
बाबा फ़रीद शकर गंज का कलाम-ए- मा’रिफ़त-प्रोफ़ेसर गुरबचन सिंह तालिब

हज़रत बाबा फ़रीद साहिब का मक़ाम ब-हैसियत एक रुहानी पेशवा के हिन्दुस्तान भर में मुसल्लम है। उनके अ’क़ीदत-मंद पाकिस्तान, अफ़्ग़ानिस्तान, बंगलादेश और हमारे सभी हम-सया मुल्कों में मौजूद हैं मगर उनसे जो क़ुर्ब पंजाब के अ’वाम को है वो यक़ीनन अपनी मिसाल आप है। उस का सबब ये है कि ज़बान और मक़ाम की वहदत के ए’तबार से जो क़ुर्ब पंजाब वालों को बाबा साहिब रहमतुल्लाहि अ’लैह से हो सकता है वो उन लोगों के लिए मुश्किल है जो या तो उनके बारे में कवाइफ़ और वाक़िआ’त दूसरों के लिखे हुए पढ़ते हैं या उनके पाकीज़ा कलाम को तर्जुमा और तफ़्सीर की ज़बान में ही जान सकते हैं। ये हक़ीक़त है कि बाबा साहिब अपनी ज़बान में पंजाबी ज़बान के मुल्तानी मुहावरे को इस्ति’माल करते थे।आपको उस ज़माने के ज़ाहिरी और बातिनी उ’लूम पर उ’बूर हासिल था और उसकी तहसील के लिए फ़ारसी और अ’रबी ज़बानों में महारत रखते थे।उन ज़बानों में आप क़ुरआन,हदीस फ़ल्सफ़ा,फ़िक़्ह और दूसरे उ’लूम पर उ’लमा से बहस फ़रमाया करते थे मगर सादा अ’वाम के साथ आप उन लोगों की ज़बान में बात-चीत करते थे जिसकी वजह से वो उस बर्गुज़ीदा मर्द-ए-ख़ुदा के इ’रफ़ान से फ़ैज़-याब होते थे।वली हाँसी और उसके क़ुर्ब-ओ-जवार के इ’लाक़ों में अ’र्सा तक रहने के सबब आप अक्सर हिंदवी ज़बान में बातचीत करते थे और उसका रंग भी आपके कलाम पर है। अजोधन (पाक पट्टन) के इ’लाक़ा में जो लोग बूद-ओ-बाश रखते थे वो उस ज़माना में और अब भी जांगली (जंगली) कहलाते थे। सिवा-ए-अपनी रोज़-मर्रा की ज़बान के और कुछ नहीं समझते थे।उनको रुहानी इ’र्तिक़ा और अख़लाक़ी ज़िंदगी के निकात किसी और ज़बान में नहीं समझाए जा सकते थे ता वक़्ते कि उस ज़बान का इस्ति’माल न किया जाए जिसके मुहावरे और अल्फ़ाज़ से वो अपनी आ’म ज़िंदगी में आश्ना थे। हमारे मुल्क के दीगर सूफ़ी संत और रुहानी पेशवा यही तरीक़ा इस्ति’माल करते रहे हैं। दूसरे मुल्कों में भी मज़हबी मुबल्लिग़ और अख़लाक़ के मुअ’ल्लिम इसी तरह अपना पैग़ाम अ’वाम तक पहुंचाते रहे हैं।
मुसलमान मुवर्रिख़ों ने बाबा साहिब के फ़ारसी अश्आ’र का ज़िक्र किया है और कहीं-कहीं उसके नमूने भी दिए हैं।एक-आध क़ितआ’ हिंदवी का भी उनकी तस्नीफ़ का कहीं-कहीं आया है।उस कलाम की सेहत और वाक़ई’यत से ग़ालिबन इन्कार नहीं किया जा सकता। बुज़ुर्गों का ये शिआ’र रहा है कि सुनने वाले की ज़बान और उसकी इस्ति’दाद को सामने रखकर अपना कलाम उसके मुताबिक़ करते थे। पंजाबी ज़बान में जो आपका कलाम है उसका ज़िक्र मुसलमान मुवर्रिख़ों ने बिल-उ’मूम नहीं किया।‘जवाहर-ए-फ़रीदी’ में जो जहांगीर के ज़माने की तस्नीफ़ है एक दोहा दिया हुआ है जो बाबा साहिब की तस्नीफ़ का बताया गया है।उस दोहे के अल्फ़ाज़ यूँ हैं:-
मेरा धड़ सूली पर लटका हुआ है रियाज़त-ए-शाक्क़ा के सबब तन पिंजरा बन गया है। कव्वे तलवों को नोच रहे हैं लेकिन ख़ुदा अब भी नहीं मिला।(क्या कहने हैं इस क़िस्मत के !
ये दोहा गुरू-ग्रंथ साहिब में दर्ज एक श्लोक से मिलता-जुलता है। उस का शुमार वहाँ नव्वे है ।वो श्लोक यूँ है:
फरीदा तनु सुका पिंजरु थीआ तलीआं खूंडहि काग
अजै सु रबु न बाहुड़िओ देखु बंदे के भाग ॥
(ऐ फ़रीद मेरा तन सूख कर पिंजरा बन गया है और मेरे तलवों को कव्वे नोच रहे हैं।मगर आज तक ख़ुदा नहीं मिला।अ’जीब क़िस्मत है इस इन्सान की)
बाबा फ़रीद साहिब के पंजाबी कलाम को मुसलमानों ने भुला दिया। इसके क्या सबब हैं ये तहक़ीक़ और तारीख़ ही बता सकेगी। फ़िलहाल इसके लिए ज़राए’ फ़राहम नहीं किए जा सकते। ये हक़ीक़त है कि किसी वक़्त गुरू नानक साहिब अपनी रुहानी ता’लीम के प्रचार के दौरान अजोधन तशरीफ़ ले गए जिसका नाम अकबर ने पाक पट्टन रखा। बाबा साहिब के एहतिराम से वहाँ गुरू नानक साहिब की मुलाक़ात बाबा फ़रीद साहिब के बारहवें जांनशीन शैख़ इब्राहीम से हुई।आपके साथ गुरू साहिब के रूहानी इर्तिक़ा के मुआ’मले में गुफ़्तुगू गुरू नानक साहिब की ज़िंदगी के हालात की किताब में दर्ज है जिसका नाम जन्म साखी है।उस दौरान आपको शैख़ इब्राहीम साहिब के जद्द-ए-आ’ला और पंजाब के बुज़ुर्ग-तरीन सूफ़ी संत बाबा शैख़ फ़रीद का कलाम दस्तयाब हुआ।गुरू नानक साहिब ने उस कलाम को जो अ’वाम की ज़बान पंजाबी में था पसंद फ़रमाया और उसको अपने साथ ले गए।बा’द को ये कलाम जो फ़ारसी हुरूफ़ में लिखा हुआ था सिख मज़हब के रस्म-उल-ख़त गुरुमुखी में लिखा गया।और जब सत्रहवीं सदी के इब्तिदाई सालों में गुरू अर्जुन देव ने जो सिख मज़हब के पाँचवें पेशवा थे,उस मज़हब के मुक़द्दस सहीफ़ा ग्रंथ साहिब की तदवीन की तो उसमें बाबा शैख़ फ़रीद साहिब का ये कलाम भी दर्ज किया गया।इस वक़्त उस कलाम को एहतिराम के ए’तबार से वही मक़ाम और मर्तबा हासिल है जो गुरूना नक साहिब और दूसरे गुरू साहिबान के कलाम को।हर सिख पर ये फ़र्ज़ आए’द है कि इस कलाम का एहतिराम करे। जहाँ ये लिखा हुआ हो और पढ़ा जाए उसके सामने अदब से सर झुकाए और उसकी तिलावत या ग़िना के दौरान कोई ऐसी हरकत न करे जैसे हाथों से ताली बजाना जिससे इस पाकीज़ा कलाम के तईं सू–ए-अदब का एहतिमाल हो सके। गुरू नानक साहिब की ता’लीम के अरकान में सुल्ह-ए-कुल,बुलंदी-ए- अख़लाक़, ख़ुदा से विसाल की जुस्तजू और इन्सान को उसके ज़मीर के अंदर छुपे हुए गुनाहों से बा-ख़बर करना, ये और दीगर इस क़िस्म के जुज़्व शामिल हैं। गुरू साहिब ने बाबा साहिब की ता’लीम में भी यही अरकान नुमायाँ देखे और उसे पसंद का दर्जा दिया और उसको अपने दीनी अ’क़ाइद की रिवायात में शामिल किया।गुरू ग्रंथ साहिब में कई एक भगतों और बुज़ुर्गों का कलाम उसी तरह से शामिल किया गया है जैसे बाबा शैख़ फ़रीद साहिब का ये कलाम।उन भगतों में शैख़ भीखन, कबीर साहिब, भगत नामदेव,संत रविदास और भगत जयदेव दूसरे भगतों के अ’लावा शामिल हैं। इस ए’तबार से गुरू ग्रंथ साहिब में बिला तफ़रीक़-ए-मिल्लत और तब्क़ा (जाति) के हर वो कलाम जो दस्तियाब हो सका और जिसमें तौहीद,मुसावात और बुलंद-अख़लाक़ के मज़मून शामिल थे विर्द किया गया। इस ए’तबार से बाबा फ़रीद दुस्तानी साहिब का कलाम एक ऐसे सहीफ़े में महफ़ूज़ है जो सिख मज़हब का रोज़-मर्रा का विर्द है।बे-शुमार सिखों को ये कलाम ज़बानी याद है।इस पर मुतअ’द्दिद तफ़्सीरें लिखी जा चुकी हैं और इसके अख़लाक़ी और रुहानी पहलूओं को बार-बार दुहराया जाता है।इन्सान को इस दुनिया की चीज़ों की बे-हैसियती,मौत का यक़ीनी सफ़र और दुनिया के लालच से किनारा-कश हो कर ख़ुदा की तरफ़ लौ लगा कर ज़िंदगी बसर करने की तल्क़ीन है।ता’लीम को हिन्दुस्तानी फ़ल्सफ़ा के मुताबिक़ (वैराग) दुनिया से मुँह मोड़ना कहा गया है।इस पाकीज़ा ता’लीम से दिल साफ़ होता है।रूह को तस्कीन पहुँचती है और पत्थर से पत्थर दिल पिघल कर इन्सानी हमदर्दी और नेकी की जानिब माइल हो जाता है।
इस ता’लीम की तफ़्सील तो बाबा साहिब के तमाम कलाम को पढ़ कर ही हासिल हो सकती है जिसमें शबद,क़ितए’ और 130 श्लोक शामिल हैं।ये कलाम उसी तर्तीब से दर्ज है जैसे गुरु ग्रंथ साहिब में मुंदरज और कलाम इस का ख़ात्मा उन पाक अल्फ़ाज़ से होता है जिनमें ख़ुदा-ए-पाक से उसकी रहमत और बरकत की दुआ’ मांगी गई है।अल्फ़ाज़ हैं, एक ऊंकार सत गुरू प्रशाद, (एक पाक ख़ुदा के नाम से इब्तिदा है जिसका इ’रफ़ान उसी की रहमत से हो सकता है)। बाबा फ़रीद साहिब के चंद कलाम आपकी ख़िदमत में पेश किए जाते हैं। ये कलाम तमाम-तर उन तस्नीफ़ात में मिल जाएगा जो उर्दू अंग्रेज़ी और दूसरी ज़बानों में बाबा फ़रीद मेमोरियल सुसाइटी की जानिब से शाए’ किया गया है।इस अंजुमन का सद्र दफ़्तर पंजाब यूनीवर्सिटी में है और इसकी इब्तिदा पंजाब में फ़रीदकोट के मक़ाम से हुई। इस की बुनियाद बाबा साहिब के नाम पर पड़ी। यहाँ बाबा साहिब की याद में फ़िल-हाल एक हस्पताल पंजाब सरकार की जानिब से क़ाएम किया गया है।
कलाम-ए-बाबा फ़रीद
फरीदा सकर खंडु निवात गुड़ु माखिओ मांझा दुधु ॥
सभे वसतू मिठीआं रब न पुजनि तुधु ॥
(ऐ फ़रीद कह कि शकर,खांड,मिस्री,गुड़,शहद और भैंस का घी भरा दूध, ये सब चीज़ें शीरीं हैं मगर ऐ ख़ुदा जो मिठास तेरी मोहब्बत में है वो इनमें नहीं)
फरीदा गलीए चिकड़ु दूरि घरु नालि पिआरे नेहु ॥
चला त भिजै क्मबली रहां त तुटै नेहु ॥भिजउ सिजउ क्मबली अलह वरसउ मेहु ॥
जाइ मिला तिना सजणा तुटउ नाही नेहु ॥
(ऐ फ़रीद गलियों में कीचड़ है। महबूब का घर दूर है। मगर उसकी मोहब्बत कशिश कर रही है। मैं जाऊँ तो कंबली भीगती है भीगने दो। मेंह बरसता है तो अल्लाह की मर्ज़ी से जो बरसे बरसने दो।मैं महबूब से मिलूं मेरा प्यार न टूटे)
कोयल के मुँह से कहलवाते हैं, सवाल के जवाब मेः
काली कोइल तू कित गुन काली ॥
अपने प्रीतम के हउ बिरहै जाली ॥
(ऐ काली कोयल तू किस कारण काली हो गई है, मैं तो अपने महबूब के हिज्र में जल-जल कर काली हो गई हूँ)
दुनिया की बे-सबाती
जितु दिहाड़ै धन वरी साहे लए लिखाइ ॥
मलकु जि कंनी सुणीदा मुहु देखाले आइ ॥
जिंदु निमाणी कढीऐ हडा कू कड़काइ ॥
साहे लिखे न चलनी जिंदू कूं समझाइ ॥
जिंदु वहुटी मरणु वरु लै जासी परणाइ ॥
आपण हथी जोलि कै कै गलि लगै धाइ ॥
(जिस दिन मौत का महूरत है और मौत का दूल्हा ज़िंदगी की दुल्हन को लेने आएगा और मलकुल-मौत आन कर मुँह दिखाएगा।बे-चारी ज़िंदगी, हड्डियाँ कड़का-कड़का कर निकाली जाएगी।उस वक़्त जो मौऊद वक़्त है वो टलेगा नहीं। ज़िंदगी दुल्हन है और मौत दूल्हा। उस को अ’क़्द में लेकर जाएगा फिर अपने हाथों से ज़िंदगी को रुख़्सत कर के किस के गले लग कर तू रोएगा,)
फरीदा जे जाणा तिल थोड़ड़े समलि बुकु भरी ॥
जे जाणा सहु नंढड़ा तां थोड़ा माणु करी ॥
(ऐ फ़रीदा अगर मैं जानती कि ज़िंदगी के तिल थोड़े हैं तो सँभल कर मुट्ठियाँ भर्ती न बिखेरती। अगर मैं ये जानती कि प्यारा जवानी में मस्त है तो मैं थोड़ा ग़ुरूर करती)
फरीदा इनी निकी जंघीऐ थल डूंगर भविओम्हि ॥
अजु फरीदै कूजड़ा सै कोहां थीओमि ॥
(ऐ फ़रीद इन छोटी-छोटी रातों ने रेगिस्तान और पहाड़ को भी उ’बूर किए हैं। मगर आज ये कैफ़ियत है कि वुज़ू का कूज़ा भी सौ कोस दूर पड़ा दिखाई पड़ता है।)
फरीदा किथै तैडे मापिआ जिन्ही तू जणिओहि ॥
तै पासहु ओइ लदि गए तूं अजै न पतीणोहि ॥
(ऐ फ़रीद कहाँ हैं तेरे माँ और बाप जिन्हों ने तुझे जना।वो तो कब के रवाना हो गए मगर तू अभी तक ग़ाफ़िल है)
अख़लाक़, इन्किसार
फरीदा जो तै मारनि मुकीआं तिन्हा न मारे घुमि ॥
आपनड़ै घरि जाईऐ पैर तिन्हा दे चुमि ॥
(ऐ फ़रीद जो मुझे घूँसे मारें उनको तू न मार उनके पाँव चूम कर अपने घर जा)
फरीदा थीउ पवाही दभु ॥
जे सांई लोड़हि सभु ॥
इकु छिजहि बिआ लताड़ीअहि ॥
तां साई दै दरि वाड़ीअहि ॥
(ऐ फ़रीद तू रासे की घास बन जा अगर अपने मालिक से मिलना चाहे टूट कर टुकड़े हो जा।पाँव तले कुचला जा तब कहीं मालिक का दर नसीब होगा)
फरीदा साहिब दी करि चाकरी दिल दी लाहि भरांदि ॥
दरवेसां नो लोड़ीऐ रुखां दी जीरांदि ॥
(ऐ फ़रीद मालिक का बुर्दा हो जा। दिल से और सब भरम निकाल दे।दरवेशों को दरख़्तों की तरह बुर्दबार होना चाहिए जो गर्मी सर्दी और कुल्हाड़े की ज़र्ब झेलते हैं)
इकु फिका न गालाइ सभना मै सचा धणी ॥
हिआउ न कैही ठाहि माणक सभ अमोलवे ॥
(किसी से दिल को खाने वाली बात न कह।सब में वो सच्चा मालिक बस्ता है।किसी का दिल न तोड़, सब बे-बहा मोती हैं)
सभना मन माणिक ठाहणु मूलि मचांगवा ॥
जे तउ पिरीआ दी सिक हिआउ न ठाहे कही दा ॥
(सब के दिल मोती हैं किसी को तोड़ना अच्छा नहीं।अगर तुझे प्यारे से मिलने की तमन्ना है तो किसी का दिल मत तोड़।)
साभार – मुनादी पत्रिका
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
- Kaleem Athar
- Khursheed Alam
- Mazhar Farid
- Meher Murshed
- Mustaquim Pervez
- Qurban Ali
- Raiyan Abulolai
- Rekha Pande
- Saabir Raza Rahbar Misbahi
- Shamim Tariq
- Sharid Ansari
- Shashi Tandon
- Sufinama Archive
- Syed Ali Nadeem Rezavi
- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Shamimuddin Ahmad Munemi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi