हज़रत ग़ौस ग्वालियरी और योग पर उनकी किताब बह्र उल हयात

हज़रत ग़ौस ग्वालियरी शत्तारिया सिलसिले के महान सूफ़ी संत थे. शत्तारी सिलसिला आप के समय बड़ा प्रचलित हुआ.

ग़ौस ग्वालियरी हज़रत शैख़ ज़हूर हमीद के मुरीद थे. अपने गुरु के आदेश पर आप चुनार चले गए और अपना समय यहां ईश्वर की उपासना में बिताया. चुनार में हज़रत 13 साल से अधिक समय तक रहे. इतिहासकार बदायूनी तहरीर करता है कि चुनार में अपने प्रवास के दौरान हज़रत केवल पेड़ की पत्तियां खा कर जीवन यापन करते थे. वहां विन्ध्याचल क्षेत्र में आप का सत्संग योगियों से हुआ था जिसका असर आप के जीवन पर इतना गहरा पड़ा कि आपका नज़रिया हर धर्म के प्रति उदार हो गया. आगे चल कर आप ने योग पर प्रसिद्ध किताब अमृतकुंड का तर्जुमा किया जो फ़ारसी में योग पर पहली किताब मानी जाती है. हज़रत ग़ौस ग्वालियरी से पहले फ़वायद उल फ़ुवाद किताब में अजोधन में बाबा फ़रीद की ख़ानक़ाह में योगियों का ज़िक्र किया गया है पर वहां योगियों का आना जाना कभी कभी होता था.हज़रत ग़ौस ग्वालियरी ने लगातार काफ़ी समय योगियों के सानिध्य में बिताया और उनकी योग क्रियाओं के विषय में ज्ञान प्राप्त किया. आप ने संस्कृत भी सीखी.

चुनार में अपने प्रवास के दौरान आपने अपने मुर्शिद शैख़ ज़हूर हमीद के उपदेशों का एक संकलन  जवाहर ए ख़म्स: के नाम से किया.जब शैख़ हमीद  बंगाल से अपनी यात्रा पूरी कर वापस लौटे तब आप ने अपनी यह किताब उन्हें भेंट की. शैख़ को यह किताब बड़ी पसंद आई परन्तु शैख़ चाहते थे कि ग़ौस साहब अपना ज़्यादा समय लोगों की सेवा में बिताएं इसलिए उन्होंने आप को ग्वालियर जाने का आदेश दिया.

ग्वालियर में उस समय अफ़गानों का शासन था. कुछ ही समय बाद बाबर ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया. बाबर पर शैख़ का बड़ा प्रभाव था और वह आपकी बड़ी इज्ज़त करता था. बाबर के बाद हुमायूँ के शासन काल में भी हज़रत ग़ौस ग्वालियरी को बड़ा सम्मान मिला लेकिन जब हुमायूँ को हार का सामना करना पड़ा और  भारत को छोड़ कर जाना पड़ा, उसके बाद हज़रत की परेशानियाँ बढ़ गयी. आप को ग्वालियर छोड़ कर जाना पड़ा और आप गुजरात आ गए.

गुजरात में जल्द ही इनका नाम प्रसिद्ध हो गया और लोग आप के दर्शन हेतु बड़ी तादाद में आने लगे. यहीं रहते हुए आप ने मे’राज नामा लिखी जो तत्कालीन विद्वानों के बीच बड़ी विवादित हुई. यह विवाद इतना बढ़ा कि उस समाय के एक बड़े इस्लामी विद्वान् शैख़ अ’ली मुत्तक़ी ने आप के ख़िलाफ़ फ़त्वा ज़ारी कर दिया. जब यह विवाद गुजरात के सुल्तान तक पहुँचा तो उस ने गुजरात के प्रसिद्ध विद्वान शैख़ वजीहुद्दीन अलवी से सलाह ली, शैख़ ने यह फ़त्वा फाड़ दिया और बात वहीं ख़त्म हो गई. इस घटना से हज़रत ग़ौस का नाम गुजरात में प्रसिद्ध हो गया. आप ने वहां एक बड़ा घर और ख़ानक़ाह बनवाई जिसे दौलत ख़ाना कहा जाता था. यहाँ एक मस्जिद भी बनवाई गयी. इस मस्जिद के उत्तर में ख़ाली जगह थी जहाँ हज़रत ग़ौस ग्वालियरी की पत्नी और दो बेटे दफ़न हैं .

हालाँकि हज़रत ग़ौस ग्वालियरी को गुजरात में बड़ा सम्मान प्राप्त हुआ लेकिन आप का मन वहां नहीं लगा और मुग़ल साम्राज्य की पुनर्स्थापना के पश्चात वह दिल्ली आने की योजना बनाने लगे. वह दिल्ली आते इस से पहले ही एक दुर्घटना में हुमायूँ की मृत्यु हो गयी.

हुमायूँ की हज़रत में विशेष श्रद्धा होने की वजह से अकबर भी आपका बड़ा सम्मान करता था.

हज़रत शैख़ मुहम्मद ग़ौस ने सन 1558 ई. में आगरा की यात्रा की. आगरा पहुँचने पर अकबर स्वयं इनका स्वागत करने आया. हालाँकि यह बात बहुत से तत्कालीन विद्वानों को नागवार गुजरी और उन्होंने बैरम ख़ान ए ख़ाना के कान भरने शुरू कर दिए. वह इस में सफल भी हुए और हज़रत के साथ बैरम ख़ान के रिश्ते इतने खराब हुए कि कभी ठीक नहीं हो पाये. आगरा में इनके प्रवास के दौरान इतिहासकार बदायूनी आप से मिलना चाहता था. जब वह मिलने पहुंचा तो उसने देखा कि हज़रत के यहाँ हिन्दू श्रद्धालुओं की बड़ी भीड़ है और हज़रत हर हिन्दू आगंतुक के सम्मान में खड़े हो रहे हैं. यह देखकर बदायूनी के कट्टर हृदय को बड़ी ठेस पहुंची और वह वापस लौट गया . आगरा में बैरम ख़ान ए ख़ाना के साथ सम्बन्ध बिगड़ते जा रहे थे और हज़रत का वहां रहना अब मुश्किल होता जा रहा था. स्थिति को भांपकर आप ने ग्वालियर वापस लौटना ही श्रेयस्कर समझा. आपकी ग्वालियर वापसी के बाद अकबर बैरम ख़ान से बड़ा क्षुब्ध हुआ.

हज़रत ग़ौस ग्वालियरी ने  ग्वालियर में अपनी ख़ानक़ाह बनाई और उनका ज़्यादातर समय समाअ’ महफ़िलों में बीतता था.  

हज़रत शैख़ मुहम्मद ग़ौस ग्वालियरी का विसाल आगरा में सन 1562 ई. में 80 वर्ष की आयु में हुआ. हालाँकि अकबर नामा और तबाक़ात ए अकबरी के अनुसार आप का विसाल ग्वालियर में हुआ लेकिन मुल्ला अब्दुल क़ादिर बदायूनी के अनुसार इनका विसाल आगरा में हुआ और आप को ग्वालियर में खाक़ के सुपुर्द किया गया. आप की दरगाह ग्वालियर में स्थित है जहाँ आज भी विभिन्न धर्मों के श्रद्धालु श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं.

हज़रत ग़ौसग्वालियरी के अनुयायियों में हर धर्म के लोग थे. लोगों से मिलते समय हज़रत कभी ‘मैं’ नहीं कहते थे. अकबर के दरबारी संगीतकार तानसेन हज़रत के मुरीद थे. तानसेन की मज़ार भी हज़रत की मज़ार के पास ही स्थित है.

हज़रत ग़ौस ग्वालियरी के प्रसिद्ध शाहकारों में बह्र उल हयात उल्लेखनीय है. यह किताब अमृत कुंड का फ़ारसी अनुवाद है जो संस्कृत में लिखी गयी थी. इस किताब का अनुवाद शैख़ रुक्नुद्द्दीन समरकंदी ने हौज़-उल-हयात के नाम से अरबी में किया था. हौज उल हयात का फ़ारसी तर्जुमा बह्र उल हयात के नाम से हज़रत ग़ौस ग्वालियरी ने फ़ारसी में किया. यह कृति इस लिए भी बड़ी दुर्लभ है क्योंकि यह फ़ारसी में योग पर पहली किताब है. दूसरा बड़ा कारण यह है कि मूल किताब अमृतकुंड अब नहीं मिलती. इसलिए बह्र उल हयात का महत्व और भी बढ़ जाता है. एक महत्वपूर्ण किताब अपने अनुवाद के रूप में सुरक्षित है और इस तरह रस का सफ़र बढता जा रहा है.

बह्र उल हयात की एक पाण्डुलिपि इन्टरनेट पर मिलती है जिसमे कुछ आसनों की तस्वीरें दी हुई है. सूफ़ीनामा में किताबों की खोज के दौरान हमें बह्र उल हयात भी मिली जिस के कुछ अध्यायों का हिंदी तर्जुमा अब्दुल वासे साहब ने सूफ़ी नामा के लिए किया है. हम उन में से कुछ आसनों का अनुवाद इन्टरनेट पर उपलब्ध चित्रों के साथ इस लेख में प्रस्तुत कर रहे हैं. आशा है आप सुधी जनों को हमारा यह प्रयास पसंद आएगा.

ज़िक्र ए अलख

अलख तहत से इबारत है। जो शख़्स इस अ’मल में मशग़ूल होना चाहता है उसे चाहिए कि वह दो ज़ानू बैठे। दाएँ हाथ की मुट्ठी को बंद किए हुए उस को दाएँ ज़ानूँ पर रखे। दाएँ हाथ की कोहनी को मुट्ठी तक लाए। दायाँ हाथ मुट्ठी को बाँधे हुए डाढ़ी के नीचे टिकाए सुरीन को सख़्त रखे। नाफ़ को पुश्त की तरफ़ ले जाए। नाफ़ के नीचे से जो कि मक़ाम-ए-आतिश है सांस ऊपर खींचे। इस वक़्त ख़्याल में इस क़द्र गुम हो जाए कि उसे हाल की ख़बर ना रहे।

ज़िक्र-ए-चक्री:-

जब कोई शख़्स पूरी दुनिया को एक नुक़्ता की शक्ल में देखने और तमाम आ’लम को तजद्दुद-ए-अमसाल के ज़रीया हस्ती-ए-मुतलक़ के अंदर दरयाफ़्त करने का मुतामन्नी हो तो चाहिए कि वह ज़िक्र-ए-चक्री को अपने ऊपर लाज़िम कर ले। चक्री गर्दिश से इबारत है। उसे तफ़रिक़ा में आँख की रौशनाई और चमक से ता’बीर किया जाता है। जब कोई इस ज़िक्र को शुरू करता है तो वाज़िह नुक़्ता को नुक़्ता-ए-वाहिद की शक्ल में मुशाहिदा करता है। उसे यह दुनिया एक ज़र्रा की शक्ल में नज़र आती है क्योंकि यह दायरे का मर्कज़ है। इस आसन में तालिब दोनों ज़ानू को मुत्तसिल किए हुए हाथ पर हाथ रखे हुए बैठता है। अपनी जगह पर बैठे हुए आँखों को छः जिहतों में घुमाता है। एक साल के बाद आँखें घूमने लगती हैं। बीनाई अपने हाल पर बाक़ी रहती है। इस का फ़ायदा इस से कहीं ज़्यादा है। अ’मल करने से इस के फ़ाएदे हासिल होंगे।

ज़िक्र-ए-नबोली:-

जब सालिक इस ज़िक्र का इरादा करे तो पहले चार ज़ानू बैठे। दोनों हाथों को दोनों ज़ानू पर रखे। सर, कमर और पुश्त को बराबर रखे हुए नाफ़ को अपनी हालत पर छोड़ दे। इंगला और बंगला दोनों को हरकत में रखे जैसे कोई कपड़ा बुनने वाला हरकत में रहता है। इंगला आफ़ताब और बंगला माहताब को कहा जाता है। जब यह दोनों दायरा में होते हैं तो सैर-ए-ला-यतनाही हासिल होती है। इस का फ़ायदा मुशाहिदा ही से हासिल होगा।

ज़िक्र-ए-गोरखी:-

अगर सालिक अपने बातिन को साफ़ रखने का तालिब हो तो वह जोगियों के अ’मल गोरखी को ब्रह्म आसन के ज़रीया अंजाम दे। इस आसन में पांव के दोनों तलवों को यकजा कर के दोनों तलवों के सिरों को दोनों ख़ुसियों के नीचे रखे। दोनों हाथ को पुश्त पर लपेटे रखे। उस के बा’द सर को थोड़ा टेढ़ा किए हुए जिस्म को धीरे धीरे जुंबिश दे। फिर अपनी ज़बान की सांस को दाँत पर सख़्ती के साथ रोके रहे। वक़तन-फ़वक़तन अपनी आँखों को बंद करे। जब वह ताक़त के साथ नाक के ज़रीया छोड़ेगा तो वह इस तरह की दो सांस ले पाएगा। इस अ’मल को मुसलसल फ़ज्र और अ’स्र के बाद अंजाम देना चाहिए। इस का फ़ायदा अ’मल से ही मा’लूम होगा।

ज़िक्र-ए-अकुंचन :-

अगर सालिक अ’मल-ए-अकूनचन को अंजाम देना चाहता है तो वह सिद्ध आसन की तरह बैठे। अकूनचन कशिश से इबारत है। सूफ़ियों की इस्तिलाह में मक़्अ’द को नीलोफ़र कहा जाता है। नीलोफ़र ख़ाना-ए-आतिश और हवा के बाहर आने की जगह है। इस आसन में दोनों सुरीन को सख़्त कर के यकजा किया जाता है और फिर नीलोफ़र को इस तरीक़े से ऊपर की जानिब किया जाता है कि उस से एक क़िस्म की आग पैदा होती है जिस से तमाम क़िस्म की कसाफ़तें जल जाती हैं और जो चीज़ें भी ग़ैर आ’दी होती हैं वह ख़ुद-ब-ख़ुद ख़ाकिस्तर हो जाती हैं। इस का फ़ायदा अ’मल से ही ज़ाहिर होगा।

ज़िक्र-ए-अनहद सबद:-

जब सालिक चाहता है कि हमेशा एक हुज़ूर में मशग़ूल रहे और किसी वक़्त जुदा ना हो तो उसे ज़िक्र-ए-अनहद में मशग़ूल रहना चाहिए। अनहद सबद ला-यज़ाली चीज़ को कहा जाता है। इस अ’मल में सालिक दो ज़ानू बैठता है और अपनी दोनों सुरीनों को पांव के तलवे पर,अपने दोनों हाथों को कान पर और शहादत की दोनों उँगलियों को कान के ऊपर, नर अंगुश्त को कान के पीछे और तीनों उँगलियों को खुली रखे हुए उस नुक़्ता तक ले जाता है जहाँ से आवाज़ पैदा होती है। इस अ’मल में आवाज़ बग़ैर अ’लामत के अ’लामत हुआ करती है। कोई शख़्स अगर देर तक हाथ ऊपर को ना रख सके तो वह फ़िलफ़िल को सुती कपड़े में रख कर उसे दोनों कानों में डाल कर इस आसन को पूरा करे ताकि उस की उँगलियों से ही आवाज़ पैदा हो सके। रूई के इस अ’मल के ज़रीया भी उसी तरह की आवाज़ पैदा होगी। इस के फ़ायदे अ’मल से ही ज़ाहिर होंगे।

ज़िक्र-ए-शीतली:-

सीतली ठंडी हवा से इबारत है। जब सालिक चाहता है कि ज़िक्र-ए-सीतली को अंजाम दे तो ज़मीन पर कंवल की तरह बैठे। उस के दाएँ पैर की पुश्त पसलियों के नज़दीक बाएँ ज़ानू पर और उस के बाएँ पैर की पुश्त पसलियों के नज़दीक दाएँ घुटने पर हो। दोनों होंटों को बंद किए हुए बाएँ पैर की पुश्त को निगाह के नज़दीक रखे ताकि उस का तमाम पेट और उस के तमाम आ’ज़ा हवा से भर जाएँ। इस अ’मल से वह चिड़ियों की तरह हल्का फुलका हो जाएगा। होंटों को बंद कर के नाक से सांस ले। जब कोई यह अ’मल करता रहता है तो उस के लिए सांस लेना आसान हो जाता है। जब कोई यह अ’मल कर गुज़रता है तो उस के लिए कान से सांस लेना आसान हो जाता है। जो कोई अपने पेट को साफ़ करना चाहता हो तो वह पायानी हिस्सा से यह अ’मल करे। इस के फ़ायदे कहीं ज़्यादा हैं। अ’मल करने से मा’लूम होगा।

ज़िक्र-ए-भुवंगम:-

भुजंग साँप को कहा जाता है। साँप जिस तरह से सांस खींचता है सालिक भी उसी तरह यह अ’मल करता है। जब सालिक भुवंगम अ’मल करना चाहता हो तो चाहिए कि वह दो ज़ानू बैठ कर मुँह को बंद किए हुए नाक से सांस ले और उसे नाफ़ के नीचे तक पहुंचाए और फिर उसे नाफ़ से ताक़त के साथ बाहर लाए ताकि वह उम्मुद-दिमाग़ तक पहुंच जाए। फिर उसे धीरे धीरे छोड़े कि वह नाफ़ तक पहुंच जाए। फिर ताक़त से उसे बाहर लाए। फिर जहाँ तक वह कर सके इसी तरह करता रहे। इस अ’मल के दौरान वह ध्यान रखे कि सांस नाक और मुँह से ना लेवे। जब सांस लेना ना-गुज़ीर हो जाए तो नाक से सांस ले-ले। फिर शुरू से वैसा ही करे जैसा कि बताया गया है। बा’ज़ सालिकीन इस अ’मल को इस तरह अंजाम देते हैं कि वह एक या दो दिन एक सांस से ही काम चलाते हैं। कुछ लोग इस से ज़्यादा भी कर लेते हैं।

ज़िक्र-ए-कुम्भक:-

जब कोई ज़िक्र-ए-कुम्भक शुरू करना चाहे तो वह जिस्म के आ’ज़ा पर मौजूद हवा को पूरक से उम्मुद-दिमाग़ तक बिला किसी जब्र-ओ-क़ुव्वत के ले जाए। अगर जब्र से काम लेगा तो आ’ज़ा टूट जाऐंगे। जब यह उम्मुद-दिमाग़ तक पहुंच जाए तो चश्म को दराज़ किए हुए ज़बान को हल्क़ में चिपकाए रहे और सांस को आहिस्ता-आहिस्ता नाक के ज़रीया अंदर आने दे। फिर अ’मल-ए-पूरक को नए सिरे से शुरू करे। सांस जब अन्दर को जाती है तो उसे पूरक और जब बाहर आती है तो उसे कुम्भक  कहते हैं। जब उसे छोड़ देते हैं तो रीजक कहा जाता है।

थंब (स्तम्भ) आसन:-

इस आसन में भी मुरब्बा’  बैठते हैं। अपने दोनों हाथों को पिंडलियों के दरम्यान रखा जाता है और ताक़त से दोनों हाथों को रोके रखते हैं। ज़िक्र-ए-अलख को कभी फ़रामोश नहीं करते। जब इस मक़ाम पर पहुंच जाते हैं तो माद्दा-ए-ख़ाक-ओ-आब कम हो जाता है और हवा-ओ-आग का मेआ’र बुलंद हो जाता है।

ज़िक्र-ए-खेचरी :-

खेचरी दम-बस्तन से इबारत है। इस में सालिक ज़बान के लिए हल्क़ के दरवाज़े को बंद कर देता है। सालिक पहले मरहला में हाल-ए-ज़बान को छ: महीना तक संगी-नमक और फ़िलफ़िल से दो बार मलता है। अपने दोनों हाथों से कपड़ा भिगो कर उसे दराज़ करता है। कभी सुपारी नहीं खाता। अंगुश्त-ए-शहादत और नर-अंगुश्त के नाख़ुन को बढ़ा लेता है, ज़बान के नीचे वाली काली और लाल रंग वाली दो रगों में से एक को अपने नाख़ुन से पकड़े हुए अक्सर-ए-ज़बान को बंद किए हुए हल्क़ की खिड़की की तरफ़ इस हद तक दराज़ करता है कि पूरी ज़बान हल्क़ के सुराख़ में आ जाती है और वह दम-बस्ता हो जाता है। जब वह ज़बान को हल्क़ तक ले जाता है तो डाढ़ी की ठुड्डी टेढ़ी-ओ-लचीली हो जाती है। जब मुआ’मला यहाँ तक पहुंच जाता है तो वह सालों तक एक सांस से ज़िंदा रह सकता है। इस वक़्त चूँकि ज़बान हल्क़ की खिड़की तक पहुंच जाती है लिहाज़ा जब वह ज़बान को बाहर निकालता है तो नाक का अगला हिस्सा बराबर हो जाता है। उस वक़्त उसे यह मा’लूम हो जाता है कि वह अपने मक़्सद को पहुंच गया है। उसे चाहिए कि अब मशग़ूल का तरीक़ा दरयाफ़्त करे और सिद्ध आसन में बैठे। वह अपनी नशिस्तगाह ज़मीन को बनाए। ज़ानू और पिंडली को ख़ुद में चिपकाए हुए बाएँ पांव के तलवे पर दाएँ पांव की पुश्त को रखे। बाएँ पांव के सिरे को दोनों ख़ुसियों के नीचे रखे ताकि पेशाब और मनी की रग बंद रहे। दोनों हाथों को दाएँ और बाएँ ज़ानू के ऊपर बरअ’क्स रखे रहे। वह हल्क़ की खिड़की को बंद कर के ऊपर बताए गए तरीक़े को निगाह में रखे। इस अ’मल के फ़ायदे को भी मलहूज़-ए-नज़र रखे ताकि सालिक की सरगर्मी का उसे इल्म होता रहे और वह ख़्वाब-ए-ग़फ़लत, भूक, सोज़िश,सुस्ती, काहिली, सर्दी, गर्मी, हयात, मौत और तमाम बशरी तक़ाज़े से मुनज़्ज़ह हो जाए। इस अ’मल से गुज़रने के बाद सालिक का सुलूक अफ़्लाक में हुआ करता है। कुंजरी को जोगियों की लुग़त में अफ़्लाक कहा जाता है। जब वह इस शुग़्ल में कामिल हो जाता है तो फ़र्श से अ’र्श तक और फ़र्श से तहतुस-सुरा तक की दूरी उस के लिए सिर्फ़ एक क़दम की मुसाफ़त के बराबर रह जाती है यहाँ तक कि तहत-ओ-फ़ौक़ और वस्त, तीनों उस के लिए एक दायरा की तरह हो जाते हैं। तीनों आ’लम के दायरे उस सालिक के तसर्रुफ़ में आ जाते हैं। इस के दूसरे फ़वाइद अ’मल से ज़ाहिर होंगे।

-सुमन मिश्र

मूल फ़ारसी से हिंदी अनुवाद – अब्दुल वासे

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