हज़रत सय्यद तसद्दुक़ अ’ली असद अमजदी
हज़रत मौलाना सय्यद तसद्दुक़ अ’ली सुल्तान असद का वतन शहर-ए- मेरठ सय्यदवाड़ा मुहल्ला अंदरकोट, इस्माई’ल नगर है। आपका नसब-नामा 35 वीं पुश्त में हज़रत इमाम जा’फ़र-ए-सादिक़ से जा मिलता है। आपके आबा-ओ-अज्दाद अफ़्ग़ानिस्तान से सुल्तान महमूद ग़ज़नवी के हमराह हिन्दुस्तान तशरीफ़ लाए। इस ख़ानवादे के लोग ग़ैर मुनक़सिम हिंदुस्तान के मुख़्तलिफ़ इ’लाक़ों मऊ, शम्साबाद, रावलपिंडी और शहर-ए- मेरठ में आबाद हुए। सय्यद तसद्दुक़ अ’ली असद के मोरिस-ए-आ’ला ने शहर-ए-मेरठ में सुकूनत इख़्तियार की। वहीं 1272हिज्री में आपकी विलादत हुई। आपके वालिद-ए-माजिद का नाम हज़रत हकीम सय्यद बरकत अ’ली चिश्ती था जो अपने ज़माने के जय्यद आ’लिम-ए-दीन और तबीब थे ।आपने इब्तिदाई ता’लीम अपने वालिद-ए-मोहतरम से हासिल की थी। फ़ारसी-ओ-अ’रबी भी वालिद –ए-मोहतरम और हमशीरा मोहतरमा की निगरानी में हासिल की। हाफ़िज़ा भी अल्लाह पाक ने क्या ख़ूब अ’ता किया था। अ’रबी-ओ-फ़ारसी के बे-शुमार अश्आ’र अज़बर थे।
सय्यद तसद्दुक़ अ’ली का क़द मियाना, पेशानी कुशादा, रँग गंदुमी, रीश-ए-मुबारक न घनी न कम, दराज़ गेसू, चेहरा गोल, आँखें बड़ी-बड़ी, दुबला-पतला जिस्म, आवाज़ शीरीं, रफ़्तार तेज़ हर काम में चुसती।
वालिद-ए-मोहतरम के विसाल के बा’द आपकी तबीअ’त उचाट हो गई थी। आपकी हमशीरा मोहतरमा ने आपकी बे-क़रारी-ओ-इज़्तिराबी कैफ़ियत को देखते हुए आपको अपने पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत शाह चमन क़ादरी रावलपिंडवी से सिलसिला-ए-क़ादरिया में 1294हिज्री में जिस वक़्त आपकी उ’म्र महज़ 22 बरस थी, बैअ’त करा दी ।आप उनकी सोहबत में मुसलसल 10 बरस तक औराद-ओ-वज़ाइफ़ में मश्ग़ूल रहे मगर किसी तरह भी उनके औराद-ओ-वज़ाइफ़ का राज़ उन पर अ’याँ नहीं होता था। बे-चैनी-ओ-इज़्तिराबी कैफ़ियत में कोई कमी वाक़े’ न हुई। आपके पीर-ओ-मुर्शिद भी हैरान थे कि आख़िर क्या बात है ।सय्यद तसद्दुक़ अ’ली ने औराद-ओ-वज़ाइफ़ में कोई कोताही-ओ-तसाहुली नहीं की फिर भी क्या बात है ।इसी असना में आपने दो ख़्वाब देखे जिन्हें अपने पीर-ओ-मुर्शिद को बताया।
(1) एक वसी’ मैदान है उस में शामियाना नस्ब है वहाँ। हज़ारों नूरानी चेहरे वाले अस्हाब सर झुकाए बैठे हैं। शामियाने में एक ऊँची और मख़्सूस जगह पर दो नूरानी सूरत बुज़ुर्ग तशरीफ़ फ़रमा हैं और आप उस शामियाने की चोब पकड़े खड़े हैं ।उस में से एक बुज़ुर्ग ने दूसरे बुज़ुर्ग से फ़रमाया कि वो लड़का जो चोब पकड़े खड़ा है उसको हमारे सुपुर्द कर दीजिए क्यूँकि उस की ता’लीम हमारे ख़ानवादे के शैख़ से होगी। दूसरे बुज़ुर्ग ने इर्शाद फ़रमाया कि बहुत ख़ूब हम ब-खु़शी उस लड़के को आपकी ख़िदमत में पेश करते हैं, आपके ख़ानदान में उस की तर्बियत-ओ-तलक़ीन हमें ब-सर-ओ-चश्म मंज़ूर है। उसके बा’द उन बुज़ुर्ग ने आपका हाथ पकड़ कर अपने हम-नशिस्त बुज़ुर्ग के दस्त-ए-मुबारक में दे दिया फिर उसी दरमियान आपकी नींद टूट गई।
(2) थोड़ी देर बा’द फिर आपकी आँख लग गई उस वक़्त आपने देखा कि एक मकान आ’ली-शान है। उस के सहन में बे-शुमार दरवेश दो ज़ानू बैठे हुए हैं। आप भी उस मज्लिस में शरीक हुए। थोड़ी देर बा’द शर्बत का दौर चलने लगा। इसी असना में साक़ी ने एक जाम भर कर आपके रूबरू किया ।मअ’न दूसरे हम-मश्रब ने वो जाम आपके हाथों से छीन लिया और कहा कि उनका हिस्सा इस बज़्म में नहीं है, उन बुज़ुर्ग का कलिमा सुनते ही आँख खुल गई।
हज़रत चमन शाह क़ादरी ने इस ख़्वाब की ता’बीर में इर्शाद फ़रमाया कि पहले ख़्वाब में हर दो बुज़ुर्ग हज़रत ग़ौस-उल-आ’ज़म और ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती हैं। तुम को हज़रत ग़ौस-उल-अ’ज़म ने ख़्वाजा अजमेरी के हवाले कर दिया है और वो बज़्म फ़ोक़रा-ए-क़ादरिया की थी, इस बा’इस बज़्म में तुमको हिस्सा नहीं मिला। इंशा-अल्लाहुल-अ’ज़ीज़ अब बहुत जल्द तुमको सिलसिला-ए-चिश्तिया के किसी शैख़-ए-कामिल से फ़ैज़ हासिल होगा। फिर आपने हलक़ा-ए-इरादत से आपको अलग किया और फ़रमाया कि बेहतर है कि तुम बिहार की जानिब रवाना हो।
आपकी हम-शीरा मोहतरमा को हज़रत चमन शाह क़ादरी से बैअ’त हासिल थी ।आपको दीवान-ए-हाफ़िज़ और दीवान-ए-साइब अज़बर थे। ख़ुश-तहरीर और ख़ुश-तक़रीर थीं।अख़लाक़ बुलंद था।कोई फ़र्द-ओ-बशर आपसे शाकी न हुआ ।जब अपनी हालत को आपने हम-शीरा मोहतरमा से सुनाया तो हम-शीरा ने जवाब दिया भाई तुम इतने मलूल न हो तुम तो बड़े ख़ुश-नसीब हो कि ख़्वाजा साहब ने तुम को अपनी हुज़ूरी में ग़ौस-ए-पाक से माँग लिया है ।अब ख़ुदा पर साबिर रहो ज़रूर एक रोज़ दामन-ए-मुराद हुसूल-ए-मक़्सद से भर जाएगा।
देहली में आप जब जामा’ मस्जिद पहुँचे तो एक दरवेश-ए-मस्ताना से मुलाक़ात हुई। वो बड़े कम-गो थे लेकिन वो किसी से हम-कलाम न होते थे। आप एक रोज़ सुब्ह उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुए। उस वक़्त वो तन्हा सर झुकाए हुए बैठे थे। आपने निहायत अदब से अपनी सारी रूदाद उनके रूबरू बयान की तो उन मस्त बादा-ए-इ’श्क़ ने अपनी ज़बान से हज़रत सरमद शहीद की ये रुबा’ई इर्शाद फ़रमाई:
सरमद ग़म-ए-इ’श्क़ बुल-हवस रा न-देहंद
सोज़-ए-दिल-ए-परवानः मगस रा न-देहंद
उ’म्र बायद कि यार आयद ब-कनार
ईं दौलत-ए-सरमद हमः कस रा न-देहंद
बा’द उसके ख़ामोश हुए। फिर ज़रा देर बा’द इर्शाद फ़रमाया कि अभी ज़माना-ए-मुवासलत बहुत दूर है। चंद रोज़ और सब्र करो, ग़ुँचा-ए-दिल नसीम-ए-मुराद से शगुफ़्ता होगा। वहाँ तुम ज़रूर अ’रूस-ए-मक़्सद से हम-कनार होगे। आपने नवैद-ए-फ़रहत सुनकर उसी रोज़ देहली से सहरा-नवर्दी-ओ-सैर-ओ-सियाहत इख़्तियार की। कहीं ब-सवारी कहीं पा-प्यादा सफ़र किया। हिसार, लाहौर, पंजाब, सिंध, बलोचिस्तान, राजस्थान, मुल्तान, ख़ानपुर, कोटा, कराची, इस्लामाबाद, बंबई, भरतपुर, ग्वालियार, झांसी और फिर मेरठ का रुख़ किया।
आपकी दो शादियाँ हुई थीं। पहली शादी झांसी के शहर-ए-कोतवाल सय्यद अ’ब्दुल ग़फ़ूर (मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा हज़रत ग़ौस अ’ली पानीपत) की साहिब-ज़ादी सय्यदा ज़ैनब से हुई थी जिनके बत्न से एक साहिबज़ादे हज़रत हकीम सय्यद ख़ुर्शीद अ’ली और सात साहिब-ज़ादियाँ थीं। आपकी दूसरी शादी ब-हुक्म-ए-पीर-ओ-मुर्शिद (हज़रत सय्यद अमजद अ’ली) सारन के इ’लाक़े में सय्यदा साबिरा से हुई, जिनके बत्न से एक साहिब-ज़ादे सय्यद हस्रत अ’ली अल-मा’रूफ़ ब-बालक शाह और एक साहिब-ज़ादी सय्यदा ख़ैरुन्निसा थीं।
मौलाना सय्यद तसद्दुक़ अ’ली 1306हिज्री के किसी महीने में सीवान तशरीफ़ लाए और सीवान की सराय में क़ियाम क्या।आप सरकार की तरफ़ से परों की ख़रीदारी पर मामूर ।थे चिड़ियों के शिकारियों से आप पर ख़रीदने और उन्हें अपने अफ़सर के हाँ पोस्ट कर देते। पर की ख़रीदारी के अ’लावा तलाश-ए-पीर में भी सरगर्दां रहते ।एक दिन यका-यक दिल मुज़्तरिब हो गया और उनकी तबीअ’त पर दीवानगी की कैफ़ियत तारी हो गई ।आँखों से अशक जारी हो गए। इसी इज़्तिराब-ओ-बे-क़रारी में बेहोश हो गए।इसी आ’लम में हज़रत चमन शाह क़ादरी की शक्ल नूरानी नज़र आई ।आपने सूरत देखी और फ़ौरन ही क़दम-बोस हुए। हज़रत चमन शाह क़ादरी ने सर उठा कर सीने से लगाया और इर्शाद फ़रमायाः
“इस क़दर परेशान न हो। थोड़े रोज़ और सब्र करो इंशा-अल्लाह सीवान के कान-ए-शहीदाँ में वो दरवेश इमाम-उल-अस्फ़िया पेशवा-ए-फ़ोक़रा हज़रत सय्यद अमजद अ’ली सुल्तान रंगीला तशरीफ़ लाएँगे, उन्हीं के हाथ पर बेअ’त होना। तुम्हें वही हक़ीक़त की तलक़ीन और सिर्र-ए-वजूद से आगाह करेंगे। मैंने तेरी निस्बत बहुत कुछ सिफ़ारिश की है।”
हज़रत चमन शाह क़ादरी ये बशारत देकर रुख़्सत हो गए
“आपको जब होश आया तो आपने अपने-आपको बहुत शादाँ-ओ-फ़रहाँ पाया”।
आप फिर उसी तरह सरकारी कामों में मश्ग़ूल हो गए। मगर तलाश-ए-पीर में गश्त करते रहे। रजब-उल-मुरज्जब 1309हिज्री के अय्याम में हज़रत चमन शाह क़ादरी ने बशारत दी कि ऐ सय्यद तसद्दुक़ अ’ली तुझको जिसका निशान दिया गया था वो हज़ार दास्तान-ए-चमन-ए-वहदत जानिब-ए-दक्खिन चहचहा ज़न है जल्द जा और हुज़ूरी हासिल कर ।ज़माना आ गया है तेरा ग़ुँचा-ए-उमीद सर-बस्ता-ओ-कामरानी से शगुफ़्ता होगा। आपने जब ये इत्तिला’ सुनी तो आपका दिल बाग़-बाग़ हो गया। बाक़ी शब काटना पहाड़ हो गया। उसी बे-क़रारी में जागते जागते सुब्ह हो गई। आपने जल्द नमाज़-ए-फ़ज्र अदा की और औराद-ए-मु’अय्यना से फ़राग़त हासिल करके जानिब-ए- जुनूब रवाना हो गए। जब टेढ़ी घाट पहुँचे तो आपने एक राहगीर से दरियाफ़्त किया कि कल कोई शाह साहब तशरीफ़ लाए हैं वो कहाँ तशरीफ़ फ़रमा हैं। राहगीर ने जवाब दिया कल इसी बाग़ में एक सौदागर ठहरे हैं। शक्लन वो शाह साहब नहीं हैं (हज़रत सय्यद अमजद अ’ली की शबाहत किसी शाह साहब की तरह नहीं थी वो हमेशा लिबास बदलते रहते कभी सिपाहीयाना, कभी आ’म लिबास, कभी टाट, कभी अमीराना-ओ-शाहाना) अगर हैं तो पूरब वाले बाग़ में तशरीफ़ फ़रमा हैं। आपको जब ये ख़बर मिली तो ख़याल किया कि हो न हो ये वही होंगे।आप उनकी जानिब चल पड़े। हज़रत सय्यद अमजद अ’ली एक दरख़्त के साए में मश्ग़ूल-ए-इ’बादत थे। आपने जब हज़रत की सूरत-ए-नूरानी देखी सारी थकान दूर हो गई ।आपने मुअद्दबाना सलाम-ए-ता’ज़ीमी अदा किया।हज़रत साहब ने ज़बान-ए-गौहर-बार से इर्शाद फ़रमाया कि बाबा यहाँ सलाम दर-कार नहीं है, नियाज़ का ख़्वासत-गार है, कहो मिज़ाज अच्छा है। कहाँ रहते हो और किस नाम से पुकारे जाते हो ।कौन काम करते हो और यहाँ कब से मुक़ीम हो ।पंजाब किस लिए छोड़ा, पूरब में किस वास्ते आए, वल्लाह ख़ुद तो मेरे पास कभी न आते, मा’लूम ऐसा होता है कि किसी ज़बरदस्त के हाँके हुए आए हो। एक बल की रस्सी से काम न चला दो बल की रस्सी बट कर तय्यार करो। ख़ैर बाबा बैठो, आप बैठ गए। थोड़ी देर बा’द हज़रत ने इर्शाद फ़रमाया कि बाबा ख़ामोश क्यूँ हो, कुछ कहो क्यूँकि फ़क़ीर को ज़्यादा मोहलत नहीं है।
आपने अ’र्ज़ किया कि दिल फ़िराक़-ए-यार में मुल्तहिब है।जुस्तुजू-ए-यार ने ख़ाना-ब-दोश बना रखा है।बरसों से ब्याबाँ की ख़ाक छान रहा हूँ, शहर ब-शहर और कूचा ब-कूचा ठोकरें खाते गुज़र गए, कहीं मंज़िल का निशान न मिला। अफ़सोस कि पहली ही मंज़िल पर हनूज़ भटक रहा हूँ इस वास्ते दस्त-बस्ता मुल्तजी हूँ कि नज़र-ए-करम फ़रमाईए। जल्द जादा-ए-मक़्सूद पर पहुंचाईए और जाम-ए-फ़ना पिला कर बे-ख़ुद बना दीजिए ताकि पर्दा-ए-दुइ आँखों से उठ जाए। अपने गंज-ए-हक़ीक़त से मुझ को अ’ता कीजिए, आप हादी-ए-बर-हक़ हैं गुज़िश्ता बुज़ुर्गों ने आपकी बशारत दे रखी है, मुझे अपने फ़ैज़ से महरूम न रखिए। हज़रत ने फ़रमायाः
ऐ बाबा! मैं किस क़ाबिल हूँ मैं तो दरवेश नहीं हूँ बल्कि दरवेशों का नाक़िल हूँ। ख़ैर अगर तुम्हारा यही ख़याल है कि मैं क़ाबिल हूँ तो क्या मुज़ाइक़ा है। अलबत्ता हुस्न-ए-इरादत और नियत ख़ालिस रखते हो तो बे-शक अपने मक़सद में फ़ाइज़-उल-मराम हो जाओगे।
हज़रत ने इर्शाद फ़रमायाः मनाज़िल-ए-सुलूक की राहें बहुत कठिन हैं । जहाँ बड़े-बड़े तेज़-रौ ख़ारिस्तान में उलझ कर ना-काम हो जाते हैं, इस खेल में अ’क़्ल-ओ-ख़िरद के छक्के छूट जाते हैं। इस से बेहतर है कि नमाज़ रोज़ा किए जाओ नहीं तो बार-ए-इ’श्क़ उठाना बहुत मुश्किल है। आपने अ’र्ज़ किया हज़रत मुरीद का ए’तिक़ाद अपने मुर्शिद से सादिक़ है और मुर्शिद के दामन-ए-रहमत का साया उसके सर पर है तो ज़रूर ब-आसानी तय हो जाएगा। उसका ए’तिक़ाद जो ख़ुद उस का रहबर है बे-शक एक रोज़ दर-ए-महबूब तक पहुँचा देगा। हज़रत ने आपके इस क़ौल और समझ पर दिली मसर्रत का इज़हार फ़रमाया ।उस के बा’द हज़रत ने एक आ’रिफ़ाना ग़ज़ल जो हमःउस्त है अमीर शाह रामपुरी की:-
ग़ज़ल
ये जो सूरत है तिरी सूरत-ए-जानाँ है यही
यही नक़्शा है यही रंग है सामाँ है यही
बिस्तरा टाट का दो पारचा कम्बल की कुलाह
ताज-ए-ख़ुसरौ है यही तख़्त-ए-सुलैमाँ है यही
अपनी हस्ती के सिवा ग़ैर को सज्दा है हराम
मज़हब-ए-पीर-ए-मुग़ाँ मश्रब-ए-रिंदां है यही
दोनों आ’लम में नहीं तेरे सिवा कोई अमीर
अ’क़्ल को सूझ है फ़हमीद है इ’रफ़ाँ है यही
आपने आ’रिफ़ाना ग़ज़ल सुनकर इल्तिमास किया कि इस ख़ाकसार ने भी इस बहर में चँद अश्आ’र कहे हैं। बार-ए-ख़ातिर न हो तो पेश करूँ । हज़रत साहब ने इर्शाद फ़रमाया, ग़ज़ल सुनना मर्ग़ूब है ।आपने आदाब बजा लाकर ग़ज़ल पेश की-
बू यही गुल है यही बुलबुल-ए-नालाँ है यही
नख़्ल-ए-पैवंद यही और गुलसिताँ है यही
मौज-ए-क़ुलज़ुम है यही कोह-ओ-बयाबाँ है यही
दुर्र-ए-यकता है यही ला’ल-ए-बदख़्शाँ है यही
हुस्न-ए-लैला है यही ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा है यही
क़ैस-ए-दीवाना है यही यूसुफ़-ए-ज़िंदाँ है यही
किस को जाहिल कहूँ और किसको कहूँ मैं आ’लिम
अ’क़्ल-ए-फ़र्ज़ाना है यही तिफ़्ल-ए-दबिस्ताँ है यही
तूर पर जल्वे से जिस के हुए मूसा बे-ख़ुद
आ’शिक़ो देखो वो रश्क-ए-मह-ए-ताबाँ है यही
आपकी ग़ज़ल को हज़रत साहब ने बहुत पसंद किया। बा’द हज़रत साहब ने आपको दो रकअ’त सलात-ए-आशिक़ाना अदा करने का हुक्म दिया । उसके बाद हज़रत ने अपने रूबरू बैठा कर आपका हाथ अपने दस्त-ए-मुबारक पर रख-कर सात बार इस्तिग़फ़ार पढ़वाया फिर पांचों कलिमा मा’ दुरूद शरीफ़ तलक़ीन फ़र्मा कर सिलसिला-ए-चिशती-ए-साबिरीया में बैअ’त से मुशर्रफ़ किया और आपका नाम अमीर सुल्तान असद रखा और आपके हक़ में दुआ-ए-ख़ैर फ़रमाई ।एक गिलौरी पान अपने लब-ए-ताहिर से लगा कर इनाय’त किया जिसके खाने से आप पर एक अ’जीब कैफ़ीयत तारी हो गई और अपने मक़सद में कामरान-ओ-बा-मुराद गए।
सय्यद तसद्दुक़ अली असद पुख़्ता साहिब-ए-क़लम और इ’ल्म-ए-तसव्वुफ़ के रम्ज़-शनास थे। वो आलिम-ए-बाअमल के साथ सूफ़ी, फ़लसफ़ी, मुफ़क्किर, माहिर-ए-नुजूम और शा’इर भी थे।फ़ारसी-ओ-अ’रबी के एक अच्छे उस्ताद की हैसियत से भी उनकी अपनी पहचान थी।हाफ़िज़ा भी ग़ैर-मा’मूली था। अ’रबी, फ़ारसी और हिन्दी पर यकसाँ क़ुदरत हासिल थी ।फ़ारसी और उर्दू के बे-शुमार अशआ’र अज़बर थे। उनकी तहरीरों में इंशा-परदाज़ी के जौहर वाज़ेह तौर पर नज़र आते हैं। आपकी तसनीफ़ात में ”इरशाद-ए-आ’ज़म अल-मा’रूफ़ ब-जल्वा-ए-हक़ीक़त ‘ ”कासा-ए-इ’शक़ ,”इरशाद-ए-आ’ज़म आज़म वग़ैरा हैं जो तसव्वुफ़ की अहम किताबों में शुमार की जाती हैं।
हज़रत अमजद अ’ली ने आपको सियाह लिबास अ’ता किया था। आप हमेशा सियाह लिबास ज़ेब-तन किया करते थे ।कुर्ता, तहबंद, पाजामा, कोट, ख़िर्क़ा, अ’मामा, अँगरखा, बंडी, सब सियाह होते। आँखों में गोल चश्मा और सियाह जूते कभी काम-दार और कभी खड़ाव भी पहनते थे।
जब आप आ’लम-ए-पीरी में दाख़िल हुए तो उ’र्स की तक़रीब में अपने साहिब-ज़ादे हज़रत हकीम सय्यद ख़ुरशीद अ’ली को मस्नद-ए-सज्जादगी अ’ता की और अपने ख़लीफ़ा हज़रत शाह अबू ज़फ़र बेलछवी अल-मुलक़्क़ब ब-मक़्बूल शाह को मुतवल्ली के मंसब पर सरफ़राज़ किया। हकीम सय्यद ख़ुरशीद अ’ली हज़रत अमजद अ’ली के मुरीद थे। हज़रत सय्यद ख़ुरशीद अ’ली के बचपन का ज़माना था। हज़रत अमजद अ’ली से लोग मुरीद होते तो आपके दिल में भी इश्तियाक़ हुआ कि मैं भी मुरीद होता ।ये बात आप ने दादा जान हज़रत अमजद अ’ली से तोतलाती आवाज़ में कही कि “दादा दादा! हम भी मुरीद होंगे” ।हज़रत साहब बहुत ख़ुश हुए और आपको अपने हलक़ा-ए-इरादत में दाख़िल किया। आपने ख़िलाफ़त अपने वालिद-ए-मोहतरम हज़रत अमजद अ’ली से हासिल की।
आप 1309हिज्री से ता-विसाल अपने पीर-ओ-मुर्शिद की ख़िदमत में रहे। आपके पीर-ओ-मुर्शिद का विसाल 15 रबीउ’स्सानी 1328हिज्री को हुआ था। उनके विसाल के बा’द आप उनके जानशीन हुए।
सय्यद तसद्दुक़ अ’ली का विसाल किसी बीमारी के सबब न हुआ ।शब-ए-बरात की शब में थोड़ी तबीअ’त नासाज़ हुई तो आपने अपने हुज्रे में ही आराम फ़रमाया ।उसी हुज्रे में 15 शा’बान-उल-मुअ’ज़्जम 1347 हिज्री मुताबिक़ 27 जनवरी 1929 ई’सवी ब-रोज़-ए-इतवार 2 बज कर 20 मिनट में वो आफ़ताब-ए-विलायत दारुल-फ़ना से दारुल-बक़ा को हिज्रत कर गया।नमाज़-ए-जनाज़ा आपके जानशीं-ओ-ख़लफ़ हकीम सय्यद ख़ुर्शीद अ’ली अमजदी ने पढ़ाई। जिस जगह आपका विसाल हुआ उसी जगह आपकी तदफ़ीन बा’द नमाज़-ए-अ’स्र हुई। उस के बा’द आपके मज़ार-ए-पुर-अनवार पर आपके जा-नशीन ने गुंबद ता’मीर किराया ।मज़ार-ए-मुबारक के लिए मौलाना इ’तरत हुसैन ने चार क़ितआ’त-ए-तारीख़ कहे जिस में दो दर्ज हैः
शैख़म कि तसद्दुक़ ब-अ’ली बूदः अस्त
ख़िज़्रेस्त कि हक़्क़ा ब-बक़ा राज़ी शुद
हाँ ख़िज़्र चे गोयम हम ऊ रास्त फ़ना
ईं अस्त बक़ा, ऊ ब-ख़ुदा राज़ी शुद
1929ई’सवी
बसे नौहः कुन ऐ दिल-ए-पर-हुज़्न
कि जानम सदा मी-देहद आह-ए-दिल
कि ब-गुज़ाश्त मारा-ओ-जन्नत शिताफ़्त
तसद्दुक़ अ’ली साबरी शाह-ए-दिल
1347हिज्री
सय्यद तसद्दुक़ अ’ली 14वीं सदी के बा-कमाल बुज़ुर्ग हैं। आप बाग़-ओ-बहार और ‘अब्क़री शख़्सियत के मालिक थे। आपको अल्लाह तआ’ला ने बे-पनाह ख़ूबियों और कमालात से नवाज़ा था। आप ख़ुश-तबा’ ख़ुश-ख़त और ख़ुश-पोशाक थे।आपको चारों सलासिल से इजाज़त-ओ-ख़िलाफ़त हासिल थी। आप अपने बुज़ुर्गों की तरह हमः ऊस्त वहदत-उल-वजूद के क़ाइल थे। आप हनफ़ी अहल-ए-सुन्नत और फ़ारसी अ’रबी के अच्छे उस्ताद भी थे। आपके मुरीदों की ता’दाद ज़्यादा थी।तमाम मुरीदीन-ओ-मुतवस्सिलीन आपसे वालिहाना इरादत रखते थे ।आप के पीर ने आप को इमाम-उल-औलिया तेज़-रफ़्तार-ओ-शेरशाह जैसे अलक़ाब से नवाज़ा था। आपकी बुजु़र्गी का ये आ’लम था कि मुख़्तलिफ़ सलासिल के बुज़ुर्ग आपसे इस्तिफ़ादा करते और फ़ैज़-याब होते। आपके हाज़िरीन में किसी सलासिल की क़ैद न थी। बिहार और बैरून-ए-बिहार में मुख़्तलिफ़ ख़ानक़ाहों के आ’रास के मौके़’ पर शिर्कत करते थे। तमाम सज्जाद-गान आपकी ता’ज़ीम किया करते थे। सिलसिला-ए-रशीदिया के नाम-वर बुज़ुर्ग हज़रत शाह अ’ब्दुल-अ’लीम आसी ग़ाज़ीपुरी से ज़्यादा क़ुर्बत थी। हज़रत आसी जब भी सीवान आते ख़ानक़ाह-ए-अमजदिया में ज़रूर तशरीफ़ लाते। एक वाक़ि’आ है कि हज़रत अमजद अ’ली का यक-रोज़ा उ’र्स था। उस उ’र्स में शिर्कत के लिए हज़रत आसी जूँही पालकी पर सवार हुए आपके मो’तक़िदीन ने एक काग़ज़ बढ़ाया जिसमें समाअ’ के मुतअ’ल्लिक़ बातें लिखी थीं कि वहाँ मज़ामीर का इस्ति’माल होता है। आप ने ऊपर से नीचे तक पढ़ा और उन साहब के हवाले कर दिया ये कहते हुए कि “जो शाह साहब का मस्लक है वही मेरा है”’। फिर आप रात-भर ख़ानक़ाह-ए-अमजदिया के उ’र्स में शरीक रह कर सुब्ह अपनी ख़ानक़ाह वापस हो गए।
मौलाना सय्यद तसद्दुक़ अ’ली पर मज्लिस-ए-समाअ’ में वज्द की कैफ़ियत तारी रहती ।वज्द के आल’म में कपड़े तार-तार हो जाते।क़व्वाल को नज़राना अपनी बिछी हुई सज्जादगी के नीचे से दिया करते थे। आप साहिब-ए-करामत बुज़ुर्ग थे। सीवान और अहल-ए-सीवान जौक़ दर-जौक़ आपके पास आते और अपने मसाइल पेश करते ।आप उनके लिए दु’आ फ़रमाते। आपकी दु’आओं से राजा इस्माई’ल अ’ली ख़ान के महल-ए-सानी को औलाद हुई।
अल्लाह पाक ने आपको फ़य्याज़ी अ’ता की थी ।आपके पास से कोई महरूम न जाता। ख़ानक़ाह में किसी को कोई शय पसंद आ जाती तो उसे फ़ौरन उस के हवाले कर देते थे। इख़्फ़ा-ए-हाल ग़ज़ब का था। अपने कमालात का बरमला इज़हार न किया करते ।इंकिसारी हद दर्जे की थी। औराद-ओ-वज़ाइफ़ कसरत और पाबंदी से करते थे ।सफ़र हज़र कभी नाग़ा न फ़रमाते थे ।दु’आ-ए-हैदरी के ज़ाकिर थे।
हज़रत अमजद अ’ली ने आपको 1309 हिज्री में बैअ’त से शरफ़याब किया और 1311 हिज्री में “मस्जिद बैत-उल-मौजूद अबदिया हयातिया” में तमाम हाज़िरीन-ओ-रुऊसा-ए-सीवान के रूबरू दस्तार-ए-ख़िलाफ़त और पटका-ए-ख़िलाफ़त-ए-सरदारी अपने दस्त-ए-मुबारक से इ’नायत किया। अहल-ए-सीवान और उसके अतराफ़ के हज़रात जहाँ आपसे बहरा-मंद हुए वहीं तलाश-ए-हक़ के शैदाइयों ने आपके रुहानी इ’ल्म से दिल की प्यास बुझाई। आपके वक़्त में जब ख़ानक़ाह-ए-अमजदिया का सालाना उ’र्स हुआ करता था तो ख़ानक़ाह के मेहमानों के अ’लावा ख़ानक़ाह से मुत्तसिल दक्खिन टोला में किसी फ़र्द के घर चूल्हे में आग न जलती थी ।ख़ानक़ाह का लंगर इतना वसीअ’ था कि पूरे मुहल्ले में लंगर तक़्सीम किया जाता था। समाअ’ की महफ़िल में फुलवारी शरीफ, सासाराम वग़ैरा की चौकियाँ आ’रिफ़ाना-कलाम से महफ़िल को गरमाती थीं। ग़ज़लों का इंतिख़ाब बहुत सख़्त होता।
सीवान में क़दीम दौर से ही शे’री नशिस्तें हुआ करती थीं और यहाँ एक से एक उस्ताद शाइ’र गुज़रे हैं, तरही नशिस्तें भी ख़ूब हुआ करती थीं। आपने भी तरही ग़ज़लें कही हैं ।शे’री नशिस्त में तो कभी शरीक नहीं होते थे मगर तरही पर ग़ज़ल ज़रूर हो जाती थी।
खाने पीने में कोई ख़ास पसंद न थी जो हाज़िर रहता वही नोश फ़रमाते मगर मेहमान-नवाज़ी बहुत थी। मेहमानों का ख़याल रखा जाता।नाज़-बरदारी बहुत करते। किसी को नाराज़ नहीं जाने देते। मेहमानों की पसंद का ख़याल रखते।खाने में आपको माश की दाल, चपाती और अदरक लहसुन और हरी मिर्च की चटनी बहुत पसंद थी। कई बार आपका फ़ातिहा अब्बी-ओ-शैख़ी ने इन्हीं अश्या पर दिया है।आपके मुरीदीन भी ज़्यादा थे। आपने अपने मुरीदों को लिबास अ’ता किया था। किसी को सुर्ख़, किसी को सबज़, किसी को ज़र्द, किसी को सफ़ैद। उन हज़रात के नाम भी उन्हीं लिबास की मुनासबत पर रखे जाते जैसे सुर्ख़-पोश शाह, सब्ज़-पोश शाह वग़ैरा।
आपके खोल़फ़ा-ए-ओ-मुरीदीन की ता’दाद यूँ तो बहुत थी लेकिन उनमें हस्ब-ए-ज़ैल हज़रात ब-तौर-ए-ख़ास क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
- हज़रत हकीम सय्यद शाह ख़ुरशीद अ’ली चिश्ती साबरी अमजदी (अल-मोतवफ़फ़ा 4 सफ़र-उल-मुज़फ़्फ़र 1394 हिज्री मुताबिक़ 27 फ़रवरी 1974 ई’सवी।
- हज़रत सय्यद शाह हसरत अ’ली अल-मुलक़्क़ब ब-बालक शाह (अलमुतवफ़्फ़ा 1357 हिज्री मुताबिक़ 1939 ई’सवी
- हज़रत शाह अबू ज़फ़र अल-मुलक़्क़ब ब-मक़बूल शाह (अलमुवतफ़्फ़ा 18 रबी-उ’ल-अव्वल 1395 हिज्री मुताबिक़ यकुम अप्रैल 1975 ई’सवी।
- हज़रत मुराद अ’ली शाह (अलमुवतफ़्फ़ा 17 अप्रैल 1951 ई’सवी
- हज़रत बाबा ख़लील दास चतुर्वेदी (अल-मुतवफ़्फ़ा 28 अक्तूबर 1966 ई’सवी
- हज़रत शाह अख़तर हुसैन गयावी अल-मुलक़्क़ब ब-बैराग शाह (अलमुवतफ़्फ़ा 18 जमादियस्सानी 1385 मुताबिक़ 14 अक्तूबर 1965 ई’सवी।
- हज़रत मौलवी सय्यद शाह मोहम्मद इसहाक़ अल-मुलक़्क़ब ब- ख़ामोश शाह
- हज़रत शाह मोहम्मद शहाबुद्दीन अल-मुलक़्क़ब ब-सोहबत शाह
- हज़रत इ’तरत हुसैन मोतीहारवी
- हज़रत भोला शाह छातवी
- हज़रत ज़ुहूर शाह
हकीम सय्यद शाह ख़ुरशीद अ’ली चिश्ती साबरी अमजदी के अ’लावा हज़रत मुराद अ’ली शाह और हज़रत बाबा ख़लील दास चतुर्वेदी से सिलसिला का फ़ैज़ जारी है।
अख़ीर में आपकी एक पालतू बिल्ली का तज़्किरा भी ना-मुनासिब न होगा। ये बिल्ली बड़ी फ़रमाँ-बरदार और आ’दत-ओ-अतवार के मु’आमले में आ’म बिल्लियों से ख़ासी मुख़्तलिफ़ थी । हमेशा आपके साथ रहती। खाने पीने की चीज़ें सामने रहते हुए भी उनकी तरफ़ मुल्तफ़ित नहीं होती थी। उसे जब खाना दिया जाता तभी खाती। आपके विसाल से एक रोज़ क़ब्ल वो ग़ाइब हो गई। विसाल के तीसरे रोज़ ख़ानक़ाह में आई और आ’लम-ए-इज़्तिराब में चारों तरफ़ सरगर्दां रही जैसे अपने मालिक को तलाश कर रही हो। आख़िर जब आपके मज़ार-ए-मुबारक के क़रीब पहुँची तो क़ब्र का तवाफ़ किया और मज़ार के पाएँती अपना सर ज़मीन पर रखा और जाँ-बहक़ हो गई। दादा जान (हकीम सय्यद शाह ख़ुर्शीद अमजदी) ने उसे नहलाया धुलाया और कफ़न में लपेट कर उस पर ‘इत्र लगाया और आपके पाएँती ही उसे दफ़्नकर दिया।
नोट: इर्शाद-ए-आ’ज़म वाहिद जिल्द अव्वल के क़लमी नुस्खे़ की इब्तिदा में हज़रत सय्यद तसद्दुक़ अ’ली ने अपने हालात क़लम-बंद किए थे जो पानी से भीग जाने की वजह से ठीक से पढ़ने में नहीं आते और उसके चँद सफ़हात भी ग़ाइब हैं। जब ये किताब 2000 ई’सवी में शाए’ हुई तो उसके मुरत्तिब अब्बी-ओ-शैख़ी हज़रत सय्यद शाह सग़ीर अहमद अमजदी ने हालात वाले हिस्से को हज़्फ़ कर दिया। इस अहक़र ने शाह तसद्दुक़ अ’ली के हालात लिखते हुए मज़्कूरा सफ़हात के उन हिस्सों से मदद ली है जो पढ़े जा सकते हैं। इस के अ’लावा इर्शाद-ए-आ’ज़म वाहिद, जल्वा-ए-हक़ीक़त और सिर्र-ए-हस्ती से फ़ैज़ उठाया है। चंद बातें वो भी हैं जो मैंने अब्बा हुज़ूर से बराह-ए-रास्त सुनी थीं।
आपके हुलिया-ए-मुबारक के मुतअल्लिक़ जो कुछ तहरीर है वो मैंने हज़रत ढीला शाह और हज़रत अ’ब्दुल हक़ छातवी से सुनकर लिखा है।इन दोनों हज़रात ने हज़रत शाह तसद्दुक़ अ’ली को देखा था।
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