हज़रत सय्यद अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी रहमतुल्लाह अ’लैह

लक़बः-

सय्यद मोहम्मद अशरफ़ इस्म-ए-गिरामी और जहाँगीर लक़ब था।

वतन-ओ-ख़ानदानः-

आल-ए-सिमनान में थे।विलादत-ए-बा-सआ’दत सिमनान में हुई। वालिद-ए-बुज़ुर्गवार मोहम्मद इब्राहीम सिमनान के सुल्तान थे। वालिदा माजिदा ख़दीजा बेगम ख़्वाजा अहमद यस्वी की लड़की थीं। उनके ज़ुह्द-ओ-इ’बादत का हाल ये था कि उनसे तहज्जुद की नमाज़ कभी क़ज़ा न हुई। पूरी रात इ’बादत में गुज़ारतीं और साइमुद्दहर रहीं।

ता’लीमः-

तीन बहनों के बा’द हज़रत इब्राहीम मज्ज़ूब की दु’आओं की बरकत से हज़रत सय्यद अशरफ़ पैदा हुए।सात साल के हुए तो सात क़िराअतों के साथ कलाम-ए-पाक हिफ़्ज़ किया।चौदह साल की उ’म्र में मा’क़ूलात की ता’लीम ख़त्म की जिससे तमाम इ’राक़ में मशहूर हो गए।

औरंग-नशीनीः-

वालिद-ए-बुज़ुर्गवार की वफ़ात के बा’द सिमनान की अ’नान-ए-हुकूमत संभाली।उनके ज़माना-ए-हुकूमत के अ’द्ल-ओ-इंसाफ़ के बहुत से क़िस्से मशहूर हैं।लताइफ़-ए-अशरफ़ी के मुअल्लिफ़ ने इस अ’द्ल-ओ-इंसाफ़ का ज़िक्र अश्आ’र में किया है:

चूँ औरंग-ए-सिमनाँ ब-दू ताज़ः गश्त

जहाँ अज़ अ’दालत पुर-आवाज़ः गश्त

ब-मीज़ान-ए-अ’द्लश हमः रोज़गार

गुल्सिताँ शुदः अ’द्ल आवुर्द बार

ज़हे अ’द्ल-ओ-इंसाफ़-ए-आँ दादगर

कि बर मेश गुर्गे न बंदद कमर

ब-शाहीं ज़नद बाल बाज़ी कलंग

कबूतर सू-ए-बाज़ आवुर्द चंग

अगर फ़ील बर फ़र्क़-ए-मोरे गुज़र

कुनद मोर बर फ़ील आरद नज़र

कि ईं दौर-ए-सुल्तान-ए-अशरफ़ बुवद

चेसाँ ज़ुल्म-ए-तू बर सर-ए-मन रवद

तर्क-ए-सल्तनतः-

हुकूमत के ज़माना में भी हज़रत सय्यद मोहम्मद अशरफ़ फ़राईज़-ओ-सुनन और वाजिबात-ओ-नवाफ़िल के पाबंद थे।राह-ए-सूलूक की तरफ़ तबीअ’त सिग़र-ए-सिन्नी से माएल थी,इललिए ख़्वाब में बुज़ुर्गान-ए-दीन ही को देखते, और उनसे फ़ुयूज़ हासिल करते।बिल-आख़िर एक रात ख़्वाब में देखा कि हज़रत ख़िज़्र फ़रमा रहे हैं कि सल्तनत-ए-इलाही चाहते तो ये दुनियावी सल्तनत छोड़ कर हिन्दुस्तान जाओ।इस ख़्वाब के बा’द वालिदा माजिदा की ख़िदमत में हाज़िर हुए, और अपना इरादा ज़ाहिर किया।वालिदा ने फ़रमाया तुम्हारी पैदाइश से पहले मेरे वालिद-ए-बुज़ुर्गवार ने बशारत दी थी कि मेरे घर में एक फ़र्ज़न्द पैदा होगा, जिसके नूर-ए-विलायत से तमाम आ’लम मुन्नवर होगा।अल्लाह का शुक्र है कि वो वक़्त आ पहुँचा।सफ़र मुबारक हो।

वालिदा माजिदा की इजाज़त-ए-सफ़र के बा’द सल्तनत अपने भाई सुल्तान मोहम्मद के सुपुर्द कर के हिन्दुस्तान की तरफ़ रवाना हुए।

सफ़रः-

तीन मंज़िल तक बारह हज़ार सिपाही और तोरची रुख़्सत करने आए।उनको विदाअ’ कर के हज़रत सय्यद मोहम्मद अशरफ़ मावरा-उन्नहर होते हुए बुख़ारा पहुँचे।बुख़ारा से समरक़ंद आए।समरक़ंद तक कुछ घोड़े सवारी में साथ थे,लेकिन उन घोड़ों से राहत के बजाए रुस्वाई महसूस की इसलिए फ़ुक़रा को दे दिए।समरक़ंद से ऊचा  वारिद हुए,जहाँ हज़रत सय्यद जलालुद्दीन बुख़ारी मख़दूम जहानियान-ए-जहान गश्त की ख़िदमत में पहुँचे।हज़रत जहानियान-ए-जहाँ गश्त ने उनको देखते ही फ़रमायाः

बा’द अज़ मुद्दते बू-ए-तालिब-ए-सादिक़ ब-दिमाग़ रसीदः,बा’द अज़ रोज़गारे नसीम अज़ गुलज़ार-ए-सियादत वज़ीदः, फ़र्ज़न्द-ए-बिस्यार मर्दानः आमदः, मुबारक बाद, ज़ूद क़दम दर राह निह कि बिरादरम अ’लाउद्दीन मुंतज़िर-ए-मक़्दम-ए-शरीफ़ हसतंद ज़िन्हार, दर राह जाए-नमानी”। (लताएफ़-ए-अशरफ़ी जिल्द-ए-दोउम सफ़हा 94)

हज़रत मख़दूम जहानियाँ जहाँ गश्त से फ़ैज़याब होकर देहली में नुज़ूल-ए-इज्लाल फ़रमाया।यहाँ के मशाइख़ से मुतमत्तिअ’ होकर बिहार की तरफ़ रुख़ किया।क़स्बा,बिहार शरीफ़ उस वक़्त पहुँचे,जब हज़रत मख़दूमुल-मुल्क शरफ़ुद्दीन अहमद यहया मनेरी रहमतुल्लाह अ’लैह का जनाज़ा रखा हुआ था।हज़रत मख़दूम ने वसिय्यत फ़रमाई थी कि उनके जनाज़ा की नमाज़ वही शख़्स पढ़ाए जो सहीहुन्नसब सय्यद हो, तारिक-ए-ममलिकत हो, और सात क़िराअतों का क़ारी हो।ये तमाम शर्तें हज़रत सयय्द मुहम्मद अशरफ़ में मौजूद थीं।इसलिए उन्होंने हज़रत मख़दूम के जनाज़ा की नमाज़ पढ़ाने की सआ’दत हासिल की।कुछ दिनों हज़रत मख़दूम के मज़ार पर मुराक़बा कर के रूहानी फ़ुयूज़-ओ-बरकात हासिल किए।उसके बा’द बंगाला की तरफ़ आगे बढ़ गए।

बैअ’तः-

उस ज़माना में अहल-ए-बंगाला चिश्तिया सिलसिला के बुज़ुर्ग हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन अ’लाउल-हक़ बिन अस्सा’द अल्लाहौरी बंगाली की मज़हबी-ओ-रूहानी ता’लीमात से फ़ैज़याब हो रहे थे।ये हज़रत ख़्वजा निज़ामुद्दीन औलिया के मशहूर ख़लीफ़ा हज़रत शैख़ सिराजुद्दीन अख़ी उ’स्मान के ख़लीफ़ा थे।हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन के ख़ानदान के लोग वज़ारत और दूसरे बड़े बड़े शाही ओ’हदों पर मामूर थे,लेकिन ख़ुद उन्होंने दरवेशी इख़्तियार की थी,जय्यिद आ’लिम थे,इसलिए मज़हबी और रूहानी ता’लीमात के लिए उनके पास लोग ब-कसरत आते। उनकी सख़ावत भी मशहूर थी।उनकी ख़ानक़ाह के इख़राजात पर सलातीन को भी रश्क होता था।रौज़ा शरीफ़, पंडोह शरीफ़ (ज़िला’ मालदा) में है। लेकिन क़ियाम सुनार गाँव और बंगाल के दूसरे मक़ामात पर भी रहा।लताएफ़-ए-अशरफ़ी में हैं कि हज़रत सय्यद अशरफ़ के आने से पहले हज़रत अ’लाउद्दीन ने अपने मुरीदों को बशारत दी थी कि

आँ कसे कि अज़ दो साल इंतिज़ार-ए-ऊ मी-कशीदः-ऐम-ओ-तरीक़-ए-मुवासलत-ए-ऊ मी-दीद:-ऐम इमरोज़ फ़र्दा मी-रसद (जिल्द 2 सफ़हा 95)

और जब हज़रत सय्यद अशरफ़ पंडोह के क़रीब पहुँचे तो हज़रत अ’लाउद्दीन क़ैलूला फ़रमा रहे थे लेकिन यकायक बोले

“बू-ए-यार मी आयद” ।

और उस मुहाफ़ा पर शहर से बाहर निकले जे हज़रत सिराजुद्दीन अख़ी से उनको मिला था।शहर से उनको बाहर जाते देख कर मुरीदों और मो’तक़िदों का हुजूम भी उनके साथ हो गया।बा’ज़ पा-पियादा और बा’ज़ घोड़ों पर सवार थे।हज़रत सय्यद अशरफ़ के इस्तिक़्बाल के लिए ये जुलूस शहर से एक कोस बाहर गया।जब हज़रत सय्यद अशरफ़ की नज़र हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन पर पड़ी तो दूर से दौड़े और उनके क़दमों पर जा गिरे।हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन ने वालिहाना अंदाज़ से उनको उठा कर गले से लगाया,और फ़रमाया:

चे ख़ुश बाशद कि बा’द अज़ इंतिज़ारे

 ब-उम्मीदे रसद उम्मीदवारे

हज़रत अ’लाउद्दीन के मुहाफ़ा-ए-ख़ास पर हज़रत सय्यद मोहम्मद अशरफ़ ख़ानक़ाह तशरीफ़ लाए।

जहाँ उनकी बड़ी ता’ज़ीम-ओ-तकरीम की गई।और जब मुर्शिद ने बै’अत से मुशर्रफ़ किया तो हज़रत सय्यद मोहम्मद अशरफ़ ने फ़िल-बदीह ये अशआ’र कहे।

निहादः ताज-ए-दौलत बर सर-ए-मन

अ’ला-उल-हक-वद्दीं गंज-ए-नाबात

ज़हे पीरे कि तर्क अज़ सल्तनत दाद

बर आवुर्दः मरा अज़ चाह-ए-आफ़ात

मुर्शिद की ख़िदमत में बारह साल रहे।ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त के अ’लावा उनसे ही जहाँगीर का लक़ब पाया।ख़ुद फ़रमाते हैं:

मरा अज़ हज़रत-ए-पीर-ए-जहाँ बख़्श

ख़िताब आमद कि ऐ अशरफ़ जहाँगीर

कुनूँ गीरम जहान-ए-मा’नवी रा

कि फ़रमाँ आमद कि अज़ शाहम जहाँगीर

एक मौक़ा’ पर हज़रत अशरफ़ जहाँगीर कमर बाँध रहे थे कि मुर्शिद ने पूछा कि क्या कर रहे हो।हज़रत जहाँगीर ने जवाब दिया,

मियान बरा-ए-ख़िदमत मी-बंदम

या’नी ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के लिए कमर कस रहा हूँ।मुर्शिद ने फ़रमायाः

अगर मी-बंदी मुहकम ब-बंद कि हेच दरमियान न-दारी,

या’नी अगर कमर कस रहे हो तो मज़बूत कसो ताकि फिर दरमियान में कोई चीज़ बाक़ी न रहे।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने अ’र्ज़ कियाः

आरज़ू-ए-नफ़्स अज़ मियान बैरून कशीदः-अम ता ज़िंदः-अम

या’नी अपनी मियान से नफ़्स की आरज़ू को दूर कर दिया है, जब तक ज़िंदा हूँ नफ़्स की आरज़ू को दूर रखूँगा।मुर्शिद ने ये सुन कर फ़रमाया मुबारक बाद।

नवाह-ए-जौनपुर का सफ़रः-

जब हर क़िस्म के रूहानी फ़ुयूज़ से मुतमत्तिअ’ हो चुके तो मुर्शिद ने अपने जलीलुल-मर्तबत ख़लीफ़ा को नवाह-ए-जौनपुर की तरफ़ जाने का हुक्म दिया।हज़रत जहाँगार दिल पर जब्र कर के मुर्शिद से रुख़्सत हुए।सफ़र में ऊटों और घोड़ों की काफ़ी ता’दा साथ रही। रास्ते में लोगों ने उनकी दरवेशी में ये इमारत देख कर ऐ’तिराज़ किया तो फ़रमाया।

मेख़-ए-तवीलः दर गिल ज़दः-अम न दर दिल

क़ियाम-ए-मोहम्मदआबाद गहना-

मनेर होते हुए, क़स्बा ,मोहम्मदआबाद गहना (अ’ज़मगढ़) पहुँचे।यहाँ के तमाम उ’लमा-ओ-फ़ुज़ला, मिलने आए तो रसूल सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम के चार यार पर गुफ़्तुगू होने लगी।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन की मद्ह में एक रिसाला लिखा था, उसमें हज़रत अ’ली मुर्तज़ा कर्रमलाहु वज्हहु और ख़ुलफ़ा से निस्बतन ज़्यादा की थी।मोहम्मदआबाद गहना के उ’लमा ने उस पर बह्स करनी शुरुअ’ की और  हज़रत अशरफ़ जहाँगीर पर रफ़्ज़ का इल्ज़ाम आ’इद किया। दूसरे दिन जुमआ’ की नमाज़ के बा’द उ’लमा का महज़र हुआ। उन्होंने हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के ख़िलाफ़ फ़तवा दिया लेकिन क़स्बा के मुफ़्ती और सर हल्क़ा-ए-उ’लमा मौलाना सय्यद ख़ान ने तमाम उ’लमा से इख़्तिलाफ़ किया, और हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की हिमायत में कहा कि वो सय्यद हैं। अगर उन्होंने अपने जद्द-ए-अमजद की शान में कुछ अच्छे कलिमात इस्ति’माल किए तो उसमें किसी को क्या ए’तिराज़ हो सकता है।ये सुन कर उ’लमा शर्मिंदा हुए।हज़रत अशरफ़ ने सय्यद ख़ान को दु’आएं दीं।रफ़्ता रफ़्ता और दूसरे उ’लमा भी हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की बुज़ुर्गी के क़ाएल होते गए।

क़ियाम-ए-ज़फ़रआबादः-

ग़ालिबन मोहम्मदआबाद गहना से ज़फ़रआबाद पहुँचे।ज़फ़रआबाद में पहले तो लोगों का सुलूक अच्छा न रहा, लेकिन बिल-आख़िर उनकी बा’ज़ करामतें देख कर लोग उनकी तरफ़ मुल्तफ़ित हुए।यहीं हज़रत शैख़ कबीर सरवरपुरी मुरीद हुए, जो बड़े साहिब-ए-इ’ल्म और साहिब-ए-सर्वत थे, और आगे चल कर हज़रत अशरफ़ जहाँगरी के महबूब ख़लीफ़ा हुए।

क़ियाम-ए-जौनपुरः

कुछ दिनों के बा’द हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ज़फ़रआबाद से जौनपुर आए, और वहाँ की एक मज्लिस में नुज़ूल-ए- इज्लाल फ़रमाया।उनकी तशरीफ़-आवरी पर मुल्ला क़ाज़ी शहाबुद्दीन दौलतआबादी मिलने आए।

क़ाज़ी शहाबुद्दीन दौलतआबादीः-

क़ाज़ी शहाबुद्दीन अपने ज़माने के बड़े जय्यिद आ’लिम थे।उनको अपनें ज़मानें में जो शोहरत और मक़बूलियत हासिल थी,उनके मुआ’सिरीन में किसी और को न हुई।अस्ली वतन तो ग़ज़नीन था, लेकिन दौलतआबाद दकन में नश्व-ओ-नुमा पाई।देहली आ कर उस अ’हद के मुम्ताज़ उ’लमा मस्लन क़ाज़ी अ’ब्दुल मुक़्तदिर और मौलाना ख़्वाजगी देहलवी से मुख़्तलिफ़ क़िस्म के उ’लूम-ओ-फ़ुनून की ता’लीम हासिल की।क़ाज़ी अ’ब्दुल मुक़्तदिर को उनकी ज़ात पर फ़ख़्र था।उनके बारे में एक बार फ़रमाया कि मेरे यहाँ एक तालिब-ए-इ’ल्म आया है जिसका पोस्त भी इ’ल्म है, मग़्ज़ भी इ’ल्म है, और उस्तख़्वान भी इ’ल्म है।अमीर-ए-तैमूर के हंगामा के ज़माना में मौलाना शहाबुद्दीन ने देहली को ख़ैराबाद कहा।सुल्तान इब्राहीम शर्क़ी  की दा’वत पर जौनपुर पहुँचे।सुल्तान ने उनकी बड़ी ता’ज़ीम-ओ-तौक़ीर की,और क़ाज़ी-उल-क़ुज़ात के ओ’हदा पर मामूर किया।उन्होंने बहुत सी किताबें लिखीं, मस्लन (1) शरह-ए-काफ़िया, जो शरह-ए-हिंदी के नाम से उनकी ज़िंदगी ही में मक़बूल और मशहूर हुई।कहा जाता है कि अ’ब्दुर्रहमान जामी ने जब काफ़िया की शरह लिखी और क़ाज़ी शहाबुद्दीन दौलतआबादी ने उसको देखा तो फ़रमाया कि मुल्ला जामी ने मेरी शरह-ए-हिंदी का ख़ुलासा लिखा है।

(2) ईर्शाद दर नह्व, जो एक नए तर्ज़ पर नह्व की एक किताब है।

(3) बदीउ’ल-बयान, इ’ल्म-ए-बलाग़त पर एक रिसाला है।

(4) बहरुल-मव्वाज, ये फ़ारसी ज़बान में कलाम-ए-पाक की एक तफ़्सीर है।

(5) उसूल-ए-इब्राहीम शाही , इसमें अ’रबी ज़बान में उसूल-ए-शरह पर बह्स की है।ये इब्राहीम शाह के नाम से मौसूम हुई (6) रिसाला दर तक़्सीम-ए-उ’लूम (7) रिसाला दर सनाए’ (ब-ज़बान-ए-फ़ारसी) शे’र-गोई में भी महारत-ए-ताम्मा रखते थे।

क़ाज़ी शहाबुद्दीन जब हज़रत अशरफ़ जहाँगीर से मिले तो ऐसे गिरवीदा हुए कि कभी तो रोज़ाना, और कभी दूसरे तीसरे दिन ख़िदमत में हाज़िर होते।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने भी उनके इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल की बड़ी क़द्र-दानी की, और उनकी तस्नीफ़ इर्शाद दर नह्व के मुतअ’ल्लिक़ फ़रमाया।

“ईं कि मी-गोयंद कि सेहर अज़ हिंदुस्तान रास्त आमद ग़ालिबन ईं रास्त सेहर बूदः”।

क़ाज़ी शहाबुद्दीन ने हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की सोहबत में बातिनी और रूहानी कमालात भी हासिल किए।चुनाँचे हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने उनके ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त और मलिक-उल-उ’लमा का ख़िताब अ’ता किया।लताएफ़-ए-अशरफ़ी में है:

हज़रत क़ाज़ी ख़िदमते शाइस्तः-ओ-मुलाज़मते बाईस्तः शुद व लिबास-ए-ख़िर्क़ःकर्दंद ब-ख़िताब-ए-मलिक-उल-उ’लमा, मुख़ातिब कर्दंद-ओ-महीन ख़ुलफ़ा-ए-विलायत-मआब-ओ-बेहतरीन नुदमा-ए- अस्हाब अंद, जामे’ बूदः मियान-ए-उ’लूम-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी, साहिब-ए-मुआ’मलात-ए-यक़ीनी-ओ-जामे–ए’-वारदात-ए-दीनी शुद:-बूद, तशर्रुअ’-ए-बिस्यार, रियाज़ात-ए-शदीदः-ओ-मुशाहदात-ए-जदीदः कशीद कि अशरफ़-ए-ख़िलाफ़त-ओ-इजाज़त याफ़्तः”।

क़ाज़ी शहाबुद्दीन ही की विसातत से सुल्तान इब्राहीम शाह अपने ख़्वानीन-ओ-उमरा के साथ कई बार हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की क़दम-बोसी के लिए आया। उन मुलाक़ातों की तफ़्सील लताएफ़-ए-अशरफ़ी में इस तरह दर्ज हैः

“हज़रत क़ाज़ी ने अ’र्ज़ किया कि आज सुल्तान शरफ़-ए-मुलाक़ात से मुशर्रफ़ होना चाहते हैं, लेकिन इस ख़ादिम की ख़्वाहिश हुई कि आज ये फ़क़ीर ख़िदमत में हाज़िर हो ले तो कल फिर सुल्तान के साथ क़दम-बोसी का शरफ़ हासिल करेगा। (हज़रत क़ुद्वतुल-कुबरा (या’नी हज़रत जहाँगीर ने) फ़रमाया इस फ़क़ीर के नज़दीक तुम सुल्तान से बहुत बेहतर हो।अगर सुल्तान आते हैं, आने दो, वो हाकिम हैं।जब क़ाज़ी को रुख़्सत किया तो फ़रमाया कि हिन्दुस्तान  में इतनी फ़ज़ीलत (जितनी कि क़ाज़ी में है) कम देखी गई है।दूसरे दिन हज़रत क़ुद्वतुल-कुबरा अपने वज़ाएफ़ में मशग़ूल थे कि मा’लूम हुआ कि सुल्तान ख़्वानीन और दूसरे लोगों के साथ आ रहा है।जब मस्जिद के दरवाज़े पर ये जमाअ’त पहुँची तो हज़रत क़ाज़ी ने सुल्तान से अ’र्ज़ की कि इतने इज़्दिहाम के साथ हज़रत सय्यद की मुलाक़ात के लिए जाना मुनासिब नहीं।उनको तकलीफ़ होगी।आख़िर सुल्तान नीचे उतर आया, और अपनी जमाअ’त से बीस अहल-ए-फ़ज़ीलत-ओ-अहल-ए-फ़रासत को मुंतख़ब कर के पा-बोसी के लिए हाज़िर हुआ।उसने हज़रत के दिल को हाथ में लेने के लिए हद से ज़ियादा अदब और एहतिराम किया।उसने क़िला’-ए-जुनादा की फ़त्ह के लिए एक बहुत बड़ा लश्कर भेजा था।उसके लिए वो मुतरद्दिद था। उसने हसब-ए-हाल हज़रत क़ुद्वतुल-कुबरा के सामने ये अश्आ’र पढ़े।

वली काँ अनवर अस्त अज़ जाम-ए-जमशेद

रवाँ रौशन तर अज़ ख़ुर्शीद बाशद

चे हाजत अ’र्ज़ कर्दन बर ज़मीरश

कसे कू रा यक़ीं उम्मीद बाशद

हज़रत क़ुद्वतुल-कुबरा ने फ़रमायाः

अगर ब-यक़ीं शुद क़दमत उस्तवार

गर्द ज़े-दरियानम अज़ आतिश बर आर

और जब सुल्तान रुख़्सत होने लगा तो हज़रत ने एक मसनद अ’ता की जिस से वो बहुत ख़ुश हुआ।और जब क़ियाम-गाह पर पहुँचा तो बोला:

“चे सय्यदेस्त आ’ली जनाब-ओ-मक़ासिद-मआब अल-हम्दुलिल्लाह कि दर हिन्दुस्तान चुनीं मर्दुम दर आमदः अंद”।

तीन रोज़ के बा’द सुल्तान थोड़े से आदमियों के साथ क़ुद्वतुल-कुबरा की ख़िदमत में फिर आया।रोटी का टुकड़ा और शर्बत साथ लाया।लोगों ने क़िला’ की फ़त्ह पर मुबारक-बाद दी,लेकिन हज़रत ने फ़रमाया,सुल्तान को मुबारक-बाद दो कि बंद दरवाज़े को खोला है।इस मर्तबा सुल्तान की अ’क़ीदत हज़ार गुनी ज़ियादा हो गई, और अ’र्ज़ किया कि बंदा तो जनाब के हाथ पर बै’अ’त से मुशर्रफ़ हो चुका।बन्दा–ज़ादे भी हल्क़ा-ए-बैअ’त में दाख़िल होंगे और उसी रोज़ तीन शहज़ादे शरफ़-ए-बैअ’त से मुशर्रफ़ हुए।सुल्तान ने बहुत से नज़राने देने की कोशिश की,लेकिन हज़रत ने क़ुबूल नहीं फ़रमाया। फिर हज़रत से वहीं मुस्तक़िल इक़ामत के लिए बहुत ही इसरार के साथ इस्तिद’आ की, लेकिन हज़रत ने फ़रमाया,तुम्हारी सल्तनत के हुदूद से बाहर न जाऊँगा।इस जवाब से सुल्तान बहुत पुर-उम्मीद  हुआ।हज़रत क़ुद्वतुल-कुबरा वहाँ दो महीने से ज़ियादा मुक़ीम रहे। छोटे-बड़े लोग शर्रफ़-ए-बैअ’त से मुशर्रफ़ होते रहे।लताएफ़-ए-अशरफ़ी के मुतालिआ’ से अंदाज़ा होता है कि जौनपुर से रुख़्सत हो कर मेनी  पहुँचे, और वहाँ से भदोंड आए, जहाँ मलिक-उल-उमरा महमूद ने पुर-जोश ख़ैर-मक़्दम किया।

क़ियाम-ए-रूहआबादः-

इस तज़्किरा के मुअ’ल्लिफ़ का बयान है कि मलिकुल-उमरा महमूद ने अपनी औलाद और दूसरे लोगों के साथ हज़रत जहाँगीर से बैअ’त की।उसी की विसातत से रूहआबाद क़ाइम हुआ, जो आज कल किछौछा शरीफ़ कहलाता है।यहाँ एक ख़ानक़ाह बनाई गई,जिसका नाम कसरतआबाद रखा गया,और एक छोटा सा हुज्रा भी ता’मीर कराया गया,जो वहदतआबाद के नाम से मौसूम हुआ।और उसके मशरिक़ी हिस्सा में एक जगह बैठ गर हज़रत अशरफ़ जहाँगीर असहाब-ए-ख़ास के सामने सुलूक-ओ-इ’रफ़ान के रुमूज़-ओ-निकात बयान किया करते थे।इसीलिए उस जगह का नाम दारुल-अमान रखा गया, और उसके शिमाल में एक पुर-रौनक़ जगह रूह-अफ़ज़ा के नाम से मशहूर हुई, जहाँ आ कर बुज़ुर्गान-ए-दीन रूहानी फ़ुयूज़ हासिल करते थे।

फ़ुयूज़ः-

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर का मा’मूल था कि वो मुख़्तिलफ़ मक़ामात पर जा कर रुश्द-ओ-हिदायत फ़रमाते।चुनाँचे किछौछा के आस-पास और कभी दूर के क़स्बों और क़रियों में नुज़ूल-ए-इज्लाल फ़रमा कर ख़्वास-ओ-अ’वाम की इस्लाह-ओ-तर्बियत करते।जब अवध या’नी अयोध्या तशरीफ़ ले गए तो वहाँ के मुलूक-ओ-उमरा मुरीद हो कर मुतमत्तिअ’ हुए।ख़ुद अवध के हाकिम नवाब सैफ़ ख़ान को हज़रत अशरफ़ जहाँगीर से बड़ी अ’क़ीदत हो गई,चुनाँचे तर्बियत पा कर सुवरी-ओ-मा’नवी औसाफ़ से मुत्तसिफ़ हुए,और हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने उनको ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त अ’ता किया।अवध ही में हज़रत शम्सुद्दीन ने जिनका शुमार उ’लामा-ए-नामदार और फ़ुसहा-ए-रोज़गार में होता था,हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की सोहबत-ए-कीमिया -असर से राह-ए-सूलूक के तमाम मदारिज बहुत जल्द तय कर लिए, और वो हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के बड़े ख़लीफ़ा हुए।हज़रत जहाँगीर को उन पर बड़ा नाज़ था।फ़रमाते थे,“अशरफ़-ए-शम्स-ओ-शम्स-ए- अशरफ़ अज़ हम जुदा न अंद”।

रुदौली पहुँचे तो शैख़ सफ़ीउद्दीन और शैख़ समाउद्दीन सोहबत-ए-ख़ास से फ़ैज़याब हुए।शैख़ सफ़ीउद्दीन उ’लूम-ए-ज़ाहिरी में बुलंद मर्तबा रखते थे।ख़ुद हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने उनके मुतअ’ल्लिक़ फ़रमाया:

दर बिलाद-ए-हिंद कसे रा कि ब-फ़ुनून-ए-दरख़्शंदा पैरास्तः दीदम वय  बूदः” जिल्द 1 सफ़हा 404)

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के हाथ पर जब शैख़ सफ़ीउद्दीन ने बैअ’त की तो हज़रत जहाँगीर ने उनके लिए दु’आ की कि उनको नूरुल-अनवार हासिल हो, और उनकी औलाद में तहसील-ए-इ’ल्म का सिलसिला बराबर जारी रहे।फिर सिर्फ़ उनकी ही ख़ातिर रुदौली में चालीस रोज़ क़ियाम फ़रमाया, और इस अ’र्सा में उनको सुलूक की तमाम ता’लीमात दीं, और ख़िलाफ़त भी अ’ता की।इनका शुमार हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के अजल्ल ख़ुलफ़ा में होता है।

शैख़ समाउद्दीन भी हज़रत जहाँगीर के मुम्ताज़ ख़ुलफ़ा में थे।इनके बारे में हज़रत अशरफ़ जहाँगीर फ़रमाते हैः-

दर तय-ए-अनवार-ए-सब्आ’ अज़ यारान-ए-मा दो कस रा वाक़े’ उफ़्तादः-बूद यके शैख़ अबुल-मकारिम रा कि एतहिमाम दर हक़-ए-ऊ मब्ज़ूल शुद ता अज़ आँ दर तय-ए-महलका ब-दर आमदः दोउम शैख़ समाउद्दीन रा अज़ मेहनत-ए-बिस्यार-ओ-कुल्फ़त-ए-बे-शुमार अज़ आँ  वर्ता ब-दर आवुर्दः शुद”। (जिल्द 1 सफ़हा 405)

रुदौली के पास एक गाँव में एक मुम्ताज़ बुज़ुर्ग मौलाना करीमुद्दीन रहते थे।मौलाना जब हज़रत अशरफ़ जहाँगीर से मिले तो फ़रमाया, सुब्हानल्लाह अशरफ़ जहाँगीर एक ऐसे शहबाज़ हैं जिसके कौनैन दो बाज़ू है, वो ऐसे दरिया हैं, जिसका कोई साहिल नहीं।

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर का वुरूद-ए-मस्ऊ’द असमू (आसूमउ) में हुआ तो वहाँ एक हज़ार आदमी उनसे मुरीद हो कर फ़ैज़याब हुए।

क़स्बा जाइस को अपनी आमद से शरफ़ बख़्शा तो वहाँ के दो तीन हज़ार आदमी हल्क़ा-ए-बैअ’त में दाख़िल हुए।जाइस के एक बुज़ुर्ग मौलाना ग़ुलामुद्दीन मुतबह्हिर आ’लिम और फ़क़ीह थे।उन्होंने हज़रत अशरफ़ जहाँगीर से ता’लीम पा कर ख़िलाफ़त भी पाई।यहाँ एक दूसरे बुज़ुर्ग शैख़ कमाल भी हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के ख़लीफ़ा थे, जो जाइस के लोगों को रूहानी ता’लीम-ओ-तर्बियत देते थे।एक बार उनके यहाँ दा’वत का इंतिज़ाम क़स्बा के कुछ लोगों के सुपुर्द था, लेकिन ऐ’न वक़्त पर शैख़ कमाल को मा’लूम हुआ कि दा’वत का इंतिज़ाम न हो सका।ग़ुस्सा में बद-दु’आ दी कि ये जल कर ख़ाक हो जाएं।इत्तिफ़ाक़ से उसी रोज़ क़स्बा में आग लगी, और तक़रीबन चार हज़ार आदमी जल कर हलाक हो गए।हज़रत शैख़ कमाल को बड़ी नदामत हुई।मुर्शिद के पास रूहआबाद या’नी किछौछा पहुँचे, लेकिन मुर्शिद ने उनसे ये कह कर मिलने से इंकार कर दिया कि वो मेरे फ़र्ज़न्दों को नज़र-ए-आतिश और ख़ानुममाँ-बार्बाद कर के मुझसे मिलने क्या आए हैं।एक मुद्दत तक मा’तूब रहे, मगर मुर्शिद के आस्ताना से आ’लाहिदा नहीं हुए।बा’ज़ लोगों की सिफ़ारिश पर एक तश्त में हज़ार चिंगारियों की राख सर पर रख कर मुर्शिद की ख़िदमत में हाज़िर हुए और तक़्सीर की मुआ’फ़ी चाही।मुर्शिद ने ये कह कर मुआ’फ़ कर दिया कि तुम्हारा ईमान तो सलामत रहेगा, लेकिन तुम और तुम्हारी औलाद परेशान रहेगी।

जब क़स्बा अमहूना पहुँचे तो वहाँ के तमाम सादात ने बैअ’त होने की सआ’त हासिल की।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने उनके लिए दु’आ की कि वो आराम से रहें।जब क़स्बा सिधोरा में नुज़ूल-ए-इज्लाल फ़रमाया तो क़ाज़ी मोहम्मद सिधोरी ने पुर-जोश इस्तिक़बाल किया।

शैख़ ख़ैरुद्दीन अपने वक़्त के जय्यिद उ’लमा में शुमार किए जाते थे, लेकिन उसूल-ए-फ़िक़्ह के बा’ज़ मसाइल पर उ’लमा से सवालात किए तो किसी से तशफ़्फ़ी बख़्श जवाब नहीं पाया।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर से मुलाक़ात के बा’द उन मसाइल की तशरीह चाही, तो हज़रत ने उनकी तशरीह इस तरह की कि शैख़ ख़ैरुद्दीन को पूरी तस्कीन हो गई, और उसी वक़्त हज़रत जहाँगीर के हाथ बैअ’त की।उनके साथ बारह अश्ख़ास और भी हल्क़ा-ए-इरादत में दाख़िल हुए।उन्हीं में क़ाज़ी सिधोरी भी थे, जिनके बारे में लताइफ़-ए-अशरफ़ी में हैः

“क़ाज़ी मोहम्मद सिधोरी ब-फ़ुनून-ए-उ’लूम-ए-अ’रबिया-ओ-शुयून-ए-उ’लूम-ए-अ’जबिया पैरास्तः बूदंद ख़ुसूसन दर उ’लूम-ए-उसूल मशारुन इलैह बूदः-अंद”। (जिल्द 1 सफ़हा 409)

शैख़ ख़ैरुद्दीन और क़ाज़ी मोहम्मद क़ाज़ी मोहम्मद सिधोरी दोनों हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के अजल्ल ख़ुलफ़ा में हुए।इनकी विसातत से सिधोर के छोटे बड़ों की औलादें भी हज़रत जहाँगीर की ता’लीमात से मुस्तफ़ीज़ होती रहीं।सिधोर के एक और बुज़ुर्ग क़ाज़ी अबू मोहम्मद उ’र्फ़ मुई’न महीन भी रूहानी ता’लीम-ओ-तर्बियत पा कर मुम्ताज़ ख़ुलफ़ा में हुए। (जिल्द 1 सफ़हा 407)।

अर्बाब-ए-सर्वत की इस्लाहः-

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने नवाह-ए-जौनपुर के ज़माना में शर्क़ी सल्तनत के मुआ’सिर हुक्मराँ और उमरा-ए-किबार से गहरे तअ’ल्लुक़ात रखे।ज़िक्र आ चुका है कि सुल्तान इब्राहीम शाह और अवध के हाकिम नवाब सैफ़ ख़ान और वहाँ के उमरा किस तरह हल्क़ा-ए-इरादत में दाख़िल हो कर मुस्तफ़ीज़ होते रहे।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर सलातीन, वोज़रा, और उमरा से इर्तिबात रखने के मुख़ालिफ़ नहीं थे लेकिन फ़रमाया है कि कोई दरवेश सलातीन-ओ-उमरा से हज़-ए-नफ़्सानी और लज़्ज़त-ए-शहवानी की ग़र्ज़ से मिलता है तो वो दरवेश नहीं।दरवेश को हर हाल में मुतवक्किल बिल्लाह होना चाहिए।चुनाँचे, नवाब सैफ़ ख़ान ने अवध का एक क़रिया नज़्र करना चाहा जिसकी आमदनी एक लाख टंका थी, तो उसको क़ुबूल करना अपनी दरवेशी की शान-ए-क़नाअ’त के ख़िलाफ़ समझा और फ़रमायाः

“कसे रा कि क़रिया-ए-रोज़गार-ओ-परगना ऊ रा सुपुर्दः बाशद ऊ ब-ईं जुज़्वी क़रियात मुक़य्यद न-शवद”।

हक्मराँ तबक़ा के ज़ाहिरी और बातिनी अख़्लाक़ के संवारने में बराबर कोशाँ रहे।एक मल्फ़ूज़ में फ़रमाया जहाँदारी और शहरयारी को चार चीज़ों से नुक़्सान पहुँचता है, (1) सलातीन का लज़ाएज़-ए- दुनिया में मुस्तग़रक़ हो जाना (2) अपने मुक़र्रबीन के साथ बद-ख़ुल्क़ी से पेश आना (3) सज़ा देने में ज़ियादती करना (4) रइ’य्यत पर ज़ुल्म करना।

बादशाहों और हुक्मरानों के औक़ात के नज़्म-ओ-नस्क़ की भी तफ़्सील बताई है के वो अपने रोज़मर्रा के मशाग़िल को किस तरह तरतीब दें।और इसी के साथ बा’ज़ मुफ़ीद हिदायतें भी दी हैं, फ़रमाते हैं –

बादशाह अपने औक़ात को इस तरह तरतीब दें की सुब्ह की नमाज़ अदा करने के बा’द इश्राक़ तक वज़ीफ़ा पढ़ें, फिर उ’लमा-ओ-सुलहा के साथ सोहबत रखें, और चाश्त के वक़्त तक उनसे अ’द्ल-ओ-इंसाफ़ के मुतअ’ल्लिक़ क़ुरआनी आयतों के मतालिब पूछें।इसी जगह वज़ीरों और नदीमों को बुलाएं, और ये लोग फ़ौजों के जो मा’रूज़ात पेश करें उनका मुनासिब जवाब दें।हर शख़्स के मुद्दआ’ को पूरा करें। इसके बा’द दरबार-ए-आ’म हो जिसमें रिआ’या और मुसलमानों के क़ज़ाया, और दआ’वी पेश हों, और शरीअ’त के मुताबिक़ इंसाफ़ के साथ फ़ैसला हो। मशाइख़ और मुलूक के मा’रूज़ात को हत्तल-वुस्अ’ किसी के तवस्सुत से सुनें।सादात, क़ुज़ात और मशाइख़ की दरख़्वासतों को सद्र तक पहुँचाए। इस गिरोह के लिए एक ऐसे शख़्स को सद्र मुक़र्र करें जो मुतदय्यि न और हमदर्द हो, बल्कि उसे सूफ़ी -मशरब भी होना चीहिए।वज़ीर तमाम उ’लूम-ओ-फ़ुनून से आरास्ता होने के अ’लावा ख़ुसूसियत के साथ दीनदार हो।वकालत का मंसब ऐसे शख़्स को दें जो पसंदीदा अख़्लाक़ का हामिल,निहायत अक़्ल-मंद, सरीअ’-फ़ह्म और हाज़िर जवाब हो।इस क़िस्म के हर शख़्स को कोई न कोई मुनासिब जगह दें।हुकूमत के चलाने में तख़्लीत-ए-मनासिब से काम न लें।एक के काम के मुतअ’ल्लिक़ दूसरे से न पूछें।क़ैलूला के वक़्त आराम के लिए चलें जाएं।क़ैलूला के बा’द नमाज़ पढ़ें,और कभी नमाज़ न छोड़ें।ज़ुहर की नमाज़ के बा’द जिस क़द्र हो सके क़ुरआन की तिलावत करें,ख़ुसूसन सूरा-ए-क़द- समि’अल्लाह की मुवाज़बत करें, क्यूँकि सलातीन इस सूरा की मुवाज़बत करते आए हैं।सुल्तान महमूद ग़ाज़ी अनारल्लाहु बुर्हानहु बराबर इस सूरा को पढ़ा करते थे, और फ़रमाते थे कि मुझको दौलत और शौकत इसी सूरा की ब-दौलत नसीब हुई।हज़रत इब्राहीम शाह भी ऐसा ही फ़रमाते थ।ख़ुद मैंने जो सल्तनत छोड़ी तो पहली चीज़ जो मैंने अपने बिरादर-ए-अ’ज़ीज़ मोहम्मद शाह से कही वो ये थी कि इस सूरा की बराबर तिलावत करें और रिजालुल-ग़ैब के मुक़ाबले से इज्तिनाब करें,और कोई काम शरीअ’त के ख़िलाफ़ अंजाम ने दें।और अ’द्ल-ओ-इंसाफ़ के उसूल में एक नुक़्ता से भी इंहिराफ़ न करें ताकि सल्तनत में ख़लल वाक़े’ न हो।

एक और मौक़ा’ पर फ़रमायाः

तमाम अर्कान-ए-दौलत और आ’वान-ए-ममलिकत एक न एक उज़्व और एक न एक हास्सा या क़ूवत के मर्तबा में हैं, मस्लन मुस्तौफ़ी, नाज़िर, आ’रिफ़,मुंशी, दबीर, हाजिब, ख़ाज़िन,उस्ताज़ुद्दार और दूसरे ओ’ह्दे-दार, हवास-ए-ख़म्सा-ओ-क़ुवा-ए-बशरी मस्लन आँख, कान, नाक, ज़बान, लम्स, फ़िक्र, ख़याल, वह्म, हाफ़िज़ा, ज़ाकिरा,और हिस्स-ए-मुश्तरक के मानिंद हैं।उमरा-ए-सल्तनत अपनी क़ुववत, शौकत, हिम्मत, वग़ैरा के साथ आ’ज़ा-ए-रईसा हैं,और अदना दर्जे के उमरा मिस्ल-ए-हाथ, बाज़ू, रान, पिंडली, और पाँव के हैं।हाशिया-नशीन, क़ौम और आ’म रिआ’या वग़ैरा अपमे मदारिज के मुताबिक़ रग और पट्ठे वग़ैरा हैं।जिस तरह एक इंसान अपने उ’ज़्व का मोहताज है, और एक के –ब-ग़ैर उसके जिस्मानी निज़ाम को नुक़्सान पहुँच जाता है,उसी तरह एक बादशाह को चाहिए कि अर्कान-ए-दौलत-ओ-अस्हाब-ए-मनासिब को उनकी अहलियत-ओ-इस्ति’दाद के मुताबिक़ उनकी दियानत और नेक-सीरत को मा’लूम अच्छी तरह परख कर उन को मुख़तलिफ़ हिस्सों में मुक़र्र करे और इख़्तियार दे ताकि वो अपने कामों को पूरे शराइत के साथ मिल के मसालिह और दरबार की बहबूदी के मुताबिक़ अंजाम दें, और बादशाह उनके कामों से बा-ख़बर रहे”। (लताइफ़-ए-अशरफ़ी जिल्द 2 सफ़हा 113)

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की मज़कूरा-बाला ता’लीमात का असर उनके मुरीद सुल्तान इब्राहीम शर्क़ी पर निहायत गहरा पड़ा।ऊपर के एक इक़्तिबास से ज़ाहिर हुआ होगा कि ये सुल्तान सूरा-ए-क़द-समि’अल्लाह की मुवाज़बत किया करता था,चुनाँचे इस सूरा की बरकत से उसकी सल्तनत गुल-ए-गुलज़ार और लालाज़ार बन गई थी।मुव’र्रिख़ीन और तज़्किरा-नवीस उस सुल्तान को दीन-पनाह, उ’लमा-ए-शरीअ’त-ए-मोहम्मदी का क़द्र-दान “दरवेश-दोस्त” “रइ’यत परवर” लिखते हैं।तारीख़-ए-फ़रिश्ता में है इब्राहीम शर्क़ी के ज़माना में जौनपुर का हर छोटा बड़ा बादशाह के वजूद को बाइ’स-ए-बरकत समझता और बे-हद ऐ’श-ओ-आराम के साथ ज़िंदगी बसर करता था।शाह-ओ-गदा सब ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम थे और मुल्क में हुज़्न-ओ-अंदोह का नाम-ओ-निशान न था।

इब्राहीम शर्क़ी क़ाज़ी शहाबुद्दीन की बे-हद ता’ज़ीम-ओ-तौक़ीर करता था।चुनाँचे मुतबर्रक अय्याम में क़ाज़ी साहब शाही मज्लिस में चाँदी की कुर्सी पर बैठते थे।कहते हैं कि एक मर्तबा क़ाज़ी साहब बीमार हुए।इब्राहीम उनकी इ’यादत को गया।मिज़ाज-पुर्सी और ज़रूरी बातों के दर्याफ़्त करने के बा’द पानी से भरा हुआ एक प्याला मंगवाया। मौलाना के सर पर प्याला को तसद्दुक़ कर के पानी ख़ुद पी लिया, और दु’आ की कि ऐ ख़ुदा जो बला मौलाना के लिए मुक़र्र है वो मुझ पर नाज़िल फ़रमा और उनको शिफ़ा दे।इस रिवायत से बादशाहए-ए-दीन-पनाह का मज़हबी ख़ुलूस और उ’लमा-ए-शरीअ’त-ए-मोहम्मदी सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्ललम के साथ उसकी अ’क़ीदत-मंदी का पूरा अंदाज़ा होता है।

मिर्अतुल असरार में हैः-

 “सुल्तान इब्राहीम बादशाह नेक-ओ-दरवेश-दोस्त–ओ-रइ’य्यत-परवर बूद, ख़लाइक़ ब-अ’हद-ए-ऊ दर महद-ए-अम्न-ओ-आसाइश क़रार गिरफ़्त”।

अपनी ममलिकत में शरीअ’त की तर्वीज की ख़ातिर उसने फ़तवा-ए-इब्राहीम शाही मुरत्तब कराया,जिसको मौलाना क़ाज़ी शहाबुद्दीन ने मुदव्वन किया।

बिलाद-ए-इस्लामिया की सियाहत :

किछौछा में कुछ दिनों के क़ियाम के बा’द हज़रत अशरफ़ जहाँगीर शैख़ बदीउ’द्दीन मदार के साथ बैतुल्लाह की ज़ियारत के लिए तशरीफ़ ले गए। शैख़ बदीउ’द्दीन मदार तो हिंदुस्तान वापस आ गए, लेकिन अशरफ़ जहाँगीर मदीना मुनव्वरा की ज़ियारत को चले गए, वहाँ से नजफ़-ए-अशरफ़ और कर्बला-ए-आ’ला आए।फिर रूम पहुँचे, जहाँ मौलवी जलालुद्दीन रूमी के सज्जादा-नशीन और लड़के सुल्तान वलद और दूसरे मशाइख़ से मुलाक़ात की। रूम से शाम आए।दमिश्क़ में शैख़ फ़ख़्रुद्दीन अ’रबी की ज़ियारत की।वहाँ से फिर मक्का मुअ’ज़्ज़मा आ कर हज की सआ’दत हासिल की।हज के बा’द बग़दाद पहुँच कर हज़रत ग़ौसुल-अ’ज़ाम इमाम अबू हनीफ़ा और इमाम अहमद बिन हंबल के मज़ारों की ज़ियारत की फिर काशान आए जहाँ अब्दुर्रज़्ज़ाक़ काशानी से मुलाक़ात की।काशान से अपने अस्ली वतन सिमनान को रौनक़ बख़शी।उस वक़्त उनकी हमशीरा ज़िंदा थीं।उनसे मिल कर उनकी दिल-जोई की और वहाँ से मश्हद-ए-मुक़द्दस आए जहाँ हज़रत, इमाम अ’ली रज़ा के आस्ताने में मो’तकिफ़ रहे।इन्हीं दिनों अमीर-ए-तैमूर गोरगानी भी हज़रत इमाम अ’ली रज़ा के मज़ार की ज़ियारत को आया था।वो हज़रत अशरफ़ जहाँगीर से बहुत ही अ’क़ीदत-मंदाना तरीक़ा पर मिला।मशहद-ए-मुक़द्दस से हिरात वारिद हुए।हिरात से चल कर मावराउन्नहर पहुँचे, जहाँ हज़रत शैख़ बहाउद्दीन नक़्शबंदी की सोहबत में रह कर ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त पाया।वहाँ से तुर्किस्तान तशरीफ़ लाए, और अपने नाना शैख़ अहमद यस्वी की औलाद से मिले।तुर्किस्तान से बुख़ारा में नुज़ूल-ए-इज्लाल फ़रमाया फ़रमाया। फिर क़ंधार,ग़ज़नी, और काबुल में क़ियाम करते हुए मुल्तान पहुँचे।मुल्तान से अजोधन पहुँच कर हज़रत गंज शकर के मर्क़द-ए-मुबारक की ज़ियारत की।अजोधन से देहली और देहली से अजमेर आ कर हज़रत ख़्वजा मुई’नुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह के आस्ताने से बरकत हासलि की।अजमेर से दकन की तरफ़ बढ़ गए।गुलबर्गा में हज़रत ख़्वजा सय्यद मोहम्मद गेसूदराज़ से मिले।गुलबर्गा से सरांदीप चले गए।वहाँ से गुजरात आए।फिर गुजरात से अपनी ख़ानक़ाह किछौछा शरीफ़ वापस हुए।

सियाहत-ए-रुब्अ-ए’-मस्कूनः-

दूसरी बार मीर कबीर सय्यद अ’ली के साथ तमाम दुनिया की सियाहत की।लताइफ़-ए-अशरफ़ी जिल्द दोउम (लतीफ़ा सी-ओ-पंजुम) में ग़ालिबन इसी सियाहत-ए-रुब्अ-ए’-मस्कून का ज़िक्र है।इस बाब में हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की ज़बानी जिन ख़ास ख़ास मक़ामात, जज़ीरे और पहाड़ी इ’लाक़ों की तफ़्सील दर्ज है,उनमें से बा’ज़ के नाम ये हैं, जज़ीरा-ए-सहफ़, ईलाक़, सीलान, जब्लुल-फ़त्ह, बैतुल-मक़्दिस, दमिश्क़, जब्ल-ए-लब्नान, जब्लुन्नहाविंद, जबलुत्तूर, जबलुल-क़दम, बग़दाद, गाज़रून, जब्लुल-क़ाफ़, हज़्लान, जब्लुल-अब्वाब, विलायत-ए-झंखर, विलायत-ए-ख़फ़चाक़,जब्लुल-क़ुरून, जब्लुल-बहा वग़ैरा।तज़्किरा-नवीसों का बयान है कि इस सियाहत में एक सौ नव्वे औलियाअल्लाह से फ़ुयूज़ हासलि किए।इस सियाहत के ज़माना में तीसरी बार हज़रत मख़दूम जहानियान-ए-जहाँ गश्त भी मिले।हज़रत मख़दूम ने चार सौ कामिलीन-ए-वक़्त से जो कुछ हासिल किया था, वो सब हज़रत जहाँगीर के सीने में मुंतक़िल कर दिया।इस सफ़र में हज़रत अशरफ़ जहाँगीर अपने मुर्शिद के आस्ताने पर भी पहुँचे, और वहाँ से तबर्रुकात ले कर किछौछा वापस हुए, जहाँ आख़िर-ए-वक़्त तक क़ियाम-पज़ीर रहे।

सफ़र-ए-आख़िरतः

विसाल की तीरीख़ 27 मुहर्रम सन 808 हिज्री है।“अशरफ़ुल-मुमिनीन” से माद्दा-ए-तारीख़ निकलता है।वफ़ात से कुछ रोज़ पहले सुक्र का आ’लम तारी रहा।नमाज़ के वक़्त आ’लम-ए-सह्व में आते। मरज़ुल-मौत में भी रुश्द-ओ-हिदायत का सिलसिला जारी रहा।उसी ज़माना का ज़िक्र करते हुए, मुवल्लिफ़-ए-लताइफ़-ए-अशरफ़ी रक़म-तराज़ है:

हम: अहाली-ए-दयार-ओ-अआ’ली-ए-नामदार मी-आमदंद-ओ-हर यक रा बशारत-ओ-सआ’दत मी-दादंद, दरीं सेह रोज़ चँदान-ए-ख़लाइक़ ब-शरफ़-ए-तौबः-ओ-इनाबत-ओ-ख़िलाफ़त मुशर्रफ़ गशंतद कि शर्ह-ए-आँ  ख़ुदा दानद, अशरफ़ुल-मुल्क वाली-ए-विलायत ब-दवाज़दह हज़ार कस आमदः ब-शरफ़-ए-इरादत मुशर्रफ़ गश्तंद”। (जिल्द 2, सफ़हा 408)

वफ़ात के रोज़ हज़रत नूरुल-ऐ’न शैख़ नज्मुद्दीन अस्फ़हानी, शैख़ मोहम्मद, अबुल-मकारिम, शैख़ अहमद अबुल-वफ़ा ख़्वारज़मी, शैख़ अ’ब्दुस्सलाम हरवी, शैख़ अबुल-वासिल-ओ-शैख़ मा’रूफ़ क़ज़वी, शैख़ अ’ब्दुर्रहमान, शैख़ अबू सई’द, मलिक महमूद शैख़ शम्सुद्दीन अवधी, और दूसरे अकाबिर को अपने पास बुला कर उनके मरातिब के मुताबिक़ नसीहतें कीं, और तबर्रुकात दिए।हज़रत सय्यद अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ अल-मुलक़्क़ब ब-हज़रत नूरुल-ऐ’न को हज़रत जहाँगीर ने अपना दीनी फ़र्ज़न्द बनाया था, इसलिए विसाल के वक़्त उनको अपना जानशीन और सज्जादा-नशीन मुक़र्रर फ़रमाया, और उनको वो ख़िर्क़े अ’ता किए जो उनको (या’नी हज़रत अशरफ़ जहाँगीर को) हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन लाहौरी,शैख़ुल-इस्लाम-ए-शाम और हज़रत मख़दूम जहानियान-ए-जहाँ गश्त से मिले थे।बुज़ुर्गान-ए-चिश्त के वो तबर्रुकात भी दिए जो उनको उनके मुर्शिद के ज़रिआ’ से दस्तियाब हुए थे।फिर हज़रत नूरुल-ऐ’न के लड़कों को बुला कर उनके लिए दु’आएं कीं।इसी तरह अपने मुख़्तलिफ़ ख़ुलफ़ा को भी नसीहतें कर के ख़ास ख़ास आयतें दीं और तबर्रुकात दिए।फिर ज़ुहर की नमाज़ अदा की।नमाज़ के बा’द क़व्वालों को तलब कर के महफ़िल-ए-समाअ’ की ख़्वाहिश की।क़व्वालों ने सा’दी की ग़ज़ल शुरुअ’ की। जब उन्होंने ये शे’र गाया।

गर ब-दस्त-ए-तू आमदः-अस्त अजलम

क़द रज़ीना बिमा जरल-क़लम

तो फिर वज्द तारी हुआ और जब क़व्वालों ने ये अश्आ’र पढ़े

ख़ूब तर अज़ ईं दिगर न-बाशद कार

यार ख़ंदां रवद ब-जानिब-ए-यार

तो मुर्ग़-ए-बिस्मिल की तरह तड़पने लगे, और उसी हालत में जान जान-ए-आफ़रीं के सुपुर्द कर दी। विसाल के वक़्त उ’म्र-ए-शरीफ़ एक सौ बीस बरस की थी।रौज़ा-ए-मुबारक की ता’मीर ज़िंदगी ही में हो गई थी।उसी में मह्व-ए-ख़्वाब-ए-अबदी हैं।रौज़ा के बारे में मशहूर है कि जो कोई आसेब-ज़दा यहाँ आ कर कुछ दिनों क़ियाम करता है, उसका आसेब जाता रहता है।चुनाँचे आज भी यहाँ मुख़्तलिफ़ गोशों से आ कर आसेब-ज़दों की एक बड़ी ता’दाद मुक़ीम रहती है।

रूहानी मर्तबाः-

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर सूफ़िया-ए-किराम में इमामुस्सालिकीन, बुर्हानुल-आ’शिक़ीन, क़ुतुब-ए-रब्बानी, ग़ौसुल-अनाम और मुहीउल-इस्लाम के अलक़ाब  से याद किए जाते हैं।लताइफ़-ए-अशरफ़ी के मुव’ल्लिफ़ ने उनके लिए क़ुद्वदतुल-कुबरा का लक़ब इस्ति’माल किया है। साहिब-ए-अख़्बारुल-अख़्यार रक़म-तराज़ हैं।

अज़ कामिलान अस्त, साहिब-ए-करामात-ओ-तसर्रुफ़ात”। सफ़हा 156)

ख़ज़ीनुतुल-अस्फ़िया में है।

अज़ उ’ज़मा-ए-औलिया-ओ-कुबरा-ए-अत्क़िया-ए-ख़ित्ता-ए-हिन्दुस्तान  अस्त” (जिल्द 1 सफ़हा 371)

मिर्अ’तुल-असरार के मुवल्लिफ़ लिखते हैं:

आँ सुल्तान-ए-ममलिकतुद्दुनिया-वद्दीन आँ सर –हल्क़ा-ए-आ’रिफ़ान-ए-अर्रबाब-ए-इ’ल्म-ओ-यक़ीन,आँ मुहिब्ब-ओ-महबूब-ए-ख़ास-ए-रब्बानी ग़ौसुल-वक़्त मीर सय्यद अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी क़ुद्दिस सिर्रहु अज़ बे-नज़ीरान-ए-रोज़गार बूद-ओ-शाने निहायत रफ़ीअ’-ओ-हिम्मते-बुलंद-ओ-करामते वाफ़िर दाश्त, क़लमी नुस्ख़ा दारुल-मुसन्निफ़ीन सफ़हा 529)

इ’ल्मी मर्तबाः-

इ’ल्मी हैसियत से भी हज़रत अशरफ़ जहाँगीर का मर्तबा बुलंद था। वो मा’क़ूलात-ओ-मंक़ूलात के भी जय्यिद आ’लिम थे।और जब कभी उ’लाम-ओ-फ़ुज़ला से इ’ल्मी बह्स करते तो उसमें बड़ी गहराई होती। लताइफ़-ए-अशरफ़ी में बा’ज़ इ’ल्मी मसाइल पर भी मबाहिस हैं।उन मबाहिस से उनके इ’ल्मी तबह्हुर का अंदाज़ा होता है।वो सूफ़ियाना रुमूज़-ओ-निकात बयान करने में भी आ’लिमाना अंदाज़ इख़्तियार करते थे, और किसी हाल में भी जादा-ए-शरीअ’त से तजावुज़ करना पसंद नहीं फ़रमाते।तमाम उ’लूम-ओ-फ़ुनून में इ’ल्म-ए-शरीअ’त को ज़ियादा अहमियत दी है, और इ’ल्म के साथ उसकी मुताबअ’त की भी पूरी ताकीद की है।चुनाँचे फ़रमाते हैं कि कोई शख़्स उस वक़्त तक वली नहीं हो सकता जब तक वो ज़ाहिरन, बातिनन, क़ौलन, फ़े’लन, ऐ’तिक़ादन, और हालन शरीअ’त का पाबंद नहीं है।

“औलिया ब-फ़ना फिल्लाह-वल-बक़ा बिल्लाह नमी-रसंद मगर ब-मुताबअ’त-ए-शरीअ’त-ए-आँ पेशवा-ए-क़वाफ़िल-ए-अस्फ़िया,मुक़्तदा-ए-तवाइफ़-ए-औलिया या’नी मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्ललम ज़ाहिरन-ओ-बातिनन, क़ौलन-ओ-फ़े’लन,ऐ’तिक़ादन-ओ-हालन हर कसे दर ज़ुलमात-ए-नफ़्स आ’दी-ओ-दर दरकात-ए-बातिला हादी गश्त:-ओ-दर अस्फ़लुस्साफ़िलीन तबीअ’त मुक़य्यद-ए-शह्वत-ओ-सियर-ए-ज़लालत-ओ-अख़लाक़ ना-पसंदीदः शुदः अगर अहल-ए-इ’ल्म अस्त ब-मुक़्तज़ा-ए-इ’ल्म-ओ-अ’मल नमी-कुनद-ओ-ब-शर्त-ए-इ’ल्म दर मज्मूअ’-ओ-औक़ात-ओ-अहवाल मुताबअ’त-ए-शरीअ’त नमी-नुमायद ब-दर्जात-ए-रफ़ीआ-ए-जिनाई-ओ-आ’ला इ’ल्लीईन मआ’रिफ़-ए-रब्बानी-ओ-मक़अ’द-ए-सिद्क़-ए-इ’र्फ़ानी न-रसद-ओ-अज़ मशरब-ए-अ’ज़ाब आब-ए-मा’रिफ़त-ए-रहमानी कि चूँ आब-ए-हयात दर ज़ुलमात-ए-तबीअ’त-ए-इंसानीस्त शर्बते न-चशद-ओ-जाम-ए-शीरीन-ए-शराब-ए-विज्दानी ब-काम-ए-ईक़ानी न-कशद”। जिल्द 1 सफ़हा 135)

ख़ुलफ़ाः-

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के ख़ुलफ़ा में ज़ियादा-तर उ’लमा-ओ-फ़ुज़ला थे।उन में से मलिकुल-उ’लमा शहाबुद्दीन दौलतआबादी,शैख़ शम्सुद्दीन अवधी, शैख़ सफ़ीउद्दीन रुदौलवी,शैख़ समाउद्दीन रुदौलवी, मौलाना इ’ल्मुद्दीन जाइसी,शैख़ ख़ैरुद्दीन सिधोरवी,क़ाज़ी मोहम्मद सिधोरी के इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल का ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं।और दूसरे ख़ुलफ़ा में शैख़ सुलैमान निहायत मुम्ताज़ मुहद्दिस और फ़क़ीह थे।शैख़ मा’रुफ़ुअद्दैमवी को हर क़िस्म के उ’लूम-ओ-फ़ुनून में महारत थी। इ’ल्म, ज़ुह्द, तक़्वा, इ’बादत और रियाज़त की वजह से अपने वक़्त के जुनैद-ओ-शिब्ली समझे जाते थे।हज़रत क़ाज़ी हुज्जत मा’क़ूलात-ओ-मंक़ूलात के मुतबह्हिर आ’लिम थे।किछौछा के पास ही एक गाँव में रह कर अ’वामुन्नास की दीनी इस्लाह और रूहानी तर्बियत किया करते थे।शैख़ुल-इस्लाम गुजराती को अपने इ’ल्म की वजह से बड़ी शोहरत हासिल थी।शुरूअ’ में उनको हैयत, नुजूम, हिक्मत और दूसरे फ़ुनून पर बड़ा ग़ुरूर था।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर का वुरूद-ए-मसऊ’द जब अहमदाबाद में हुआ तो शैख़ुल-इस्लाम ने उनसे बड़ी बे-बाकी से इ’ल्मी मुबाहसे किए, और अदब का लिहाज़ रखा।लेकिन फिर बड़ी नदामत महसूस की।ताइब हो कर हज़रत जहाँगीर के हाथ पर बैअ’त की, और रूहानी मदारिज तय कर के हक़ाइक़-ओ-मआ’रिफ़ के सर-चश्मा बने। इस लिए ख़लीफ़ा भी बनाए गए।गुजरात के मुरीदों की तर्बियत इन्हीं  के ज़िम्मा थी।उन्होंने एक रिसाला भी अशरफ़ुल-फ़वाइद-ओ-फ़वाइदुल-अशरफ़ के नाम से लिखा।गुजरात के एक दूसरे जय्यिद और मुम्ताज़ आ’लिम शैख़ मुबारक भी हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के ख़लीफ़ा थे।

तमाम ख़ुलफ़ा शरीअ’त के पाबंद होते।उन में से शैख़ राजा को ज़ुह्द, तक़्वा, और शरीअ’त की पाबंदी में बड़ी शोहरत हासिल हुई। वो तारिक-ए-सलात से मिलना-जुलना, बोलना, चालना, और उसके साथ खाना पीना किसी हाल में भी पसंद नहीं करते थे।

ख़ुलफ़ा में हज़रत सय्यद अ’ब्दुल वहाब को अपने मुर्शिद से बड़ा वालिहाना लगाव था।एक बार हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने उनको किसी काम से देहली भेजा।वहाँ से वापस आए तो उनके पाँव में आबले पड़ गए।हज़रत जहाँगीर ने उनको अपना जूता इ’नायत किया।हज़रत सय्यद अ’ब्दुल वहाब ने ग़ायत-ए-एहतिराम में जूते को अपने सर पर रख लिया, और उसको अपना ताज बना कर चालीस रोज़ तक घूमते रहे।

बा’ज़ उमरा भी ख़लीफ़ा हुए।नवाब सैफ़ ख़ान हाकिम-ए-अवध की ख़िलाफ़त का ज़िक्र पहले आ चुका है।हज़रत जहाँगीर जब हज़रत ख़्वाजा बहाउद्दीन नक़्शबंदी से नियाज़ हासिल करने के लिए मावराउन्नहर तशरीफ़ ले गए तो वहाँ अमीर अ’ली बेग के घर पर अमीर-ए-तैमूर साहिब-ए-क़िरान के एक अमीर शैख़ अबुल-मकारिम से मुलाक़ात हुई।पहली ही मुलाक़ात में शैख़ अबुल-मकारिम का दिल सल्तनत के कार-ओ-बार से मुंहरिफ़ हो गया, और इमारत-ओ-शौकत छोड़ कर राह-ए-सुलूक में गामज़न हुए।बारह साल तक रियाज़त-ए-शाक़्क़ा की और जब मुकाशफ़त-ओ-इरादत की मंज़िलें तय कर लीं तो मुर्शिद ने उनको ख़िलाफ़त दी।अपने मकारिम-ए-अख़्लाक़ की वजह से अबुल-मकारिम कहलाए।मुर्शिद के हुक्म के ब-मूजिब समरक़ंद में सुकनत इख़्तियार की, जहाँ उनके मुरीदों का हल्क़ा बहुत वसीअ’ था।लताइफ़-ए-अशरफ़ी में है कि “उनके मल्फ़ूज़ात और दूसरी तसानीफ़ हक़ाइक़-ओ-मआ’रिफ़ के रुमूज़-ओ-निकात से पुर हैं”।

अमीर-ए-तैमूर के एक दूसरे अमीर शैख़ जमशेद बेग को भी हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने ख़िलाफ़त दी।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर अपनी सियाहत के ज़माने में जब याग़िस्तान पहुँचे, तो हज़ारों उज़्बक, बरमक, ख़फ़चाक़, लाचीन और क़ूचीन क़बीलों के ख़्वास-ओ-अ’वाम उनके हल्क़ा-ए-इरादत में दाख़िल हुए, और उनकी ख़िदमत में घोड़े और दूसरे जानवर पेश किए।इस तरह उनके इर्द-गिर्द एक लश्कर का सामान जम्अ’ हो गया। उस ज़माना में अमीर-ए-तैमूर समरक़ंद, में था।बा’ज़ लोगों ने ये ख़बर पुहँचाई कि हज़रत अशरफ़ जहाँगीर एक लश्कर जम्अ’ कर के तैमूर के ख़िलाफ़ फ़ौज-कशी का इरादा रखते हैं ।लेकिन तैमूर हज़रत जहाँगीर को पहले से जानता था, इसलिए इस ख़बर से परेशान होने के बजाए अपने एक दरबारी अमीर जमशेद बेग को नज़राने दे कर हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की ख़िदमत में भेजा।नज़राने में बहुत से माल-ओ-अस्बाब थे।लेकिन जब ये सामान हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के पास पहुँचा तो उन्होंने तमाम चीज़ों को फ़ुक़रा-ओ-मसाकीन में तक़्सीम कर दिया।जमशेद बेग हज़रत अशरफ़ जहाँगीर से मिल कर इस क़दर मुतअस्सिर हुए   कि तैमूर के दरबार से अ’लाहिदा हो कर दरवेशी इख़्तियार कर ली, और मुरीद होकर हज़रत के साथ हिन्दुस्तान आए।और जब पूरी ता’लीम-ओ-तर्बियत के बा’द उनको ख़िलाफ़त मिली तो किछौछा से फिर अपने वतन वापस गए, जहाँ उन्होंने रुश्द-ओ-हिदायत का सिलसिला जारी रखा।

एक ख़िल्जी अमीर शैख़ हुसैन भी दुनियावी जाह-ओ-हशम छोड़ कर राह-ए-सुलूक में गामज़न हुए और हज़रत अशरफ़ जहाँगीर से ख़िलाफ़त पाई। दोनीरी, में रह कर अतराफ़-ओ-जवानिब के लोगों के अख़्लाक़-ओ-किर्दार संवारते।बंगाला का मुआ’सिर हुक्मराँ उनका बहुत मो’तक़िद था।

ख़ुलफ़ा में हज़रत सय्यद अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ कि हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के दीनी फ़र्ज़न्द कहलाते थे इसलिए उनका लक़ब नूरुल-ऐ’न था। बारह साल की उ’म्र में बैअ’त की और 68 साल तक मुर्शिद की ख़िदमत की।चुनाँचे मुर्शिद के विसाल के बा’द सज्जादा-नशीं हुए। एक सौ बीस साल की उ’म्र पाई।

सब से ज़ियादा चहेते ख़लीफ़ा शैख़ कबीर मसरूरपुरी थे, जिन पर हज़रत अशरफ़ जहाँगीर इस क़द्र नज़र-ए-इल्तिफ़ात रखते कि ख़ुद हज़रत सय्यद अ’ब्दुर्रज़्ज़ाक़ नूरुल-ऐ’न को उन पर रश्क होता था। इनके फ़र्ज़न्द शैख़ मुहम्मद को भी ख़िलाफ़त मिली।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर उनको अपने हुज्रा-ए-ख़ास में रूहानी ता’लीम दिया करते थे। उनका लक़ब दुर्र-ए-यतीम था।

बा’ज़ और दूसरे ख़ुलफ़ा के अस्मा-ए-गिरामी ये हैं: सय्यद उ’स्मान, शैख़ रुक्नुद्दीन-ओ-शैख़ क़ियामुद्दीन (दोनों लाचीन तुर्क थे, इ’राक़ से हिंदुस्तान आए थे) शैख़ असीलुद्दीन,शैख़ जमीलुद्दीन, मौलाना अबुल-मुज़फ़्फ़र लखनवी, शैख़ फ़ख़्रुद्दीन, क़ाज़ी शैख़ रुक्नुद्दीन, शैख़ आदम उ’स्मान, शैख़ ताजुद्दीन, शैख़ महमूद कंतूरी, शैख़ अ’ब्दुल्लाह बनारसी,शैख़ कमाल जाइसी,अबू मोहम्मद उ’र्फ़ मुई’न मथन सिधोरी।

ता’लीमातः-

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की ता’लीमात इन तीन किताबों में पाई जाती हैं :

1 बशारतुल-मुरीदीन 2 मक्तूबात-ए-अशरफ़ी 3 लताइफ़-ए-अशरफ़ी फ़ी-बयान-ए-तवाइफ़-ए-सूफ़ी।लताइफ़-ए-अशरफ़ी के मुवल्लिफ़ का बयान है कि हज़रत अशरफ़ जहाँगीर अपने विसाल से पहले एक शबाना-रोज़ क़ब्र में जा कर कर रहे और अपनी कैफ़ियात को क़लम-बंद किया, जिसका नाम बशारतुल-मुरीदीन रखा।

मक्तूबात के बारे में अख़्बारुल-अख़्यार में हैः

“ऊ रा मक्तूबात अस्त मुश्तमिल बर तहक़ीक़ात-ए-ग़रीब:” (सफ़हा 156)

अख़्बारुल-अख़्यार में उनका एक तवील मक्तूब मंक़ूल है जो उन्होंने क़ाज़ी शहाबुद्दीन दौलतआबादी को तहरीर फ़रमाया था।उसमें फ़िरऔ’न के ईमान के मुतअ’ल्लिक़ बह्स है।

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की ता’लीमात वाज़ेह और मब्सूत तरीक़ा पर लताइफ़-ए-अशरफ़ी में मिलती हैं, जिनको हज़रत निज़ामुद्दीन यमनी अल-मुलक़्क़ब ब-निज़ाम हाज़ी ग़रीबुल-यमनी ने मुर्रतब किया है।वो हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के मुरीद थे,और उनकी सोहबत में तीस साल रहे।

लताइफ़-ए-अशरफ़ी 1295 हिज्री में नुस्रतुल-मताबे’ देहली में छपी है, और नौ सौ सफ़हे पर मुश्तमिल है।ये हज़रत अशरफ़ जहाँगीर की सवानेह-उ’म्री भी है और उनकी ता’लीमात का आईना भी।कहीं तसव्वुफ़ की इस्तिलाहात की पूरी तशरीह-ओ-तौज़ीह है तो कहीं ज़िक्र-ओ-फ़िक्र की तमाम तफ़्सीलात हैं, कहीं सूफ़ियाना ग़वामिज़ पर मबाहिस हैं तो कहीं सूफ़िया-ए-किराम के मुख़्तलिफ़ ख़ानदानों की मुख़्तसर तारीख़, कहीं रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम, कहीं आल-ए-रसूल, कहीं ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन, और कहीं अइम्मा-ए-किबार के हालात हैं,तो कहीं सूफ़ी शो’रा पर दिल-चस्प तब्सिरा है, ग़र्ज कि इसको तसव्वुफ़ का एक क़ामूस कहा जा सकता है।

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर चिश्तिया सिलसिला से मुंसलिक थे।इसलिए उनकी ता’लीमात वही हैं जो अकाबिर बुज़ुर्गान-ए-चिश्त की थीं,और जिनका ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं।फिर भी उन्होंने बहुत ऐसे मसाएल की वज़ाहत और तशरीह की है जिनको हम अपनी हक़ीर तालीफ़ के गुज़िश्ता औराक़ में पेश नहीं कर सके हैं,इसलिए हम हदिया-ए-नाज़िरीन करते हैं :

इ’ल्म की अहमियतः-

हरज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने हज़रत ख़्वाजा मौदूद चिश्ती रहमतुल्लाह अ’लैह के इस क़ौल की ताईद की है कि इ’ल्म के ब-ग़ैर एक ज़ाहिद शैतान का मस्ख़रा है, इसलिए राह-ए-सुलूक में तौहीद,मारिफ़त, ईमान,शरीअ’त, तरीक़त वग़ैरा से पूरी वाक़फ़िय्यत रखना एक सालिक के लिए ज़रूरी क़रार दिया है।फ़रमाया कि अगर किसी को मा’लूम हो कि उसकी ज़िंदगी के सिर्फ़ सात दिन बाक़ी रह गए हैं तो उसको सिर्फ़ इ’ल्म-ए-फ़िक़्ह हासिल करना चाहिए।इ’ल्म-ए-दीन का एक मस्अला जानना हज़ार रकअ’त नफ़्ल से बेहतर है। (जिल्द 1 सफ़हा 10-ओ-13)

तौहीदः-

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने मस्अला-ए-तौहीद पर बड़ी अ’मीक़ और आ’लिमाना बह्स की है।जिस शर्ह-ओ-बस्त के साथ ये मबाहिस लताइफ़-ए-अशरफ़ी में हैं उनको हू-बहू यहाँ पेश करना आसान नहीं, फिर भी हम अपनी कम-माइगी के बावजूद उनका ख़ुलासा दर्ज करते हैं।

इन मबाहिस में तौहीद की कई क़िस्में बताई गई हैं।

1.    तौहीद-ए-ईमानी, या’नी क़ुरआन-ए-मजीद और अहादीस-ए-नबवी की सदाक़त पर ऐ’तिमाद कर के ये अ’क़ीदा रखना कि ख़ुदा एक है।

2.    तौहीद-ए-इ’ल्मी, इदराक-ए-बातिन से दर्जा-ए-यक़ीन तक पहुँचना कि ख़ुदावंद-तआ’ला के सिवा कोई मुवह्हिद-ए-हक़ीक़ी और “मुवस्सिर-ए-मुत्लक़” नहीं।ये तौहीद मुराक़बा से हासिल होती है।

3.    तौहीद-ए-रस्मी, अपनी ज़िहानत या मुतालआ’-ए-अश्या या सुनी सुनाई बातों की बिना पर ख़ुदा को एक समझना।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के नज़दीक तौहीद का ये तसव्वुर कोई असर नहीं रखता।ये तौहीद ऐ’तिबार के दर्जा से साक़ित है।

4.    तौहीद-ए-हाली, इस तौहीद में मुवह्हिद वाहिद के वजूद के जमाल में ऐसा मुस्तग़रक़ हो जाता है, कि उसको वाहिद की ज़ात-ओ-सिफ़ात के सिवा कोई चीज़ नज़र नहीं आती।वो वाहिद की सिफ़ात को अपनी तमाम सिफ़तों से मावरा हो कर देखता है, और बहर-ए-तौहीद में अपने को सिर्फ़ एक क़तरा पाता है। तौहीद-ए-हाली का ये एहसास मुशाहदा के नूर से होता है।इस में बशरियत के अक्सर लवाज़िमात होते हैं, और जो बाक़ी रह जाते हैं उनसे अक़वाल-ओ-अफ़आल सर-ज़द होते हैं।

लेकिन हज़रत जहाँगीर के नज़दीक अस्ली और हक़ीक़ी तौहीद तौहीद-ए-इलाही है, और वो ये कि कोई मुवह्हिद हो यो न हो, मगर ख़ुदा अज़लुल-आज़ाल से बज़ात-ए-ख़ुद वहदानियत और फ़र्दानियत से मुत्तसिफ़ है।या’नी वो था उसके साथ कोई चीज़ नहीं थी और वो है, उसके साथ कोई चीज़ नहीं।और अबदुल-आबाद तक इसी तरह रहेगा।इस हक़ीक़त के लिए ये ज़रूरी नहीं कि कोई मुवह्हिद उसको वाहिद बताए।

वहदत-ए-वजूदः-

लताइफ़-ए-अशरफ़ी की जिल्द दोउम में एक मुस्तक़िल बाब (लतीफ़ा-ए-बिस्त-ओ-हफ़्तुम) वहदत-ए-वुजूद पर है।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर जब दूसरी बार दुनिया की सियाहत के लिए निकले तो बुख़ारा के अकाबिर से मुलाक़ात के दौरान में उनको मा’लूम हुआ कि उनमें से अक्सर-ओ-बेशतर उ’लमा-ओ-फ़ुज़ला वहदत-ए-वजूद के मुन्किर हैं।उन्होंने उनसे बह्स कर के दलाइल–ओ-बराहीन से उनको वहदत-ए-वजूद का क़ाइल किया।इस बह्स को लताइफ़-ए-अशरफ़ी के मुवल्लिफ़ ने नक़ल किया है।ये दक़ाइक़-ओ-ग़वामिज़ से पुर हैं,फिर भी इख़्तिसार के साथ इसको हदिया-ए-नाज़िरीन करने की कोशिश की जाती है।

फलसफ़ियाना तरीक़ा पर वहदत की दो क़िस्में हैं :

1.    वहदत-ए-मुत्लक़ा मिन-हैसिज़्ज़ात-वस्सिफ़ात

2.    वहदत-ए-मुक़य्यदा मिन हैसिस्सिफ़ाति ला-मिन हैसिज़्ज़ात

ज़ात और सिफ़ात की हैसियत से वहदत-ए-मुत्लक़ा ये है कि सिर्फ़ एक ज़ात अपनी सिफ़ात के साथ मौज़ूद हो, और दूसरी तमाम ज़ातें अपनी ज़ात-ओ-सिफ़ात के साथ मा’दूम हों।मसलन वहदत-ए-बारी ये है कि जब ख़ुदा मौजूद था, तो उसके अ’लावा कोई चीज़ मौजूद न थी।

सिफ़ात की हैसियत वहदत के मुक़य्यद होने का मतलब ये है कि एक ज़ात-ए-तन्हा ऐसी सिफ़ात से मुत्तसिफ़ हो कि कोई दूसरा सिफ़ात में उसका शरीक न हो जैसे वहदत-ए-बारी क़िदम और तख़्लीक़ की सिफ़त के साथ मुत्तसिफ़ है।

वहदत-ए-मुत्लक़ा में ग़ैर का वजूद बिलकुल मा’दूम होता है,और वहदत-ए-मुक़य्यदा में मिस्ल का वजूद मा’दूम हो जाता है।

शरीअ’त में सिफ़ात की हैसियत से अल्लाह तआ’ला की तौहीद का इतलाक़ और इसबात चंद तरीक़ों से किया जाता है।

एक ये कि अल्लाह तआ’ला इस हैसियत से वाहिद है कि उसके अ’लावा कोई परस्तिश के लाइक़ नहीं, मुशरिकीन इस तौहीद के मुंकिर हैं।

दूसरा ये कि वो इस हैसियत से वाहिद है कि वही सारी अश्या का ख़ालिक़ और काइनात का मूजिद है,तंवीनिया, अफ़्लाकिया, तालिई’या इस तौहीद के मुंकिर हैं।

तीसरा ये कि वो इस हैसियत से वाहिद है कि कोई उसका शबीह नहीं।मुशब्बिहा इस तौहीद के मुंकिर है।

चौथा ये कि वो इस हैसियत से वाहिद है कि कोई और ज़ात क़दीम नहीं।उसके अ’लावा हर चीज़ हादिस है।दहरिये इसके मुंकिर हैं।

पाँचवीं ये कि वो इस हैसियत से वाहिद है कि उसकी ज़ात तर्कीब से पाक है क्यूँकि तर्कीब अज्साम के अ’वारिज़ से है और बारी तआ’ला को जिस्म नहीं।मुजस्सिमा इस तौहीद के मुंकिर हैं।

शरीअ’त में ज़ात-ओ-सिफ़ात दोनों हैसियतों से बारी तआ’ला की तौहीद का इतलाक़ दोनों में होता है।

मजाज़ीः या’नी बारी तआ’ला इस मा’ना में वाहिद है कि उसके वजूद के मुक़ाबला में दूसरी चीज़ों का वजूद गोया नहीं है।

हक़ीक़ीः या’नी ख़ुदा के सिवा कोई चीज़ मौजूद नहीं।जो कुछ है वही है।हमः ऊस्त।अ’वाम और बा’ज़ उ’लमा इस तौहीद के मुंकिर हैं। लेकिन हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के नज़दीक हक़ीक़ी तौहीद यही है, और उन्होंने इसको आयात-ए-क़ुरआनी,अहादीस-ए-नबवी और दूसरे दलाइल से साबित भी किया है।इस सिलसिला में वजूद की भी बह्स आ गई है।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने वजूद की तीन मंज़िलें क़रार दी हैं:

1. वजूद ब-शर्त-ए-शय, या वजूद-ए-मुक़य्यद, या’नी एक चीज़ का पाया जाना, इस शर्त के साथ कि एक चीज़ और भी हो। इस में हमः ऊस्त की गुंजाइश नहीं,और कोई इसका क़ाइल नहीं।

2. वजूद-ए-ला ब-शर्त-ए-शय,या’नी वजूद तो है, लेकिन उसके साथ दूसरी शय का वजूद ज़रूरी नहीं।

3. वजूद ब-शर्त-ए-ला-शय, या’नी वजूद-ए-मुतलक़,ये वजूद इस शर्त के साथ है कि उसके अ’लावा कोई और चीज़ नहीं।वजूद की इस मंज़िल में हमः ऊस्त माना जाता है।हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के ख़याल के मुताबिक़ इस पर सब को इत्तिफ़ाक़ है। वजूद शर्त-ए-ला-शय के मानने पर ऐ’तिराज़ होता है, और मो’तरिज़ीन को इसी से ग़लत-फ़हमियाँ और बद-गुमानियाँ पैदा होती हैं।

विलायतः  

वो आ’लिम हो, जाहिल न हो(लताइफ़-ए-अशरफ़ी जिल्द 1 सफ़हा 40)।उसके अफ़आ’ल-ओ-हरकात पसंदीदा हों और शरीअ’त-ओ-तरीक़त के मुताबिक़ हों।वो सीरत-ए-नबवी और असहाब-ए-मुस्तफ़वी का मुत्तबे’ हो (जिल्द 1 सफ़हा 64) उसमें लताइफ़-ए-ज़बान, हुस्न-ए-अख़्लाक़, शगुफ़्तगी,फ़य्याज़ी और बे-ग़रज़ी हो (जिल्द 1 सफ़हा 64) वो औसाफ़-ए-ज़मीमा की पस्ती से निकल कर औसाफ़-ए-हमीदा की बुलंदी पर पहुँच गया हो,और ख़ुदा के अ’लावा हर चीज़ से बे-नियाज़ हो चुका हो।यही उसकी मे’राज है (जिल्द 1 सफ़हा 69)

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर का ख़याल है कि औलिया-अल्लाह की  ख़्वाह कोई क़िस्म भी हो,ख़्वाह वो ग़ौस हों,या इमामान, या औताद, या अब्दाल या अख़्यार, या अबरार या नुक़बा या नुख़बा, या मक्तूमान या मुफ़रदात।वो फ़ना फ़िल्लाह वल-बक़ा बिल्लाह के दर्जा को नहीं पहुँच सकते हैं, जब तक कि वो ज़ाहिरन, बातिनन, क़ौलान, फ़े’लन और हालन मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम के मुत्तबे’ न हों।(जिल्द 1 सफ़हा 135) एक मौक़ा’ पर फ़रमाया (जिल्द 1 सफ़हा 26)

“हर कि अज़ीं ताइफ़ः ख़िलाफ़-ए-रविश-ए-नबवी-ओ-ग़ैर–ए-मुताबअ’त-ए-मुस्तफ़वी पेश गिरफ़्तः ब-मक़्सूद न-रसीदःअस्त

ख़िलाफ़ः-ए-पयम्बर कसे रह गुज़ीद

कि हर्गिज़ ब-मंज़िल न-ख़्वाहद रसीद

मुहालस्त सा’दी कि राह-ए-सफ़ा

तवाँ रफ़्त जुज़ दर पय-ए-मुस्तफ़ा

विलायत के शराइतः-

एक वली-उल्लाह के मिन-जुम्ला फ़राएज़ में एक ये है कि वो लोगों को ख़ुदा की राह पर ले चले, लेकिन वो ये फ़र्ज़ उसी वक़्त अंजाम दे सकता है, जब कि (1) उस शैख़ ने उसको शैख़ूख़त की इजाज़त दी हो।((जिल्द 1 सफ़हा 148) (2) वो दिल में ख़ुदा का हुज़ूर और आगाही हासिल कर चुका हो (3) वो अपने मुरीद के तमाम हफ़वात का मुवाख़ज़ा करता हो।लताइफ़-ए-अशरफ़ी (जिल्द 1 सफ़हा 149) (4) वो अपने मुरीद से उसके अफ़आ’ल का मुहासबा कर सकता हो (जिल्द 1 सफ़हा 151) (5) अपने मुरीद के सामने तक़द्दुस की पूरी शान में ज़ाहिर होता हो (जिल्द 1 सफ़हा 152-53) (6) मुरीदों को दूसरे शैख़ की सोहबत में बैठने की इजाज़त न देता हो (जिल्द 1 सफ़हा 154) (7) मुरीदों को उनकी क़ुव्वत-ए-ज़कीया का यक़ीन दिलाता हो (जिल्द 1 सफ़हा 156) (8) अगर किसी शैख़ को अपने से बरतर पाता हो तो उसकी सोहबत इख़्तियार कर लेता हो (जिल्द 1 सफ़हा 157) (9) वो आ’लिम हो (जिल्द 1 सफ़हा 161) (10) मुरीदों के साथ चौबीस घंटे में एक दफ़आ’ बैठता हो (जिल्द 1 सफ़हा 162)

इरादत के शराएतः-

मुरीदों के लिए हसब-ए-ज़ैल शराएत ज़रूरी हैं :

1. वो अपने शैख़ से कोई बात पोशीदा न रखें (जिल्द 1 सफ़हा 162)

2. वो अपने शैख़ पर किसी क़िस्म का कोई ऐ’तिराज़ न करें । (जिल्द 1 सफ़हा 163)

3. तलब-ए-शैख़ में सादिक़ हों (जिल्द 1 सफ़हा 166)

4. शैख़ को जो कुछ करते देखें उसकी इक़्तिदा बिला इजाज़त न करें (जिल्द 1 सफ़हा 169)

5. शैख़ के कलाम और अहकाम की तावील न करें (जिल्द 1 सफ़हा 170)

6. शैख़ के हुक्म के ख़िलाफ़ कोई बात न करें (जिल्द 1 सफ़हा 170)

7. अपने को हर शख़्स से कम-तर समझें (जिल्द 1 सफ़हा 172)

8. शैख़ के अहकाम में ख़यानत न करें (जिल्द 1 सफ़हा 173)

9. दोनों जहान में से किसी चीज़ की ख़्वाहिश न करें(जिल्द 1 सफ़हा 178)

10.   शैख़ जिसको अपने से अफ़ज़ल समझे उसकी वो भी इताअ’त करें (जिल्द 1 सफ़हा 175)

ये तो शराएत हुए।शैख़-ओ-मुरीद के आदाब भी अलग अलग बताए हैं। शैख़ के आदाब हसब-ए-ज़ैल हैं :

शैख़ के आदाबः-

1. मुरीद की इस्ति’दाद उसकी नज़र में हो,या’नी उसकी इन्फ़िरादी सलाहियत और क़ाबिलिय्यत को पेश-ए-नज़र रख कर राह-ए-सुलूक में तर्बियत करता हो (जिल्द 1 सफ़हा 181)

2. वो मुरीद के माल-ओ-मताअ’ से इस्तिफ़ादा करने की लालच से बिलकुल पाक हो (जिल्द 1 सफ़हा 185)

3. वो साहिब-ए-ईसार हो (जिल्द 1 सफ़हा 186)

4. उसके फ़े’ल और क़ौल में मुताबक़त हो (जिल्द 1 सफ़हा 188)

5. वो कमज़ोरों के साथ नर्मी से पेश आता हो (जिल्द 1 सफ़हा 189)

6. उसकी गुफ़्तुगू नफ़्सानियत के शाइबा से पाक हो (जिल्द 1 सफ़हा 190)

7. वो किनाया में गुफ़्तुगू करता हो और तसरीह से इत्जिनाब करता हो (जिल्द 1 सफ़हा 191)

8. उसके अहवाल का ग़लबा उसके आ’माल-ए-सालिहा का माने’ हो (जिल्द 1 सफ़हा 194)

9. वो अपने मुरीद से ता’ज़ीम की तवक़्क़ो’ न रखता हो (जिल्द 1 सफ़हा 196)

10.        वो मुरीद से न ज़ियादा क़रीब हो और न ज़ियादा दूर (जिल्द 1 सफ़हा 198)

मुरीद के आदाबः-

1. वो शैख़ की सोहबत को अपने लिए फ़त्हुल-बाब समझता हो (जिल्द 1 सफ़हा 200)

2. वो शैख़ से तस्लीम-ओ-रज़ा का तअ’ल्लुक़ रखता हो (जिल्द 1 सफ़हा 201)

3. दुनिया और आख़िरत का कोई काम शैख़ की इजाज़त के ब-ग़ैर न करता हो (जिल्द 1 सफ़हा 202)

4. शैख़ की जगह पर बैठता हो (जिल्द 1 सफ़हा 203)

5. अपने ख़्वाब और बेदारी के वाक़िआ’त में शैख़ से रुजूअ’ करता हो (जिल्द 1 सफ़हा 204)

6. शैख़ की सोहबत में बुलंद आवाज़ से गुफ़्तुगू न करता हो (जिल्द 1 सफ़हा 205)

7. शैख़ से किसी मौक़ा’ पर भी कोई बात दिलेराना तरीक़ा से न पूछता हो और न कहता हो (जिल्द 1 सफ़हा 206)

8. शैख़ जिस चीज़ को मख़्फ़ी रखता हो उसको इफ़्शा न करता हो (जिल्द 1 सफ़हा 206)

9. शैख़ से अपने असरार बयान कर देता हो (जिल्द 1 सफ़हा 209)

10.        शैख़ की कोई बात नक़ल करता हो तो अपनी फ़हम का ख़याल रखता हो (जिल्द 1 सफ़हा 210)

शैख़ के औसाफ़ः-

शैख़ में हसब-ए-ज़ैल औसाफ़ होने चाहिएः

1. उसमें ख़ास क़िस्म की अ’ब्दियत हो

2. उसको ख़ुदा से बराह-ए-रास्त हक़ाइक़ हासिल हों

3. उस पर ख़ास क़िस्म की रहमत मक़ाम-ए-अ’ब्दियत (या’नी क़ुर्बत) से हो।

4. उ’लूम की ता’लीम ख़ुदा से हासिल की हो

5. इ’ल्म-ए-लदुन्नी की दौलत से माला-माल हो (जिल्द 1 सफ़हा 255)

मुरीद की ता’लीमः-

मुरीद की ता’लीम दिल की सफ़ाई से शुरुअ’ होती है।उसके दिल की तारीकी जितनी कम हो जाती है,उतने ही ज़ियादा उसकी रूह में नूर पैदा होता है,और वो अपनी चश्म-ए-बीना से देखता है तो शुरुअ’ में नूर-ए-सुर्ख़ मा’लूम होता है।फिर दिल की सफ़ाई की ज़ियादती है,तो सफ़ेद हो जाता है।आख़िर में मज़ीद सफ़ाई से सब्ज़ हो जाता है, और जब दिल बिलकुल साफ़ हो जाता है, तो ये नूर आफ़्ताब की मांनिद चमक उठता है और उस पर मुश्किल से नज़र जमती है।और जब उस नूर का अ’क्स नूर-ए-रूह पर पड़ता है, तो दिल और रूह के सारे हिजाबात नज़र से दूर हो जाते हैं।फिर ऐसे नूर का शुहूद होता है जिसमें न रंग है न कैफ़ियत, न हद है न मिस्ल, न तमकीन है न तमक्कुन, और उसके लिए न तुलूअ’ है न ग़ुरूब, न तहत है न फ़ौक़, न मकान है न ज़मान, न क़ुर्ब है न बो’द, और न अ’र्श है न फ़र्श।

ये मंज़िल ज़िक्र और फ़िक्र से तय होती है इसकी पहली शर्त तौबा है:

तौबाः-

तौबा से मुराद अफ़आ’ल-ए-ना-पसंदीदा या’नी ग़िल्ल-ओ-ग़िश, हसद, निफ़ाक़, किज़्ब, बुख़्ल, हिर्स, तमअ’, ग़ज़ब,तल्बीस, रिया, बोहतान, और ग़ीबत वग़ैरा से क़तई’ ऐ’राज़ है (जिल्द 2 सफ़हा 150) फिर तौबा के साथ शरीअ’त की सारी पाबंदियों या’नी नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज और जिहाद को लाज़िमी क़रार दिया है।अलबत्ता इन चीज़ों में एक आ’मी मुसलमान और एक सालिक की पाबंदी में जो फ़र्क़ है, उसको बहुत वाज़ेह तौर पर बताता है।

नमाज़ः-

नमाज़ के लिए एक सालिक वज़ू करता है,तो इसलिए कि 1 उसकी जिस्मानी तहारत हो 2 उसकी दिमाग़ी तहारत या’नी उसका ज़ेहन औहाम-ओ-वसाविस से पाक हो 3 उसके हवास-ए-बातिन पाक हों 4 उसकी रूह पाक हो (जिल्द 2 सफ़हा 155)

नमाज़ में खुज़ूअ-ओ-ख़ुशूअ’ ज़रूरी है,वर्ना उसकी मिसाल क़ालिब-ए-बे-जान की होगी।नमाज़ में हसब-ए-ज़ैल चीज़ों से लज़्ज़त मिलती हैः-

1 हुज़ूर-ए-क़ल्ब 2 फ़हम-ए-मा’नी 3 ता’ज़ीम-ए-माहियत 4 ख़ौफ़-ओ-रजा 5 हया

लज़्ज़त भरी नमाज़ में सालिक नूर का मुशाहदा करता है, जो उसके तमाम जिस्म में सरायत कर जाता है।इससे उस पर सुक्र की कैफ़ियत तारी हो जाती है (जिल्द 2 सफ़हा 156)

रोज़ाः-

सालिक रोज़ा रखता है तो गोया वो हवास-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन को मग़्लूब कर के हवा-ओ-नफ़्स को अपने से दूर करने की कोशिश करता है।इस तरह अपने बातिन को मुनव्वर कर के कश्फ़ हासिल करता है (जिल्द 2 सफ़हा 158)

ज़कातः-

शरीअ’त की ज़कात के अ’लावा तरीक़त की ज़कात ये है कि सालिक का दिल ज़माइम से पाक हो।औलिया-ओ-मशाइख़ इ’ल्म-ए-सुलूक को सझाएँ।मुरीद को दिल की सिफ़ात,रूह की तजल्ली, इ’श्क़, मोहब्बत, मा’रिफ़त, क़ुर्बत और हक़ाइक़-ओ-मआ’रिफ़ की ता’लीम दें।

हजः-

एक सालिक का हज ये है कि वो एहराम बांधता है तो दुनिया के अ’लाएक़-ओ-अ’वाएक़ से तजरीद हासिल करता है।अ’रफ़ात में आता है, तो असरार-ओ-मआ’रिफ़ से वाक़िफ़ होता है।जब मुज़्दलफ़ा पहुँचता है तो उसकी मुरादें पूरी होनी शुरूअ होती हैं। और जब तवाफ़ करता है तो दिल ख़ुदा की तरफ़ गर्दिश करने लगता है।जब सफ़ा-ओ-मर्वा में सई’ के लिए जाता है तो गोया बशरी कुदूरत से निकल कर मलकूती सिफ़ात की तरफ़ मुंतक़िल होता है।जब मिना आता है तो उसके ख़यालात तमाम ख़तरों और वस्वसों से पाक होते हैं।जब क़ुर्बानी करता है तो अपने नफ़्स के देव को हमेशा के लिए ज़ब्ह करत देता है (जिल्द 2 सफ़हा 163)

जिहादः-

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने जिहाद के मुतअ’ल्लिक़ ये ता’लीम दी है कि जब कुफ़्फ़ार मुसलमानों के मुक़ाबले में ख़ुरूज करें तो अल्लाह तआ’ला की राह में जिहाद करना तमाम मुसलमानों पर फ़र्ज़ है।लताइफ़-ए-अशरफ़ी में हैः (जिल्द 2 सफ़हा 165)

“हज़रत क़ुद्वतुल-कुबरा मी-फ़रमूदंद जिहाद कर्दन दर राह-ए-ख़ुदा-तआ’ला फ़र्ज़ अस्त बर जमीअ’-ए-इ’बाद वक़्ते कि ख़ुरूज-ए-कुफ़्क़ार शवद अम्मा दरून-ए-ख़ुरूज-ए-क़ुफ़्फ़ार फ़र्ज़-ए-किफ़ाया बाशद”।

और अगर कोई मा’ज़ूर हो तो वो हज करे।और वो हज भी न कर सेक, तो जुमआ’ की नमाज़ में शिर्कत करे, क्यूँकि जुमआ’ की नमाज़ मिस्कीनों का हज है।रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सलल्लम की यही ता’लीम है।

इस्लाम के इन अरकान की पाबंदी के साथ तवक्कुल,तस्लीम-ओ-रज़ा,जूद-ओ-ईसार वग़ैरा की भी ता’लीम दी है ।

तवक्कुलः-

अगर सालिक उन चीज़ों को क़ुबूल करता है,जो शरीअ’त की रू से हराम हैं तो वो आ’सी और फ़ासिक़ है।तवक्कुल की अ’लामत ये है कि किसी चीज़ के लिए किसी से सवाल न किया जाए।और जब ग़ैब से फ़ुतूह आए तो क़ुबूल कर ले, और जब क़ुबूल करे तो उसको अपने पास न रखे।

एक सालिक का तवक्कुल ये है कि वो समझे कि ख़ुदावंद-तआ’ला ही रोज़ी देता है और वापस ले लेता है,लेकिन वो बहर-हाल रोज़ी पहुँचाता है, इसलिए उसको यक़ीन रखना चाहिए कि रोज़ी उसके पास पहुँचेगी,लेकिन उसका दिल रोज़ी के अ’दम-ए-वजूद को बराबर समझे(जिल्द 2 सफ़हा 242)

तस्लीम-ओ-रज़ाः-

ख़ुदा की तरफ़ से कोई ने’मत मिलती हो तो वो ख़ुश रहे,लेकिन कोई बला नाज़िल हो तो उस से ग़मगीन न हो,यही तस्लीम-ओ-रज़ा है, लेकिन हर हाल में रोज़ी के लिए कसब करना लाज़िम है। इस सिलसिला में हज़रत अशरफ़ जहाँगीर के मल्फ़ूज़ात मुलाहज़ा हों।

“हज़रत क़ुद्वतुल-कुबरा ने फ़रमाया अक्सर मशाइख़ हमेशा कोई पेशा करते थे, और दिल-ओ-जान से उसकी तरफ़ बढते थे।अगले मशाइख़-ओ-उ’लमा भी पेशे में मशग़ूल रहते थे और उनको मूजिब-ए-इ’ज़्ज़त समझते थे।हिन्दुस्तान में पेशा करना बद-तरीन ख़सलत समझा जाता है।इसी वजह से मोहताजी और फ़क़ीरी में मुब्तला हो गए हैं।ये नहीं जानते कि अक्सर अंबिया किसी न किसी पेशा की तरफ़ मंसूब हैं इसलिए पेशा की तौहीन करना एक क़िस्म का कुफ़्र है।लोगों ने कहा है कि जो लोग तवक्कुल के आख़िरी दर्जा तक नहीं पहुँचे हैं,अगर वो पेशे में मशग़ूल रहें तो उनके लिए जाइज़ बल्कि लाज़िम है”। (जिल्द 2 सफ़हा 243)।

जूद-ओ-ईसारः-

कसब-ए-रोज़ी के साथ ज़रूरी है कि सालिक में सख़ावत, जूद और ईसार हो।वो अपने माल में से थोड़ा सा किसी को देता हो और थोड़ा सा रख लेता हो तो वो सख़ी है।लेकिन अगर गुछ भी न रखता हो तो वो जव्वाद है,और सब कुछ देकर अपने ऊपर तक्लीफ़ उठाता हो तो वो साहिब-ए-ईसार है (जिल्द 2 सफ़हा 247)

हज़रत अशरफ़ जहाँगीर ने एक सालिक को मुआ’शरती हैसियत से भी आ’ला क़िस्म के औसाफ़ से मुत्तसिफ़ होने की तल्क़ीन की है। मसलन खाने पीने के आदाब ये बताए हैं :

खाने पीने के आदाबः-

1 ज़िंदा रहने के लिए खाना फ़र्ज़ है।ख़ुदावंद तआ’ला की इ’बादत और कसब-ए-मआ’श के लिए खाना सुन्नत है।सैर हो कर खाना खाना मुबाह है,लेकिन सैरी से ज़ियादा खाना खाना हराम है। (जिल्द 2 सफ़हा 186)

एक सालिक के लिए खाने में चार चीज़ें फ़र्ज़ हैं।

1. जो चीज़ें खाता हो वो हलाल हो

2. खाते वक़्त ये ख़याल रखता हो कि वो चीज़ ख़ुदावंद तआ’ला की तरफ़ से है

3. राज़ी ब-रज़ा हो कर खाता हो

4. खाना इ’बादत-ओ-ताअ’त के लिए खाता हो

मेहमान-दारीः-

सालिक पर मेहमान-दारी के फ़राएज़ ये हैं:

वो मेहमान को अपने लिए बाइ’स-ए-बरकत समझे।वो आए तो मा- हज़र या शर्बत हाज़िर करे।खाने के वक़्त जो मौजूद हो मेहमान के सामने रख दे।उसकी ख़तिर-दारी में अपने ऊपर तकलीफ़ न उठाए।

“क़स्द-ए-तक्लीफ़ न-कुनद कि मूजिब-ए-दुश्मनी मी-शवद”।

अगर क़ुदरत हो तो हसब-ए-ताक़त तक्लीफ़ उठाए और अइ’ज़्ज़-ओ-अक़रिबा को भी बुलाए।लेकिन उनको बुलाने में अमीर-ओ-ग़रीब का इम्तियाज़ न करे।मेहमान से ये न पूछे कि खाना लाया जाए बल्कि ख़ुद खाना ले आए।खाने का आग़ाज़ मेहमान ही करे।खाने में मेहमान को जल्दी करने की फ़रमाइश ने करे।मेहमान के सामने बच्चों पर ग़ुस्सा का इज़हार न करे।जिल्द 2 सफ़हा 194)

मेहमान को लाज़िम है कि वो मेज़बान के घर पहुँच कर नफ़ल रोज़ा न रखे।दाएं बाएं न देखे।हर चीज़ को देखता न रहे। इससे दिनाअत का इज़हार हो जाता है, और मेज़बान ये समझता है कि वो इन चीज़ों का तलब-गार है (जिल्द 2 सफ़हा 195)

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