौल-ए-इक़बाल इ’बादत नहीं बल्कि सूद-गरी है।
दोहा:
पीत दुखन से कभू-कभू खुल खुल रोएं नैन
कब तक स्वर्ग की चाह में किया करे कोऊ बैन
9۔ हर कि रा दुश्मन शवम बर-ऐ’ब-ए-ख़ुद महरम कुनम
ता ज़े-बीम-ए-ता’न: बा ऊ कीनः-जोई कम कुनम
तर्जुमा:
मैं जिस किसी से दुश्मनी करता हूँ उसको ख़ुद अपने ऐ’ब से आगाह कर देता हूँ ताकि उसके मा’नी के ख़ौफ़ से उसके साथ बुग़्ज़-ओ-कीना-जोई करूँ
दोहा:
बैरी जो कोउ जान लूं ताको ऐ’ब बताऊँ
नाम धरन की लाज से बैर से बचता जाऊँ
10۔ म-देह अ’नान-ए-तअ’ल्लुक़ ब-दस्त-ए-हर ज़र्र:
बर आर दस्ते वो बर दोश-ए-आफ़्ताब अंदाज़
तर्जुमा:
हर किसी मा’मूली आदमी से साज़-बाज़ न रखना चाहिए।हाथ बढ़ा के आफ़्ताब के कांधे पर डाल या’नी सोहबत बड़ों की इख़्तियार करो। बड़ों से मतलब माल-दार नहीं बल्कि आ’ली-वक़ार लोग
दोहा:
मन बंधन बाँधो नहीं हर ओछे के साथ
सूरज मुख श्रीमान से बढ़के मिलाओ हाथ
11۔ कुफ्ऱ-ओ-दीं दर-ए-का’बा-ओ-दैर अज़ अज़ल बूदंद लेक
सुल्ह-ओ-जंगे बर सर-ए-तस्बीह-ओ-ज़ुन्नारे न-बूद
तर्जुमा:
कुफ़्र और दीन,का’बे और बुत-ख़ाने वग़ैरा तो अज़ल ही से थे लेकिन ये शैख़-ओ-बरहमन के झगड़े कभी न थे।फ़िर्क़ा-वाराना फ़साद के बाब में उ’र्फ़ी का ये शे’र ख़ूब है।
न-मांद क़ाइ’दः-ए-मेहर-ए-कोहकन ब-जहाँ
वले अ’दावत-ए-पीरी अज़ कोहकन बाक़ीस्त
दोहा:
धर्म अधर्म जग में रहे जब से बना संसार
माला डोर के कारने मचा न हाहा-कार
12۔ उ’र्फ़ी अगर ब-गिर्य: मयस्सर शुदे विसाल
सद साल मी-तवाँ ब-तमन्ना गिरेस्तन
तर्जुमा:
ऐ उ’र्फ़ी अगर रोने से विसाल-ए-यार मुम्किन होता तो उस तमन्ना में बरसों रोया जा सकता था
दोहा:
उ’र्फ़ी बिरह के कष्ट से रोय धोय का होय
प्रिय मिलन की आस हो तो गवाऊँ रोय
13۔ ज़े-बुत न गोश:-ए-चश्मे न चीं-अबरूवे
ब-हैरतम कि दिल-ए-बरहमन ज़े-कफ़ चूँ शुद
तर्जुमा:
न बुतों में तिरछी बाँकी निगाहें, न पेशानी के बल, मुझे हैरत है कि आख़िर बरहमन का दिल हाथ से क्यूँ जाता रहा जो बुतों का पुजारी हुआ।
दोहा:
नैन पलक चितवन नहीं, पाथर गोल सिडौल
मन पंड़ित का क्यूँ भयो बुत पर डाँवा-डोल
14۔ हम-रह-ए-ग़ैरे-ओ-मी-गोई कि उ’र्फ़ी हम बिया
लुत्फ़ फ़रमूदी बरो कीं पाए रा रफ़्तार नीस्त
तर्जुमा:
तू ग़ैर के साथ है और कहता है कि उ’र्फ़ी तू भी आ, बड़ी मेहरबानी की जो इतना भी कहा, मगर तशरीफ़ ले जा मेरे पैरों को चलने की ताब नहीं है।
दोहा:
संग लगे तुम ग़ैर के कहते मुझे बुलाय
आ, और तू भी अब साथ चल उ’र्फ़ी पग न उठाय
15۔ब-हर सू मी-रवम बू-ए-चराग़-ए-कुश्तः मी-आयद
मगर वक़्ते मज़ार-ए-कुश्तगान-ए-इ’श्क़ बूद आँ जा
तर्जुमा:
जिधर जाता हूँ मुझे चराग़ की बू आती है, शायद कभी उस जगह शहीदान-ए-नाज़ का मज़ार था
दोहा:
जौन दिशा में पग धरूँ, बुझे दिया की बास
पीत के दीपक जल गये रह गई मन की आस
16۔ तुग़्यान-ए-नाज़ बीं कि जिगर गोश:-ए-ख़लील
आयद ब-ज़ेर-ए-तेग़-ओ-शहीदश नमी-कुनंद
तर्जुमा:
ये आन तो कोई देखे कि इब्राहीम ख़लील अ’लैहिस्सलाम के जिगर-बंद इस्माई’ल अ’लैहिस्सलाम तल्वार के नीचे लाए जाते हैं मगर उसको कुंद कर के शहीद नहीं होने दिया जाता।इस में एक तल्मीह है अहल-ए-इस्लाम में ई’दुज़्ज़ुहा की तक़रीब इसी वाक़िऐ’ से तअ’ल्लुक़ रखती है।
दोहा:
सीस दक्षिणा मांगते बरछी तले धराय
ये छब देख अचरज भयो छुरी कुंद हो जाय
17۔ उम्मीद हस्त कि बे-गानगी-ए-उ’र्फ़ी रा
ब-दोस्ती-ए-सुख़नहा-ए-आश्ना बख़्शंद
तर्जुमा:
ये उम्मीद ज़रूर है कि उ’र्फ़ी की बेगानगी (या’नी याद-ए-हक़ से ला-परवाही)को दोस्त की बातों(या’नी ना’तिया क़साइद)के वसीले से बख़्श देंगे
दोहा:
आस लगा रख पीत से रे उ’र्फ़ी अंजान
मित्र-बचन की चाह बद शायद लें पहचान
18۔ हर कस कि हाय-ओ-हू न कशीद अहल-ए-रोज़-गार
गोश-ए-रज़ा ब-गुफ़्त शुनीदश नमी-कुनंद
तर्जुमा:
जिस किसी ने भी इस दुनिया में हंगामा न किया, दुनिया वालों ने उस से बे-ऐ’तिनाई बरती और उसकी बात-चीत की तरफ़ तवज्जोह न की।
दोहा:
बिन हल्ला गुल कुछ नहीं जस जीवन बिन प्राण
हाहा-कार मचाय के सुने जगत धर कान
इनके अ’लावा राक़िम ने और भी अश्आ’र का तर्जुमा किया है जो ज़माना-ए-हाल की बे-ऐ’तिनाइयों की वजह से बिखरे पड़े हैं।यहाँ इतने अश्आ’र जो लिखे गए उनके तर्जुमे का मक़सद बाबा तुलसी दास ने अपने इस दोहे में बयान कर दिया है इसलिए राक़िम को और कुछ लिखने की ज़रूरत नहीं।
दोहा:
तुर्की, अ’रबी, फ़ारसी, हिन्दी जैती आह
जा में मारग प्रेम को सबै सराहें ताह
आख़िर में उ’र्फ़ी की एक ग़ज़ल भी इसी लब-ओ-लहजा में सुन लीजिए, वो ये है:
(1)
ज़बाँ ज़े-नुक्त: फ़िरो मांद राज़-ए-मन बाक़ीस्त
बिज़ाअ’त-ए-सुख़न आख़िर शुद-ओ-सुख़न बाक़ीस्त
गर बूझन से बानी बारी भेद अपना सब बाक़ी है
मिट गई पूँजी बात बचन की और दुखड़ा सब बाक़ी है
(2)
गुमाँ म-बर कि चु तू ब-गुज़री जहाँ ब-ग़ुज़श्त
हज़ार शम्अ’ ब-कुश्तन्द-ओ-अन्जुमन बाक़ीस्त
ये न समझ तेरे मिटने से ये सब जग मिट जाएगा
लाख दिए जल-जल बुझ जाएं फिर भी सभा सब बाक़ी है
(3)
ज़े-शिक्वः-हा-ए-जफ़ायत दो कौन पुर शुद लेक
हनूज़ रंग-ए-अदब बर रुख़-ए-सुख़न बाक़ीस्त
इस अन्याय से भर गए दो जग तुझसे उलहना कौन करे
प्रेम बचन का रूप मनोहर था जैसा सब बाक़ी है
(4)
कसे कि महरम-ए-बाद-ए-सबा अस्त मी-दानद
कि बावजूद-ए-ख़िज़ाँ बू-ए-यासमन बाक़ीस्त
जो मधुमास की टलियाँ का भेदी है मन में उस के
फूल सुगंध की इस पतझड़ में भी आशा सब बाक़ी है
(5)
न-मांद क़ाइ’द:-ए-मेहर-ए-कोहकन ब-जहाँ
वले अ’दावत-ए-परवेज़-ओ-कोहकन बाक़ीस्त
राम चन्द्र की रीत भुलाई, रंग लिया सब रावण का
मिट गए लंका और रावण, युद्ध कथा सब बाक़ी है
(6)
म-गो कि हेच तअ’ल्लुक़ न-मानद उ’र्फ़ी
तअ’ल्लुक़े कि न-बूदश ब-ख़्वेश्तन बाक़ीस्त
नहीं रहा सम्बंध कोई उ’र्फ़ी को मित्रो ये न कहो
था न सुरूप का वो सम्बन्धी बहु-रूपा सब बाक़ी है
साभार – ज़माना पत्रिका (1939)
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