गीता और तसव्वुफ़-मुंशी मंज़ूरुल-हक़ कलीम

हिन्दुस्तान जिस तरह तमद्दुन-ओ-मुआ’शरत में दूसरी मोहज़्ज़ब क़ौमों का गुरू था उसी तरह वो रूहानियत में भी कमाल पर पहुंचा हुआ था।श्री कृष्ण जी की गीता उस ज़र्रीं अ’ह्द की बेहतरीन याद-गार है।

गीता महा-भारत मुसन्निफ़ा वेद व्यास के भीष्म पर्व का जुज़्व है।उस में अठारह बाब और सात सौ मंत्र हैं जिनमें वो उसूल-ओ-नसीहतें दर्ज हैं जिनकी श्री कृष्ण जी ने महा-भारत की लड़ाई के मौक़ा’ पर अर्जुन को तल्क़ीन की थी।उसी को व्यास जी ने नज़्म कर के किताब महा-भारत में मुंसलिक कर दिया। व्यास जी के मुतअ’ल्लिक़ दारा-शिकोह के अल्फ़ाज़ ये हैं:

” …स्वामी ब्यास कि ता’रीफ़श अज  हर चे गूना अफ़्ज़ूँ-ओ-तौसीफ़श हर चे नवीसंद ख़ारिज-ओ-बैरून अस्त’’

महा भारत की लड़ाई दो हक़ीक़ी भाईयों धृतराष्ट्र और राजा पांडव की औलाद के दरमियान हुई थी।धृतराष्ट्र ना-बीना थे इसलिए राजा पांडव को सल्तनत मिली थी।राजा पांडव की वफ़ात के बा’द दुर्योधन धृतराष्ट्र का बड़ा बेटा कारोबार-ए-सल्तनत किया करता था। उसने पांडव के लड़कों का हक़ जो रियासत के असली वारिस थे दग़ा से छीन लेना चाहा और उनको अज़िय्यत पहुंचानी शुरूअ’ की।यही जंग का सबब हुआ।

गीता के पहले बाब में सैंतालीस मंत्र हैं। धृतराष्ट्र अपने रथ-बान संजय से जंग का हाल पूछते हैं और वो तरफ़ैन के हालात की इत्तिलाअ’ देकर कहता है कि जब तरफ़ैन लड़ाई के लिए सफ़-आरा हुए तो दुर्योधन ने अपने उस्ताद भीष्म से कहा कि हमारी तरफ़ फुलाँ-फुलाँ बहादुर हैं। उस के बा’द अर्जुन ने मौक़ा’-ए-जंग का मुआ’इना किया और कृष्ण जी से फ़रमाया कि उनमें मेरे तमाम अ’इज़्जा,उस्ताद दोस्त शामिल हैं। सल्तनत के लिए मैं उनका ख़ून नहीं बहा सकता।ये कह कर अफ़्सुर्दा-ख़ातिर हो कर रथ में बैठ रहे।

गीता के दूसरे बाब में जिसमें सांख्य योग से बहस की गई है अठत्तर मंत्र हैं।उसमें कृष्ण जी ने अर्जुन को समझाने के तीन तरीक़े इख़्तियार किए हैं।पहले मर्दांगी की ग़ैरत दिलाई और जब देखा कि ना-मर्दी नहीं है बल्कि अज्ञान माने-ए’-जंग है तो हयात-ओ-मौत पर फ़ल्सफ़याना रौशनी डालनी शुरूअ’ की और बताया कि रूह को फ़ना नहीं।ये ला-ज़वाल और एक हालत पर क़ायम है और ज़िंदगी-ओ-मौत रूह के इत्तिसाल-ओ-इन्फ़िसाल का नाम है जो नुमूद-ए-बे-बूद है।पस आ’रिफ़ मौत और हयात के वह्म को ख़याल में नहीं लाते।माज़ी और मुस्तक़्बिल को छोड़कर हाल पर नज़र रखते हैं।उस के बा’द इन्सानी फ़राइज़ पर तवज्जोह दिलाई कि हक़ पर जंग करना उसका फ़र्ज़ है।इस बाब के चंद मंत्र वज़ाहत-ए-बयान के लिए हस्ब-ए-ज़ैल हैं:

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥

मतलब एक आत्मा या’नी रूह मुझमें तुझमें और उन सब राजाओं में है। वो न कभी पैदा हुई और न आइन्दा पैदा होगी। वो क़दीम है और सब अज्साम में सारी है और सब को ज़ाहिर करने वाली है। और उन अज्साम का वजूद दर अस्ल तिलिस्मी है। वो क़ादिर-ए-मुतलक़ का परतव है  जिसकी वजह से हम तुम और ये राजगान फ़र्ज़ किए जाते हैं। ये सब अश्काल फ़ानी और बे-सबात हैं।हस्ती-ए-बह्त जाविदानी और फ़ना से बाला तर है।

है अस्ल वजूद एक बाक़ी फ़ानी

अश्काल का नाम है वजूद-ए-सानी

पानी से बुख़ार, अब्र, बूँदें फिर बर्फ़

जब घुल गया बर्फ़ फिर है पानी पानी

मंत्र

मात्रा स्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु: खदा:।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।

मतलब मात्र स्पर्श या’नी एहसास जो एक क़ुदरती तअ’ल्लुक़ इ’ल्म-ए-ज़ात और इ’ल्म-ए-सिफ़ात में है यही राहत-ओ-रंज देने वाले हैं।जब नफ़्स-ए-इन्सानी बे-याद-ए-ख़ालिक़ अंदर जाता है तब वो अपना असर कर के पिंदार पैदा करता है। उस पिंदार की वजह से रंज-ओ-राहत महसूस होते हैं।

मंत्र

भोगैश्वर्य प्रसक्तानाम तयापहर्ताचेत्सम

व्यवसयाक्त्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते

मतलब जिनका दिल लज़्ज़ात और दौलत में फँस कर एक हो जाता है मह्विय्यत की जानिब उनकी राय तस्लीम नहीं होती।(वो बुतून में मा’शूक़-ए-हक़ीक़ी को नहीं देख सकते और इ’ल्म ख़ुद-शनासी से बे-नसीब रहते हैं मन अ’र-फ़-नफ़्सहु फ़-क़द अ’रफ़-रब्बहु से बे-गाना रहते हैं)।

मंत्र                                       

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।

मतलब ब्रहम के जानने वाले आ’रिफ़ का वेदों से इतना ही मतलब बाक़ी रहता है कि जितना आसूदा इन्सान का कुवें,तालाब, दरिया वग़ैरा मक़ामात-ए-आबी से।

मंत्र

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।

जो आ’रिफ़ ज्ञान योग इ’ल्म-ए-ख़ुद-शनासी पर क़ादिर हो कर फ़े’ल के नतीजा की परवाह नहीं करते, वो पैदाईश की क़ैद से आज़ाद हो कर अबदी मक़ाम पाते हैं।

तीसरे बाब में तैंतालीस मंत्र हैं।जिसमें जिनको ये बताया गया है कि अफ़्आ’ल लाज़िमी हैं जिनसे किसी को नजात नहीं मिलती। अफ़्आ’ल का मब्दा क़ुदरत है। क़ुदरत ही की हरकत से कुल आ’लम मुतहर्रिक है। ज़ात पाक और बे-लौस है। दिली तअ’ल्लुक़ और अनानियत को तर्क कर के फ़े’लों का करना उनसे बरिअयत हासिल करने का तरीक़ा है। या’नी हवास को शौक़ और नफ़रत का मुतीअ’ न होने दे और उनके फ़े’लों का बाइ’स क़ुदरत को जानने से पाबंदी-ए-अफ़्आ’ल छूट जाती है

मंत्र

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।

क़ादिर-ए-मुतलक़ ने मख़्लूक़ात को रियाज़ करने की क़ुव्वत देकर पैदा किया और हिदायत की कि तुम उसके वसीला से तरक़्क़ी करो उस से तुम्हारे मतालिब पूरे होंगे।

मंत्र

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।

मतलब जैसे धुआँ आग को और मैल आईना को,बिल्ली बच्चा को छुपा लेती है वैसे ही ख़्वाहिश उस इ’ल्म-ए-ज़ात को पोशीदा कर देती है।

मंत्र

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।

ऊपर के अश्लोक में ये बताया गया था कि जिस कसीफ़ से हवास बरतर, हवास से दिल, दिल से अ’क़्ल, अ’क़्ल से ख़्वाहिश बरतर है, उसी की तरफ़ इस अश्लोक में इशारा है कि ऐ अर्जुन जो इस तौर पर अ’क़्ल से बरतर बयान किया गया है उसको जान कर और दिल को अपने क़ाबू में कर के तू उस ज़बरदस्त दुश्मन को जो ख़्वाहिश की सूरत रखता है हलाक कर।मुराद ये है कि ज़ात-ए-पाक छोटे से छोटे ज़र्रे और बड़े से बड़े आ’लम में मौजूद है।और वो इंद्रयों (क़ुव्वा) और मन, बुद्धी से बरतर है।पस दानिश को उस में दख़्ल नहीं सिर्फ़ हालत-ए-कैफ़ में उसके जमाल का मुशाहदा हो सकता है।इन्सान इ’ल्म-ए-ज़ात में मसरूर रह कर और ख़्वाहिश के अफ़्आ’ल से बे-तअ’ल्लुक़ी इख़्तियार कर के ख़्वाहिश को पैदा न होने दे। ख़्वाहिश का मख़्ज़न ख़याल है, इसलिए ख़याल के रोकने से से ख़ाहिश का सिलसिला रुक जाता है।

चौथे बाब में बयालिस मंत्र हैं जिनका ख़ुलासा ये है कि रूह ला-ज़वाल, मुहीत और क़दीम और मस्दर-ए-इ’ल्म-ओ-सुरूर है।उसका इ’ल्म कभी ज़ाऐ’ नहीं होता।अलबत्ता कभी पोशीदा और कभी आशकार होता रहता है।सिर्फ़ आ’रिफ़ इस रम्ज़ को जानते हैं जाहिल-सिफ़त उसके समझने से मा’ज़ूर हैं।

इन्सानों में सिर्फ़ सिफ़त और फ़े’ल का फ़र्क़ होता है। रूह सब में यकसाँ मौजूद है। रूह जिस्मानी अफ़्आ’ल और उनके नतीजे से बे-तअ’ल्लुक़ रहती है।पस इन्सान बे-तअ’ल्लुक़ हो कर फ़े’ल करने से रूह में वासिल हो सकते हैं। तर्क-ए-फ़े’ल के यही मा’नी हैं।फ़े’ल दो क़िस्म के होते हैं। फ़े’ल बा-तअ’ल्लुक़ और फ़े’ल बे-तअ’ल्लुक़। फ़े’ल बा-तअ’ल्लुक़ में नेक-ओ-बद की तमीज़ होती है और फ़े’ल बे-तअ’ल्लुक़ में तमीज़-ए-नेक-ओ-बद उठ जाती है। इस तरह पर अ’मल करने से तमाम अफ़्आ’ल आतिश-ए- इरफ़ान में सोख़्त हो जाते हैं और इन्सान ज़ात में मुसतग़रक़ हो जाता है।

मंत्र

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।

मतलब नेक अफ़्आ’ल बद अफ़्आ’ल-ओ-तर्क-ए-अफ़्आ’ल में तमीज़ करना वाजिब है।तर्क-ए-अफ़्आ’ल की माहियत दरयाफ़्त करना मुश्किल अम्र है।

मंत्र

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।

मतलब जो बशर अफ़्आ’ल में तर्क-ए-अफ़्आ’ल का होना और तर्क-ए-अफ़्आ’ल में अफ़्आ’ल को होना मुशाहदा करता है वो आ’रिफ़ वासिल है चाहे तमाम अफ़्आ’ल उस से सर-ज़द होते हों।

नतीजा की उम्मीद रखकर ख़्वाहिश के साथ जो कुछ किया जाता है वो फ़े’ल कहलाता है।बिला-उम्मीद नतीजा और बे-ख़्वाहिश जो कुछ सर-ज़द होता है उसे फ़े’ल से बरियत कहते हैं। फ़े’ल दोनों में होता है।फ़र्क़ इन्सान के तअ’ल्लुक़ और बे-तअ’ल्लुक़ी करने का है।फ़े’ल से बरियत के मा’नी तर्क-ए-फ़े’ल समझना चाहिए।बरियत अज़ फ़े’ल एक हालत कैफ़ की है जो बहुत ग़ौर से मा’लूम हो सकती है।

मंत्र

ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।

जो यज्ञ करने को,यज्ञ में डालने की शय को, यज्ञ की आग को,यज्ञ करने वाले को ज़ात-ए-वाहिद तसव्वुर करता है उसका ज़ात-ए-वाहिद से विसाल होता है।

सूफ़ी शुदः नीस्त हस्त रा मज़हब-ए-नीस्त

बा दोस्त रसीदः रा दिगर मतलब नीस्त

अगले मंत्रों में मुख़्तलिफ़ क़िस्म के यज्ञ पर रैशनी डाली है जिसका ख़ुलासा ये है कि मुख़्तलिफ़ क़िस्म के यज्ञ  या’नी रियाज़ मसलन बा’ज़ जो फ़े’ल के पाबंद हैं देवताओं का यज्ञ करते हैं, बा’ज़ ज़ात-ए-वाहिद की आग में अ’मल को अ’मल की मदद से बुलाते हैं,बा’ज़ क़ुव्वत-ए-शाम्मा वग़ैरा हवास को ज़ब्त की आग में जलाते हैं, बा’ज़ सौत वग़ैरा महसूसात को यज्ञ की आग में जलाते हैं,बा’ज़ सब हवास के फ़े’लों और नफ़्स के फ़े’लों को ज़ब्त-ए-दिल की आग में जो इ’ल्म-ए-ज़ात से रौशन है जलाते हैं,बा’ज़ लोग जो अंदाज़ा के मुवाफ़िक़ ग़िज़ा खाते हैं प्राणों को प्राणों में सोख़्त करते हैं,बा’ज़ अश्ख़ास जो हब्स-ए-नफ़्स के शाग़िल हैं  अन्दर दाख़िल होने वाली और बाहर निकलने वाली सांस को रोक कर प्राण को अपान और अपान को प्राण में झोंकते हैं।ऊपर के मंत्रों से पता चलता है कि यज्ञ का इशारा मुख़्तलिफ़ अश्ग़ाल की तरफ़ है।

मंत्र

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।

(ऐ अर्जुन समझ ले कि हक़ीक़त-शनास आ’रिफ़ ता’ज़ीम, इल्तिजा और ख़िदमत के करने पर तुझे वो इ’ल्म-ए-मा’रिफ़त बताएंगे।)

राह-ए-हक़ की है अगर आसी तलाश

ख़ाक-ए-पा बन मर्द-ए-हक़-आगाह की

पाँचवें बाब में उनत्तीस मंत्र हैं। उनका ख़ुलासा ये है कि कैफ़ियत-ए-क़ल्बी की दो सूरतें हैं। एक का नाम सांख्य या’नी इ’ल्म-ए-हक़ीक़त दूसरी योग या’नी इ’ल्म-ए-मा’रिफ़त।योगी तमाम अफ़्आ’ल-ए-जिस्मानी को करते हुए भी नज़र ब-बातिन रहता है मगर और तरीक़ों के शाग़िल जब कारोबार-ए-दुनयवी की तरफ़ मुतवज्जिह होते हैं नज़र बिल-ग़ैर हो जाते हैं।योगी के मा’नी वासिल और संन्यासी के मा’नी तारिक के हैं।मुशाहदा–ए-रूह की तरकीब हस्ब-ए- ज़ैल लिखी है।

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।

जो आ’रिफ़ तअ’ल्लुक़ात-ए-बैरूनी को बाहर कर के और नज़र को उम्मुद्दिमाग़ के वस्त में ठहरा कर और नाक में से गुज़रने वाले अन्फ़ास-ए-बाला बाएं को मसावी कर के हवास, दिल और अ’क़्ल पर क़ादिर हो जाता है आज़ादी हासिल करता है और ख़्वाहिश,ख़ौफ़ और ग़ुस्सा से मुख़्लिसी पाता है।वो हर वक़त नजात रखता है।यही नसीरन मह्मूदन का शुग़्ल है।

छठे बाब में सैंतालीस मंत्र हैं।उनका ख़ुलासा ये है कि नासागर ध्यान या’नी शुग़्ल-ए-ताऊसी से इंज़िबात-ए-क़्लब पैदा होता है।और योग का तअ’ल्लुक़ बैरूनी अफ़्आ’ल से सिर्फ़ उस वक़्त तक रहता है जब तक कि कुशायिश-ए-बातिनी हासिल नहीं होती।जब शाग़िल क़ल्ब की सैर देखने लगता है उस वक़्त उसे कुल अंदरूनी क़ुव्वतें काम में लानी पड़ती हैं।

उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।

इन्सान दिल (रूह) को उ’रूज दे न कि उसको पस्ती में गिराए।दिल ही अपना दोस्त है और दिल ही अपना दुश्मन।इन्ना फ़िल-जसदि मुज़ग़तुन इज़ा सलुहत-सलुहल-जसदु कुल्लहु व-इज़ा फ़सदत-फ़सदतिल-जसदु कुल्लुहु अला व-हियल-क़ल्ब।

दे दिल को उ’रूज उसको पस्ती में न ला

है दोस्त बुला उसको न मिट्टी में न मिला

गर उसकी इ’नाँ छूट गई हाथों से

दुश्मन नहीं उस से बढ़ के कोई तेरा

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।

योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।

तर्जुमा:-

चराग़ की लौ बंद हवा में नहीं हिलती। ये उस योग की मिसाल है जो ख़याल पर क़ादिर है और जिसका दिल योग में मसरुफ़ है।

सातवें बाब में ज्ञान विज्ञान योग नामी तीस मंत्र हैं। उस का ख़ुलासा ये है कि ऊपर के अबवाब में अश्ग़ाल और रियाज़ का जो बयान है उस से इश्राक़ हासिल होता है।और उस से वो प्रकृति के सात तबक़ों की सैर दिल में करता है।क़ुदरत ने कारण से सूक्ष्म और सूक्ष्म से स्थूल हो कर ग़ैब से ज़ुहूर की तरफ़ नुज़ूल किया है और रंगा-रंग अश्या पैदा की हैं। जैसे कि पानी हरारत-ए-तबई’ के कम हो जाने से मुंजमिद हो कर मुख़्तलिफ़ अश्काल बर्फ़, ज़ाला, ग्लेशियर वग़ैरा की शक्ल इख़्तियार करता है।

पाँच महाभूत (अनासिर-ए-बसीत)पाँच गुण (ख़ासियत-ए-अ’नासिर)पाँच ज्ञान-इंद्री (हवास-ए-इ’ल्मी) पाँच कर्म इंद्री (क़ूव्वत-ए-अफ़्आ’ली) पाँच प्राण (अन्फ़ास) इन्हीं पच्चीस का नाम पर-पंच है।ये आ’लम में ब-सूरत-ए-कुल और हर इन्सान में ब-सूरत जुज़्व मौजूद हैं।कुल का नाम तत पद या इशर है और जुज़्व का नान तम पद या जीव है।इन्हीं के इम्तिज़ाज से कुल अश्काल नुमूद पाकर फिर किसी वक़्त असली ख़ज़ाना में मिल जाती हैं।

इ’ल्म-ए-जुज़्वियत कुल पर हावी नहीं हो सकता और वाक़िआ’त को ज़ाहिर नहीं कर सकता।इ’ल्म-ए-कुल्लियत बुतून में मुशाहदा किया जाता है और वो रास्त है।

आठवें बाब में महा-पुरुष योग में अट्ठाईस मंत्र हैं।इस बाब में अदही युग या’नी ज़ात-ए-बे-निशान तक रसाई का तरीक़ा दर्ज है जो अ’क़्ल की रसाई से परे है।इ’ल्म-ए-इश्राक़ के ज़रिऐ’ उसका इ’ल्म होता है उस में तिर पटी ध्यान और आत्म ध्यान का तज़्किरा है जिस पर अ’मल कर के ये इन्किशाफ़ होता है।

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।

ऐ अर्जुन दिल को शुग़्ल की मदद से यक्सू कर के आ’ला और हैरत-अफ़्ज़ा ज़ात का तसव्वुर करने से पहले विसाल हासिल कर सकता है।

मज़मून की तवालत को मद्द-ए-नज़र रखते हुए बक़िया अबवाब के बयानात का सिर्फ़ ख़ुलासा दर्ज किया जता है जिससे पूरी किताब पर रौशनी पड़ जाएगी।

नवें बाब में मा’रिफ़त की उस हालत को दिखलाया गया है जिसका समझना हीता-ए-अ’क़्ल से बाहर और जिसमें आ’रिफ़ ज़ात-ए-पाक को हर ज़र्रा में मुहीत और हर शय से बरी देखता है।

दसवें बाब में उस कैफ़ियत का बयान है जो मा’रिफ़त के इस्तिग़राक़ के बा’द यानी आ’लम की कसरत में वहदत का जल्वा नज़र आने पर आ’रिफ़ के दिल में पैदा होता है और जिसकी मदद से वो अपनी हस्ती को माज़ी-ओ-मुस्तक़बिल में मौजूद और आ’लम के ज़ुहूर का बाइ’स जानता है।

ग्यारहवें बाब में विसाल की जलाली और जमाली दोनों सूरतें जो इ’लम-ए-मा’रिफ़त के हासिल होने पर दरयाफ़्त होती हैं।

बारहवें बाब में जमाली विसाल के क़ायम रखने के लिए इ’श्क़-ए-हक़ीक़ी का होना लाज़िमी बता गया है।

तेरहवीं बाब में इ’श्क़-ए-हक़ीक़ी की शनाख़्त के वास्ते जिस्म और जान की तश्रीह की गई है और जान के साथ इ’श्क़ का होना हक़ीक़ी और जिस्म से इ’श्क़ होना मजाज़ी बताया गया है।

चौदहवें बाब में जान का सिफ़ात-ए-सेह-गाना के साथ तअ’ल्लुक़ ज़ाहिर किया गया है और बावुजूद-ए-तअ’ल्लुक़ उसका उन सिफ़ात से बरी होना दिखलाया गया है।

पंद्रहवें बाब में सिफ़त-ए-सेह-गाना के वास्ते से जान के जिस्म में नुज़ूल करने और आ’लम के ज़ुहूर की कैफ़ियत बयान की गई है और ज़ात-ए-पाक का जिस्म और जान से बेहतर होना और उसमें वस्ल होने वाले का फ़े’ल-ओ-अ’मल की तमीज़ से आज़ादी पाना साबित किया गया है।

सोलहवें बाब में अम्र-ओ-नही दो क़िस्में जो जान के जिस्म में नुज़ूल करने से पैदा होती हैं बयान की गई हैं।

सतरहवें बाब में अ’क़ीदों की दो तीन क़िस्में दिखलाई गई हैं जिनकी पैदाइश जान के जिस्म में नुज़ूल करने पर सिफ़ात-ए-सेह-गाना से होती है।

अठारहवें बाब में ज़ात-ए-पाक का विसाल हासिल करने वाले की हालत जो बिल-मा’ना नजात है ज़ाहिर की है।

साभार – ज़माना पत्रिका

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