सूफ़ी क़व्वाली में महिलाओं का योगदान

सूफ़ी हिंदुस्तान में प्रेम का सूई-धागा लेकर आए थे और क़व्वाली के रूप में सूफ़ियों ने हिंदुस्तानी संस्कृति के हाथ में एक ऐसा दीपक दिया है जिसकी लौ तेज़ आंधियों में भी मद्धम नहीं पड़ी। क़व्वाली का यह रंगों भरा सफ़र आज भी बदस्तूर जारी है और आज के इस माहौल में इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ गयी है।

हिन्दुस्तान में सूफ़ियों के आने का सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि दो अलग-अलग महान संस्कृतियाँ आपस में यूँ घुल-मिल गयीं कि एक साझी संस्कृति का ख़मीर तैयार हो गया, जिससे हमारी मौजूदा गंगा-जमुनी तहज़ीब का निर्माण हुआ। सूफ़ी, भारत में फ़ारसी, तुर्की और अ’रबी बोलते आए थे, पंरतु हिन्दुस्तान में बसने के पश्चात उन्होंने कई भारतीय भाषाओं में कलाम कहे और ग्रंथों की रचना की। सूफ़ियों ने आपसी सद्भाव और भाईचारे का न सिर्फ़ संदेश दिया बल्कि अपने जीवन की सादगी से भी हज़ारों को प्रभावित किया। हिंदुस्तान में सूफ़ियों के पाँच प्रमुख सिलसिले फले-फूले चिश्तिया, क़ादरिया, सुहरवर्दिया, नक़्शबंदिया और फ़िर्दौसिया।

हिंदुस्तान की खुली संस्कृति में सूफ़ीवाद ख़ूब फला-फूला। सूफ़ियों ने यहाँ की संस्कृति से कई तत्व ग्रहण किये और उन्हें प्रेम की चाशनी में डुबो कर नए आयाम दिये। सूफ़ियों की एक ऐसी ही देन क़व्वाली है। आज के भारतीय समाज के लिए क़व्वाली तसव्वुफ़ का पर्याय बन गई है। सूफ़ियो ने जहाँ साधना के नए तरीक़े विकसित किए वहीं संगीत को भी ईश्वर से जुड़ाव का एक माध्यम बनाया।

क़व्वाली का मार्ग सूफ़ियों की ही तरह कभी आसान नहीं रहा। इस पर प्रश्न उठते रहे और सूफ़ी अपनी मस्ती में इसका जवाब देते रहे।

क़व्वाली अ’रबी के ‘क़ौल’ शब्द से आया है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘बयान करना’। इसमें किसी रूबाई या ग़ज़ल के शे’र को बार-बार दुहराने की प्रथा थी। लेकिन तब इसे क़व्वाली नहीं समाअ’ कहा जाता था। हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी ने अपनी प्रसिद्ध कि ताब ‘अवारिफ़ -उल-मआ’रिफ’ में समाअ’ पर चार अध्याय लिखे हैं। यह किताब हिंदुस्तान की ख़ानक़ाहों में बड़ी प्रसिद्ध थी। कहते हैं हज़रत बाबा फ़रीद गंज-ए-शकर ने यह किताब हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को पढ़ाई थी। एक अध्याय में शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी लिखते हैं:

“शैख़ अबू अब्दु र्रहमान अस्सलामी ने फ़रमाया कि मैं ने अपने दादा हुज़ूर को कहते सुना है कि –

समाअ’ में शिरकत करने वाले को हयात-ए-क़ल्ब और फ़ना-ए-नफ़्स के साथ समाअ’ सुनना चाहिये।”

इसी अध्याय में हज़रत शैख़ अबू तालिब मक्की का ज़िक्‍र भी आया है, जिन्होंने इरशाद फ़रमाया कि उनके यहाँ दो दासियाँ थीं जो माहिर-ए-मौसिक़ी थीं। लोग उनको सुनने के लिये इकट्ठा होते थे। उन्होंने आगे लिखा है कि हज़रत क़ाज़ी अबू-मीरवाँ से भी उनकी मुलाक़ात हुई थी जिनके यहाँ कई दासियाँ थीं जो सूफ़ियाना मौसीक़ी (समाअ’) में माहिर थीं और सूफ़ी मज्लिसों में गाती थीं।

क़व्वाली में एक नया मोड़ तब आया जब ग्रामोफ़ोन रिकॉर्डिंग का प्रचलन बढ़ा। कुछ क़व्वालों ने दरगाही क़व्वाली का अपना सफ़र जारी रखा जबकि कुछ क़व्वाल अपने कलाम रिकॉर्ड करवाने लगे। इसके बाद ही मुंबई,कराची और अहमदाबाद से गुलदस्ते छपने का सिलसिला शुरू हुआ जिनमे सूफ़ी क़व्वालियों का संग्रह प्रकाशित किया जाता था। इसी समय अमृतसर और लाहौर से भी गुलदस्ते छपे। इन गुलदस्तों के तीन भाग होते थे। पहले भाग में फ़ारसी ग़ज़लें, दूसरे भाग में उर्दू और तीसरे भाग में पंजाबी कलाम और ठुमरी वग़ैरा का संकलन होता था। उपलब्ध गुलदस्तों में से ज़ियादातर मुंबई से छपे हैं जिनमें ज़्यादातर उर्दू कलाम का संग्रह है। क़व्वाली संग्रह प्रकाशित करने का एक बड़ा काम गुजराती में हुआ जहाँ क़व्वाली के कई गुलदस्ते प्रकाशित हुए।

हिंदुस्तान में कुछ गुलदस्तों में महिला क़व्वालों द्वारा पढ़े जाने वाले कलाम भी शामिल थे। हालांकि ये कलाम अन्य शाइ’रों के हैं जिन्हें इन्होने किसी मज्लिस में पढ़ा होगा और गुलदस्ते में इनके नाम से छपा। माहिला क़व्वालों के विषय में ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती है लेकिन उनके द्वारा पढ़े गए कलाम पढ़कर उनकी सशक्त भागीदारी के विषय में कोई संदेह नहीं रहता । हम ऐसी ही कुछ महिला क़व्वालों द्वारा पढ़े जाने वाले कलाम भी इस ब्लॉग में शामिल कर रहे हैं। इस विषय में शोध की आवश्यक्ता है क्योंकि हमें ढूँढने पर भी उनकी ज़िन्दगी के विषय में कोई जानकारी न मिल पायी।

आज भी आबिदा परवीन और रेखा भारद्वाज जैसे महिला संगीतकारों ने क़व्वाली की इस डोर को थाम रखा है और यह लौ आज भी बहाल है.

हम कुछ महिला क़व्वालों का कलाम पेश कर रहे हैं जो अलग अलग गुलदस्तों में कभी छपे और कहीं खो गए थे –

क़व्वाल किटी जान

पास बिठला के सर-ए-बज़्म उठाते क्यों हो
सर चढ़ा कर मुझे नज़रों से गिराते क्यों हो
आ’शिक़ -ए-चश्म हूँ इक तीर-ए-नज़र काफ़ी है
क्यों चढ़ाते हो कमाँ तेग़ उठाते क्यों हो
मर भी जाने दो जो मरता हूँ तुम्हारे आगे
अब दुआ’ओं के लिए हाथ उठाते क्यों हो
यहीं कफ़नाओ यहीं दफ़्न भी कर दो यारो
कू-ए-जानाँ से मिरी ना’श उठाते क्यों हो
ऐ नकीरैन मैं मारा हुआ मंज़िल का हूँ
थक के लेटा हूँ अभी मुझको उठाते क्यों हो
मैं ने माना तुम्हें परवा नहीं बंदे की ज़रा
रूठता हूँ तो मुझे आ के मनाते क्यों हो
कुछ मैं मूसा की तरह तालिब-ए-दीदार नहीं
लनतरानी मुझे हर बार सुनाते क्यों हो

क़व्वाल नन्नी जान मुल्तान वाली

कहाँ जाएँ ति रे बंदे पता पाएँ कहाँ तेरा
तलाश-ओ- जुस्तुजू से कुछ नहीं मिलता निशाँ तेरा
मिरी आँखों ने देखा हो तिरा जल्वा तो हों काफ़िर
यही दिल तुझसे वाक़िफ़ है यही है राज़दां तेरा
शिकस्त-दिल को मैं अपने निहायत दोस्त रखता हूँ
सुना है जब से ये टूटा हुआ दिल है मकाँ तेरा
बराबर हुक्म जारी है तिरा दुनि या में उ’क़्बा में
कि है दोनों जहाँ तेरे यहाँ तेरा वहाँ तेरा
ख़याल-ओ-वह्म का तुझ तक गुज़र हो गैर मुमकिन है
जि से कहते हैं सब अ’र्शे-ए-बरीं है आस्ताँ तेरा
क़दम साबित रहे राह-ए-वफ़ा में सख़्त मुश्किल है
फ़रिश्तों को डरा देता है यारब इम्तिहाँ तेरा
हक़ीक़त से नहीं आगाह यूँ कहने को आ’रिफ़ हूँ
कहाँ ये मर्तबा मेरा कि हूँ मैं राज़दां तेरा

क़व्वाल बि ग्गन जान कानपुरवाली

क्या तकल्लुफ़ की ज़रूरत पीर-ए-मय-ख़ाना हमें
जाम-ए-जम से है सिवा मिट्टी का पैमाना हमें
जोश-ए-वहशत में नि कल जाते हैं जब हम सू-ए-दश्त
दामन-ए-सहरा नज़र आता है काशाना हमें
एक दिन मर कर लब-ए-मो’जि ज़-नुमा पर यार के
देखना है उसका अंदा ज़-ए-मसीहाना हमें
हाय वक़्त-ए-वापसीं भी दिल की दिल ही में रही
थी अज़ल से हसरत-ए-दीदा र-ए-जानाना हमें
रोज़ साक़ी देख लेता है हमें भरकर नज़र
रोज़ मिलता है लबालब एक पैमाना हमें
क़ैस का क्या ज़िक्‍र उसको तो जुनूँ का जोश था
आप अपने मुंह से क्यों कहते है दीवाना हमें
अ’र्ज़-ए-मत्लब क्या करे क्यों कर सुनाए हाल-ए-ज़ार
टाल देता है वो ज़ालि म कह के दीवाना हमें
अब महीनों भी पता मिलता नहीं मद्दाह का
पहले तो हज़रत मिला करते थे रोज़ाना हमें

क़व्वाल बीबी जान बड़ौदावाली

सरफ़राज़ी उसे हासिल हुई सारे ज़माने पर
अदब से सर झुकाया जिसने तेरे आस्ताने पर
किसी को रिज़्क़ क़िस्मत से ज़्यादा मिल नहीं सकता
ख़ुदा ने नाम लिख रखा है सबका दाने दाने पर
बशर को अपनी हर कोशिश में क्यों कर कामयाबी हो
के तीर-अफ़्ग़न के तीर अक्सर नहीं लगते निशाने पर
बलाओं से न हो मुठभेड़ सारी मुश्किलें हल हों
न भूले नाम-ए-हक़ इन्साँ अगर आराम पाने पर
कहें क्या सामना किस किस मुसीबत का है उल्फ़त में
हज़ारों सख़्तियाँ झेली हैं हमने दिल के आने पर
कमाल-ए-फ़न जो हासिल हो तो दुनिया क्यों न हो ताबे’
ज़माना लौटा था दाऊद के दिलकश तराने पर
असर ता ’लीम का हैवान के दिल में भी होता है
ये शामत है बशर की जो न सीखे कुछ सिखाने पर
सुख़न-फ़ह्मी सुख़न-गोई से भी मुश्किल है ऐ सालिक
मिले क्या दाद ना-फ़ह्मों से शे’र अपने सुनाने पर

क़व्वाल राहत जान लाहौर वाली

का’बे की तरफ़ से जो सियाह अब्‍र उठा है
वो झूम के मय-ख़ाने पे बरसे तो मज़ा है
ले जाओ मिरी जान तुम्हीं दिल को संभालो
क़ाबू में हमारे न रहेगा न रहा है
जो तेरी निगाहों में रहे ऐ शब-ए-ख़ूबी
शोख़ी में वो शोख़ी है हया में वो हया है
तद बीर से तो वस्ल है दुश्वार किसी का
वो हो के रहेगा जो मुक़द्दर में लिखा है
टलती नहीं टाले से बला-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त
कम-बख़्त ने अच्छा मिरा घर देख लिया है
सूरत नज़र आती नहीं उनकी दम-ए-आख़िर
जिनके लिए दम देर से आँखों में रुका है
आँखों में तुम्हीं फिरते हो हर दम मिरे प्यारे
जिस दिन से तुम्हे एक नज़र देख लिया है
क्यों अ’ज़्म हुआ तर्क-ए-मोहब्बत का ‘तजम्मुल’
सोचो तो यही शेवा-ए -अर्बाब-ए-वफ़ा है

क़व्वाल प्यारी जान अजमेरवाली

पहलू-ए-ग़ैर में जब दिन वो सितमगर काटे
ज़िन्दगी ऐ’श से क्या आ’शिक़-ए- मुज़्तर काटे
आज तक ज़ुल्फ़ के फंदे से रिहाई न हुई
क़ैद में ज़ीस्त के दिन हमने तड़प कर काटे
उ’म्‍र भर ऐ’श की घड़ियों को गुज़ारे कोई
दफ़्अ ’तन कोह-ए-मुसीबत को वो क्यों कर काटे
रह्म कर रह्म असीरान-ए-कफ़स पर सय्याद
छोड़ दे बहर-ए-ख़ुदा तू इन्हें बे पर काटे
अपनी तक़्दीर के लिखे को न काटा उसने
जान दी मुफ़्त में फ़र्हाद ने पत्थर काटे
ज़ुल्म सय्याद ने क्या क्या न किए बुलबुल पर
बाल नोचे कभी उसके कभी शहपर काटे
लाख दो लाख में वो तेग़ है अच्छी क़ातिल
क़त्ल-गह में जो गले काटे तो फ़र-फ़र काटे
मेरी तक़्दीर की गर्दिश को न पहुँचा अरमाँ
लाख सर पर फ़लक-ए-पीर ने चक्कर काटे

क़व्वाल दो अन्नी जान देहलीवाली

दुनिया का कोई काम हुआ और न दीं का
रख्खा तेरी उल्फ़त ने यहीं का न वहीं का
रिज़्वाँ जिसे कहता है चमन ख़ुल्द-ए-बरीं का
टुकड़ा है तिरे कूचा-ए-दिलकश की जमीं का
जाता है नि कल कर जो तिरे कूचे से कोई
रहता है वो कम-बख़्त न दुनिया का न दीं का
जाता भी है लेकर के ख़त -ए-शौक़ जो क़ासिद
हो जाता है अफ़्सोस वो कम-बख़्त वहीं का
हाँ भी जो नि कलती है कभी मुंह से किसी के
कर जाती है वो मेरे लिए काम नहीं का
आँखों में बसे थे वो रहे ख़ाना-ए-दिल में
ये घर भी उन्हीं का है तो वो घर भी उन्हीं का
ऐ चर्ख़ ये ख़ूबी तिरे तारों में कहाँ है
मा’शूक-ए-तरहदार है हर फूल जमीं का
कुछ पूछो ‘सई’द’-ए-दि ल-ए-नादाँ की न हालत
दीवाना बना फिरता है दीवाना कहीं का

क़व्वाल मिस बंदी जान बूंदीवाली

दौर-ए-जाम-ए-ऐ’श ऐ पीर-ए-मुग़ाँ यारो में है
शादियाँ है रोज़-मर्रा ईद मय-ख़्वारों में है
इक ज़माना चश्म-ए-मूसा बन गया है ऐ हसीं
अल्ला-अल्लह – क्या तजल्ली तेरे रुख़्सारों में है
जिस क़दर चाहो करो तुम नाज़-ए-बेजा ग़म नहीं
आ’शिक़–ए-शैदा तुम्हारे नाज़-बरदारों में है
ले के दिल शीरीं-ज़बानी से वो करता है ज़लील
जिसको सब भोला समझते हैं वो हुश्यारों में है
कहता है दिखला के अपना क़द्द-ए-मौज़ूँ नाज़ से
सर्व-ए-गुलशन भी हमारे कफ़्श -बरदारों में है
मल रहे हैं हज़रत-ए-ईसा कफ़-ए-अफ़्सोस आज
जाँ ब-लब कोई मगर उस लब के बीमारों में है
ग़ैर-मुम्कि न है मसीहा से शिफ़ा दिल की ‘रशीद’
हाँ मगर मुम्किन है उससे जिसके बीमारों में है

-सुमन मिश्र

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