याद रखना फ़साना हैं ये लोग-अज़ भारत रत्न डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन ख़ाँ
तारीख़ दो तरह की होती है।एक वाक़ई’ तारीख़ जो बड़ी तलाश-ओ-तहक़ीक़,बड़ी छान-बीन के बा’द किताबों में लिखी जाती है और एक अफ़्सानवी तारीख़ जो तख़य्युल के बू-क़लमूँ और जज़्बात के रंगों से अ’वाम के दिलों पर नक़्श होती है।सल्तनत-ए-मुग़लिया में बड़े बड़े अ’ज़ीमुश्शान,जलीलुल-क़द्र,ऊलुल-अ’ज़्म बादशाह गुज़रे हैं जिनमें से हर एक उस अ’ह्द की दास्तान का रुस्तम-ए-दास्तान कहा जा सकता है।मगर अफ़्सानवी तारीख़ में उनमें से सिर्फ़ अकबर और शाहजहाँ ने जगह पाई है वो भी ज़्यादा-तर इसलिए कि अकबर ने मोहब्बत के जादू से अजीत राजपूतों को जीत लिया और शाहजहाँ ने इ’श्क़ की अमर यादगार संग-मर्मर के हसीन पैकर में ताज-महल के नाम से ढाल दी।मगर अ’वाम का हीरो उनमें से कोई नहीं। उनके सितारे वो हैं जिन्हें तारीख़ के आसमान पर चमकना नसीब नहीं हुआ।जैसे हुमायूँ जिसने निज़ाम सक़्क़ा को अपनी जान बचाने के बदले ढाई दिन की बादशाहत देकर एहसान-शनासी की रौशन मिसाल क़ाएम की और चित्तौड़ की रानी के साथ रक्षा बंधन के रिश्ता को निभाकर भाई बहन की मोहब्बत का सच्चा नमूना दिखाया।और बहादुर शाह ज़फ़र जिसकी ग़ज़लें साल-हा-साल तक उर्दू-हिन्दी के सारे इ’लाक़े में मर्दों और औ’रतों ख़ासकर ख़ुश-इल्हान फ़क़ीरों की ज़बान से फ़ज़ा में गूँजती और सुनने वालों के दिलों को तड़पाती रहीं और अब भी जब सुनने में आ जाती हैं तो पुरानी चोटों को उभार देती हैं।
जो हिन्दुस्तान के लोगों के मिज़ाज और मज़ाक़ का महरम न हो उसे तअ’ज्जुब होगा कि आख़िर उस ग़रीब,बद-नसीब,मज़लूम,महरूम बहादुर शाह में कौन सी ऐसी बात थी जिसने अ’वाम के तख़य्युल को छेड़ दिया और उनके दिलों को मुसख़्ख़र कर लिया।मगर जानने वाले जानते हैं कि उस अलम-नाक शख़्सियत में कई ऐसी ख़ुसूसियतें थीं जो हिंदुस्तानियों के लिए हमेशा से बड़ी कशिश रखती हैं।
पहली चीज़ ये है कि बहादुर शाह ज़फ़र सल्तनत-ए-मुग़लिया का आफ़्ताब-ए-लब-ए-बाम था।हिन्दुस्तान की तबई’ आब-ओ-हवा में भी और ज़ेहनी आब-ओ-हवा में भी दोपहर का सूरज जिसकी आब-ओ-ताब आँखों को ख़ीरा करती है और जिसकी ताब-ओ-तब हड्डियों तक को पिघला देती है उनके दिलों को नहीं खींचता मगर शाम के डूबते हुए सूरज की नर्म-ओ-नाज़ुक,धीरे धीरे धुँधलाती हुई रौशनी उन पर एक अ’जीब रूमानी कैफ़ियत तारी कर देती है जिसमें कुछ इ’बरत,कुछ हसरत,कुछ ज़िक्र-ओ-फ़िक्र की मह्विय्य्त,कुछ ध्यान-ज्ञान की कैफ़ियत मिली हुई होती है।सल्तनत-ए-मुग़लिया के आख़िरी ताज-दार की ज़िंदगी में भी उनकी चश्म-ए-तख़य्युल को ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब का यही दिल-कश और दिल-दोज़ मंज़र नज़र आता है।
अगर आप उस मोहिनी का जो शबिस्तान-ए-मुग़लिया की उस आख़िरी शम्मअ’ में थी अस्ल राज़ जानना चाहते हैं तो उनके हालात-ए-ज़िंदगी में उन दिल-दारियों और वज़्अ-दारियों के वाक़िआ’त पढ़िए जिनकी एक मिसाल राशिदुल-ख़ैरी ने लिखी है।बहादुर शाह ज़फ़र के आबा-ओ-अज्दाद में एक और बदनसीब बादशाह आ’ल-मगीर सानी गुज़रा है जिसे उसके नमक-हराम वज़ीर ने क़त्ल कर के उसकी लाश जमुना के किनारे जंगल में फिंकवा दी थी।इत्तिफ़ाक़ से एक बरहमन औ’रत राम कौर ने लाश को देखा और पहचाना और रात-भर उसके सिरहाने बैठी रोती रही।उस मोहब्बत और दिल-सोज़ी से मुतअस्सिर हो कर आ’ल-मगीर के बेटे शाह-आ’लम ने राम कौर को अपनी मुँह-बोली बहन बना लिया और वो हर साल सलोनों के दिन बादशाह के राखी बाँधने लगी।अब ये एक वज़्अ’ हो गई जिसे शाह-आ’लम के बा’द अकबर शाह सानी और फिर बहादुर शाह निभाते रहे कि राम कौर की औलाद में से एक लड़की बादशाह की बहन बन कर उसके राखी बाँधा करती थी।
बहादुर शाह के ज़िक्र में राशिदुल-ख़ैरी ने उस तक़रीब का समाँ इन अल्फ़ाज़ में बाँधा है।
“उधर बादशाह नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर बाहर आ बैठे। बरहमनों ने असीस दी। दरबारियों ने दुआ’ओं के ना’रे बुलंद किए और क़िला’ इस सदा से गूंज गया महाबली बादशाह सलामत।आसमान पर घटाटोप अंधेरा छाया हुआ है। हल्की हल्की फुवार पड़ रही है। लख्खी बाग़ में आमों के झुण्ड छाए हुए हैं। जामुनों के गुच्छे हवा में झूम रहे हैं। ज़मीन पर ककरोंदों की बहार,आसमान पर बगुलों की क़तारें दिल के पार होती जा रही हैं। पपीहा अलाप रहा है।कोयल कूक रही है। नक़्क़ारे पर चोट पड़ी,नफ़ीरी बजी और झूले में झूले-वालियाँ गईं।पींगें बढ़ रही हैं। झोंटे मिल रहे हैं। दोपहर तक झूले और पकवान होते रहे। खाना खाया और बादशाह सलामत ने अपने हाथ से ज़मुर्रदी चूड़ियाँ एक हाथ में पाँच एक हाथ में तीन अपनी हिंदू बहन के बांधीं और साथ वालियों को जोड़े अ’ता हुए। नक़्द रूपये दिए गए। मिठाइयों,कचौरियों पूरियों के थाल साथ हुए। इस तरह ये बहन भाई इन्आ’म-ओ-इकराम से माला-माल रुख़्सत हुई।”
इसके अ’लावा ज़फ़र की हर दिल-अ’ज़ीज़ी में बहुत कुछ दख़्ल उसकी मक़बूलियत-ए-आ’म शा’इरी को था।वो न सिर्फ़ सच्चा और अच्छा शा’इर था बल्कि उसकी शाइ’री दर्द-ए-दिल की शाइ’री थी जो हमारे हाँ बल्कि सारी दुनिया में दिल के उन तारों को छेड़ती है जो रिश्ता-ए-जान की हैसियत रखते हैं।यूँ तो ज़फ़र के कलाम में ख़ुसूसन इब्तिदाई कलाम में उस ज़माने के मज़ाक़ के मुताबिक़ “दर अय्याम-ए-जवानी चुनां कि उफ़्तद दानी’ की रंगीन तस्वीरें हैं मगर उसका अस्ल सरमाया वो मताअ’-ए-दर्द है जो उसने सारी उ’म्र दुख भर कर रंज-ओ-मुसीबत की कड़ियाँ सह कर जम्अ’ की और फिर दिल-नशीन और दिल-दोज़ शे’रों के सिक्कों में ढाल कर लुटा दिया।उसने उसे अ’वाम का महबूब शाइ’र बना दिया और उसकी ग़ज़लें और मुतफ़र्रिक़ शे’र लोगों की ज़बानों पर इस तरह चढ़ गए कि शायद नज़ीर अकबराबादी के सिवा किसी शाइ’र को ये बात नसीब नहीं हुई।उन ग़ज़लों को छोड़कर जो बच्चे बच्चे की ज़बान पर हैं चंद और शे’र नमूने के तौर पर आपको सुनाता हूँ:
शम्अ’ जलती है पर इस तर्ह कहाँ जलती है।
हड्डी हड्डी मिरी ऐ सोज़-ए-निहाँ जलती है।।
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और ज़्यादा भड़काते हो तुम तो आग मोहब्बत की।
सोज़िश-ए-दिल को ऐ अश्को क्या ख़ाक बुझाना सीखे हो।।
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ऐ असीरान-ए-ख़ाना-ए-ज़ंजीर।
तुमने याँ ग़ुल मचा के क्या पाया।।
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मर गए आकर छिड़क कर दाम से छूटे न हम।
दिल की दिल ही में तमन्ना-ए-रिहाई रह गई।।
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गया मंज़िल पे सारा क़ाफ़िला और राह-ए-ग़ुर्बत में।
हम आवाज़-ए-जरस की तर्ह से तन्हा भटकते हैं।।
एक और चीज़ जिसने ज़फ़र को मक़्बूल-ओ-महबूब बनाया वो ये कि वो ब-ज़ाहिर तख़्त-ए-सल्तनत पर जल्वा-अफ़रोज़ हो कर और मल्बूस-ए-शाही ज़ेब-तन कर के भी दिल से एक ख़िर्क़ा-पोश,बोरिया-नशीन फ़क़ीर था। शाही में फ़क़ीरी की अदा हिंदुस्तानियों के दिलों को इस तरह भाती है जैसे फ़क़ीरी में शाही की आन बान। वैराग या तर्क-ए-दुनिया की मज़हबी अ’ज़्मत तो अपनी जगह पर है लेकिन उस रुहानी रो’ब-ओ-जलाल के साथ साथ हमारे मुल्क के लोगों को उसमें एक रूमानी हुस्न-ओ-जमाल भी नज़र आता है। उस शख़्स के बारे में जो तैमूर,बाबर,अकबर,शाहजहाँ औरंगज़ेब की जहाँगीरी और जहाँदारी की रिवायात के साये में बढ़ा हो,दौलत-ओ-हश्मत,नाज़-ओ-नेअ’मत की गोद में पला हो,जब ये बात मशहूर हो कि वो माया के मोह को छोड़कर सर-चश्मा-ए-हक़ीक़त से लौ लगाना जानता था,मेहराब-ए-इ’बादत में सर झुकाने और माथा रगड़ने के मज़े से वाक़िफ़ था,नाला-ए-नीम-शबी और आह-ए-सहर-गाही की लज़्ज़त से आश्ना था तो क्या तअ’ज्जुब है कि फ़क़ीर दोस्त हिन्दुस्तानी क्या हिंदू क्या मुस्लमान उसकी याद को सीना से लगाए हैं और उसका नाम मेहब्बत और अ’क़ीदत से लेते हैं। ज़फ़र के कलाम से आप हसरत-ओ-यास,दर्द-ओ-अ’लम की लय में कुछ शे’र सुन चुके हैं।चंद उर्दू,फ़ारसी,हिन्दी शे’र जोग और साधना,फ़क़्र-ओ-दरवेशी की धुन में भी सुनिए:
और तो छोड़ा यहाँ का सब यहाँ
एक तेरा दाग़ हम लेकर चले
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न हरम में तुम्हारा है यार पता न सुराग़ दैर में है मिलता
कहाँ जाके देखूँ मैं जाऊँ किधर मिरा चैन गया मिरा नींद गई
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आँ चे बरूँ-ओ-दरूँ अस्त हमाँ अस्त हमाँ
राज़-ए-फ़ाश हम: ऊ-ओ-सित्र-ए-निहाँ हमः ऊस्त
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इस दुनिया के जितने धंदे सगरे गोरख धंदे हैं
उनके फंदे में न पड़ो तुम उनमें न उलझाओ जी
इन सब बातों के अ’लावा और शायद इन सबसे बढ़कर एक और बात है जिसकी ब-दौलत बहादुर शाह ज़फ़र रूमान के बाले का चाँद बन गए और वो उनकी जंग-ए-आज़ादी के हारे हुए हीरो की हैसियत है।शायद आप तअ’ज्जुब से कहें ये हारा हुआ हीरो क्या मा’नी।लेकिन हाफ़िज़ा पर ज़रासा ज़ोर दीजिए तो दुनिया की वाक़ई’ तारीख़ और अफ़्सानवी तारीख़ में आपको बे-शुमार हारे हुए हीरो नज़र आएँगे जिनका नाम बरसों से,सदीयों से मोहब्बत-ओ-अ’क़ीदत,इ’ज्जत-ओ-एहतिराम और फ़ख़्र-ओ-मबाहात के साथ लिया जाता है।ये वो लोग हैं जिन्हों ने हक़,नेकी,इन्साफ़ या आज़ादी की ख़ातिर अपने से बड़ी क़ुव्वतों से,इतनी बड़ी क़ुव्वतों से जिनके मुक़ाबला में वो किसी तरह फ़तह-मंद नहीं हो सकते थे जंग की और शिकस्त खाई,मगर वो मिसाल छोड़ गए कि हक़ ने ना-हक़ से लड़ते हुए सर कटा दिया मगर उसके आगे सर नहीं झुकाया।उन लोगों में अ’ज़्म-ओ-हिम्मत और शुजाअ’त का वो जौहर जिससे हीरो का किर्दार बनता है दुनिया के बड़े बड़े फ़ातिहों से कम न था।इस से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि उन्हें आ’रज़ी शिकस्त हुई।हाँ आ’रज़ी शिकस्त इसलिए कि क़तई’ और दाइमी शिकस्त तो हक़ की ख़ातिर लड़ने वालों को हो ही नहीं सकती।वो क़त्ल हो जाते हैं और उनका ख़ून बह कर ख़ाक में जज़्ब हो जाता है लेकिन उस ख़ाक से हक़ और आज़ादी के और मुजाहिद निकलते हैं यहाँ तक कि हक़ का बोल-बाला होता है और आज़ादी का झंडा सर चढ़ कर लहराता है।
हिंदुस्तानियों की नज़र में बहादुर शाह ज़फ़र के अंदर जंग-ए-आज़ादी के हीरो की शान जिन रिवायतों ने पैदा की है उनमें से एक ये है कि जब 82 साल के बूढ़े बहादुर शाह को ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज ने गिरफ़्तार कर लिया और संग-दिल हड्सन उसके तीन प्यारे बेटों मिर्ज़ा इस्माई’ल,अबू-बकर और ख़िज़्र सुल्तान के कटे हुए सर एक तश्त में रखे हुए उसके सामने लाया और बोला “लीजिए कंपनी की नज़्र जो बरसों से क़ैद थी पेश की जाती है”
तो बूढ़े बादशाह की झुकी कमर तन गई और उसने कहा “ख़ुदा का शुक्र है,तैमूरी औलाद इस तरह सुर्ख़-रु हो कर बाप के सामने आया करती है।”
ये है वो सल्तनत-ए-मुग़लिया का डूबता हुआ सूरज,वो दर्द-ए-दिल-ए-शाइ’र,वो बोरिया-नशीन फ़क़ीर,वो हारा हुआ हीरो जिसे अफ़्सानवी तारीख़ ने हिन्दुस्तानी अ’वाम के दिलों में इ’ज़्ज़त-ओ-एहतिराम के तख़्त पर बिठाया है,रूमान के जामे से सजाया है और मोहब्बत-ओ-अ’क़ीदत के हार पहनाए हैं।यक़ीन है कि जब तक हिंदुस्तानियों के दिल में वतन की मोहब्बत और आज़ादी का जज़्बा ज़िंदा है वो ज़फ़र की याद को ज़िंदा रखेंगे।
‘याद रखना फ़साना हैं ये लोग’
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(मुंदर्जा बाला मज़मून यौम-ए-ज़फ़र के मौके़’ पर लाल क़िला दिल्ली के दीवान-ए-आ’म में पढ़ा गया)
साभार – मुनादी पत्रिका
चित्र – विकिमीडिया कॉमन्स
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