नज़ीर की सूफ़ियाना शा’इरी
’इल्म-ए-तसव्वुफ़ जिसकी निस्बत कहा जाता है, बरा-ए-शे’र गुफ़्तन ख़ूब अस्त’
–मौलाना अलताफ़ हुसैन हाली “यादगार-ए-ग़ालिब”
उर्दू शा’इरी की इब्तिदा में जिन शो’रा का कलाम तहक़ीक़ में, तारीख़ी तज़्किरों में मिलता है वो या तो सूफ़ी थे या सूफ़ियों से फ़ैज़-याब अश्ख़ास। सूफ़िया की इब्तिदाई ता’लीमात में क्यूँकि इ’श्क़ को ज़रिआ’-ए-नजात और तअ’ल्लुक़-इलल्लाह का ज़रिआ’ समझा जाता है सूफ़िया ने शा’इरी को ब-कसरत अपनाया और अवाइल-ए-ज़माना से सहाबा-ए-किराम, ताबि’ईन, तबा’-ताबे’इन, अइम्मा, फ़ुक़हा नें ’अरबी में शे’र-गोई की। बा’द के ज़माने में फ़ारसी शो’रा जो अक्सर सूफ़िया ही थे मौलाना जलालुद्दीन रूमी, शम्स तबरेज़ी, हाफ़िज़ शीराज़ी, सा’दी शीराज़ी, निज़ामी, क़ुदसी मशहदी, फ़ख़्रुद्दीन ’इराक़ी ने तसव्वुफ़ को शा’इरी का मौज़ूअ’ बनाया। हिंदुस्तानी फ़ारसी शो’रा भी अक्सर सूफ़ियाना मज़ाक़ रखते थे। हज़रत ख़्वाजा मु’ईनुद्दीन चिश्ती, ख़्वाजा क़ुतबुद्दीन बख़्तियार-ए-काकी, बाबा फ़रीदुद्दीन गंज-ए-शकर, उ’स्मान हरोंदी, ला’ल शाहबाज़, बू-’अली क़लंदर, ख़्वाजा अमीर ख़ुसरो देहलवी, ख़्वाजा नसीरुद्दीन चराग़ देहलवी वग़ैरा जो ब-यक वक़्त तसव्वुफ़ में हुज्जत और शा’इरी में उस्ताद तसव्वुर किए जाते थे। सतरहवीं सदी में वली दकनी, अट्ठारहवीं सदी में सिराजुद्दीन औरंगाबादी, ख़्वाजा मीर दर्द, मीर तक़ी मीर, हज़रत ख़्वाजा शाह नियाज़ बरेलवी, सय्यद अमजद ’अली शाह असग़र, ग़मगीन देहलवी उर्दू की सूफ़ियाना शा’इरी के ’अलमबरदार रहे। ये वो ’अहद था जब उर्दू ज़बान अपने इर्तिक़ा के इब्तिदाई मराहिल तय कर रही थी। फ़ारसिय्य्त और ’अरबिय्यत उर्दू पर ग़ालिब थी। मगर संसकृत, खड़ी बोली, ब्रजभाषा के अल्फ़ाज़ आज की उर्दू से कई ज़्यादा मौजूद थे।
कबीर, गुरू नानक, बाबा फ़रीद का तर्ज़-ए-कलाम अगर उर्दू शो’रा में कहीं सब से ज़्यादा अपने रंग को ज़ाहिर करता है तो ये नज़ीर अकबराबादी की शा’इरी है। हिन्दुस्तानी सूफ़ियाना ख़यालात ख़ालिक़ से रिश्ता, मख़लूक़ के साथ मा’मूलात, इंसानी क़दरें, रीति रिवाज को ऐसे सादा लहजा और ’आम फ़हम ज़बान में बयान किया जो इस से पहले नज़र नहीं आता।
नज़ीर के कलाम का ब-ग़ौर मुतालि’आ करने से मा’लूम होता है कि उनकी फ़िक्र का माख़ज़ और ख़मीर सूफ़ियाना नज़रियात से निकला है।
जैसे-
“ सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब”
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
हर आन नफ़े’ और टोटे में क्यों मरता फिरता है बन-बन
टुक ग़ाफ़िल दिल में सोच ज़रा है साथ लगा तेरे दुश्मन
क्या लौंडी, बांदी, दाई, दिदा क्या बन्दा, चेला नेक-चलन
क्या मस्जिद, मंदिर, ताल, कुआं क्या खेती बाड़ी, फूल, चमन
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
जब मर्ग फिरा कर चाबुक को ये बैल बदन का हांकेगा
कोई ताज समेटेगा तेरा कोई गौन सिए और टांकेगा
हो ढेर अकेला जंगल में तू ख़ाक लहद की फांकेगा
उस जंगल में फिर आह ‘नज़ीर’ इक तिनका आन न झांकेगा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
सय्यद मुहम्मद महमूद रिज़वी मख़मूर अकबराबादी अपनी तस्नीफ़ में लिखते हैं कि नज़ीर को उर्दू ज़बान का सा’दी कहना बजा और रवा है।
ब-क़ौल ’अब्दुल हक़ “सूफ़ी सुफ़ (मोटा लिबास) से मुश्तक़ हो या सफ़ा (सफ़ाई-ए-दिल) से वो मज़हबी-ओ- अख़्लाक़ी ’आलम में एक ख़ास हैसियत रखता है। वो मुल्क-ओ-मिल्लत से बे-नियाज़ है। और हर क़ौम और हर मज़हब में पाया जाता है। वो एक क़िस्म का बाग़ी है जो रस्म-ओ-ज़ाहिर-दारी को जो दिलों को मुर्दा कर देती है रवा नहीं रखता। और उसके ख़िलाफ़ ’अलम-ए-बग़ावत बुलंद करता है”। यही सूफ़ियाना रंग नज़ीर की शा’इरी और मिज़ाज में दिखाई देता है। नज़ीर सूफ़ी थे या नहीं या तसव्वुफ़ की कितनी इस्तिलाहत नीज़ नज़रियात उनके कलाम में मिलते हैं, विलायत के किस मक़ाम पर वो हैं उसके जवाज़ और ’अद्म जवाज़ में जाने से बर’अक्स उन के कुल कलाम का ब-ग़ैर मुतालिआ’ करने से ये बात वाज़ेह होती है कि तसव्वुफ़ के नज़रियात, सूफ़िया के अफ़्कार, उनकी शख़्सियत और उनके फ़न-पारों में बुनियादी हैसियत के हामिल हैं। उनके कलाम में इसकी तलाश करने से पहले उनकी ता’लीम-ओ-तर्बियत और इब्तिदाई दौर का मुतालिआ’ ज़रूरी मा’लूम होता है। ‘कुल्लियता-ए-नज़ीर’ मुरत्तबा मौलाना ’अब्दुल बारी दीवान-ए-नज़ीर में मौलाना ’अब्दुल मोमिन साहब फ़ारूक़ी ने मुक़द्दमा में लिखा है कि नज़ीर इंक़िलाब-ए-ज़माना के मज़े चखे हुए थे। इधर सूफ़िया की सोहबत। उनके मकान के क़रीब मौलवी अहमद शाह क़ादरी जा’फ़री रहा करते थे, यहीं शाह ग़ुलाम रसूल रहते थे जो मशाइख़-ए-वक़्त से थे, उन की ख़िदमत में वक़्त का बड़ा हिस्सा गुज़रा। ज़िक्र-ओ-फ़िक्र और तस्बीह-ओ-मुसल्ले से तो ज़्यादा काम न था, मगर मज़ामीन-ए-तसव्वुफ़ दिल पर नक़्श होने लगे। सादा-वज़’ई, मियाना-रवी, सदाक़त, हिल्म-ओ-मुरव्वत ग़र्ज़ कि शैख़ की सोहबत से जुमला सूफ़ियाना सिफ़ात से मुत्तसिफ़ हो गए। उस ज़माने का नतीजा-ए-फ़िक्र भी सूफ़ियाना ख़यालात का मज्मूआ’ है। बा’ज़ मज़ामीन मा’रिफ़्त और तसव्वुफ़ के असरार के हक़ में आईना का हुक्म रखती हैं। और यही चीज़ उनके कलाम में माया-ए-नाज़ है। उर्दू शो’रा में सिर्फ़ उन्हीं को ये फ़ख़्र हासिल है और बजा फ़ख़्र है कि वो मसाइल-ए-तसव्वुफ़ को मिसाल से समझा कर वो बात पैदा कर देते थे जो हज़रत ’अत्तार ने “मंतिक़ुत्तैर” में की है।
सूफ़ी शो’रा में कई क़िस्म हैं जैसा कि हज़रत मोहम्मद शाह मयकश अकबराबादी “मसाइल-ए-तसव्वुफ़” में फ़रमाते हैः
“वो शा’इर जो अपने मसलक, हाल और मक़ाम के ऐ’तिबार से सूफ़ी थे और शा’इरी में भी उन्हों ने तसव्वुफ़ के मसाइल बयान किए हैं। जैसे हज़रत शाह नियाज़ बरेलवी रहमतुल्लाह ’अलैह, हज़रत शाह तुराब ’अली क़लंदर, हज़रत असग़र अकबराबादी, हज़रत ख़्वाजा मीर दर्द, मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ वग़ैरा। वो शा’इर जो मसलक, हाल और मक़ाम के ऐ’तिबार से सूफ़ी थे मगर उनकी शा’इरी पर सूफ़ियाना शा’इरी का इत्लाक़ नहीं होता जैसे हज़रत शाह बेदार और जुज़्वी तौर से ख़्वाजा मीर दर्द रहमतुल्लाह ’अलैह वग़ैरा।”
वो शा’इर जो ख़्वाह हाल और मक़ाल के ऐ’तिबार से सूफ़ी न हो मगर उनकी शा’इरी में सूफ़ियाना मज़ामीन पाए जाते हैं जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब और ’अल्लामा इक़बाल।
उनमें बा’ज़ शा’इर वो हैं जिन्हों ने ग़ज़लिया शा’इरी के ’अलावा सिर्फ़ तसव्वुफ़ ही के बयान को अपना मौज़ूअ’ क़रार दिया जैसे शाह रुक्नुद्दीन ’इश्क़ और हज़रत जी ग़मगीन ग्वालियरी रहमतुल्लाह ’अलैह।
इन शा’इरों में अक्सर हज़रात वहदत-उल-वजूद के क़ाइल हैं जैसे मीर, ग़ालिब, और हज़रत शाह नियाज़ रहमतुल्लाह ’अलैह, शाह तुराब ’अली क़लंदर वग़ैरा। सिवाए चंद शो’रा के जो वहदतुश्शुहूद के मक्तबा-ए-फ़िक्र से तअ’ल्लुक़ रखते हैं जैसे मिर्ज़ा मज़हर रहमतुल्लाह ’अलैह, ख़्वाजा मीर दर्द।
नज़ीर अकबराबादी भी सतव्वुफ़ के मौज़ूअ’ को अपनी शाइ’री में सादा सलीस अंदाज़ में बहुत ख़ूबी से बयान करते हैं। मस्लक-ए-’इश्क़ और इंसान-दोस्ती में लेकिन अहल-ए-तसव्वुफ़ में भी वो ख़ास से कम और ’अवाम से ज़्यादा जुड़े नज़र आते हैं। वो एक रिंद-ए-मस्त और क़लंदर-मिज़ाज शा’इर थे। वो क़लंदर मिज़ाज, मलामती, सूफ़ी ज़्यादा हैं जो ख़ुद सूफ़ियों की एक क़िस्म है।
“हज़रत मौलाना फ़ख़्रुद्दीन जो अकाबिर मशाइख़ में थे और अक्सर शहज़ादे और उमरा उनके मुरीद थे वो एक दफ़’आ अकबराबाद तशरीफ़ लाए और हज़रत सय्यदना अबुल-’उलाई अकबराबादी के मज़ार-ए-मुबारक के हाज़िर-बाश थे, वहीं मौलाना से मुलाक़ात हुई और उनके हल्क़ा में आए।वहीं से मज़ाक़-ए-तसव्वुफ़ पैदा हुआ।”।
(ज़िंदगानी-ए-बे-नज़ीर “परोफ़ैसर ’अब्दुल ग़फ़ूर साहब शाहबाज़, सफ़्हा नम्बर 183 मत्बा’ नवलकिशोर, 1900)
’अल्लामा सीमाब अकबराबादी अपने रिसाले “ शा’इर के आगरा नंबर” 1936 ई’स्वी में सफ़्हा नंबर 47 में अपने मज़मून “शैख़ वली मोहम्मद नज़ीर अकबराबादी” में लिखते हैः-
“आप इमामिया तरीक़ा रखते थे। आख़िरी ’उम्र में शाह ग़ुलाम रसूल साहब के मुरीद हुए और सूफ़ी मस्लक इख़्तियार कर लिया”।
नज़ीर ने ख़ुद अपनी बै’अत का ज़िक्र तो कहीं नहीं किया लेकिन शाह अकबर दानापुरी की रिवायत हज़रत फ़ख़्रुद्दीन मोहम्मद चिश्ती निज़ामी रज़ियल्लाहु ’अन्हु से बै’अत का ज़िक्र परोफ़ैसर ’अब्दुल ग़फ़ूर मुसन्निफ़ ज़िंदगानी-ए-बे-नज़ीर और हज़रत सय्यद मोहम्मद ’अली शाह ’अल्लामा मयकश अकबराबादी ने आगरा और आगरा वाले में किया है तो कसरत-ए-रिवायत के ऐ’तिबार से ये बात पाया-ए-तकमील को ज़्यादा पहुँती है। रही बात ’अल्लामा सीमाब की रिवायत की तो मुम्मकिन है नज़ीर की इब्तिदाई ता’लीम क्यूँकि सय्यद ग़ुलाम रसूल की सोहबत में हुई।’अरबी,फ़ारसी और ’उलूम-ए-दीन उन से ही पढ़े थे इस वजह से क़ियास किया हो, वल्लाहु ’आलम । नज़ीर का नज़रिया वैसे भी वसी’-उल-मशरब था ।वो सूफ़िया में भी कई बुज़ुर्गों से मोहब्बत का इज़हार करते हैं। जहाँ वो हज़रत बाबा फ़रीदुद्दीन गंज शकर और शैख़ सलीम चिश्ती पर नज़्म कहते हैं तो गुरू नानक और श्री कृष्ण से भी इज़हार-ए-’अक़ीदत करते हैं।
सूफ़िया के पेशवा और राहनुमा हज़रत ‘अली इब्न-ए-अबू तालिब की ता’रीफ़ में नज़्म ‘’मनाक़िब-ए-शेर-ए-ख़ुदा” में कहते हैः
शाहा तेरी जो मद्ह सुनाता है अब नज़ीर
तेरे सिवा किसी का खाता है कब नज़ीर
लेकिन क़लम को हाथ लगाता है जब नज़ीर
सलवात पढ़ कर ये ही सुनाता है तब नज़ीर
हैरत में हूँ कि हैदर-ओ-सफ़दर को क्या लिखूँ
इसी तरह चार नज़्में “हज़रत ‘अली का मो’जिज़ा”, “ख़ैबर की लड़ाई”, “मनाक़िब-ए-शेर-ए-ख़ुदा”, ज़ौर बाज़ू-ए-‘अली”, और एक मद्ह पंजतन-ए-पाक भी लिखी है।
सूफ़ियाना ता’लीमात की बुनियाद तज़्किया-ए-नफ़्स है। मशहूर हदीस है “ मन ‘अरफ़ा नफ़्सहु फ़क़द ’अरफ़ा-रब्बहु। जिसने अपने नफ़्स को पहचाना उसने अपने रब को पहचाना” वो इस पर ’अमल पैरा होते हैं।नज़्म “आईना” के पहले शे’र में कहते हैं-
ले आईने को हाथ में और बार-बार देखा
सूरत में अपनी परवरदिगार देखा
हर लहज़ा अपने जिस्म के नक़्श-ओ-निगार देखा
ऐ गुल तू अपने हुस्न की आप ही बहार देखा
इब्न-ए-’अरबी का नज़रिया-ए-वहदत-उल-वजूद जो जुमला सूफ़िया का नज़रिया रहा, नज़ीर न सिर्फ़ उसके क़ाइल हैं बल्कि अश्आ’र में बार बार दुहराते हैं। फ़क़्र की ता’रीफ़ में यूँ लिखते हैं-
जो फ़क़्र में पूरे हैं वो हर हाल में ख़ुश हैं
हर काम में हर दाम में हर हाल में ख़ुश हैं
उनके तो जहाँ में ’अजीब हैं ’आलम ‘नज़ीर’ आह
अब… हर हाल में ख़ुश हैं
फ़ुक़रा की ता’रीफ़ में कहते हैः
रुत्बा कुछ ’आशिक़ी में न कम है फ़क़ीर का
हैं जिसके सब सनम वो सनम है फ़क़ीर का
ज़िल्ल-ए-हुमा भी वाँ से स‘आदत करे हुसूल
जिस सर-ज़मीं पे नक़्श-ए-क़दम है फ़क़ीर का
हैं ज़ेर-ए-साया उसके हज़ारों गदा-ओ-शाह
बैरक़ इसे न कह ये ’अलम है फ़क़ीर का
क्यूँ कर लिखे न फ़क़्र के शान-ओ-शिकोह को
यारो नज़ीर पर भी करम है फ़क़ीर का
(कुल्लियात-ए-नज़ीरः सफ़्हा 846-845 ‘अब्दुल बारी साहब आसी, मतबा’ तेज कुमार वारिस नवल किशोर प्रेस लखनऊ)
अल-ग़र्ज़ नज़ीर अकबराबादी की शा’इरी तसव्वुफ़ के मौज़ू’आत से ही ’इबारत है। तस्सवुफ़ के नज़रियात उनकी शा’इरी का मर्कज़ी जुज़ हैं। मुकाफ़ात-ए-’अमल, तर्क-ए-दुनिया, मुज़म्मत-ए-बुख़्ल, तवक्कुल-ओ-रज़ा, रियाज़त, वज्द-ओ-हाल, तजर्रुद, नफ़्स-कुशी, जोगन जोगी, आदमी-नामा, बंजारा-नामा, फ़ना बा’द अज़ फ़ना, सफ़र-ए-आख़िरत, क्या है सब तसव्वुफ़ की ता’लीमात और नज़रियात ही हैं।
नज़ीर की तज़मीनः
महमूद रिज़वी मख़मूर अकबराबादी ने अपनी किताब नज़ीर-नामा में लिखा है:-
जनाब मोहम्मद ’अली शाह मयकश अकबराबादी गज़ल कहने वालों में आज सर-आमद शोरा-ए-रोज़गार हैं वह्दतुल-वजूद का मस्लक उनका ख़ास मौज़ू’अ है सय्यद अमजद शाह ‘अली असग़र तीन दरमियानी रवाबित के साथ जनाब–ए-मयकश के जद्द-ए-’आला हैं (असग़र)
जब हुस्न-ए-अज़ल पर्दा-ए-इम्कान में आया
बे-रंग ब-हर रंग हर इक शान में आया
वो रंग कहीं ला’ल-ए-बदख़्शान में आया
नीलम में कहीं गौहर-ए-ग़लतान में आया
याक़ूत में अलमास में मरजान में आया
जब हुस्न-ए-अज़ल पर्दा-ए-इम्कान में आया
बे-रंग ब-हर रंग हर इक शान में आया
इम्कान एक इलाहियाती लफ़्ज़ है और यहाँ इस्तिलाही मा’नी में इस्ते’माल हुआ है लुग़वी में नहीं, इम्कान बिल-कस्र इफ़’आल के वज़्न पर मसदर है और अहल-ए-हिक्मत की इस्तिलाह में मु’अय्यना मा’नी ही रखता है, इस जिहत से इसको इस्म-ए-मा’रिफ़ा या ’अलम का दर्जा हासिल है।इम्तिनाअ’ के तसव्वुर में ‘अदम लाज़िमी है मगर इम्कान में ’अदम औ वजूद दोनों ज़रूरी नहीं। बहरहाल इम्कान ’इल्मी इस्तिलाह है और इस्तिलाह के किसी हर्फ़ में तग़य्युर लाना गोया इस्तिलाह-शिकनी है और अर्बाब-ए-‘इल्म के नज़दीक मा’यूब। जनाब असग़र सूफ़ी बा-सफा और ’आलिम-ए-अजिल्ल थे, ये पहलू उन के ज़ेहन में मौजूद था, मियाँ नज़ीर ने भी जो ख़ुद इस पहलू से आगाह थे हज़रत असग़र के उस्वा-ए-हसना का इत्तिबा’ किया है।
(नज़ीर-नामाः सफ़्हा 477-478)
इसी तरह हज़रत ख़्वाजा अमीर ख़ुसरौ हज़रत हाफ़िज़ शीराज़ी, हज़रत सा’दी शीराज़ी रहमतुल्लाह अ’लैह, हज़रत सिराजुद्दीन औरंगाबादी रहमतुल्लाह अ’लैह, जनाब क़ुदरत और फ़ुग़ाँ की ग़ज़लों पर भी तज़मीन लिखी हैं ।ये भी कहा जाता है के हाफ़िज़ के कलाम पर भी नज़ीर ने बहुत कुछ लिखा है लेकिन दस्तियाब दीवान में वो कलाम नहीं मिलता।
हज़रत सिराज औरंगाबादी की मश्हूर-ए-ज़माना गज़ल ख़बर-ए-तहय्युर-ए-’इश्क़ सुन की तज़मीन में यूँ अपना हाल भी बयान कर देते हैं-
किसी वक़्त मक्तब-ए-’अक़्ल में बहुत ’इल्म हम ने भी था पढ़ा
कि हर इक से हुज्जत-ओ-बह्स थी सो उस ’इल्म का ये कमाल था
गया जब कि मदरसा-ए-’इश्क़ में तो अब आगे यार कहूँ मैं क्या
वो ’अजब घड़ी थी कि जिस घड़ी लिया दर्स नुस्ख़ा-ए-’इश्क़ का
कि किताब ‘अक़्ल की ताक़ पर जो धरी थी वो वहीं धरी रही
उसे कुछ किसी की ख़बर नहीं हुआ अब तो मिस्ल-ए-‘नज़ीर’ वो
तरे दर्द-ए-’इश्क़ में ऐ मियाँ दिल बे-नवाए सिराज को
न ख़तर रहा न हज़र रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Dr. Shamim Munemi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
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- Khursheed Alam
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- Meher Murshed
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- Qurban Ali
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- Shamim Tariq
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- Syed Ali Nadeem Rezavi
- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi