सुल्तान सख़ी सरवर लखदाता-मोहम्मदुद्दीन फ़ौक़

आबा-ओ-अज्दाद

पौने सात सौ साल का ज़िक्र है कि एक बुज़ुर्ग ज़ैनुल-आ’बिदीन नाम रौज़ा-ए-रसूल-ए-पाक के मुजाविरों में थे।इसी हाल में वहाँ उनको बरसों गुज़र गए।रसूल-ए-करीम की मोहब्बत से सरशार और रौज़ा-ए-अक़्दस की ख़िदमात में मस्त थे कि ख़ुद आँ-हज़रत सलल्ल्लाहु अ’लैहि व-सलल्लम ने एक रात ख़्वाब में फ़रमाया कि उठ और हिन्दुस्तान की सैर कर।आप चूँकि आ’शिक़-ए-रसूल-ए-ख़ुदा थे इसलिए आँ-हज़रत की बशारत के मुताबिक़ रौज़ा-ए-अक़्दस और सरज़मीन-ए-अ’रब की जुदाई गवारा कर के हिन्दुस्तान की तरफ़ रवाना हो गए।उस ज़माना में अम्न-ओ-आराम और तन-आसानियों के ये सामान जो आज हर जगह नज़र आ रहे हैं ख़्वाब-ओ-ख़याल में भी न थे।इसलिए आप कई बरसों में ये तवील सफ़र तय कर के मुल्तान से 12 मील मशरिक़ की जानिब क़स्बा-ए-शाहकोट में इक़ामत-गुज़ीं हुए जहाँ चंद दिनों के बा’द एक शख़्स रहमान ख़ाँ की बेटी से आपने शादी कर ली।

पैदाइश,अस्ल नाम और इब्तिदाई हालातः-

हिन्दुस्तान में सुल्तान नासिरुद्दीन मोहम्मद बिन शम्सुद्दीन अलतमिश की हुकूमत का दौर-दौरा था।कौन नासिरुद्दीन? वही नेक-दिल बादशाह जो जरी और शुजाअ’ होने के अ’लावा आ’बिदों का आ’बिद और सख़ियों का सख़ी था।शाही ख़ज़ाने से कोई सरो-कार न रखता था।क़ुरआन-ए-मजीद की कितावत कर के अपना और बेगम का पेट पालता था।उस फ़रिश्ता-सीरत बादशाह के अवाएल-ए-अ’हद-ए-हुकूमत में ज़ैनुल-आ’बिदीन के हाँ यके बा’द दीगरे दो-लड़के पैदा हुए।एक का नाम ख़ान दूदा और दूसरे का नाम सय्यदी अहमद रखा गया।ख़ान दूदा ने जवान हो कर बा’ज़ रिवायात के मुताबिक़ बग़दाद और बा’ज़ लोगों के ख़याल में क़स्बा–ए-वडवर में इंतिक़ाल किया। सय्यदी अहमद अपने दूसरे भाई की निस्बत इब्तिदा ही से ग़ैर मा’मूली बातें करता था जो उसकी ज़ेहानत और शोहरत-ओ-नामवरी का पता देती थीं।अभी छोटी सी उ’म्र थी कि इ’ल्म हासिल करने के लिए शाहकोट से लाहौर की जानिब रवाना हुआ और दिक़्क़तें और तक्लीफ़ें उठाता हुआ बुज़ुर्गान-ए-लाहौर की ख़िदमत में पहुँचा।एक अ’र्सा तक लाहैर के सुलहा-ओ-उ’लमा और हज़रता-ए-अहल-ए-कश्फ़ की ख़िदमत में रह कर मक़ासिद-ए-दिली हासिल किए।जब उ’लूम-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी में काफ़ी दस्तरस हो गई तो सैर-ओ-सियाहत के  शौक़ में शहर ब-शहर और क़रिया ब-क़रिया फिरना शुरुअ’ किया। जहाँ जाते लोगों को नेकी की हिदायत की राह बताते।लोग भी शैक़-ए-दिल से उस जवान-ए-सालेह की बातों को सुनते और जिनको ख़ुदा ने तौफ़ीक़ दी है वो सुन कर अ’मल भी करते।

क़स्बा-ए-धोंकल में एक घोड़ी का मशहूर वाक़िआ’

वज़ीराबाद (पंजाब) के मुत्तसिल तीन मील के फ़ासला पर एक क़स्बा धोंकला आबाद है जो रेलवे लाइन (वज़ीराबाद से गुजराँवाला के दरमियान) से साफ़ नज़र आता है और जहाँ अब नार्थ वेसटर्न रेलवे का स्टेशन भी है।सय्यदी अहमद फिरते फिराते यहाँ भी आ निकले।चूँकि ख़ुदावंद-ए-करीम को इस मा’लूमी से गाँव को एक अहमियत-ए-ख़ास और शोहरत-ए-अ’ज़ीम देनी मंज़ूर थी इसलिए सय्यदी अहमद से बा’ज़ बातें यहाँ ऐसी ज़ुहूर में आ गईं जो ब-मंज़िला-ख़र्क़-ए-आ’दात और करामत समझी जाने लगीं।उन सब बातों में से मशहूर वाक़िआ’ एक घोड़ी के मुतअ’ल्लिक़ है जिसको बा’ज़ अंग्रेज़ी किताबों में भी नक़ल किया गया है।इस वाक़िआ’ की मुख़्तसर क़ैफ़ियत ये है कि यहाँ पहुँच कर आपने एक घोड़ी देखी जो बिलकुल लाग़र और कमज़ोर थी और ब-ज़ाहिर जान से बेज़ार नज़र आती थी।आपको उस ग़रीब जानवर पर रहम आया और फ़रमाया ऐ घोड़ी! चर चुग और हरी भरी हो जा! ख़ुदा की क़ुदरत से चंद दिनों के बा’द वो घोड़ी मोटी ताज़ी हो गई।कुछ अ’र्सा के बा’द आपने उस घोड़ी के मालिक से वो घोड़ी ख़रीदनी चाही मगर उसने फ़रोख़्त करने से इंकार कर दिया।थोड़े दिनों के बा’द घोड़ी के मालिक को चंद ऐसे मसाएब में मुब्तला होना पड़ा कि घोड़ी तो एक तरफ़ अपनी जान के लाले पड़ गए। आख़िर दौड़ा हुआ सय्यदी अहमद के पास आया और घोड़ी बिला-क़ीमत पेशकश कर के दु’आ-ए-ख़ैर का ख़्वास्तगार हुआ।

धोंकल में आपकी यादगार और मेला

धोंकल में हर साल ब-माह-ए-जून (माह-ए-हाड़) सख़ी सरवर के नाम से मेला लगता है जिसमें सियालकोट,इ’लाक़ा-ए-जम्मू,लाहौर, गुजराँवाला और दीगर मक़ामात से बे-शुमार अ’क़ीदत-मंद अलग-अलग क़ाफ़िला की सूरत में आते हैं।तक़रीबन एक माह तक ये मेला रहता है।यहाँ एक मस्जिद है जिसकी एक तरफ़ ज़ंजीर और दूसरी तरफ़ एक घंटा छत से आवेज़ाँ है,जिसको टल कहते हैं। टल ज़मीन से इस क़द्र ऊँचा है कि दराज़ क़ामत आमदी भी बग़ैर उछलने के सिवा उसको हाथ नहीं लगा सकता।जिस क़द्र ज़ाइर जाते हैं सब उस टल को चूमते हैं।औ’रतें भी मस्जिद में जाती हैं और बा’ज़ लोग उनको बग़ल में दबा कर ज़मीन से ऊँचा कर के टल तक पहुँचाते और उनको “चुमाते” हैं ।धोंकल में एक चश्मा (कुआँ) और एक तालाब भी सख़ी सरवर के नाम से मशहूर हैं जहाँ ग़ुस्ल करना सवाब का काम समझा जाता है।चश्मा से पानी निकालने वाले हर वक़्त मौजूद रहते हैं क्यूँकि उन्होंने मिन्नत मानी हुई होती है कि अगर हमारा फ़ुलाँ काम हो गया तो हम इतने सौ “बूका” चश्मा से सख़ी सरवर के नाम का निकालेंगे। तालाब पुख़्ता है और लोग वहाँ कसरत से नहाते हैं। धोंकल में पीपल और बड़ के बहुत दरख़्त हैं। अ’क़ीदत-मंदों का ख़याल है कि जहाँ सख़ी सरवर ने पीपल बड़ के दरख़्त की मेंख़ें ठोंकी थी वहाँ दरख़्त उग आए हैं और अब तक क़ाइम हैं।मुजाविरों की तरफ़ से ज़ाइरों को गंदुम के चंद दाने जो मस्जिद ही में पड़े रहते हैं मिलते हैं।मेले के दिनों में बहुत से मजाविर बकरे लेकर मस्जिद के इर्द-गिर्द फिरते और ये आवाज़ देते रहते हैं, पीर भाइयो चढ़ावे के लिए बकरा ले लो। ज़ाइर और अ’क़ीदत-मंद बकरा ले कर सख़ी सरवर के नाम का बकरा चढ़ावे में उसी शख़्स को देते हैं जिसको उन्हों ने पेसे दिए थे।

आपकी शादी

आप चूँकि सैलानी फ़क़ीर थे।एक जगह का मुस्तक़िल क़ियाम पसंद-ए-ख़ातिर न था।जब लोगों का हुजूम पस-ओ-पेश रहने लगा तो आप दामन छुड़ा कर मुल्तान जा निकले। जहाँ जहाँ आप जाते आपके हालात लोगों से पोशीदा न रहते। मुल्तान में ग़नी माम का एक मालदार शख़्स मुअ’ज़्ज़ज़ ओ’हदे पर सरफ़राज़ था। उसने अपनी लड़की की शादी आपसे कर दी।जहेज़ में ग़नी ने माल-ओ-दौलत नक़दी की सूरत में इस क़द्र दिया कि उसके रखने को जगह न मिली। दीगर सामान और लौंडी और ख़िदमत-गार भी बहुत दिए। ग़’र्ज़ उसने अपने ज़ो’म में आपको दुनिया-दारी के तफ़क्कुरात में मज़बूती से जकड़ दिया।

सख़ी सरवर की वज्ह-ए-तस्मियाः-

लेकिन यहाँ वो नशे नहीं थे जिन्हें तुर्शी उतार देती।जो दिल रूहानी ने’मतों से बहरा-वर होते हैं वो दुनिया की दौलत की क्या परवाह रखते हैं।जिस शौक़ और जिस कसरत से ग़नी ने आपको माल-ओ-दौलत दिया था आपकी नज़र में उस,शौक़ उस कसरत और उस माल-ओ-दौलत की कोई हस्ती न थी।आपने वो तमाम माल-ओ-दौलत ग़रीबों और मोहताजों को तक़्सीम कर दिया।सिवा-ए-तीन आदमियों (मलंग,काहिन और शैख़) के बाक़ी सब ख़िदमत-गार आज़ाद कर दिए।जिसने जो कुछ तलब किया वो पाया। इस सख़ावत और फ़य्याज़ी की इस क़द्र धूम हुई कि आप सुल्तान सख़ी सरवर और लखदाता के नाम से मशहूर हो गए।और अब ये नाम यहाँ तक मशहूर है कि पंजाब और हिन्दुस्तान में बच्चा-बच्चा इससे वक़िफ़ है।

बग़दाद की सियाहतः-

मुल्तान में भी हज़ारहा लोगों ने आपसे फ़ैज़ हासिल किया।जब  कुछ दिनों के क़ियाम के बा’द यहाँ से भी दिल उचट गया तो आप अपनी बीवी को हमराह ले कर बग़दाद चले गए। कई महीनों के क़ियाम के बा’द वहाँ से वापस तशरीफ़ लाए। वापसी के बा’द तीन  इख़्लास-मंद मुरीदों ने आपकी ख़ातिर वतन और ख़्वेश-ओ-अक़ारिब तक को तर्क कर दिया और आपकी ख़िदमत को अपनी सआ’दत समझा। उनके नाम ये हैं उ’मर, अ’ली और इस्हाक़। इनकी क़ब्रें हज़रत सख़ी सरवर की ख़ानक़ाह से कुछ दूर एक छोटी सी पहाड़ी पर साख-ए-अस्हाब के नाम से मशहूर हैं। वापसी पर आपने वहाँ इक़ामत इख़्तियार की जहाँ अब आपके नाम पर शहर-ए-सख़ी सरवर वाक़े’ है।

शहंशाह-ए-देहली की अ’क़ीदत-मंदी

अफ़्सोस है कि सुल्तान सख़ी सरवर की हालत निहायत तारीकी में है। गो आपकी बा’ज़ करामतें नज़्म में लिखी गई हैं लेकिन सन और तारीख़ के न होने से बा’ज़ वाक़िआ’त पाया-ए-ए’तिबार से गिरे हुए मा’लूम होते हैं। आपकी इब्तिदाई ता’लीम,सैर-ओ-सियाहत, धोंकल मुल्तान और बग़दाद वग़ैरा के सफ़र के ज़माना को अगर चालीस साल का शुमार किया जावे तो जिस ज़माना में आपने बग़दाद से वापस आ कर मुस्तक़िल सुकूनत इख़्तियार की है वो सुल्तान मोहम्मद शाह की हुक्मरानी सन 725 हिज्री का अ’हद था। जिसके नाम पर अमीर ख़ुसरौ ने तुग़लक़-नामा लिखा है। बादशाह की हुस्न-ए-अ’क़ीदत के मुतअ’ल्लिक़ ये रिवायत बयान की जाती है कि एक क़ाफ़िला ख़ुरासान से देहली को जा रहा था कि सख़ी सरवर साहब के क़ियाम-गाह के क़रीब क़ाफ़िला के एक ऊँट की टाँग टूट गई। सौदागर ने आपसे अपनी मजबूरी ज़ाहिर की और ख़्वाहिश की कि आप दु’आ करें कि अल्लाह तआ’ला मेरे ऊँट को आराम दे दे ताकि मेरा सफ़र खोटा न हो। आपकी तवज्जोह और दु’आ की बरकत से ऊँट सफ़र और बोझ को बरदाश्त करने के क़ाबिल हो गया। ख़ुरासानी सौदागर जब देहली पहुँचा और बादशाह के हुज़ूर पेश हुआ तो उसने अपने ऊँट की बीमारी और बा’द में हज़रत सख़ी सरवर साहब की तवज्जोह से उसके सेहतयाब होने का क़िस्सा सुनाया। बादशाह ने ख़च्चरों पर दौलत लदवाकर हज़रत की नज़्र के लिए इर्साल की और उनके लंगर के इख़राजात के लिए उनके गिर्द की बारह कोस तक की ज़मीन मुआ’फ़ी में दे दी।

आपकी वफ़ात और औलाद

निहायत अफ़्सोस है कि उ’म्र और तारीख़-ए-वफ़ात का किसी किताब से पता नहीं मिल सका।तारीख़ आपकी औलाद का भी पता देने से क़ासिर है।लेकिन मुजाविरों ने अपने मतलब के लिए दो ख़ानक़ाहों का नाम जो राना शाह का तख़्त के नाम से मशहूर हैं आपके फ़रज़न्द की क़ब्रों को बाक़ी रखा हुआ है जहाँ ख़ूब चढ़ावे चढ़ते रहते हैं।

अस्ली मज़ार कहाँ है?

मज़ार की बाबत लोगों में बहुत शुबहात हैं।अक्सर लोगों का ख़याल है कि ख़ानक़ाह के अंदर जो क़ब्र है और जिसको हज़रत का मज़ार कहा जाता है वो दर अस्ल उनकी क़ब्र नहीं है बल्कि अस्ली क़ब्र वो है जो साख-ए-अस्हाब की क़ब्रों की तरफ़ जाते हुए रास्ते में नज़र आती है और जो निहायत बोसीदा और बिलकुल अलग-थलग है। इस इख़्तिलाफ़ की वजह ये बयान की जाती है कि जब शाह-ए- देहली को हज़रत के इंतिक़ाल की ख़बर हुई तो चंद उमरा को इस ग़र्ज़ से रवाना किया कि वो हज़रत सख़ी सरवर की लाश-ए-मुबारक को देहली ले आएं ताकि वहाँ आ’ली-शान मक़बरा ता’मीर किया जाए। जब उनके अ’क़ीदत-मंदों और मुरीदों और ख़ुलफ़ा-ए-ख़ास को ख़बर हुई तो वो सख़्त घबराए। लेकिन बादशाह के हुक्म के सामने सरताबी की ताक़त न थी।आख़िर सब ने सलाह-ओ-मश्वरा कर के एक और क़ब्र को जहाँ अब मज़ार वाक़े’ है हज़रत का मज़ार ज़ाहिर कर के अस्ली मज़ार का पता ज़ाहिर न होने दिया। अभी क़ब्र खोदी नहीं गई थी कि शाही सवार हुक्म ले कर पहुँचा कि हज़रत ने क़ब्र के खोदने और जिस्म को दुनिया की हवा लगने से मन्अ’ फ़रमा दिया है, इसलिए वहाँ ही सरकारी तौर पर ख़ानक़ाह ता’मीर कर दी जाए। मुजाविर लोग अब फिर शश-ओ-पंज में मुब्तला हो गए । अस्ली मज़ार का पता नहीं बताते तो उस क़ब्र पर जिसको टालने के तौर पर हज़रत का मज़ार ज़ाहिर कया था ख़ानक़ाह ता’मीर होती है और अगर ज़ाहिर करते हैं तो धोका-दही और दरोग़-बयानी की वजह से शाही मा’तूबों में शामिल होते हैं। ग़र्ज़ अस्ली क़ब्र तो अलग की अलग रह गई और एक और क़ब्र पर ख़ानक़ाह तय्यार हो गई और वही अब मज़ार-ए-सुल्तान सख़ी सरवर के नाम से मशहूर है।

क़स्बा-ए-सख़ी सरवर

क़स्बा-ए-सख़ी सरवर जहाँ हज़रत का मज़ार है और जो हज़रत ही के नाम पर मशहूर है डेरा ग़ाज़ी ख़ान से ब-जानिब-ए-ग़र्ब कोह-ए-सुलैमान के दामन में वाक़े’ है। क़स्बा के मुत्तसिल ही एक दर्रा भी दर्रा-ए-सख़ी सरवर के नाम से मशहूर है जो अय्याम-ए-सलफ़ में क़ंधार और डेरा ग़ाज़ी ख़ान के दरमियान एक तिजारती ज़रीआ’ रहा है। इस क़स्बा में गो अब मदरसा डाक-ख़ाना अस्पताल थाना डाक-बंगला और सहरदी पुलिस की चौकियाँ भी हैं लेकिन इसकी शोहरत की ज़ियादा-तर वजह हज़रत का नाम-ए-मोबारक है। सिवा-ए-सरकारी मकानात के बाक़ी तमाम क़स्बा में लोग बजा-ए-चारपाई पर सोने के ज़मीन पर सोते हैं क्यूँकी मुजाविरों ने मशहूर कर रखा है कि सख़ी सरवर चारपाई पर सोने को पसंद नहीं फ़रमाते बल्कि उसे गुस्ताख़ी और बे-अदबी समझते हैं। चुनाँचे हिन्दू मुसलमान सब ज़मीन पर सोते हैं। तमाम क़स्बा में सिर्फ़ दो चार चारपाइयाँ हैं जो हिन्दू  मुसलमानों के मुर्दे उठाने के काम आती हैं।

सख़ी सरवर के मेला का नज़ारा:

मेले के अस्ली दिन 10 अप्रैल से 13 अप्रैल तक या’नी सिर्फ़ चार दिन हैं।लेकिन हुस्न-ए-अ’क़ीदत के मतवाले मार्च ही से बोरिया बिस्तरा बाँध कर सफ़र की तय्यारियाँ शुरुअ’ कर देते हैं।और लुत्फ़ ये है कि हिन्दू मुसलमान मर्द औ’रतें सब यकसाँ ख़ुलूस-ओ-अ’क़ीदत से सफ़र के मसाएब बर्दाश्त करते हैं और दौरान-ए-सफ़र में ज़मीन पर सोते और पीर भाइयो भला ही भला! के ना’रे लगाते होते हुए मंज़िल-ए-मक़्सूद पर जा पहुँचते हैं। जम्मू, काँगंड़ा, धर्मशाला, सियालकोट, हैदराबाद-ओ-सिंध, गुजरात, गुरूदासपुर, झींक, शाहपुर, मुज़फ़्फ़र गढ़ मुल्तान, बहावलपुर वग़ैरा मक़ामात से लोग जौक़-दर-जौक़ आते हैं। दूर के लोग मार्च के अख़िरी ही में चले जाते हैं और क़ुर्ब-ओ-जवार के रहने वाले 13 अप्रैल तक धूम-धमाका रखते हैं। बा’ज़ लोग ऊँटों पर सवार हो कर आते हैं। कजावों में अक्सर औ’रतें बैठती हैं। इनके अ’लावा पैदल और घोड़ों पर भी अक्सर लोग आते हैं।जब इन लोगों को आते हुए देखा जाता है तो ख़याल आता है कि इस क़द्र मख़्लूक़ कहाँ जा कर समाएगी। ये लोग जिनको “संग” कहा जाता हैं शहरों और गाँव से जो रस्ते में आते हैं माँगते हैं और जब किसी शहर या गाँव से गुज़रते हैं तो मा’लूम होता है कि बेकारों और मुफ़्त-ख़ोरों की एक फ़ौज आ गई है।रस्ते में हमराही औ’रतों को छेड़ते जाते हैं और उनसे हँसी-मज़ाक़ किए जाते हैं।

ख़ानक़ाह का मशरिक़ी कमरा

ख़ानक़ाह के मुत्तसिल मशरिक़ की तरफ़ एक और कमरा है जिसमें एक बहुत बड़ा भंगोड़ा,एक चर्ख़ा और दो कुर्सियाँ रखी हुई हैं। मुजाविरों का बयान है कि इन चीज़ों को हज़रत सख़ी सरवर की बीवी अपने इस्ति’माल में लाया करती थीं।

अ’जीब अ’जीब नज़राने और चढ़ावे

जिस कमरे में दिन को चराग़ जलते हैं उसकी छत और दीवारों के साथ ऊँटों की रेशमी मुहारें और छोटे छोटे भंगोड़े लटकते हुए नज़र आएंगे।ये मुरीदों और अ’क़ीदत-मंदों के नज़राने हैं और ये इस सूरत से पेश होते हैं कि एक शख़्स कहता है (बल्की ख़ानक़ाह के मग़रिब की जानिब जो कमरा चौबीस सुतूनों पर मुश्तमिल है, उसकी हर दीवार पर ऐसी ऐसी कई इलतिजाएं लिखी हैं) कि अगर मेरी हसब-ए-मंशा शादी होगी तो तो मैं इक़रार करता हूँ कि लखदाता के मज़ार पर एक बकरा नज़्र चढ़ाऊँगा।एक कहता है कि अगर मेरा गुम-शुदा ऊँट वापस आ जाए तो एक रेशमी मुहार नज़्र में दूँगा।कोई औलाद का ख़्वास्तगार है तो कोई अपने मा’शूक़ का तलब-गार है।और फिर जब ख़ुदा उनकी ख़्हाहिशें पूरी करता है तो उनकी मानी हुई मिन्नतें जो उ’मूमन मुहार,भंगोड़ा की सूरत में होती हैं दरगाह पर चढ़ाई जाती हैं।

ख़ानक़ाह में मेला की रौनक़

नदी की जानिब से ख़ानक़ाह की इ’मारत वाक़ई’ एक आ’ली-शान नज़ारा पैदा करती है।नदी की सत्ह तक 17 सीढ़ियाँ तय करनी पड़ती हैं।हर एक सीढ़ी चार चार फ़िट बुलंद है।मेला भी इसी नदी में लगता है।लोग सीढ़ियों पर बैठे हुए ऐसे मा’लूम होते हैं जैसे सर्कस के थियेटर में गिलहरियों की नशिस्त होती हैं।मेला में बे-शुमार दुकानों के अ’लावा बाज़ी-गर,क़लंदर, फ़क़ीर,शाहिदान-ए-बाज़ारी, रक़्क़ासान-ए-दिलरुबा के मश्ग़ले जा-बजा होते हैं।ग़र्ज़ मेला में तिल-भर जगह ख़ाली नहीं होती।

दरगाह के मुजाविर

जो ज़ाइरीन बाहर से आते हैं वो सब मुजाविरों के घरों पर उतरते हैं जिनसे मुजाविर लोग बड़े फ़ाइदा में रहते हैं।यहाँ तक कि पानी तक क़ीमतन दिया जाता है। मेला के दिनो में तो पानी की एक एक मश्क तीन तीन आने को फ़रोख़त होती है।मुजाविरों की औ’रतों ने ये ढ़कोसला बना रखा है कि हमें चर्ख़ा कातना मना’ है और इसीलिए उनके ख़ाविंद वग़ैरा जब मेला से फ़ारिग़ हो कर अपने मुरीदों के पास जाते हैं तो अ’लावा ग़ल्ला की काफ़ी मिक़दार और रूपया की फ़राहमी के मुख़्तलिफ़ क़िस्म के बहुत से कपड़े भी लाते हैं। ख़ानक़ाह के मुजाविरों के तीन गिरोह हैं जो हज़रत के तीन ख़दिमों के नाम से मशहूर हैं। मुजाविरों की ता’दाद औ’रतों और बच्चों समेत 1650 है । कमाल-ए-हैरत है कि हर साल जब कि मेला ख़त्म हो जाता है और आमदनी तक़्सीम करने से पहले सारे ख़ानदान की मर्दुम-शुमारी की जाती है तो ता’दाद 1650 ही होती है जिसकी तफ़्सील इस तरह है। गिरोह-ए-मलंग 750. गिरोह-ए-काहिन 600 गिरोह-ए-शैख़ 300 ,कुल 1650 नफ़र। कुल आमदनी 1650 हिस्सों में हर साल तक़्सीम की जाती है।

ख़ानक़ाह के मुतअल्लिक़ मुआ’फ़ियातः-

क़स्बा–ए-सख़ी सरवर के गिर्द तक़रीबन बारह कोस तक के फ़ासला की जो ज़मीन है वो इसी क़स्बा के मुतअ’ल्लिक़ है और इसके मालिक दरगाह के मुजाविर हैं। ये मुआ’फ़ी शाहान-ए-साबिक़ के  वक़्त से आज तक ब-दस्तूर चली आती है बल्कि बिर्टिश सरकार ने इस मुआ’फ़ी के अ’लावा 38 रूपया माहवार की इमदाद भी बराबर जारी रखी हुई है जो शाहान-ए-मुग़लिया के ज़माना से तालाब के मुहाफ़िज़ और कबूतरों की ख़ुराक के लिए मुक़र्रर थी। किसी ज़माना में इस ख़ानक़ाह पर बे-शुमार कबूतर रहा करते थे लेकिन अब न कबूतर हैं न तालाब है।

पुलिस का इंतिज़ाम

जिस तरह कश्मीर के मशहूर तीर्थ अमरनाथ जी में चंद दिनों के लिए पुलिस का ख़ास इंतिज़ाम किया जाता है बल्कि वहीं सज़ा देने के लिए स्पेशल जज भी भेज दिया जाता है ,उसी तरह यहाँ भी सरकारी पुलिस और इस इ’लाक़ा के बलूच तमंदार के सिपाही गश्त करते रहते हैं।अगर कोई शख़्स किसी क़ुसूर या शरारत के बा’इस क़ाबिल-ए-सज़ा होता है तो उसको तमंदार के महल के ऊपर बिठा देते हैं।वहीं उसको खाना पहुँचाया जाता है और जब तक मेला ख़त्म न हो उसको उसी क़ैद-ए-बे-ज़ंजीर में रखा जाता है।

यह लेख सूफ़ी पत्रिका के मार्च 1911 अंक में छपा था जो गुजरात से प्रकाशित होती थी .

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