हज़रत शाह-ए-दौला साहब-मोहम्मदुद्दीन फ़ौक़

शाह सय्यदा साहब:

जिस ज़माना का हम ज़िक्र करते हैं ये वो ज़माना है जब कि ग्यारहवीं सदी हिज्री अपनी उ’म्र का चौथाई हिस्सा तय कर रही थी।नूरुद्दीन जहाँगीर शंहशाह-ए-हिन्दुस्तान अपनी पुर-अम्न और पुर-शौकत सल्तनत से ख़ल्क़ुल्लाह को फैज़ पहुंचा रहा था।सियालकोट की सर-ज़मीन राजा सालबान के ज़माना से आज तक सैंकड़ों इ’ब्रत-नाक अंजाम देख चुकी थी।ठीक उन्हीं दिनों में सियालकोट में हज़रत साहब लोगों को रुहानी बरकात-ओ-फ़ुयूज़ से मालामाल कर रहे थे।शाह साहब जुनैद-ए-वक़्त और शिब्ली-ए-दहर थे।चेहरा निहायत रौशन और पेशानी निहायत ख़ंदा थी।और इसमें हर्गिज़ मुबालग़ा नहीं कि जबीन-ए-पुर-तंवीर से नूर-ए-इमान टपकता था। आपका मज़ार सियालकोट में मुतस्सिल सरा-ए-बाज़ार किंग मंडी में मर्जा’-ए-ख़ास-ओ-आ’म है।

मियाँ दौलाः-

पुराने ज़माने में दस्तूर था और बा’ज़ देहात और गाँव में अब तक भी ये क़ाइ’दा चला आता है कि साहूकार,ज़मींदार और आ’म मुत्वास्सितुल-हाल लोग जब कोई नौकर रखते थे तो उसके साथ  बजा–ए-तनख़्वाह के रोटी एक या दो रूपया माहाना मुक़र्र कर लिया करते थे।इसी क़रार-दाद पर मियाँ “दौला” घमान वुडहरा साकिन सियालकोट के हाँ नौकरी करते थे।ये अवाइल-ए-उ’म्र या’नी उ’न्फ़ुवान-ए-शबाब का ज़माना था।इस उ’म्र में जब कि दुनियावी आरज़ूएं भी एक जोश पर होती हैं आप हज़रत शाह सय्यदा साहब के फ़ैज़-ए-सोहबत से मुस्तफ़ीज़ हो कर इस शे’र का मिस्दाक़ बनने लगे।

दर जवानी तौबा कर्दन शेव:-ए-पैग़म्बरीस्त

वक़्त-ए-पीरी गुर्ग-ए-ज़ालिम मी-शवद परहेज़गार

पीर-ए-रौशन-ज़मीर ने चंद ही दिनों में आपको अपना बना लिया। चूँकि आप निहायत कार-कुन,मेहनती, दयानत-दार और कम-गो नौकर थे इसलिए घमान वुडहरा को आपकी ये फ़क़ीर-परस्ती तबअ’न ना-गवार गुज़री।उसने बहुत मना’ किया और तंख़्वाह का भी ज़ियादा लालच दिया मगर यहाँ कमी बेशी की बात ही न थी।सौदा ही और था और धुन ही और थी।ग़र्ज़ शाह साहब का दामन पकड़ कर न सिर्फ़ आपने नौकरी ही छोड़ दी बल्कि घर-बार ख़्वेश-ओ-अक़ारिब सबसे किनारा-कश हो कर आस्ताना-ए-पीर पर धूनी रमाने लगे।

दौला से शाह-ए-दौला

अल्लाह तआ’ल की हिक्मतों को समझना,अल्लाह वालों ही का काम है।मियाँ घमान भी शाह सय्यदा साहब को अब अच्छी नज़र से नहीं देखता कि उन्होंने मेरा कारकुन और मुतदय्यन नौकर मुझसे खो लिया।मियाँ दूला के रिश्ता-दार भी हज़रत पीर साहब के शाकी हैं कि उन्होंने उसको फ़क़ीरी की “लटक” लगा कर हम से छीन लिया लेकिन ख़ुदा-वंद-ए-करीम को ये किस तरह मंज़ूर था कि एक ऐसा शख़्स जिसने एक आ’लम नाम पैदा करना हो और जिससे हक़ परस्ती, दुनियादारी और सख़ावत-ओ-फ़य्याज़ी का नाम रौशन होना हो वो इस तरह क़ा’र-ए-गुम-नामी में पड़ा रहे और अपनी ज़िंदगी को होने न होने के बराबर गुज़ार दे।चुनाँचे आप अने पीर साहब की ऐ’न-ए-हयात ही में बहुत मक़्बूल हो गए और पीर साहब के इंतिक़ाल के बा’द हज़ारहा लोग आपके इरादत-मंदों में दाख़िल होने लगे।आप पहले दूला थे अब शाह-ए-दौला कहलाने लगे।सच है “जिसे दे मौला वही औला” ।

राजा-ए-राजौरी का मुरीद होना

हज़रत शाह-ए-दौला साहब कई सालों के क़ियाम-ए-सियालकोट के बा’द गुजरात में आ गए थे और गो हर दूसरे चौथे साल बल्कि अपने पीर के हर सालाना उ’र्स पर सियालकोट जाया करते थे। लेकिन अस्ल सुकूनत अब गुजरात ही में बना ली थी।और यही ग़ालिबन आपका अस्ल वतन भी था।हाजत-मंद और इरादतमंद जौक़-दर-जौक़ आपके पास आते थे और मुरादें हासिल करते हुए चले जाते थे।आपके इस ज़ुह्द-ओ-इत्तिक़ा,फ़क़्र-ओ-ग़िना और कश्फ़-ओ-करामात की ख़बर राजा-ए- राजौरी तक भी पहुँची।उस ज़माना में राजौरी का राजा ताजुद्दीन ख़ाँ उ’र्फ़ चत्र सीना था।अपनी जानशीनी से तीसरे साल बा’द या’नी सन 1015 हिज्री में वो पंजाब की सैर को वतन से बाहर निकला।और जब गुजरात में पहुँचा तो निहायत ख़ुलूस और इंकिसार से हज़रत शाह-ए-दौला साहब के मुरीदों और हल्क़ा-ब-गोशों में दाख़िल हुआ।और इस बात पर फ़ख़्र ज़ाहिर किया कि हज़रत ने अपने मुरीदों में मेरा नाम भी दाख़िल कर लिया है।

राजा को शाह-ए-दौला साहब का कश्फ़ी फ़रमान

ज़माना-ए-सलफ़ में दुख़्तर-कुशी की रस्म निहायत बे-दर्दी से जारी थी।अपनी लड़कियों को पैदा होते ही हलाक कर देते थे।ग़र्ज़ राजा के हाँ लड़की पैदा हुई।उसका नाम राज बाई रखा गया।राजा हलाक करने की तदबीरों में ही था कि हज़रत शाह-ए-दौला साहब का मुरीद-ए-ख़ास ये फ़रमान ले कर आया कि ख़बरदार इस लड़की को हाथ मत लगाना ये बादशाहों का माल है और इससे बादशाह ही पैदा होंगे और तुम्हारे ए’ज़ाज़-ओ-मरातिब भी इसके वजूद की सलामती से रोज़-अफ़्ज़ूँ रहेंगे।इसकी परवरिश हिफ़ाज़त और इ’ज़्ज़त से करो।

राजा मआ’ क़बाइल ख़ुद गुजरात जाता है:

राजा इस फ़रमान के पहुँचने पर कलिमात-ए-मसर्रत-अंगेज़ ख़ुद हज़रत की ज़बान-ए-मोबारक से सुनने के लिए मआ’ रानी और लड़की के आ’ज़िम-ए-गुजरात हुआ।बहुत से तहाइफ़-ओ-हदाया और नज़्र-ओ-नियाज़ पेशकश करने के लिए साथ लिए।राजा को हज़रत से यहाँ तक अ’क़ीदत थी कि वफ़ूर-ए-अदब से छोटी-छोटी मंज़िलें तय करता था और बावुजूद घोड़ों और हाथियों की मौजूदगी के पैदल चलता था।हज़रत भी राजा के हुस्न-ए-अ’क़ीदत को मलहूज़ रख कर पेशवाई के लिए गुजरात से बाहर निकले और दो-तीन मील जा कर उनका इस्तिक़बाल किया।राजा ने शरफ़-ए-क़दम-बोसी हासिल किया और शाह साहब ने दु’आ-ए-ख़ैर से इ’ज़्ज़त अफ़ज़ाई फ़रमाई।राजा कई दिनों तक शाह साहब का मेहमान रहा।तोहफ़ा-तहाइफ़ पेश किए गए जिनको हज़रत ने मुरीद-ए-बा-इख़्लास के पास-ए-ख़ातिर से मंज़ूर फ़रमाया।राज बाई के बारे में हज़रत ने वही फ़रमाया जो मुरीद-ए-ख़ास की ज़बानी कहला भेजा था।आख़िर राजा रानी ब-हुसूल-ए-इजाज़त वापस राजौरी गए और लड़की की ग़ौर-ओ-परदाख़्त मा’मूल से ज़ियादा तवज्जोह के साथ होने लगी।

औरंगज़ेब आ’लमगीर की राजा की लड़की से शादी

जब शहाबुद्दीन शाहजहाँ तख़्त-नशीन हो कर लाहौर से आ’ज़िम-ए-कशमीर हुआ तो राजा-ए-राजौरी ने अपनी सरहद (नौशहरा) पर नज़राना और पेशकश हाज़िर किया और बादशाह को कई दिन तक राजौर में मेहमान रखा। बादशाह ने अपने लड़के शाहज़ादा औरंगज़ेब के लिए जो हम-रिकाब था राजा से लड़की की दरख़्वास्त की।राजा ने बादशाह की उस ख़्वाहिश को अपना फख़्र और लड़की की फ़र्ख़ंदा ता’लइ’ समझ कर शुक्र-गुज़ारी के साथ क़ुबूल किया और हसब-ए-शान-ए-शाहाँ रुसूम-ए-मा’मूला अदा हो कर शाहज़ादा का निकाह राज बाई से हो गया जिस से हज़रत शाह-ए-दौला साहब की ये पेशीन-गोई पूरी हो गई कि ये लड़की बादशाहों का माल है।

औरंगज़ेब और हज़रत शाह-ए-दौला साहब

राज बाई से औरंगज़ेब शाह-ए-दौला साहब के हालात सुन चुका था। एक दिन ख़ुद ज़ियारत के लिए गुजरात आया और एक मुर्ग़-ए-ज़र्रीं-ओ-दो विलायती बिल्लियाँ एक छड़ी चोब दस्ती अ’लावा दीगर तहाएफ़ के हज़रत की नज़्र में पेश की और दिल में ख़याल किया कि अगर शाह साहब ये छड़ी मुझको वापस अ’ता कर दें तो यक़ीनन बादशाही मेरे नसीबों में होगी। हज़रत शाह साहब कि रौशन-दिल और रौशन-ज़मीर थे शाहज़ादे के इस ख़याल से आगाह हो कर फ़रमाने लगे कि ये नान-ए-मुरग़्ग़न जो ने’मत-ए-ख़ुदा है और अभी तय्यार हो कर आया है तुम्हारा हिस्सा है, और ये छड़ी ख़ुदा के हुक्म और तुम्हारी ख़्वाहिश के ब-मोजिब तुमको निशान-ए-ए’ज़ाज़ी के साथ दी जाती है।औरंगज़ेब शाह साहब का शुक्रिया अदा किया और आदाब बजा लाकर रुख़्सत हुआ।

राज बाई और औरंगजेब हज़रत शाह-ए-दौला के मुतअ’ल्लिक़

औरंगज़ेब ने मुन्दर्जा बाला वाक़िआ’त का ज़िक्र एक दिन राज बाई से किया। कहा कि आपको तो सल्तनत की ख़ुशख़बरी मिली है मुझे तो जान बख़शी हज़रत की इ’नायत से हुई है।और मुझे तो उसी वक़्त से आपकी बादशाही का यक़ीन है जब कि मेरे साथ आपका निकाह हुआ था क्यूँकि हज़रत शाह-ए-दौला साहब का फ़रमान ये है कि राज बाई बादशाहों का माल है और उससे बादशाह पैदा होंगें।बादशाहों का माल तो मैं हो गई कि एक बादशाह के घर में आई लेकिन मेरे बत्न से बादशाहों का पैदा होना इस बात की दलील है कि मेरा ख़ाविंद या’नी आप भी बादशाह होंगे।चुनाँचे औरंगज़ेब के हाँ उसी रानी के बत्न से दो लड़के मोहम्मद आ’ज़म और मोहम्मद मो’अज़्ज़्म पैदा हुए जो यके बा’द दीगरे बादशाह बने।जब औरंगज़ेब आ’लमगीर के लक़ब से तख़्त-ए-हुकूमत पर बैठा तो राज बाई का नाम नवाब राज महल रखा गया।

हज़रत शाह-ए-दौला साहब के रिफ़ाह-ए-आ’म काम

हज़रत शाह साहब की ज़ात-ए-वाला सिफ़ात से जो फ़ैज़ रूहानी तौर पर इरादतमंदों को पहुँचा उसका बयान इहाता-ए-तहरीर से बाहर है। ख़ुदा जाने किस क़द्र हाजत-मंद लोग उनकी नज़र-ए-कीमिया-असर से ग़नी हो गए और कितने अहल-ए-ग़र्ज़ दिल की मुरादें हासिल कर गए।और किस क़द्र लोग उनके फ़ैज़-ए-सोहबत से दुनिया-दारों से क़तअ’-ए-तअ’ल्लुक़ कर के अपनी आ’क़िबत संवार बैठे।लेकिन ज़ाहिरी तौर पर भी जो फ़ैज़ हज़रत साहब ने अहल-ए-हाजत और आ’म लोगों को पहुँचाया है वो कुछ कम क़ाबिल-ए-फ़ख़्र नहीं है। ज़ौक़ मरहूम फ़रमा गए:

नाम मंज़ूर है गर, फ़ैज़ के अस्बाब बना

पुल बना चाह बना मस्जिद-ओ-तालाब बना

हज़रत शाह साहब ने फ़ैज़ के अस्बाब पुल, चाह, मस्जिद और तालाब की सूरत में इस क़दर बनवाए कि मा’लूम होता है वो फ़क़ीर नहीं थे बल्कि ख़ुदाई का ख़ज़ाना उनके पास था।हैरत है कि हर रोज़ सैंकड़ो और हज़ारों रूपया ख़र्च कर डालते थे लेकिन दूसरे दिन फिर अल्लाह अल्लाह ख़ैर सल्लाह होती थी।उनकी ता’मीर कर्दा इ’मारत और पुलों वग़ैरा की लागत का तख़्मीना कई लाख रुपया तक पहुँचता है जिससे बावुजूद “फ़क़ीर” होने के उनकी आ’ली-हिम्मती और दरिया-दिली ज़ाहिर होती है। यहाँ सिर्फ़ उनकी चार यादगरों का जो मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर पुलों की सूरत में हैं, ज़िक्र किया जाता है।

सियालकोट की नदी एक का पुल

सियालकोट की नदी एक का मशहूर पुल जो अपनी मज़बूती और पाएदारी में बे-मिसाल है आपकी बेहतरीन यादगार है।ये पुल हज़ारहा रुपए के सर्फ़ा से तय्यार हुआ था जो सियालकोट से शर्क़न ग़र्बन शाहराह-ए-लाहैर पर वाक़े’ है। उस पुल के पाँच दर्रे थे।सरकार-ए-अंग्रेज़ी ने दर्मियाना दर्रा को ब-तौर-ए-यादगार हज़रत शाह-ए-दौला क़ाएम रहने दिया और हर दो जानिब के दो-दो दर्रों को एक एक बना दिया ताकी पानी आसानी से गुज़र जाए। इस पुल का नाम पुल-शाह-ए-दौला है।

दूसरा नाला हँसली का

ये पुल सियालकोट से दस कोस के फ़ासला पर हज़रत ने ता’मीर फ़रमाया है।इस पर भी हज़ारहा रूपया सर्फ़ हुआ।ख़ास शहर पसरूर में एक तालाब भी अ’मीक़ और वसीअ’ आपकी यादगार है जिसकी इ’मारत निहायत उ’म्दा है।हज़रत शाह साहब क़ियाम-ए-सियालकोट के ज़माना में पसरूर में ही अक्सर क़ियाम फ़रमाया करते थे।

डेक नदी से मुत्तसिल  ऐमनाबाद का पुल

ये पुल डेक नदी पर मुत्तसिल ऐमनाबाद ज़िला’ गुजराँवाला वाक़े’ है। ये पुल दोहरा है और बे-नज़ीर है। इसकी लागत का तख़्मीना एक लाख रूपया तक किया जाता है। इस पुल का नाम भी पुल-ए-शाह-ए-दौला है।

 गुजरात में शाह-ए-दौला साहब का पुलः-

गुजरात के नाला पर ये क़ाबिल-ए-ता’रीफ़ पुल अपने बानी की याद ताज़ा कर रहा है।यहाँ एक तालाब भी आपने सर्फ़ा-ए-कसीर से बनवाया था।ता’मीरात के बहाना से आपने हज़ारहा ग़रीबों और मज़दूरों की परवरिश के सामान मुहय्या कर दिए।

एक मज़दूर को दो-चंद मज़दूरीः

आ’म तौर पर मशहूर है कि हर चंद आपके पास सीम-ओ-ज़र न था लेकिन ख़ज़ाना-ए-ग़ैब से आपको इस क़द्र मदद मिलती थी कि न सिर्फ़ मज़दूरों को ही हर रोज़ ख़र्च तक़्सीम हो जाता था, बल्कि लंगर-ख़ाना के इख़राजात भी वसीअ’ पैमाना पर होते थे।ये बातें देख कर लोग हैरान होते थे। ख़ुसूसन मज़दूर लोग आपस में हर रोज़  काना-फूसी करते थे। आख़िर एक मज़दूर ने ये देखा कि शाह साहब हर रोज़ अपने मुसल्ले के नीचे से जिस पर वो बैठा करते हैं मे’मारों और मज़दूरों के लिए इख़राजात तक लेते हैं।उनके मकान में नक़ब लगाई और मक़ाम-ए-सज्जादा या’नी मुसल्ले की ज़ेरीं जगह को भी खोद डाला लेकिन सिवाए मायूसी के कुछ हाथ न आया और नाकाम हो कर वापस चला आया।दूसरे दिन शाम को जब हज़रत शाह साहब तमाम मज़दूरों को उजरत तक़्सीम करने लगे तो उस मज़दूर को जिसने आपके मकान में तमअ’-ए-ज़र के लिए नक़ब लगाई थी दो- चंद उजरत अ’ता फ़रमाई।वो तो ख़ामोश हो रहा लेकिन एक दूसरे मज़दूर ने कहा कि हज़रत ये क्या इंसाफ़ है और इस में क्या ख़ुसूसियत है कि इसको हम से दो-गुनी मज़दूरी दी जाती है।हज़रत ने फ़रमाया उसने काम दो-गुना किया है।रात को भी बेचारा देर तक दर्द-सरी करता रहा। इसलिए इसका हक़ है कि वो तुम से दो-गुनी उजरत हासिल करे।

शनीदम कि मर्दान-ए-राह-ए-ख़ुदा

दिल-ए-दुश्मनाँ हम न-कर्दंद तंग

हज़रत शाह-ए-दौला का इंतिक़ाल

ग़र्ज़ फ़क़्र-ओ-तसव्वुफ़ का वो माया-नाज़ जो रूहानी और माद्दी तौर पर हाजत-मदों,अ’क़ीदत-मंदों और बे-कसों का मुरब्बी था आख़िर सफ़र-ए-आख़िरत की तय्यारियाँ करने लगा।हज़रत की ज़िंदगी और आपका ख़ल्क़ुल्लाह से सुलूक और तर्ज़-ए-अ’मल क़ाबिल-ए-तक़्लीद है।आपने ख़ैरात बे-शुमार कीं लेकिन कभी ना-अहलों और ग़ैर- मुस्तहिक़्क़ों को नहीं दी और न ऐसी बेजा ख़ैरात और गदा-गरी की अपने मुरीदों और आ’म लोगों को आ’दत डाली बल्की पुलों,मस्जिदों और तलाबों की ता’मीरात जारी कर के सैंकड़ों और हज़ारों ग़रीबों और मुफ़्लिसों को गदा-गरी जैसी ज़िल्लत से नजात दिलाते रहे। और हमेशा हाथ पाँव हिलाने और अपनी क़ुव्वत-ए-बाज़ू से पेट पालने को तर्जीह देते रहे।आपका इंतिक़ाल ख़ास गुजरात में हुआ। मज़ार-ए-पुर-अनवार पर आ’लीशान पुख़्ता इ’मारत है।ई’दैन पर वहाँ बड़ा मेला होता है और निहायत रौनक़ होती है।

शाह-ए-दौला के चूहे

शाह-ए-दौला की चूहियाँ और चूहे अक्सर लोगों ने देखे होंगे।उनके सर छोटे-छोटे होते हैं।बाक़ी क़द-ओ-क़ामत और डील-डोल सब दूसरे लोगों से मिलती जुलती है।अक्सर लोगों का ऐ’तिक़ाद है कि अगर किसी बे-औलाद शख़्स को औलाद की ज़रूरत हो और वो शाह-ए-दौला साहब के मज़ार पर जा कर मिन्नत मान आए कि अगर मेरे हाँ ख़ुदा औलाद दे तो पहली औलाद ख़्वाह वो बेटी हो या बेटा हज़रत के मज़ार पर आ कर ब-तौर-ए-नज़्र पेश कर जाऊँगा तो अल्लाह तआ’ला उसकी मुराद पूरी कर देता है।चुनाँचे शाह-ए-दौला साहब के जिस क़द्र चूहे और चुहियाँ मशहूर हैं वो सब ऐसी ही नज़्र- कर्दा हैं। चूँकि उनके सर ब-तौर-ए-इम्तियाज़ छोटे होते हैं या ब-क़ौल बा’ज़ पैदाइश और बचपन में ख़ास टोपियों के पहनाने और दबाने से छोटे कर दिए जाते हैं, इसलिए ये चूहे होश-ओ-हवास और अ’क़्ल-ओ-शुऊ’र से ख़ाली होते हैं।बहकी-बहकी बातें करते हैं और लोगों के घरों में चले जाते हैं और साथ रखने वाले जिस तरह उनको सिखाते हैं थोड़ा बहुत सीख जाते हैं।अब लोगों ने उन चूहों को अपनी परवरिश का वसीला बना रखा है और उनको साथ ले कर माँगते फिरते हैं।अगर ये मख़्लूक़ हज़रत शाह-ए-दौला साहब के नाम के तुफ़ैल फ़िल-वाक़े’ क़ुदरतन छोटे सर के साथ पैदा होती है तो फ़िल-हक़ीक़त ख़ुदा की क़ुदरत का अ’जीब नमूना है।

अब हज़रत के मज़ार पर जनाब क़ुद्वतुस्सालिकीन ज़ुब्दतुल-आ’रिफ़ीन हज़रत क़ाज़ी सुल्तान मोहम्मद साहब सज्जादा नशीन आवान शरीफ़ ने पुख़्ता रौज़ा ता’मीर करा दिया है। 

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