Qawwalon ke Qisse-14 Pathane Khan ka Qissa
संगीतकार अपने पहले और बाद के युगों के बीच एक पुल का कार्य करते हैं . आने वाली पीढ़ी को अज्ञात के ऐसे पक्ष से भी अवगत करवाते हैं जो हमें कभी याद था पर आज हम उसे भूल चुके हैं. क़व्वालों का काम इस मामले में और भी अहम् यूँ हो जाता है क्यूंकि वह ऐसे लोगों के कलाम पढ़ते हैं जो खल्वत पसंद थे और जिनके लिए लिखना एक प्रवाह की तरह था जो हर पल नित्यता के अनंत सागर से अपने कलाम के ख़ुम भर-भर कर आशिक़ों के दिलों में गहरे कहीं छुपा कर रख देते थे .
हामिद अ’ली बेला का योगदान इस तरह और बड़ा हो जाता है कि उन्होंने हज़रत शाह हुसैन के कलाम न सिर्फ़ पढ़े बल्कि उन्हें अपनी गायकी से इतना रसलीन किया कि हामिद अ’ली बेला का नाम हज़रत शाह हुसैन में फ़ना होकर बक़ा रह गया. क़व्वालों की गौरवमयी परंपरा में ऐसा ही एक और बड़ा नाम है पठाना ख़ान का जिन्होंने ख्व़ाजा ग़ुलाम फ़रीद के कलाम की रूहानियत को न सिर्फ़ समझा बल्कि उसे अपनी गायकी में बखूबी निभा कर उस रूहानियत को सुनने वालों के कानों में भी मिश्री की तरह घोल दिया.
ख्व़ाजा ग़ुलाम फ़रीद अपनी तरह के एक अलबेले सूफ़ी थे. कहते हैं कि ख्व़ाजा साहेब के एक मुरीद थे. उनकी पत्नी का देहांत निकाह के कुछ ही दिनों बाद हो गया. अपनी पत्नी के विरह से परेशान वह मुरीद एक रात ख्व़ाजा साहेब के हुज़ूर पेश हुआ. उसने अर्ज़ किया – हुज़ूर अब नहीं रहा जाता. ख्व़ाजा साहब से अपने मुरीद का यह हाल देखा नहीं गया. उन्होंने उस से फ़रमाया कि तू रोज़ रात को अपनी बीबी की कब्र पर चले जाना. वह तुम्हें वहीँ बैठी मिलेगी.उस से बात करना मगर खबरदार ! उसे हाथ लगाने की चेष्टा मत करना. मुरीद रोज़ ऐसा ही करने लगा. एक दिन मुरीद बातें करते करते भावुक हो गया और उस ने अपनी बीबी को हाथ लगाना चाहा. जैसे ही उसने हाथ आगे बढ़ाया बीवी ने अपना नकाब ऊपर उठाया और चाँद की रौशनी में मुरीद ने देखा – वहां ख्व़ाजा साहब बैठे थे – हँस कर फ़रमाया – मियां कुछ तो शर्म करो ! ख्व़ाजा साहब अपने मुरीदों के लिए यह तक कर गए. ख्व़ाजा साहब के कई क़िस्से लोक में प्रसिद्द है. ख्व़ाजा साहेब ने वक़्त की ज़रुरत को ध्यान में रखते हुए ऐलान किया था कि उनका मुरीद होने के लिए अंग्रेज़ी आनी ज़रूरी है . ख्व़ाजा साहब के कलाम में हज़रत शाह हुसैन द्वारा शुरू की गयी परंपरा और भी सहज दिखती है. इतनी सहज कि पढ़ने वाले को रूह की यह पूरी विकास यात्रा न सिर्फ़ समझ आती है बल्कि इस पूरी यात्रा पर स्वयं सहयात्री होने का भी आभास होने लगता है.
पठाना ख़ान का जन्म 1926 में तम्बू वाली बस्ती में हुआ था जो कोट अद्दू ,पंजाब (तत्कालीन भारत, अब पाकिस्तान ) से कुछ मील की दूरी पर स्थित है. जब वह छोटे थे तब एक असाध्य बीमारी से ग्रस्त हुए और एक सय्यद की सलाह पर उनका नाम ग़ुलाम मुहम्मद से बदलकर पठाना ख़ान कर दिया गया. यह वक़्त पठाना ख़ान के परिवार पर बड़ा भारी था. उनके पिता ने तीसरी शादी कर ली और जब वह घर आये तो पठाना ख़ान की माँ ने यह सम्बन्ध तोड़ देना ही उचित समझा और एक बड़ा फैसला लेते हुए उन्होंने अपने पति का घर स्वेच्छा से त्याग दिया और और अपने बच्चे के साथ वह पिता के घर आ गयी. वहां उन्होंने तंदूर का काम संभाल लिया और गाँव वालों के लिए रोटियां बनाने लगी. पठाने ख़ान अपनी माता के बड़े करीब थे. वह जंगल से लकड़ियाँ लाते थे और अपनी माँ की मदद करते थे. उनकी माँ ने प्रयास किया कि उन्हें अच्छी तालीम दी जाए परन्तु सातवी तक पढ़ने के बाद पठाने ने पढाई छोड़ दी.उन्होंने गाना सीखा . मीतन कोट के संत ख्व़ाजा फ़रीद के तो वह दीवाने थे .उनके पहले गुरु बाबा मीर ख़ान थे जिन्होंने उन्हें तसव्वुफ़ और गायकी की बारीकियां सिखायीं. पठाना ख़ान ने अपनी माता के देहांत के पश्चात गायकी को ही अपना पेशा बना लिया. उनके गाये कलाम अब लोगों के बीच प्रसिद्द होने लगे थे और उनकी गायकी हज़ारों दिलों में अपनी जगह बना रही थी .’पीलू पकियां नी वे’ में उनका अंदाज़ हमें कब ईश्वर से जोड़ देता है हमें पता ही नहीं चलता. पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अ’ली भुट्टो ने उन्हें प्राइड ऑफ़ पाकिस्तान की उपाधि से भी नवाज़ा था . पठाना ख़ान इस जगती के पालने से 9 मार्च 2000 को विदा हुए और परमात्मा में मिल गए.
उनके बेटे ने अपने पिता द्वारा स्थापित इस परंपरा को आगे ज़ारी रखा और आज इक़बाल पठाना ख़ान पाकिस्तानी क़व्वाली के जाने माने नाम हैं.
हर बड़ी कहानी का एक दुखांत-पक्ष भी होता है. पठाना ख़ान से जुड़ी एक खबर 1 मई 2007 को Dawn अखबार में छपी जिसमे यह बताया गया कि पठाना ख़ान के बेटे ग़रीबी के कारन अपने पिता की निजी वस्तुएं यथा – हारमोनियम, और 74 पुरस्कार नीलाम करना चाहते हैं. क़व्वालों की उपेक्षा का उल्लेख करती यह खबर व्यथित करने वाली है. इक़बाल हर वर्ष 28 मार्च को अपने पिता का उर्स भी मानते हैं जिसमें उनका कलाम पढ़ा जाता है और इस महान क़व्वाल को श्रधांजलि दी जाती है. क़व्वालों के क़िस्से का मूल उद्देश्य सुने अनसुने क़व्वालों की कहानियां आप तक पहुंचाने का है ताकि लोग उनकी संघर्ष यात्रा से परिचित हों. क़व्वाल बंधुओं से भी हमारा विनम्र निवेदन है कि वो आगे आयें और अपनी संगीत यात्रा हमसे साझा करें. आप की कथा यात्रा साझा कर हम गौरवान्वित होंगे.
Youtube links of some famous Kafis of Pathane Kahan
-सुमन मिश्र
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
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- Faiz Ali Shah
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