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अजमेर विवाद का अविवादित पक्ष

“अजमेरा के मायने चार चीज़ सरनाम ख़्वाजे साहब की दरगाह कहिए, पुष्कर में अश्नान मकराणा में पत्थर निकले सांभर लूण की खान” -(अजमेर हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिपटिव किताब से ) ख़्वाजा साहब और अजमेर का ऐसा नाता है जैसा चन्दन और पानी का है । अजमेर सूफ़ी संतों के लिए एक ऐसा झरना है जहाँ देश… continue reading

बाबा फ़रीद के मुर्शिद और चिश्ती उसूल-ए-ता’लीम-(प्रोफ़ेसर प्रीतम सिंह)

कहते हैं कि शैख़ क़ुतुबुद्दीन (रहि.) ने बाबा फ़रीद को चिल्ला-ए-मा’कूस करने की हिदायत फ़रमाई थी। ये बड़ी सख़्त रियाज़त थी जो चालीस दिन तक जारी रही थी।ये वाज़ेह नहीं होता कि आया शैख़ क़ुतुबुद्दीन ने हज़रत बाबा फ़रीद की क़ुव्वत-ए-सब्र-ओ-बर्दाश्त, अहलियत और जमई’यत-ए-ख़ातिर का इम्तिहान लेने की ग़रज़ से ये हिदायात दी थीं या ये उन सलाहियतों और ख़ूबियों को उनके अंदर पैदा करने का एक ज़रिआ’ था।

बाबा फ़रीद के श्लोक-जनाब महमूद नियाज़ी

हज़रत बाबा साहिब की काठ की रोटी मशहूर है।जिसके मुतअ’ल्लिक़ ये रिवायत है कि हज़रत बाबा साहिब अपने मुसलसल रोज़ों का इफ़्तार अपने लकड़ी के प्याले को घिस कर करते थे जिससे उस प्याले के तमाम किनारे ख़त्म हो गए थे और उसने रोटी की मानिंद शक्ल इख़्तियार कर ली थी।मशहूर है किसी दरगाह में आज तक ये रोटी मौजूद है।अब एक श्लोक देखिए जिसमें रोटी की तल्मीह वाज़ेह तौर पर मौजूद है।क्या इस शे’र को शैख़ इब्राहीम से मंसूब किया जा सकता है।

हज़रत बाबा फ़रीद के ख़ुलफ़ा-प्रोफ़ेसर ख़लीक़ अहमद निज़ामी फ़रीदी

क मर्तबा शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया अजोधन जाते हुए शैख़ जमाल के यहाँ क़ियाम-पज़ीर हुए।शैख़ जमाल ने उनसे इल्तिमास किया कि वो शैख़ फ़रीद को उनकी बद-हाली और उ’सरत से मुत्तला’कर दें।जब शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया ने ये पैग़ाम पहुँचाया तो शैख़ फ़रीद फ़रमाने लगे-
“ऊ रा ब-गो चूँ विलायत ब-कसे दादः-शवद ऊ रा वाजिब अस्त इस्तिमालत”
(उनसे कहो कि जब किसी को विलायत दी जाती है तो उस पर वाजिब है कि पूरी तरह अल्लाह की तरफ़ मुतवज्जिह रहे।)

बाबा फ़रीद शकर गंज का कलाम-ए- मा’रिफ़त-प्रोफ़ेसर गुरबचन सिंह तालिब

ऐ फ़रीद गलियों में कीचड़ है। महबूब का घर दूर है। मगर उसकी मोहब्बत कशिश कर रही है। मैं जाऊँ तो कंबली भीगती है भीगने दो। मेंह बरसता है तो अल्लाह की मर्ज़ी से जो बरसे बरसने दो।मैं महबूब से मिलूं मेरा प्यार न टूटे

हज़रत बाबा साहिब की दरगाह-मौलाना वहीद अहमद मसऊ’द फ़रीदी

जब बहिश्ती दरवाज़ा संग-ए-मरमर का बनाया गया तो वहाँ से ये किवाड़ और चौखट ला कर यहाँ लगा दिए गए। यही वो जगह है जहाँ हज़रत-ए-वाला सबसे पहले अजोधन आकर तशरीफ़ फ़रमाए थे तो इसी जगह “अपनी गुदड़ी सिया करते थे। लिहाज़ा इसी जगह चार दिवारी का नाम “गुदड़ी” हो गया।