सुल्तानुल-मशाइख़ और उनकी ता’लीमात-हज़रत मोहम्मद आयतुल्लाह जा’फ़री फुलवारवी

सुल्तानुल-मशाइख़ की शख़्सियत पर अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है इसलिए उनकी शख़्सियत के किसी नए गोशे का इन्किशाफ़ मुश्किल है।सीरत-ओ-शख़्सियत के किसी नए पहलु तक मुहक़्क़िक़ीन और अहल-ए-क़लम ही की रसाई हो सकती है।ख़ाकसार इसका अहल नहीं।ये चंद सतरें सुल्तानुल-मशाइख़ महबूब-ए-इलाही हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, क़ुद्दिसा सिर्रहु से अ’क़ीदत-ओ-मोहब्बत के नतीजे में और सिलसिला-ए-चिश्तिया निज़ामिया से तअ’ल्लुक़ की बिना पर पेश करने की सआ’दत हासिल की जा रही है।

आपकी विलादत बदायूँ की मर्दुम-ख़ेज़ ज़मीन में माह-ए-सफ़र के आख़िरी चहार शंबा 1228 ई’स्वी को हुई।हज़रत महबू-ए-इलाही पाँच साल के हुए तो आपके वालिद-ए-माजिद ने दाई’-ए-अजल को लब्बैक कहा।आपकी वालिदा माजिदा जो अपने वक़्त की बड़ी आ’बिदा-ओ-सालिहा थीं उन्होंने निहायत ख़ुश-उस्लूबी और बड़े एहतिमाम-ओ-तवज्जोह से आपकी तर्बियत फ़रमाई।किताब पढ़ने के क़ाबिल हुए तो शहर-ए-बदायूँ के मुमताज़ उ’लमा के सामने ज़ानू-ए-तलम्मुज़ तह किया।आपके असातिज़ा में सबसे नुमायाँ शख़्सियत हज़रत मौलाना अ’लाउद्दीन उसूली की है।बदायूँ में ता’लीम के इब्तिदाई मराहिल तय कर के बा-क़ाएदा तहसील-ओ-तकमील की ग़रज़ से सोला साल की उ’म्र में दिल्ली तशरीफ़ लाए और दिल्ली में रह कर ता’लीम हासिल करना शुरूअ’ किया।आप बड़े ज़हीन-ओ-फ़तीन थे।साथियों से ख़ूब इ’ल्मी मुनाज़रे करते।बह्स-ओ-इस्तिदलाल में आपका कोई हम-पल्ला न था और न मुक़ाबला की ताब ला सकता था।आप जिस इ’ल्मी मस्अले पर बह्स करते आपके रुफ़क़ा ला-जवाब हो जाते।ज़माना-ए-तालिब-ए-इ’ल्मी में ही आपके हम-दर्स आपके तबह्हुर-ए-इ’ल्मी का ए’तराफ़ करने लगे और आपको मौलाना निज़ामुद्दीन बह्हास और मौलाना निज़ामुद्दीन महफ़िल-शिक्न के लक़ब से पुकारने लगे थे।

तहसील-ए-इ’ल्म के बा’द आप शैख़-ए-कामिल और मुरब्बी-ए-जलील की तलाश में अजोधन तशरीफ़ ले गए।बाबा फ़रीदुद्दीन गंज शकर  की ख़ानक़ाह में तशरीफ़ लाए।जब आप हज़रत बाबा साहिब के पास पहुंचे तो बाबा साहिब ने आपको देख कर ये शे’र पढ़ा

ऐ आतिश-ए-फ़िराक़त दिल-हा कबाब कर्दः।

सैलाब-ए-इश्तियाक़त जाँ-हा ख़राब कर्दः।।

आपने अपने पीर-ओ-मुर्शिद की सोहबत में रह कर मदारिज-ए-सुलूक-ओ-तसव्वुफ़ बिल-ख़ुसूस अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ के दर्स-ए-ख़ास की तकमील कर के ख़िलाफ़त की सनद हासिल की।इसके बा’द आपको दिल्ली में क़याम करने का हुक्म मिला।

आपकी ता’लीमात ब-कसरत हैं और सूफ़िया-ए-हिंद के मुतअ’ल्लिक़ मा’लूमात का बेश-बहा ज़ख़ीरा आपके मल्फ़ूज़ात में मौजूद है,जिन्हें आपके दो फ़ैज़-याफ़्ता और दस्त-गिरफ़्ता बुज़ुर्गों ने जम्अ’ किया है।ख़्वाजा मीर हसन संजरी ने फ़वाइदुल फ़वाइद के नाम से और अमीर ख़ुसरौ किर्मानी ने सियरुल-औलिया के नाम से मल्फ़ूज़ात मुरत्तब किए।इनके मुतालए’ से महबूब-ए-इलाही के तबह्हुर-ए-इ’ल्मी और वुस्अ’त-ए-नज़र का हस्ब-ए-बिसात अंदाज़ा होता है।मा’मूली शरई’ मसाएल से लेकर आ’ला मक़ामात-ए-तसव्वुफ़ तक आपने मुख़्तलिफ़ औक़ात में निहायत आ’म-फ़हम अंदाज़ में लोगों को समझाया।ज़ुहर की नमाज़ के बा’द मज्लिस मुनअ’क़िद होती उसमें हज़रत इ’ल्मी निकात बयान करते।तफ़्सीर-ओ-हदीस और दूसरी किताबों का भी दर्स होता।हाज़िरीन सर झुकाए आपके इ’ल्मी अक़वाल से इस तरह महज़ूज़ होते गोया वो इ’ल्हामी बातें सुन रहे हैं।

हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़ ने अपने मुरीदीन-ओ-मो’तक़िदीन की इस्लाह-ओ-तर्बीयत बड़े एहतिमाम-ओ-तवज्जोह से फ़रमाई।आपके दस्त- गिरफ़्ता-ओ-तर्बियत-याफ़्ता मुरीदीन ने दरवेशी का दामन हाथ से नहीं छोड़ा और जाह-ओ-जलाल की किसी नुमाइश के मौक़ा’ पर कलिमा-ए-हक़ कहने से कभी बा’ज़ नहीं रहे।यही हक़ीक़ी तसव्वुफ़ का नतीजा और दरवेशान-ए-कामिल का शेवा है।हक़-गोई-ओ-बे-बाकी के ऐसे नमूने पेश किए जिसकी नज़ीर मिलनी आसान नहीं।

आईन-ए-जवाँ मर्दां हक़-गोई-ओ-बे-बाकी।

अल्लाह के शेरों को आती नहीं रूबाही।।

सिलसिला-ए-चिश्तिया के मशाइख़ ने बोरिया-नशीनी,फ़क़्र-ओ-दरवेशी और हुक्काम-ओ-सलातीन-ए-वक़्त की मुलाक़ात से एहतियात-ओ-गुरेज़ को अपना उसूल बनाया था और उनसे न सिर्फ़ ये कि दूर रहना पसंद करते थे बल्कि उनके तोहफ़े और नज़राने भी क़ुबूल नहीं फ़रमाते थे।उनकी ये रविश इस बात की तरफ़ इशारा थी कि सलातीन-ए-वक़्त की इमदाद-ओ-इआ’नत से फ़ुक़रा और सूफ़िया का तबक़ा मुस्तग़नी और बे-नियाज़ है।इस जमाअ’त ने अपने महबूब-ए-अज़ली और मा’शूक़-ए-हक़ीक़ी के आस्ताने पर सर रख दिया है।इनकी इ’ज़्ज़त-ओ-शोहरत-ओ-मक़्बूलियत शाहान-ए-अ’स्र की तवज्जोह-ओ-करम की मरहून-ए-मिन्नत नहीं है।ये हक़-पसंदों,हक़-परस्तों और हक़-गोयों की ग़ैरत-मंद जमाअ’त है।

चिश्ती बुज़ुर्गों की ये ख़ुसूसीयत रही है कि उन्होंने इस्लाह-ओ-तज़्किया-ए-नफ़्स के लिए तहरीर-ओ-तक़रीर को ज़रिआ’ बनाया।वो अपने इर्शादात-ओ-फ़र्मूदात और पंद-ओ-नसाएह के ज़रिआ’ इस्लाह फ़रमाते थे और इससे ज़्यादा उन बुज़ुर्गों की बा-बरकत सोहबतें लोगों के अख़्लाक़-ओ-आ’माल में तब्दीली का सबब होती थीं।

सुल्तानुल-मशाइख़ अपनी निजी मज्लिसों में हर तरह की इ’ल्मी-ओ-दीनी गुफ़्तुगू फ़रमाते थे।एक एक निशस्त में बे-शुमार इ’ल्मी गुत्थियाँ सुलझतीं।तसव्वुफ़-ओ-सुलूक के मसाएल बयान होते।तरीक़त के असरार और रुमूज़ से पर्दा उठता और बहुत सी इ’ल्मी-ओ-इ’र्फ़ानी शख़्सियतों के हालात पर पड़े हुए तारीख़ के गर्द-ओ-ग़ुबार साफ़ हो जाते।आपकी गुफ़्तुगू क्या थी।रंगा-रंग बयानात का मज्मूआ’ और हक़ाएक़ और मआ’रिफ़ का आईना थी।हदीस-ए-दीगराँ के पैराए में ख़ुद अपनी बात बयान फ़रमाते।इस में कोई शुबहा नहीं कि मल्फ़ूज़ात में सुल्तानुल-मशाइख़ के सही ख़द्द-ओ-ख़ाल नुमायाँ होते हैं और आपके ख़यालात और रुजहानात का पता चलता है।आपकी पुर-कशिश  शख़्सियत,इ’ल्मी फ़ज़्ल-ओ-कमाल,फ़क़्र-ओ-इ’रफ़ान और ख़ल्क़-ए-ख़ुदा के साथ शफ़क़त-ओ-मोहब्बत के सुलूक ने आपको अ’वाम-ओ-ख़्वास में ऐसा मक़्बूल बना दिया था कि सुब्ह से शाम तक आपकी ख़ानक़ाह में एक मज्मा’ रहता।रोज़ाना सैकड़ों हज़ारों की ता’दाद में आने वाले आपके फ़ुयूज़-ओ-बरकात से मुस्तफ़ीज़ हो कर जाते।वो अगर एक तरफ़ आपको इ’रफ़ान-ओ-विलायत और इख़्लास-ओ-लिल्लाहियत का हामिल अपनी आँखों से देखते होंगे तो दूसरी तरफ़ आपके कलिमात-ए-तय्यिबात अ’क़ीदत के कानों से सुनकर उनको महफ़ूज़ रखने की कोशिश करते होंगे।ज़ाहिर है कि सुल्तानुल-मशाइख़ के अहवाल-ओ-अक़वाल अपनी ज़ात तक महदूद नहीं रखते होंगे।ज़ौक़-ओ-शौक़ और ग़ायत-ए-ए’तिक़ाद का तक़ाज़ा है कि देखी और कानों से सुनी बातें दूसरों तक भी पहुंचा दी जाएं।सियरुल-औलिया की रिवायत से ये क़यास हक़्क़ीत से बहुत क़रीब मा’लूम होता है कि सुल्तानुल-मशाइख़ को समाअ’ की महफ़िलों में जिन अश्आ’र पर कैफ़ियत होती वो अश्आ’र दिल्ली के लोगों में मश्हूर हो जाते।कहने का मक़्सद ये है कि आपकी ता’लीमात का सिलसिला जारी था और उनको फैलाने का क़ुदरत ने ख़ुद इंतिज़ाम कर रखा था।इसलिए ये फ़ैसला नहीं किया जा सकता है कि जिन्हों ने आपकी बैअ’त का क़लादा अपने गर्दन में डाला और आपकी सोहबत इख़्तियार की सिर्फ़ वही इस्लाह-पज़ीर हुए बल्कि उनके अ’लावा उन लोगों की ता’दाद भी कम नहीं जिन्हों ने सुल्तानुल-मशाइख़ के पुर-असर कलिमात सुनकर और उनकी क़ल्बी कैफ़ियात का हाल जान कर अपनी ज़िंदगी का रुख़ बदल लिया।

आपके नज़दीक तज़्किया-ए-नफ़्स का हुसूल बैअ’त-ए-तरीक़त और सोहबत-ए-शैख़ पर मौक़ूफ़ था।इसीलिए इस्लाह-ओ-इर्शाद के लिए आपने यही राह इख़्तियार फ़रमाई।

मल्फ़ूज़ात में निस्बतन तसव्वुफ़-ओ-सुलूक के मसाइल ज़्यादा हैं।तरीक़त के आदाब-ओ-शराइत बेशतर मज्लिसों में बयान फ़रमाए हैं। गुफ़्तुगू के ज़िम्न में पीरान-ए-सिलसिला-ए-चिश्तिया-ओ-दीगर बुज़ुर्गों के वाक़िआ’त बतौर-ए-इस्तिशहाद बयान फ़रमाए हैं जिनसे इर्शादात में बड़ी तासीर पैदा हो गई है।असर-अंगेज़ वाक़िआ’त से कभी कभी ख़ुद बदौलत भी रो पड़ते थे।चुनाँचे एक मर्तबा हज़रत शैख़ अबू सई’द अबुल-ख़ैर का वाक़िआ’ बयान फ़रमाया कि वो एक मर्तबा किताब का मुतालआ’ करने लगे।इस पर हातिफ़ ने आवाज़ दी ऐ अबू सई’द हमारा मुआ’हदा लौटा दो क्योंकि तुम किसी दूसरी चीज़ में मश्ग़ूल हो गए हो।यहाँ तक पहुंच कर आप रोने लगे और ज़बान-ए-मुबारक से ये शे’र पढ़ा:

तू साय:-ए-दुश्मनी कुजा दर-गुंजी

जाई कि ख़याल-ए-दोस्त ज़हमत बाशद

फ़वाइदुल-फ़ुवाद की सातवीं मज्लिस में एक मर्तबा तर्क-ए-दुनिया की हक़ीक़त बयान करते हुए फ़रमाया कि तर्क-ए-दुनिया ये नहीं है कि कोई शख़्स कपड़े उतार कर बरहना हो जाए मसलन लँगोट बांध कर बैठ जाए।तर्क-ए-दुनिया ये है कि लिबास भी पहने,खाना भी खाए अलबत्ता उस के पास जो कुछ आए उसे ख़र्च करता रहे,जम्अ’ न करे।उसकी तरफ़ दिल राग़िब न हो और दिल को किसी चीज़ से वाबस्ता न करे।

एक दूसरे मौक़ा’ पर दुनिया और लज़्ज़तों को तर्क के बारे में इस तरह इफ़ादा फ़रमाया कि हिम्मत बुलंद रखनी चाहिए।दुनिया की आलाईश में मश्गूल नहीं होना चाहिए और ख़्वाहिशात-ए-नफ़्सानी से दस्त-कश रहना चाहिए। फिर शे’र पढ़ा:

यक लख़्त ज़े-शहवत कि दारी बर ख़ेज़।

ता ब-नशीनद हज़ार शाहिद पेशत।।

तर्जुमा:उस हवस से जो तुम्हारे अन्दर पैदा हो गई है एक लहज़ा से दस्त-कश हो कर उठ खड़े हो ताकि हज़ार मा’शूक़ तुम्हारे सामने आ बैठें।

फ़वाइदुल-फ़ुवाद की तेरहवीं मज्लिस में ताअ’त-ए-इलाही का ज़िक्र करते हुए नुक्ता बयान फ़रमाया एक ताअ’त लाज़िमी है और एक ताअ’त मुतअ’द्दी।लाज़िमी ताअ’त वह है जिसका फ़ायदा सिर्फ़ ताअ’त करने वाले ही के नफ़्स तक रहे और ये ताअ’त है नमाज़।हज,औराद वज़ाइफ़,तस्बीहात और इन्हीं की मानिंद दूसरी चीज़ें।मुतअ’द्दी ताअ’त वो है कि उससे दूसरे को मन्फ़अ’त और राहत पहुंचे।फिर जिसे ये राहत पहुंचे वो दूसरे पर लुत्फ़-ओ-करम करे।इसे ही मुतअ’द्दी ताअ’त कहते हैं।इस का सवाब बे-हद्द-ओ-हिसाब है।लाज़िमी ताअ’त में इख़्लास चाहिए अलबत्ता मुतअ’द्दी ताअ’त जिस सूरत में की जाए उस का सवाब मिलेगा।

आज-कल फ़हम-ए-क़ुरआन पर बहुत ज़ोर दिया जा रहा है।क़ुरआन की तफ़्सीरें बयान की जाती हैं।दर्स-ए-क़ुरआन की महफ़िलें मुनअ’क़िद होती हैं।लेकिन इस के बावजूद ए’तिक़ाद-ओ-आ’माल का बिगाड़,अख़्लाक़-ओ-किर्दार की ख़राबी अपनी जगह पर है।उ’लमा और दानिशवरों की बातें आप सुनते ही रहते हैं। हज़रत महबूब-ए-इलाही की ज़बान से भी तिलावत-ए-क़ुरआन के आदाब समाअ’त फ़रमईए। फ़रमाते हैं कि तिलावत-ए-क़ुरआन-ए-मजीद के मरातिब की आठ क़िस्में हैं।फिर पाँच किस्मों का ज़िक्र करते हुए फ़रमाया कि पहली क़िस्म ये है कि क़ुरआन पढ़ने वाले के दिल का ख़ुदा से तअ’ल्लुक़ हो अगर ये मयस्सर न हो तो चाहे जो कुछ पढ़े उसके मा’नी उसके दिल के अंदर उतरें।अगर ये भी मयस्सर न हो तो चाहिए कि क़ुरआन पढ़ते वक़्त ख़ुदा की अ’ज़्मत-ओ-जलाल का तसव्वुर दिल के अंदर उतरे।मर्तबा-ए-चहारुम के बारे में फ़रमाया कि तिलावत करते वक़्त तिलावत करने वाले पर ये एहसास ग़ालिब होना चाहिए कि क़ुरआन की इस दौलत के लाएक़ मैं कहाँ हूँ और इस दौलत का मैं कहाँ से अहल हूँ।अगर ऐसा हो तो तिलावत करने वाले को जानना चाहिए कि क़ुरआन की तिलावत का अज्र देने वाला ख़ुदा तआ’ला है ।(फ़वाइदुल-फ़ुवाद बाईस्वीं मज्लिस)।

क़ुरआन पढ़ने का तअ’ल्लुक़ अगर ख़ुदा से न हो और मा’नी-ए-क़ुरआन उस के दिल के अंदर न उतरे तो ऐसा पढ़ने से क्या फ़ाएदा।

हज़रत महबूब-ए-इलाही के इर्शाद में बड़ी मा’नवियत है। ब-क़ौल-ए-अ’ल्लामा इक़्बाल

तेरे ज़मीर पर जब तक न हो नुज़ूल-ए-किताब।

गिरह-कुशा है न राज़ी न साहिब-ए-कश्शाफ़

बैअ’त-ए-तरीक़त का उसूल बयान करते हुए एक मर्तबा फ़रमाया कि बा’ज़ लोग बैअ’त का तरीक़ा नहीं जानते हैं।एक से बैअ’त करते हैं फिर दूसरे से वाबस्ता हो जाते हैं।बा’ज़ लोग मशाइख़ के मज़ारों से बैअ’त करते हैं।हसन संजरी जामे-ए’-मल्फ़ूज़ात ने अ’र्ज़ किया कि बा’ज़ मशाइख़ के मज़ारों का क़स्द करते हैं। उस के पास बैठ कर सर मुंडाते हैं। क्या ये बैअ’त जाएज़ है।जवाब में अपने पीर-ओ-मुर्शिद से मुतअ’ल्लिक़ एक वाक़िआ’ बयान फ़रमाया कि शैख़ुल-इस्लाम बाबा फ़रीदुद्दीन के एक साहिब-ज़ादे शैख़ुल-इस्लाम क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के मज़ार के पाएंती में गए।वहाँ सर मुंडवाया और लोगों ने ये ख़बर हज़रत बाबा साहिब को दी। आपने फ़रमाया कि शैख़ क़ुतुबुद्दीन हमारे आक़ा-ओ-मख़दूम हैं लेकिन इस बैअ’त को सही क़रार नहीं दिया जा सकता।इरादत-ओ-बैअ’त ये है कि किसी शैख़-ओ-मुर्शिद का हाथ पकड़ लिया जाए।(चौबीसवीं मज्लिस फ़वाइदुल-फ़ुवाद)।

हज़रात-ए-सूफ़िया के बताए हुए औराद-ओ-अश्ग़ाल पर आज बड़े ए’तराज़ात हैं।उनको ग़ैर-शरई’ क़रार दिया जा रहा है हालाँकि सुल्तानुल-मशाइख़ का इर्शाद है कि किसी साहिब-ए-ने’मत के नफ़्स की बदौलत हासिल होने वाली इ’बादत और वज़ाइफ़ को अदा करने की राहत ही कुछ और है।फिर फ़रमाया कि बा’ज़ विर्द हैं जिन्हें मैंने ख़ुद अपने ऊपर लाज़िम किया है और बा’ज़ विर्द हैं जिन्हें मैंने अपने पीर-ओ-मुर्शिद से हासिल किया है। इन दोनों विर्द के अदा करते वक़्त जो राहत हासिल होती है उनमें ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ है।(मज्लिस चौदह फ़वाइदुल-फ़ुवाद।)

सुल्तानुल-मशाइख़ का विसाल18۔रबीउ’स्सानी 725 हिज्री में हुआ। उसी दिन दोपहर में आपकी तद्फ़ीन अ’मल में आई।हज़रत शैख़ रुकनुद्दीन मुल्तानी और हज़रत शैख़ नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी ने आपके जसद-ए-अतहर को क़ब्र में उतारा और आपके पीर-ओ-मुर्शिद के तबर्रुकात आपके शामिल किए गए।

सदियाँ गुज़र गईं लेकिन आज भी आपके फ़ैज़ान से कितने क़ुलूब बहरा-वर हो रहे हैं और कितने इन्सानों को दिल-ओ-निगाह की पाकीज़गी हासिल है।आपका फ़ैज़ जारी है और जारी रहे।

इलाही ता बुवद ख़ुर्शीद-ओ-माही।

चराग़-ए-चिश्तियाँ रा रौशनाई।।

साभार – मुनादी पत्रिका

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