
हज़रत पीर नसीरुद्दीन “नसीर”
“बात इतनी है और कुछ भी नहीं”
हज़रत पीर नसीरुद्दीन ‘नसीर’ मशहूर शाइर, अदीब, रिसर्चदाँ, ख़तीब, आलिम और गोलड़ा शरीफ़ की दरगाह के सज्जादा-नशीन थे। वो उर्दू, फ़ारसी, पंजाबी के साथ-साथ अरबी, हिन्दी, पूरबी और सरायकी ज़बानों में भी शाइरी करते थे, इसीलिए उन्हें “सात ज़बानों वाला शाइर” के नाम से भी याद किया जाता है।
पीर नसीरुद्दीन ‘नसीर’, हज़रत पीर मेहर अली शाह के पड़-पोते, हज़रत ग़ुलाम मुहीउद्दीन (बाबू जी) के पोते और हज़रत ग़ुलाम मुईनुद्दीन (बड़े लाला जी) के बेटे थे। आपका नसब 28 वास्तों से जाकर हज़रत शैख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी से और 39 वास्तों से जाकर हज़रत इमाम हसन से जा मिलता है। ये घराना तो क़ादरियों का है, मगर पीर नसीर का सिलसिला ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का है।
22 मुहर्रम 1369 हिज्री (14 नवंबर सन् 1949 ई.) को गोलड़ा, इस्लामाबाद में पैदा हुए पीर नसीरुद्दीन ‘नसीर’ का इंतिक़ाल 17 सफ़र 1430 हिज्री (13 फ़रवरी 2009) को हुआ। आपका मज़ार गोलड़ा शरीफ़ में है। अभी हाल ही में आपके ताबूत को निकाल कर पीर मेहर अली के पहलू में दोबारा दफ़नाया गया है।
पीर नसीरुद्दीन नसीर बेहतरीन अदीब थे। उनके शेर-ओ-शाइरी से लगाव और ज़बान के माहिर होने की वजह से उनकी शोहरत आम लोगों से लेकर अदीब-ओ-शोअरा में भी है। उन्होंने मज़हब, इस्लाह, अदब और रिसर्च पर भी किताबें लिखीं। उनकी शाइरी और तक़रीर की ख़ासियत के चलते हज़ारों लोग आज भी उनके दीवाने हैं। उन्होंने जिस भी मौज़ू (विषय) पर लिखना शुरू किया, उस पर बेहतरीन ढंग से रौशनी डाली। उनका चीज़ों को बयाँ करने का तरीक़ा, नस्र (गद्य) और नज़्म (पद्य) दोनों का ही एक अलग अंदाज़ है, लेकिन इस से भी बड़ी बात ये है कि उनके अनोखे अंदाज़-ए-बयाँ से उनके ख़्याल, एहसास और सच्चे जज़्बात खुलकर सामने आते हैं। उनके लिखे हुए जज़्बात अपनी अस्ल शक्ल में इस तरह दिखाई देते हैं कि पढ़ने वालों के दिल सहरज़दा हो जाते हैं। उनकी तहरीर-ओ-तक़रीर में भी इस का नमूना देखा जा सकता है।
पीर ‘नसीर’ एक शानदार मुक़र्रिर (वक्ता) थे। वो घंटों तक बोलते रहते और हज़ारों लोगों का मजमा एक पल को भी न उकताता, बल्कि लोग बहुत लगन से उनकी बात सुनते। पीर नसीर शाइरी के भी माहिर थे, इसलिए बयान के दौरान भी वो शेर कहते रहते थे। शाइरी, उन पर किसी ख़ुदाई तोहफ़े की तरह उतरती थी।
अपने वक़्त में पीर ‘नसीर’ उस दौर के बड़े ना’त कहने वाले शाइर में गिने जाते थे। उनकी ना’तिया शाइरी, रिवायती तरीक़े से हट कर पैगम्बर हज़रत मुहम्मद की ज़िदंगी के अलग-अलग पहलुओं पर बात करती है। एक नमूना देखें-
आया है ‘नसीर’ आज तमन्ना यही ले कर
पलकों से किए जाए सफ़ाई तेरे दर की
लोग मानते हैं कि ना’त कहना दो-धारी तलवार पर चलने जैसा है, क्योंकि यह पैगम्बर हज़रत मुहम्मद पर मबनी होती है। जिसके लिए बहुत अदब की ज़रूरत होती है। इस वजह से चंद ही शाइर इस सिन्फ़ मे शाइरी करते हैं। पीर नसीर ख़ुद एक जगह लिखते हैं-
“ना’त का मौज़ू ब-ज़ाहिर छोटा दिखाई देता है, मगर उस का मौज़ू चूँकि ऐसी अज़ीम हस्ती है, जिस में तमाम अन्फ़ुस-ओ-आफ़ाक़ की वुसअतें सिमट आई हैं, इसलिए ये सिन्फ़ शे’र हद दर्जा ला-महदूद और वसीअ भी है।”
पीर नसीर ने अपने लिखे हर ना’तिया शे’र को मुहब्बत और चाहत के जज़्बात से पुर करके, ना’त को मुकम्मल किया है। एक नातिया शेर देखें-
उन्हें मेरे अच्छे बुरे की ख़बर है
वो सब कुछ ख़ुदा की क़सम जानते हैं
पीर नसीर, बीसवीं सदी में पाकिस्तान की अज़ीम हस्तियों में से एक थे। उनके अंदर शाइरी का जज़्बा कोई नया नहीं था, बल्कि उनकी कई पीढ़ियाँ शाइरी करती चली आ रही थीं। पीर नसीर के पर-दादा ‘पीर मेहर अली शाह’ भी पंजाबी ज़बान के एक बेहतरीन शाइर थे, जिनका ये शे’र काफ़ी मशहूर है-
कित्थे मेहर अली कित्थे तेरी सना
गुस्ताख़ अँखियाँ कित्थे जा लड़ियाँ
इसी तरह पीर नसीर के दादा हज़रत ग़ुलाम मुहीउद्दीन (बाबू जी) और उनके बेटे हज़रत ग़ुलाम मुईनुद्दीन, जिनका तख़ल्लुस “मुश्ताक़” था, दोनों को शाइरी से ख़ास लगाव था। ऐसे माहौल में पीर नसीर के अंदर भी शाइरी का जज़्बा पैदा हुआ। पीर नसीर ने यूनिवर्सिटी या बड़ी दर्सगाह से तालीम-ओ-तर्बीयत हासिल नहीं की, बल्कि अपने बुज़ुर्गों की संगत और उस वक़्त के बड़े आलिम और पीर मेहर अली शाह के मुरीद मौलाना फ़तह मुहम्मद और मौलाना फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से इल्म हासिल किया। उन्होंने इल्म-ए-तजवीद, गोलड़ा के इमाम क़ारी महबूब अ’ली लखनवी से सीखा। उनके दादा हज़रत ग़ुलाम मुहीउद्दीन (बाबू जी) ने बचपन ही से उनकी अच्छी तरबियत की। पीर नसीर अपने दादा के ही मुरीद और ख़लीफ़ा हुए। उनके बारे में नसीर कहते हैं कि-
कौन है मेरे सिवा साहिब-ए-तक़दीर ऐसा
मिल गया मेरे मुक़द्दर से मुझे पीर ऐसा
क्यों ना नाज़ हो मुझे अपने मुक़द्दर पे भला
पीर ऐसा है मेरे पीर का है पीर ऐसा
जिन लोगों ने उनके दादा को देखा है, वो इस बात की तस्दीक़ कर सकते हैं कि पीर नसीर की शक्ल-ओ-सूरत बिलकुल अपने दादा से मिलती थी। उन्होंने अपने हाथों से पीर नसीर की परवरिश की। पीर नसीर लिखते हैं कि-
’’ज़र्रा नवाज़ी और हौसला-अफ़ज़ाई देखिए कि मेरे दादा हज़रत बाबू जी अक्सर-ओ-बेशतर मेरी फ़ारसी और उर्दू ग़ज़लों को पसंद फ़रमाते और दरगाह के देरीना क़व्वाल उस्ताद महबूब अली और मुश्ताक़ अली से सुना करते थे”
एक और जगह वो लिखते हैं कि-
’’मुझे याद है कि मेरे शाइरी करने के बिल्कुल शुरुआती ज़माने में हज़रत पीर मेहर अली शाह के एक मुख़लिस मुरीद शेर मुहम्मद मिस्त्री अक्सर मुझे ग़ालिब के अशआर सुनाया करते थे”
पीर नसीर गोलड़ा शरीफ़ में उर्स के दौरान होने वाले तरही मुशायरे में लगातार शिरकत करते और इस तरह उनकी शाइरी बेहतर होती चली गई। जिन दिनों पीर नसीर एक शाइर के तौर पर परवान चढ़ रहे थे, और उनका शे’र कहने का जौक़ दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था, तब जब भी कोई नई ग़ज़ल कहते, तो उनके दादा हज़रत ग़ुलाम मुहीउद्दीन (बाबू जी) कव्वालों से धुन के साथ उनकी ग़ज़लें सुनते थे। इस तरह नसीर की शाइरी बुलंदियों को छूने लगी। उनके लिखे कुछ कलाम पढ़िए और अपने दिल को इत्मीनान बख़्शिए-
बेताब हैं, शशदर हैं, परीशान बहुत हैं
क्यूँ-कर ना हूँ, दिल एक है, अरमान बहुत हैं
क्यों याद ना रखूँ तुझे ए दुश्मन-ए-पिनहां
आख़िर मिरे सर पर तिरे एहसान बहुत हैं
ढूँढ़ो तो कोई काम का बँदा नहीं मिलता
कहने को तो इस दौर में इन्सान बहुत हैं
अल्लाह उसे पार लगाए तो लगाए
कश्ती मिरी कमज़ोर है तूफ़ान बहुत हैं
अरमानों की इक भीड़ लगी रहती है दिन रात
दिल-ए-तंग नहीं, ख़ैर से मेहमान बहुत हैं
देखें तुझे, ये होश कहाँ अहल-ए-नज़र को
तस्वीर तिरी देखकर हैरान बहुत हैं
यूँ मिलते हैं, जैसे ना कोई जान ना पहचान
दानिस्ता ‘नसीर’ आज वो अंजान बहुत हैं
उनके बारे में रईस अमरोहवी लिखते हैं कि-
“पीर नसीर एक मुमताज़-तरीन रुहानी घराने के चश्म-ओ-चिराग़ हैं। उनकी क़लंदरी और दरवेशी में किसे शुब्हा हो सकता है? उनकी फ़ारसी रुबा’ईयात का मुताला करें, तो आलम ही दूसरा नज़र आता है। ऐसा महसूस होता है कि उनके क़ल्ब में मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर बेदिल अज़ीमाबादी की आवाज़ गूंज रही है और उनके लहजे में बेदिल ही बोल रहे हैं”
डॉ.अब्दुल्लाह लिखते हैं कि-
“पीर नसीर ग़ज़ल की क्लासिकी रिवायतों में पले हुए शाइर हैं, लिहाज़ा उनकी ग़ज़ल सुख़न की रिवायात की पाबंद है। उनकी ग़ज़लियात में रदीफ़ों की शान पाई जाती है, जिन में ज़िंदगी की हक़ीक़तों और क़ल्ब-ए-इन्सानी की लताफ़तों को ब-अंदाज़-ए-ख़ुश पेश किया गया है। ज़बान की शीरीनी और बयान की ख़ूबी इस पर मुस्तज़ाद है। नौजवानी में किसी की इतनी पुख़्ता शाइरी मैंने बहुत कम देखी और पढ़ी है”
वो हमारे हम उन के हो जाएँ
बात इतनी है और कुछ भी नहीं
इस बात में कोई शुब्हा नहीं है कि जिस तरह पीर नसीर, मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर बेदिल का कलाम समझाते थे, वैसा कोई दूसरा नहीं समझा सकता था। उन्हें बेदिल के अलावा रूमी, सा’दी, जामी, इराक़ी, गंजवी, उर्फ़ी, सायब, ग़नी, हाफ़िज़, ख़ुसरौ और बाहू आदि के दर्जनों अश’आर याद थे, बल्कि उर्दू शो’रा की दर्जनों ग़ज़लें भी अच्छी तरह याद थीं। वो अपनी तक़रीर में अपनी ग़ज़लों के अलावा असातिज़ा की ग़ज़लें भी बड़े शौक़ से सुनाया करते थे।
किताबों की बात करें, तो पीर नसीर की सबसे पहली किताब “आग़ोश-ए-हैरत” है इसमें फ़ारसी रुबा’ईयात है। इस मजमुए की तररतीब और छपाई कौकब नूरानी औकाड़वी ने की थी। ”आग़ोश-ए-हैरत” पढ़कर, उसकी तारीफ़ करते हुए पीर नसीर को मुबारक-बाद का ख़त भेजने वाले सबसे पहले शख़्स मौलाना सय्यद अबुल हसन नदवी थे। सय्यद अब्दुल हसन नदवी उस वक़्त के अहम अदीब में शुमार होते थे। तब पीर नसीर की उम्र ब-मुश्किल 27 बरस थी और उन्हें हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बड़े-बड़े आलिम व अदीब ने इस मजमुए को पढ़कर मुबारक-बाद भेजी।
फ़ारसी शाइरी कैसी थी, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी 300 फ़ारसी रुबा’ईयात को ईरान की यूनिवर्सिटी ने M.A. के सिलेबस में शामिल किया है।
पीर नसीर की प्रमुख किताबों के नाम हैं-
आग़ोश-ए-हैरत (फ़ारसी रुबा’ईयात)
रंग-ए-निज़ाम (उर्दू रुबा’ईयात)
पैमान-ए-शब (उर्दू ग़ज़ल)
दस्त-ए-नज़र (उर्दू ग़ज़ल)
दीं हमा उस्त (अरबी, फ़ारसी, उर्दू, पंजाबी ज़बान में कही गईं ना’तों का मजमूआ)
फ़ैज़-ए-निस्बत (अरबी, फ़ारसी, उर्दू, पंजाबी ज़बान में कही गई मनक़बत का मजमूआ)
अर्श-ए-नाज़ (फ़ारसी, उर्दू, पूरबी, पंजाबी और सराइकी ज़बान में कहे गए कलाम का मजमूआ)
राह-ओ-रस्म-ए-मंज़िलहा (तसव्वुफ़ और दुनिया के मसाइल पर मबनी)
नाम-ओ-नसब (पीरान-ए-पीर पर मबनी किताब)
इमाम अबू हनीफ़ा और उनका तर्ज़-ए-इस्तिदलाल (उर्दू मज़ामीन)
तज़मीनात बर कलाम अहमद रज़ा बरेलवी
कुरान-ए-मजीद के आदाब-ए-तिलावत
लफ़्ज़ ”अल्लाह” की तहक़ीक़
इस्लाम में शाइरी की हैसियत
मुसलमानों के उरूज-ओ-ज़वाल के असबाब
पाकिस्तान में ज़लज़ले की तबाह कारीयां, अस्बाब और तजावीज़
फ़तवा-नवीसी के आदाब
मवाज़ना-ए-इल्म-ओ-करामत
क्या इबलीस आलम था?
उनकी शाइरी के बारे में ज़फ़र क़ादरी लिखते हैं कि
’’इन हालात में जब नसीर जैसा जवान-ए-राना, शे’र-ओ-सुख़न की वादीयों में फूल खिलाता और इल्म-ए-तसव्वुफ़ के बहर-ए-अमीक़ में ग़ोते लगाता नज़र आ जाता है तो टूटी आस बंधने लगती है और अंदर से आवाज़ है-
अभी कुछ लोग बाक़ी हैं जहां में…”
पीर नसीर मस्त क़लंदर इंसान थे। वह कभी किसी ख़ास फ़िक्र या तंज़ीम का हिस्सा नहीं बने। उनकी ख़ूबियों में से एक ख़ूबी ये भी है कि उन्हें देवबंदी, बरेलवी, शिया, अहल-ए-हदीस और दूसरी जमा’अत के लोग भी उन को अपने यहाँ दा’वत देते और उनकी तक़रीरें सुनते थे। पीर नसीर ने कभी किसी ख़ास फ़िक्र या तहरीक के लिए कुछ ना कहा, बल्कि जो कहा हक़ कहा। यही वजह है कि तमाम तंज़ीम के बड़े-बड़े लोग उन की ख़ानक़ाह में आते थे और उनकी संगत में बैठते थे। वो नज़राना और रिवायती सज्जादा-नशीनी के बिलकुल ख़िलाफ़ थे, जिसकी झलक उनके इस शेर में भी दिखाई देती है-
मसनद-ए-पीरी पे यूँ जम के ना बैठो तुम ‘नसीर’
कल को उठ जाओगे ये सारा तमाशा छोड़कर
उनकी एक रुबाई और पढ़िए, जिससे आपको पता लग जाएगा कि उनकी सोच इस बारे में क्या थी-
मसनद पे ज़रा बैठेंगे इतराएँगे
ये मुफ़्त का माल चार दिन खाएँगे
आती नहीं अबजद-ए-तरीक़त तो न आए
सज्जादा-नशीं फिर भी कहलाएँगे
मेरा ख़्याल है कि वो इस दौर के सबसे बड़े और कामयाब सज्जादा-नशीं गुज़रे हैं, जिन्होंने ख़ानक़ाहों और दरगाहों के अंदर की ग़लत रस्मों और बुराईयों को दूर करने के लिए आवाज़ उठाई। इस सफ़र में कुछ लोग उनके साथ थे तो कुछ उनके ख़िलाफ़ भी। पीर नसीर बराबर ये कहते थे कि ”हाय रे! मुझको वो भी कहते हैं बुरा, मैंने दुनिया छोड़ दी जिनके लिए”
पीर नसीर को कोई भी अपनी राह से नहीं हटा सका। बड़े-बड़े लोग उनके पास दौलत लेकर आए, मगर उन्हें अपनी तरफ़ न कर सके। कहते हैं कि एक मर्तबा पाकिस्तानी सरकार के एक बड़े मंसब-दार ने उन्हें पाकिस्तान का वज़ीर बनने का ऑफ़र किया। पीर नसीर ने फ़ौरन जवाब दिया कि ”बादशाह को वज़ीर बनाने का सोचते हो!” इस मौक़े पर कही गई उनकी रूबाई पढ़िए-
फ़ानी है ये अरबाब-ए-तरब की कुर्सी
दाइम क़ाइम है सिर्फ़ रब की कुर्सी
जस्टिस हो गवर्नर कि वज़ीर-ए-आ’ज़म
दीमक की लपेट में है सब की कुर्सी
आम लोग उन पर अपनी जान छिड़कते थे। लोग उनकी तक़रीरें सुनने दूर-दूर से आते थे और उनकी तक़रीरें घंटों-घंटों चलती। ये कहा जा सकता है कि पीर नसीर ने अपनी इन तक़रीरों से बहुत सी बुराईयों और ग़लत रस्मों को दूर कर दिया। वो रिवायत पसंद सूफ़ी नहीं थे। वो कहते थे “पीर मेहर अली शाह का पड़-पोता होने की वजह से मेरा हाथ ना चूमो।” उनका मानना था कि इन्सान अपने किरदार की वजह से याद किया जाये ना कि अपने बुज़ुर्गों के नाम की वजह से। पीर नसीर कहते हैं –
ख़म है सर-ए-इंसाँ तो हरम में कुछ है
लोग अश्क बहाते हैं तो ग़म में कुछ है
बे-वजह किसी पर नहीं मरता कोई
हम पर कोई मरता है तो हम में कुछ है
पीर नसीर में बहुत सी ख़ूबियाँ थी। शाइरी, तक़रीर और किताबों के अलावा, ख़ानक़ाही और दरगाही तहज़ीब के सुधार और नग़मा-ओ-मौसीक़ी से भी उन्हें गहरी दिलचस्पी थी। वो राग मुनइम, राग ख़ुसरौ और राग जौनपुरी भी ब-ख़ूबी जानते थे। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि मशहूर क़व्वाल नुसरत फ़तेह अली ख़ाँ ने उनका कलाम उनकी बनाई हुए धुन पर ही पढ़ा है। नुसरत ने पीर नसीर के इन कलाम को अपनी आवाज़ दी है-
(1)आस्ताँ है ये किस शाह-ए-ज़ीशान का – मरहबा मरहबा
(2)उनका अंदाज़-ए-करम उन पे वो आना दिल का
(3)आप इस तरह तो होश उड़ाया न कीजिए
(4)मेरी ज़ीस्त पर मुसर्रत कभी थी ना है ना होगा
एक इंटरव्यू के दौरान नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने इन क़लाम के लिए आपका शुक्रिया भी अदा किया है।
आज के इस दौर में पीर नसीर जैसे लोग कम और मुश्किल से ही मिलते हैं। मैं उन से मिल तो नहीं सका, लेकिन उनके बारे में जो कुछ थोड़ा-बहुत पढ़ा-सुना है, उससे वो बड़े इन्क़िलाबी इन्सान मा’लूम होते हैं। बाक़ी उनकी शाइरी से उनका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
हिंदुस्तान हो या पाकिस्तान, कोई ऐसा क़व्वाल न होगा जिस ने पीर नसीर का कलाम ना पढ़ा या सुना हो। हर छोटा-बड़ा कहीं ना कहीं उनकी ग़ज़लें या फिर ना’तें गुनगुनाते हुआ मिल ही जाएगा।
…बात इतनी है और कुछ भी नहीं !
-रय्यान अबुल-उलाई
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