सन्यासी फ़क़ीर आंदोलन – भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम

बात उस समय की है जब अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान पर अपना अधिकार जमाने के पश्चात इसे लूटना प्रारंभ कर दिया था । हिन्दुस्तान की जनता उनके तरह तरह के हथकंडों से परेशान हो चुकी थी. । अंग्रेजों ने अपने साथ यहाँ के जमींदारों और साहूकारों को भी मिला  लिया था और इनकी सांठ-गाँठ से देश की ग़रीब जनता त्रस्त थी । हिन्दुस्तान की जनता आखिरकार कब तक यह अत्याचार सहती? आखिरकार विद्रोह शुरू हो गए और अंग्रेज़ लुटेरों तथा उनके गुर्गे जमींदारों-साहूकारों को मार भगाने के प्रयास में जनता से जुट गयी । यह संग्राम देश का पहला स्वाधीनता संग्राम था और इस संग्राम के समय समय पर अनेक रूप दिखाई पड़े ।

पलासी और बक्सर के युद्धों में ब्रिटिश पूँजीवादियों की विजय के बाद ही हम किसानों और कारीगरों को इन नये लुटेरों और उनके समर्थक जमींदारों तथा साहूकारों से संघर्ष करते पाते हैं। उनका पहला विद्रोह इतिहास में संन्यासी-विद्रोह के नाम से मशहूर है। यह विद्रोह 1763 में बंगाल और बिहार में शुरु हुआ और 1800 तक चलता रहा।  

मुगलों के हाथों से जब सत्ता अंग्रेजों के पास गई, तो किसानों व जमींदारों से वसूले जानेवाले करों के हक़दार अंग्रेज हो गए किन्तु, दोनों की टैक्स वसूली का तरीका अलग था । अगर कोई कर नहीं दे पाता था, तो मुगल शासक के कारिंदे उसके नाम पर वो टैक्स चढ़ा देते और बाद में उससे वसूल करते थे ।अंग्रेजों ने टैक्स सिस्टम में बदलाव कर दिया । इसके तहत अगर कोई टैक्स देने में असमर्थ होता, तो अंग्रेज उसकी जमीन की बोली लगाकर बेच देते थे .इस व्यवस्था के विरोध में आंदोलन शुरू हो गए ।

ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने ने इस विद्रोह का नाम संन्यासी विद्रोह दिया था और इसे ‘हिन्दुस्तान के यायावरों का पेशेवर उपद्रव, दस्युता और डकैती’ बताया था। कितने ही इतिहासकारों ने हेस्टिंग्स के सुर में सुर मिलाया है लेकिन सरकारी दस्तावेजों की छानबीन करने से पता चल जाता है कि यह ब्रिटिश पूँजीवादियों और हिन्दुस्तानी जमींदारों के ख़िलाफ़ किसानों का विद्रोह था। विद्रोही सेना और विद्रोह के नेता जहाँ गये, साधारण किसानों ने उनका स्वागत किया, उनकी सहायता की और विद्रोही सेना में शामिल होकर उसकी शक्ति बढ़ायी। ये विद्रोही और कोई नहीं, मुगल साम्राज्य की सेना के बेकारी और भूख से पीड़ित सैनिक तथा भूमिहीन और गरीब किसान थे। हन्टर ने लिखा है कि ये जीवन-यापन के शेष उपाय का सहारा लेने को बाध्य हुए थे। ये तथाकथित गृहत्यागी और सर्वत्यागी संन्यासियों के रूप में पचास-पचास हजार के दल बनाकर पूरे देश में घूमा करते थे ।

सरकारी इतिहास और गजेटियर के रचयिताओं में प्रमुख तथा ब्रिटिश प्रशासक ओमैली ने हन्टर के मत को दोहराया है। उनके मतानुसार विद्रोही सेना बहुत से  सैनिकों की जीविका चली गयी, उनकी  संख्या लगभग 20 लाख थी। जमीन से बेदखल, सर्वहारा किसानों और कारीगरों ने उनकी संख्या बढ़ायी।

इस विद्रोह में मुख्यतः तीन शक्तियाँ शामिल थीः (1) प्रधानतः बंगाल और बिहार के कारीगर और किसान जिन्हें ब्रिटिश पूंजीवादियों ने तबाह कर दिया था, (2) मरते हुए मुगल साम्राज्य की सेना के बेकारी और भूख से पीड़ित सैनिक जो खुद किसानों के ही परिवार के थे, और (3) संन्यासी और फ़क़ीर जो बंगाल और बिहार में बस गये थे और किसानी में लग गये थे।

इस विद्रोह के मूल शक्ति किसान थे। बेकार और भूखे सैनिकों ने इन्हें सेना के रूप में संगठित कर संघर्ष को रूप दिया था । संन्यासियों और फ़क़ीरों ने आत्म बलिदान का आदर्श और विदेशी पूंजीवादियों से देश की स्वतंत्रता का लक्ष्य निर्धारित किया।

संन्यासियों और फ़क़ीरों ने संग्रामी किसानों और कारीगरों के सामने विदेशियों के चंगुल से देश की मुक्ति और धर्मरक्षा का आदर्श उपस्थित किया।

इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले मलंग दीवानगान-ए-आतिशी से बावस्ता थे ।यह सिलसिला मदारिया की एक शाखा है। मदारिया सिलसिला जाकर सैयद बदीउद्दीन शाह मदार से जुड़ता है जो शैख़ मुहम्मद तैफ़ूर बुस्तामी के मुरीद थे । इनकी दरगाह मकनपुर में स्थित है ।

कहा जाता है कि मशहूर फ़क़ीर मजनू शाह मलंग जो अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए दहशत का सबब बना हुआ था, लड़ाई पर जाने से पूर्व कुछ रहस्यमयी अग्नि क्रियाएं करता था । यह आंदोलन अंग्रेजों के लिए मुश्किल कई कारणों से था । पहला कारण तो यह था कि इन फ़क़ीरों के बीच सूचना का आदान प्रदान बड़ी ही तीव्र गति से होता था । दूसरा कारण था इन फ़क़ीरों के पास अपना कोई ठिकाना नहीं था इसलिए इन्हें ढूंढना बड़ा मुश्किल था। इन फ़क़ीरों और सन्यासियों की जनता में भी बहुत इज़्ज़त थी और इनका डर भी व्याप्त था इसलिए इनके बारे में मालूमात हासिल करना ख़ासा मुश्किल था।

सूफ़ियों और सन्यासियों ने लोगों को यह शिक्षा दी कि देश को मुक्त करना सबसे बड़ा धर्म है। पराधीन जाति की मुक्ति के लिए सर्वस्वत्याग, मातृभूमि में अचल ‘भक्ति, अन्याय के विनाश और न्याय की प्रतिष्ठा के लिए संन्यास  और प्रबल विदेशी शक्ति के विरुद्ध देशवासियों के एक होने का आह्वान – ये सब उस सबसे बड़े धर्म के पालन का सर्वोत्तम पथ है।

डॉ. भूपेन्द्र नाथ दत्त ने लिखा हैः ‘ढाका के रमना के काली मन्दिर के महाराष्ट्रीय स्वामी जी कहा करते थे कि संन्यासी योद्धा ‘ॐ बन्दे मातरम’ का रणनाद करते थे’।

बंगाल और बिहार में फैले इस विद्रोह के नेता मजनू शाह मलंग , मूसा शाह, चिराग़  अ’ली, भवानी पाठक, देवी चौधरानी, कृपानाथ, नूरुल मुहम्मद, पीताम्बर, अनूप नारायण, श्रीनिवास आदि थे । इनमें मजनू शाह मलंग की भूमिका सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है ।

ये विद्रोही सैकड़ों और हज़ारों की तादाद में अपने नेता के नेतृत्व में चलते थे । ईस्ट इंडिया कंपनी की कोठियों और जमींदारों की कचहरियों को लूटते और उनसे कर वसूल करते थे । ब्रिटिश शासकों ने उन्हें डकैत की संज्ञा दी, लेकिन बात इस के विपरीत थी। डकैत तो ब्रिटिश शासक थे, जो हिन्दुस्तान की जनता को लूट रहे थे, तबाह कर रहे थे। ये विद्रोही इन विदेशी डकैतों और उनके देशी छुटभइयों के खिलाफ लड़ रहे थे और  उन्हें भगाने की चेष्टा कर रहे थे । उन्होंने गरीबों की सताया हो इसका कहीं भी उदाहरण नहीं मिलता उल्टे दर्जनों उदाहरण मिलते हैं जहाँ किसानों ने विद्रोहियों की सक्रिय सहायता की, उन्हें रसद दी, रहने की जगह दी और उनके साथ मिलकर ब्रिटिश सेना का मुकाबिला किया।

सन्यासी फ़क़ीर विद्रोहियों का सबसे पहला हमला ढाका की ईस्ट इंडिया कम्पनी की कोठी पर हुआ । यह कोठी ढाका के जुलाहों, बुनकरों और कारीगरों पर हुए ज़ुल्मों का केन्द्र थी  इसीलिए विद्रोहियों ने ब्रिटिश सौदगरों की लूट के इस केन्द्र पर सबसे पहले आक्रमण किया । रात के अंधेरे में विद्रोहियों ने चारों तरफ से कोठी को घेर लिया। ॐ वन्दे-मातरम् का नारा बुलन्द कर, उन्होंने कोठी पर आक्रमण किया। कोठी के अंग्रेज़  अपनी धन-सम्पत्ति छोड़ पीछे के दरवाजे से नाव पर बैठ कर भाग निकले । कोठी के पहरेदार उनसे भी पहले भाग खड़े हुए। ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्ताधर्ता राबर्ट क्लाइव ने अंग्रेज़ सौदागरों की इस बुजदिली से नाराज होकर इस कोठी के व्यवस्थापक को पदच्युत कर दिया।

विद्रोही काफी दिनों तक इस कोठी पर कब्जा जमाये रहे। दिसम्बर 1763 के अन्त में कैप्टन ग्रान्ट नामक अंग्रेज़ सेनापति ने बड़ी सेना ले जाकर भयंकर युद्ध के बाद फिर से कोठी पर कब्जा किया।

विद्रोहियों का दूसरा हमला राजशाही जिले की रामपुर की अंग्रेज़ कोठी पर मार्च 1763 पर हुआ । वे कोठी की सारी धन-दौलत उठा ले गये। साथ ही उसके व्यवस्थापक बेनेट को कैद कर पटना भेज दिया गया । वहाँ बेनेट विद्रोहियों के हाथ मारा गया। 1764 में उन्होंने दोबारा हमला कर इस कोठी और स्थानीय जमींदारों को लूट लिया ।

कूचबिहार की गद्दी के लिए इस राज्य के सेनापति रुद्रनारायण और राजवंश के उत्तराधिकारी के बीच  मतभेद चल रहा था । रुद्रनारायण ने अंग्रेज़ों की सहायता मांगी जबकि राजवंश ने बाध्य होकर उत्तर बंगाल के विद्रोहियों की सहायता मांगी। अंग्रेज़ सेनापति लेफ्टिनेन्ट मॉरिसन के पहुँचने के पहले ही विद्रोहियों ने कूचबिहार पर कब्जा कर लिया। 1766 में दीनहट्टा में मॉरिसन की सेना के साथ युद्ध हुआ। विद्रोहियों के नेता संन्यासी रामानन्द गोसाईं थे। ज्यादा सेना और अच्छे अस्त्र-शस्त्रों के कारण अंगरेजों को विजय मिली, लेकिन दो दिन बाद ही फिर आठ सौ विद्रोही चढ़ आये। अंगरेजों की तोपों की मार के सामने फिर विद्रोहियों को पीछे हटना पड़ा। सम्मुख युद्ध में शत्रु को  पराजित करना असंभव देख विद्रोही छोटे-छोटे दलों में बंट गये और छापामार युद्ध की नीति अपनायी। पहले उन्होंने अंगरेज सेना को कमज़ोर किया और फिर अगस्त 1766 के अन्त में चार सौ विद्रोही मॉरिसन की मुख्य सेना पर टूट पड़े। घमासान युद्ध के बाद मॉरिसन की सेना पराजित होकर भाग खड़ी हुई। 30 अक्टूबर 1766 को एक पत्र में इस युद्ध का वर्णन करते हुए कैप्टेन रेनैल ने लिखाः-

“हमारी अश्वारोही रक्षक सेना के अधिक दूर जाते होते ही शत्रु नंगी तलवारें हाथ में लिए गुप्त स्थान से अकस्मात् निकल पड़े। मॉरिसन किसी तरह भागने में समर्थ हुए। मेरा भाई सेनापति रिचर्ड कुछ घायल होकर प्राण लेकर भागा। मेरा अर्मीनियाई साथी मारा गया और एडजुटेन्ट बुरी तरह घायल हुआ। तलवार के आघात से मेरे दोनों हाथ बेकाम हो गये हैं और मेरी हालत शोचनीय हो गयी है’’।

1767 में संन्यासी विद्रोह के प्रधान केन्द्र पटना के आसपास के क्षेत्रों में भी विद्रोहियों की एक बड़ी सेना गठित हुई। इस सेना ने पटना की ईस्ट इंडिया कंपनी की कोठी और अंगरेजों के वफादार जमीन्दारों को लूट लिया। कंपनी की सरकार का कर वसूल करना मुश्किल हो गया। सारन जिले में पाँच हजार विद्रोहियों की संगठित सेना ने आक्रमण किया। कंपनी की दो सेनाओं के साथ इसका भयंकर युद्ध हुआ। पहले युद्ध में अंगरेज पराजित हुए। विद्रोहियों ने इस जिले के किले पर अधिकार कर लिया, किन्तु कुछ दिनों के बाद तोपों के साथ कंपनी की एक बड़ी सेना आ पहुँची। पराजित होकर विद्रोहियों को किले से हट जाना पड़ा।

इसी बीच उत्तर बंगाल में तराई के जंगल में विद्रोही आ जमा हुए। तब से उत्तर बंगाल संन्यासी विद्रोह का प्रधान केन्द्र बन गया। विद्रोहियों ने जलपाईगुड़ी जिले में एक किला बनाया। किले के चारो ओर चहारदीवारी और उसके चारों ओर खाई बनायी गयी।

1766 में उत्तर बंगाल और नेपाल की सीमा के पास अंग्रेज़ों का प्रतिनिधि मार्टेल कई लोगों को लेकर लकड़ी कटवाने गया। विद्रोहियों ने उसे गिरफ्तार कर लिया। उनकी अदालत में मार्टेल पर मुक़दमा चला और मृत्यु दंड दिया गया। यह समाचार पाकर कैप्टेन मैकेंजी सेना लेकर उनका दमन करने आया। विद्रोही जंगल में और अंदर चले गये। 1769 में फिर मैकेंजी सेना लेकर आया। विद्रोही फिर उत्तर की ओर हट गये। किन्तु सर्दी आरंभ होते ही वे अंग्रेज़ी सेना पर टूट पड़े और रंगपुर तक आगे बढ़ आये। सेनापति लेफ्टिनेन्ट किथ बड़ी सेना के साथ मैकेंजी की मदद के लिए पहुँचा। विद्रोहियों ने फिर पीछे हटने और अंगरेज सेना को जंगल में खींच ले जाने की नीति अपनायी। दिसम्बर 1769 में विद्रोही सारी ताकत के साथ नेपाल की सीमा के मोरंग अंचल में अंगरेज सेना पर टूट पड़े। किथ मारा गया, पूरी अंगरेज सेना नष्ट हो गयी।

1770-71 में बिहार के पूर्णिया जिले में विद्रोहियों ने नया आक्रमण आरंभ किया। अंगरेजों ने मुकाबले के लिए बड़ी सेना इकट्ठा कर रखी थी। फलतः वे विद्रोहियों को हराने और 500 विद्रोहियों को कैद करने में सफल हुए। इन कैदियों से अंग्रेज़  अधिकारी विद्रोहियों के बारे में जो तथ्य संग्रह कर सके, वे मुर्शिदाबाद के रेवेन्यू बोर्ड के पास भेजे गये। इन तथ्यों से ज्ञात हुआ कि सभी कैदी स्थानीय किसान थे। वे सभी शान्तिप्रिय और सीधे-सादे नागरिक थे, उनका नेता भी स्थानीय किसान था। सभी विद्रोही उसे जानते थे और प्यार करते थे।

इसी समय दिनाजपुर में पाँच हजार विद्रोहियों की सेना के गठन और रंगपुर, दिनाजपुर तथा मैमनसिंह के विद्रोहियों के बीच घनिष्ठ संपर्क के प्रमाण पाये जाते हैं। फरवरी 1771 में ढाका जिले के विभिन्न स्थानों में अंगरेजों की कोठियाँ और जमींदारों की कचहरियाँ लूटी गयीं।

उत्तर बंगाल में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए विद्रोही नेताओं  ने दिनाजपुर, बगुड़ा और जलपाईगुड़ी जिलों में कई दुर्ग बनाये। इनमें प्राचीन नगर महास्थान गढ़ और पौण्ड्रवर्द्धन के दुर्ग विशेष उल्लेखनीय है। फरवरी 1771 के अन्त में मजनू शाह के नेतृत्व में ढ़ाई हजार विद्रोहियों की सेना ने लेफ्टिनेट टेलर की बड़ी अंग्रेज़ी सेना का सामना किया। विद्रोहियों की हार के बाद मजनू शाह ने महास्थान गढ़ में शरण ली और बाद में उन्हें संगठित करने के लिए बिहार चले गये।

1771 की शरद ऋतु में उत्तर बंगाल में फिर विद्रोही इकट्ठा हुए। पटना अंचल से एक बड़ी सेना उत्तर बंगाल आयी। इन विद्रोहियों ने उत्तर बंगाल की कंपनी की कोठियों और अत्याचारी धनियों तथा जमीन्दारों को लूटा। विद्रोहियों के आक्रमण के बारे में एक दिलचस्प पत्र पढ़िएः

“मेरा हरकारा ख़बर ले आया कि कल फ़क़ीरों का एक बड़ा दल सिलबेरी (बगुड़ा जिला) के एक गाँव में आकर इकट्ठा हुआ। उनके नेता मजनू शाह मलंग ने अपने अनुयायियों को कठोर आदेश दिया कि वे आम जनता पर कोई अत्याचार या बल प्रयोग न करें। आम जनता जो कुछ अपनी इच्छा से देती है उसे छोड़कर और कुछ न लें। लेकिन मुझे खबर मिली है कि उन्होंने दयाराम राय के अधिकार के नूरनगर गाँव की कचहरी से पाँच सौ रुपए और जनसिन परगने की कचहरी से सोलह सौ नब्बे रुपये लूट लिये हैं। अन्तिम कचहरी के सभी कर्मचारी विद्रोहियों के आगमन का समाचार सुनते ही सब रुपया-पैसा, माल-असबाब छोड़कर भाग गये’’।

यह पत्र नाटोर के सुपरवाइजर ने 25 जनवरी 1772 को रेवेन्यू कौंसिल के नाम लिखा। इसके बाद उसने एक पत्र भेजकर सूचित किया कि ग्रामवासियों ने खुद आगे बढ़कर विद्रोहियों के जाने-पीने का इंतजाम किया है। बहुत से किसान विद्रोहियों के दल में शामिल हो गये हैं। किसानों ने ब्रिटिश शासकों को कर देना बन्द कर दिया है। गाँववासी अंग्रेज़ों को देने वाला कर विद्रोहियों को सौंप रहे हैं। सुपरवाइजर का यह पत्र सूचित करता है कि विद्रोही ब्रिटिश शासकों और अत्याचारी जमीन्दारों को लूटते थे, लेकिन आम जनता के साथ अच्छा बर्ताव करते थे। अपने इसी व्यवहार के कारण वे बड़े जनप्रिय थे।

1773 में विद्रोहियों का प्रधान कार्यक्षेत्र रंगपुर था । इन विद्रोहियों का दमन करने के लिए अंगरेज सेनापति टामस बड़ी भारी सेना लेकर आया। 30 दिसम्बर 1772 को प्रातःकाल रंगपुर शहर के नजदीक श्यामगंज के मैदान में उसने विद्रोहियों पर आक्रमण आरंभ किया। विद्रोहियों के चतुर नेताओं ने हार कर भागने का बहाना किया और टॉमस की सेना को पास के जंगल में खींच ले गये। विजय के आनन्द में अंगरेज सेना ने गोला, गोली आदि समाप्त कर दिये। इसके बाद ही विद्रोही घूमकर अंगरेज सेना पर टूट पड़े और चारों तरफ से उसे घेर लिया। इस अंचल के सब गावों के किसान तीर-धनुष, भाला-बल्लम, लाठी-डंडा लेकर आ पहुँचे और विद्रोहियों के साथ मिलकर अंगरेज सेना पर हमला करने लगे। सेनापति टॉमस ने अपनी सेना के देशी सिपाहियों को जवाबी हमला करने का हुक्म दिया, लेकिन इन सिपाहियों ने अपने देश के किसानों पर आक्रमण करने से इन्कार कर दिया। थोड़ी देर में ही अंगरेज सेना हार कर भाग खड़ी हुई। टॉमस मारा गया। इस घटना पर अफसोस करते हुए रंगपुर के सुपरवाइजर पालिंग ने रेवेन्यू कौंसिल के पास 31 दिसम्बर 1772 को लिखाः-

“किसानों ने हमारी सहायता तो की नहीं, बल्कि उन्होंने लाठी आदि लेकर संन्यासियों की तरफ से युद्ध किया। जो अंगरेज सैनिक जंगल की लंबी झाड़ियों के अन्दर छिपे थे, किसानों ने उन्हें खोजकर बाहर निकाला और मौत के घाट उतारा। जो भी अंगरेज सैनिक गाँव में घुसे, किसानों ने उनकी हत्या की और बन्दूकों पर कब्जा किया’’।

किसान किस तरह विद्रोहियों का साथ देते थे, यह पत्र इसका जीता जागता प्रमाण है।

1 मार्च 1773 को तीन हजार विद्रोहियों ने मैमनसिंह जिले में अंग्रेज़ सेनापति कैप्टेन एडवर्ड्स की सेना नष्ट कर दी। खुद एडवर्ड्स मारा गया। सिर्फ बारह सैनिक बचकर भाग सके। इस युद्ध में एक देशी सूबेदार ने कई सिपाहियों को साथ लेकर विद्रोहियों की मदद की थी। बाद में ये अंगरेजो के हाथ पड़ गये और तोप से उड़ा दिये गये।

विद्रोहियों के कार्यकलापों और उनके साथ किसानों के सहयोग को बढ़ता देख गवर्नर होस्टिंग्स ने घोषणा की कि जिस गाँव के किसान विद्रोहियों के बारे में ब्रिटिश शासकों को खबर देने से इन्कार करेंगे और विद्रोहियों की मदद करेंगे, उन्हें गुलामों की तरह बेच दिया जायेगा। इस घोषणा के अनुसार कई हजार किसानों को गुलाम बना दिया गया। कितने ही किसानों को बीच गाँव में फांसी दी गयी और लाश को लटका कर रखा गया ताकि किसान डर जायँ। विद्रोही होने या विद्रोही के साथ सम्पर्क रखने का सन्देह होते ही बिना मामला-मुकदमा फांसी पर लटका देने की घटनाएँ पायी जाती है। जिन्हें फांसी दी जाती, उनके परिवार के सब लोगों को हमेशा के लिए गुलाम बना दिया जाता।

1774-75 में मजनू शाह मलंग ने बिहार और बंगाल के विद्रोहियों को फिर से संगठित करने की कोशिश की। 15 नवम्बर 1776 को मजनू की सेना और कंपनी की सेना के बीच टक्कर उत्तर बंगाल में हुई। अंग्रेज़ी सेना चुपचाप विद्रोहियों के शिविर के पास पहुँच गयी थी। विद्रोही पहले पीछे हटे और अंग्रेज़ी सेना को जंगल की तरफ खींच ले गये। फिर अचानक घूमकर अंग्रेज़ी सेना पर टूट पड़े। कई अंग्रेज़ी सैनिक मारे गये और अंग्रेज़ सेनापति लेफ्टिनेन्ट राबर्टसन गोली की चोट से घायल हो गया। इस तरह अंग्रेज़ी सेना के हाथ से निकल जाने में मजनू शाह और उनके साथी कामयाब हुए।

मजनू शाह ने कई साल बिहार और बंगाल में घूम-घूमकर विद्रोहियों को संगठित करने का प्रयास किया । सेना के लिए कितने ही जमीन्दारों से कर भी वसूल किया। अंग्रेज़ शासकों ने उन्हें पकड़ने की बार-बार कोशिश की, पर असफल रहे।

29 दिसम्बर 1786 को अंग्रेज़ो से युद्ध करते हुए उनका घेरा तोड़कर निकलने में मजनू शाह सख्त़ घायल हुए और एक आध दिन बाद ही संन्यासी विद्रोह के इस सर्वश्रेष्ठ नेता की मृत्यु हो गयी।

मलंगों की तज्हीज़ ओ तकफ़ीन बाकी मदारिया फ़क़ीरों से अलग होती हैं । मदारिया की दूसरी शाखाओं जैसे ख़ादिमान, आशिक़ान और तालिबान में मृत शरीर को दफ़नाया जाता है, जबकि मलंगों में उनकी जटा या भीक को काट कर उसे अलग दफनाया जाता हैं और शरीर को अलग दफ़न किया जाता है । उदाहरणार्थ – मजनू शाह मलंग की दो क़ब्रें  हैं जो मकनपुर में स्थित हैं । एक में उनकी जटा दफ़न हैं और दूसरे में शरीर । कहा जाता है की मजनू शाह ने खुद कई मलंगों को इस तरीके के दफ़नाया था जो सन्यासी फ़क़ीर आंदोलन के दौरान शहीद हुए थे ।

इसके बाद संन्यासी विद्रोह से प्रायः अलग हो गये, किन्तु फ़क़ीर मूसा शाह के, जो मजनू शाह के शिष्य और भाई थे, नेतृत्व में विद्रोह चलाते रहे। मजनू शाह के दुसरे मुरीद भी थे परन्तु कहा जाता है कि नेता बनने की चाह में इनमे से ही एक मुरीद ने मूसा शाह का क़त्ल कर दिया।

जून 1787 से विद्रोहियों के विख्यात नेता भवानी पाठक और देवी चौधरानी का उल्लेख मिलता है। आखिर में एक दिन भवानी पाठक अपनी छोटी टुकड़ी के साथ, अंगरेजों की विशाल सेना के घेरे में पड़ गये। जल युद्ध में भवानी पाठक और उनके साथी मारे गये। देवी चौधरानी इसके बाद भी लड़ती रहीं, पर आखिर में उनका क्या हुआ, अज्ञात है।

सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक इस विद्रोह का उल्लेख मिलता है। बंगाल के उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने आनन्द मठ में संन्यासी विद्रोह का जो चित्रण किया है, वास्तविक रूप उससे भिन्न था। फिर भी आनन्द मठ बंगाल के मध्यवर्ग के उग्रवादियों का बाइबल और संन्यासी विद्रोह उनका आदर्श बना।

मजनू शाह मलंग के उल्लेखनीय योगदान और इनकी देशभक्ति को सलाम करते हुए बांग्लादेश में उनके नाम पर एक पुल का नाम रखा गया है ।

-Suman Mishra

Twitter Feeds

Facebook Feeds