अलाउल की पद्मावती-वासुदेव शरण अग्रवाल
मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत की व्याख्या लिखते हुए मेरा ध्यान पद्मावत के अन्य अनुवादों की ओर भी आकृष्ट हुआ। उनमें कई फ़ारसी भाषा के अनुवाद विदित हुए। किन्तु एक जिसकी और हिन्दी जगत का विशेष ध्यान जाना चाहिए वह बंगाली भाषा में किया हुआ वहाँ के प्रसिद्ध मुसलमान कवि अलाउल का अनुवाद है। यह अनुवाद अत्यन्त सफल हुआ है। भाषा 17 वीं शती की शाहजहाँकालीन बँगला है। बँगला के पयार छन्द में इसका अनुवाद हुआ है। कहीं कही त्रिपदी छन्द का भी प्रयोग है।
इस अनुवाद का सर्वप्रथम हिन्दी जगत् में उल्लेख श्री पं. रामचन्द्रजी शुक्ल ने अपनी पदमावत की भूमिका में किया था। उन्होंने लिखा है- पदमावत का एक पुराना बँगला अनुवाद है। यह अनुवाद अराकान राज्य के वजीर मगन ठाकुर ने सन् 1650 ई. के आसपास आलो उजालों नामक एक कवि से कराया था। (जायसी ग्रंथावली, पंचम संस्करण, 2008, पृ. 6, पादटिप्पणी)। यह सूचना पढ़कर इस पुस्तक को देखने की इच्छा उत्पन्न हुई। गत वर्ष अपनी शान्ति-निकेतन की यात्रा में विश्वभारती में बँगला भाषा के अध्यापक श्री सत्येन्द्रनाथ घोषाल के पास यह बँगला ग्रन्थ पहली बार देखने को मिला। उसके प्रथम पृष्ठ पर छपी हुई सूचना से ज्ञात हुआ कि बंगाब्द 1338 में कलकत्ते के प्राचीन मुद्रणालय हबीबी प्रेस, 141, मछुआ बाजार ने इसे छापा था। पुस्तक देखर मेरी तुरन्त इच्छा हुई कि इसका एक संस्करण देवनागरी लिपि में होना चाहिए जिससे जायसी के हिन्दी पाठकों को तुलनात्मक अध्ययन के लिए वह सुलभ हो सके।
इधर श्री सत्येन्द्र जी कलकत्ता विश्वविद्यालय में काम कर रहे थे। मैने उनसे अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होंने कलकत्ते में पुस्तक की खोज की। नई प्रति तो अब मिलना असम्भव है क्योंकि हमारे यहाँ के पुराने हिन्दी प्रेसों की तरह जिन्होंने शुरू में हिन्दी काव्यों के संस्करण निकाले थे वह बँगला प्रेस भी अब नहीं है। प्रयत्न करने पर बंगीय साहित्य परिषद् के पुस्तकालय से पुस्तक की प्रति प्राप्त करके श्री सत्येन्द्र जी ने कुछ दिनों के लिये उसे मेरे पास भेजने की कृपा की। पुस्तक पाकर मैंने आद्यन्त उसे देवनागरी लिपि में लिखवा लिया।
मेरा विचार था कि उसे हिन्दी विधापीठ की साहित्य-पत्रिका के अंको द्वारा मुद्रित करा दूँगा। सौभाग्य से सत्येन्द्र जी ही हिन्दी विधापीठ में नियुक्त होकर आ गए। उन्होंने मेरे प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया जिसके लिये मैं अनुगृहीत हूँ।
हिन्दी प्रतिलिपि की टंकित प्रति जब मेरे पास आई तो पढ़ने पर मुझे लगा कि इसका पाठ कई जगह टूटा हुआ है और कई जगह उसमें संशोधन की आवश्यकता है। मैंने यथामति उसे देखकर सोचा कि बँगला भाषा के ही किसी अधिकारी विद्वान से इसका संपादन कराया जा सके तो बड़े सौभाग्य की बात होगी क्योंकि हिन्दी भाषा में पुस्तक का प्रामाणिक स्वरूप ही जनता के सामने आना चाहिए।
मैंने पुस्तक के कुछ पृष्ठ अपने मित्र श्री सत्येन्द्रनाथ घोषाल के पास विश्वभारती भेजे। उन्होंने मेरा अनुरोध स्वीकार करके पाठ संशोधित करने की कृपा की है जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। आशा है आगे के अंश भी इसी प्रकार संशोधित रूप में ही प्रकाशित हो सकेंगे।
अलाउल को बंगाली उच्चारण के अनुसार आलाओल भी कहते है। जैसा शुक्ल जी ने लिखा है, ये आराकान्त राज्य के मंत्री मगन ठाकुर के आश्रित कवि थे। इन्होंने अपने अनुवाद के आरम्भ में बयान 4-सत्कृति मागनेर बयान शीर्षक के अन्तर्गत सैन्यमंत्री, शूर और उदार-हृदय मगन ठाकुर की बहुत प्रशंसा की है।
अलाउल ने एक तो जायसी कृत पदमावत का बँगला में अनुवाद किया, दूसरे उन्होंने बंगाल के मध्यकालीन साहित्य के सर्वश्रेष्ठ मुसलमान कवि दौलतकाजी के अधूरे छोड़े हुए काव्य सती मैना या लौर चन्द्राणी को पूरा किया। यह लौर चन्द्राणी भी मूल अवधी काव्य था। इसका असली नाम चन्दायन था। यह अवधी भाषा का सबसे प्राचीन प्रथम काव्य था। 1370 ई. में मुल्ला दाउद ने फीरोज़शाह तुगलक के प्रधान मंत्री ख़ानजहाँ मक़बूल के पुत्र और उत्तराधिकारी जूनाशाह के संरक्षण में उसी के लिए बनाया। यह काव्य हिन्दू और मुसलमान दोनों में बहुत प्रसिद्ध हुआ। लगभग दो सौ वर्ष बाद अकबर-काल के ऐतिहासिक बदाऊनी ने इसके विषय में लिखा था कि हिन्दी की यह मसनवी इतनी लोकप्रिय है कि इसकी प्रशंसा की आवश्यकता मेरे लिये करना व्यर्थ है। मख़दूम शेख़ तक़ीउद्दीन वाअज़ रब्बानी ने एक बार मिम्बर से पढ़कर सुनवाया तो उपस्थित लोग सुनकर आनन्द विभोर हो गए।
इस ख्याति के कारण इस प्रेम काव्य की प्रतियाँ बंगाल में पहुँची और वहाँ से वे अराकान के राजा श्री सुधर्म के (1622-38) दरबार में ले जाई गई। अवधी भाषा का काव्य सरलता से उन लोगों की समझ में नही आयाः-
ठेठा चौपाया दोहा कहिला साधने।
ना बुझे गुहारी भाषा कौने कौने जने।।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि इस बँगला अवतरण में उस काव्य को साधन कृत कहा गया है। बात यह है कि मूल काव्य में दो कथाओं का मेल था। एक थी लोरिक की पहली पत्नी मैना मालिन की कहानी, जिसे साधन नामक कवि ने अवधी भाषा में मैना सत नाम से काव्यबद्ध किया था। साधन की अवधी कविता के नमूने मनेर शरीफ (पटना के पास) के खानकाह पुस्तकालय से प्रो. हसन अस्करी को प्राप्त हुए हैं, जो वहीं से प्राप्त पदमावत की प्राचीन प्रति के अन्त में लिखे हैं। अभी तक उस सामग्री का अध्ययन नहीं हो पाया है। संभव है कि वे ही अंश मूल मैना सत काव्य के हों। लोरिक की कथा का दूसरा भाद चन्दा के साथ उसके प्रेम और विवाह से सम्बन्ध रखता है। इसे ही मुल्ला दाऊद ने अवधी में काव्यबद्ध किया था और मूल काव्य का नाम चन्दायन रक्खा था। रामपुर राजकीय पुस्तकालय में पदमावत की एक सुलिखित प्राचीन प्रति है। उसके पहले पृष्ठ पर आधे के नीचे भाग में चंदायन शीर्षक नीचे लिखकर नीचे दो चौपाई और एक दोहा उद्धृत किया गया हैः-
कोयल जैस फिरौं सब रूखा। पिउ पिउ करत जीभ मोर सूखा।।
बनखँड बिरिख रहा नहिं कोई। कवन डर जेहि लागि न रोई।।
एक बाट गइ हिरदे दोसर गई महोब।
ऊभ बाहं कै चांदा बिनवै कौन बाट हम होब।।
चंदायन का अवतरण दाहिनी ओर लिखा है। उसी के बाई ओर आधे पृष्ठ के आधे भाग में उसी प्रकार मैना सत काव्य से भी चौपाई और एक दोहा उद्धृत किया गया हैः
एक एक करतहिं जिउ देऊँ। जग दोसर को नाँव न लेऊँ।।
फाटहि तासु नारि को हिया। एक छाड़ि जेहि दोसर किया।।
प्रीत घटै नहिं अनमिले उत्तम जिउ की लाग।
सौ जुग जो जल महँ रहै घटै न चममक आग।
उसी के नीचे यह दोहा भी लिखा हैः-
काग उड़ावत धन खड़ी सुनेउ संदेस भरक्कि।
अद्धीं बरियाँ काग गल अद्धीं गई तरक्कि।।
स्पष्ट है कि मैना सत और चंदायन दोनों अवधी काव्य लोरिक की मूल कथा से संबंधित थे और दोनों का साथ साथ प्रचार था। इसीलिए बँगला अनुवाद का नाम सती मैना वा लौर चन्द्राणी कहा जाता है। वे दोनों ही एक साथ अराकान दरबार में पढ़े गए, पर समझे नहीं जा सके क्योंकि वे दोहे चौपाइयों में गुहारी भाषा अर्थात् गाँव की बोली (गँवारी अवधी) में लिखे हुए थे। राजा के वजीर अशरफ़ ने दरबार के महाकवि दौलतकाज़ी से पांचाली (पयार) छन्द में अनुवाद करने को कहा, जिससे सब लोग उसे समझ सके।
दौलतकाज़ी ने यह कार्य बड़ी योग्यता से किया। किन्तु वे लगभग आधा ग्रन्थ ही पूरा कर पाए थे कि उनकी मृत्यु हो गई। हामिदी प्रेस के मुद्रित संस्करण 198 पृष्ठों में से 103 पृष्ठ दौलतकाज़ी के है। उनके पीछे अलाउल ने उसी निष्पक्ष एवं उच्च काव्यधरातल से अपना वह काव्य पूरा किया। सती मयना के अतिरिक्त अलाउल ने मगन ठआकुर की प्रेरणा से जायसी कृत पदमावत का अनुवाद भी हाथ में लिया और उसे अपनी प्रतिभा से पूरा किया।
अलाउल का कहना है कि मगन ठाकुर ने एक दिन भरी सभा में उसे आज्ञा दी-
एइ पद्मावती रसे रच रस कथा। हिन्दुस्थानी भाषे शेखे रचियाछे पोथा।।
रोशांगे ते अन्न लोक ना बुझे ए भाषा। पयार रचिले पुरे सबा कार आशा।।
ये हेन दौलत काजि चन्द्रानि रचिल। लस्कर उजिर आशारफे आज्ञा दिल।।
तेन पदमावती रच मोर आज्ञा धऱि। हेन कथा शुनि मने बहु श्रद्धा करि।।
ताहार आदेश माल्य परिया मस्तक। अंगिकार कैल आमि रचिते पुस्तक।।
(बयान 5/19-23)
पदमावती के रस से सनी हुई इस रसपूर्ण कथा को हिन्दुस्तानी भाषा में शेख मलिक मुहम्मद जायसी ने रचा था। रोशांग के लोग इस भाषा को नहीं समझते। तुम इसे पयार छन्द में ढालकर सब की आशा पूरी करो। जैसे दौलतकाज़ी ने लश्कर-बजीर सैन्यमंत्री अशरफ की आज्ञा से चन्द्रानी की रचना की थी, वैसे ही तुम मेरी आज्ञा से पदमावती की रचना करो।
अलाउल ने जायसी के शब्दानुवाद तक अपने को सीमित नहीं रक्खा। एक प्रकार से यह एक नया काव्य ही बन गया है। कहीं तो अलाउल ने अपने को जायसी के अवधी मूल के अति सन्निकट रखकर एक प्रकार से मूल की छाया ही उतार दी है, जैसे इसी अंक में प्रकाशित पहले बयान में, जो जायसी के स्तुति खंड का हूबहू भाषान्तर है। किन्तु उन्होंने चतुर अनुवादक की कला का निर्वाह किया है। अपेक्षित स्थानों में मूल का संक्षिप्त अंश रक्खा है, कहीं बिल्कुल छोड़ दिया है, कहीं जायसी के वर्णन को और भी पल्लवित करके उसे बँगला के मध्यकालीन साहित्य की परम्परा में ढाल दिया है-
एइ सूत्रे कवि मुहाम्मद करि भक्ति।
स्थाने स्थाने प्रकाशित निज मन उक्ति।।
विवाह से पूर्व लगभग तीस पंक्तियों में पदमावती का रूप वर्णन कवि की स्वतंत्र किन्तु उत्कृष्ट रचना है। उसके ऐसे प्रकरण बहुत ही भव्य हो गए है। पाठक यथास्थान उन्हें देखेंगे।
विश्वभारती के बँगला प्राध्यापक श्री सत्येन्द्र नाथ घोषाल ने लौर चन्द्राणी का पुनः संशोधित संस्करण तैयार किया है जो इस समय विश्वभारती से छप रहा है। उन्होंने मुझे सूचित किया है कि बँगला पदमावत का भी संशोधित संस्करण उन्होंने तैयार कर लिया है जो यथा समय विश्वभारती से प्रकाशित होगा। श्री सत्येन्द्रनाथ जी ने सूचित किया है कि ढाका विश्वविधालय में अलाउल कृत पदमावत की एक हस्तलिखित प्रति है। उसके पाठान्तर उन्होंने अपने संस्करण में लिए हैं और उनके अनुसार हबीबी प्रेस की मुद्रित की प्रतिलिपि को उन्होंने सुधार दिया है। अलाउल के ग्रंथ का एक अन्य संस्करण ढाका के डा. शहीदुल्ला साहब ने भी प्रकाशित किया था। पर उसका एक भाग ही प्रकाशित हो सका था।
हम आशा करते है कि आगरा विद्यापीठ की ओर से अलाउल और दौलतकाज़ी के दोनों ग्रन्थ प्रकाशित करना संभव होगा। हिन्दी जगत् के लिये यह कार्य बहुत महत्वपूर्ण होगा। मूल मैना सत और चन्दायन1 अभी तक अप्राप्य हैं। चन्दायन की एक खंडित प्रति के लगभग 34 पृष्ठ प्रो. हसन अस्करी को उसी मनेर शरीफ खानकाह पुस्तकालय से मिले हैं जिनकी फोटो प्रति हिन्दी विद्यापीठ में प्राप्त हो गई है। दौलतकाज़ी के ग्रन्थ के प्रकाशन से हिन्दी जगत् का ध्यान अपने लुप्त प्रथम अवधी काव्य की खोज की ओर फिर से जायगा और सम्भव है कालान्तर में उसकी पूरी प्रति कहीं प्राप्त हो जाय। इसी प्रकार अलाउल के पदमावत अनुवाद के प्रकाशन से पदमावत के तुलनात्मक अध्ययन के लिये नई सामग्री प्राप्त होगी जिसकी इस समय बहुत आवश्यकता है। किसी समय पदमावत स्वनाम्धन्य काव्य था। बंगाल से लेकर दक्षिण तक के राज-दरबारों में एवं जनता में उसे आदर मिला। हिन्दू मुसलमान दोनों ने उसका स्वागत किया। उसके कई अनुवाद फारसी में हुए। उन सबके प्रकाशन और तुलनात्मक अध्ययन से जायसी की काव्य प्रतिभा और अर्थ समृद्धि पर नवीन प्रकाश पड़ता जायगा, ऐसी आशा है।
नोट- इन पंक्तियों को लिखने के बाद जोधपुर पुस्तकालय से प्राप्त हुई मैनासत की अपनी प्रतिलिपि को मैंने ध्यान से देखा तो मालूम हुआ कि वही उस काव्य की साधन कृत मूल अवधी प्रति है। अब मनेर शरीफ़ की फ़ारसी लिपिवाली प्रति और जोधपुर की देवनागरी प्रति को मिलाकर मैनासत का पूरा पाठ प्राप्त हो जाने की आशा हो गई है।
नोट – यह लेख भारतीय साहित्य पत्रिका में सन 1951 ई. में प्रकाशित हुआ था. अपने सुधी पाठकों के लिए हम यह लेख दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं
साभार – भारतीय साहित्य पत्रिका
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