ख़्वाजा ग़रीब नवाज़-अबुल-आज़ाद ख़लीक़ी देहलवी

ये किसी तअ’स्सुब की राह से नहीं  बल्कि हक़्क़ुल-अम्र और कहने की बात है कि हिन्दुस्तान की ख़ुश-नसीब सरज़मीन तहज़ीब-ओ-तमद्दुन और हुस्न-ए-मुआ’शरत के लिहाज़ से जैसी भी कुछ थी वो बहुत अच्छी सही लेकिन जिन पैरों तले आकर ये रश्क-ए-आसमान बनी और जिन हाथों से इसका निज़ाम दुरुस्त हुआ, जिन दिमाग़ी फ़ुयूज़ से यहाँ आ’म ज़रूरियात फ़राहम और जुमला शो’बहा-ए-ज़िंदगी मुकम्मल हुए ख़ुदा की शान देखने वाले पता लगा लेते हैं कि ये सारी चीज़ें ख़ोशा-चीनान-ए-मर्कज़-ए-तौहीद-ओ-तहज़ीब ही के लाए हुए हैं। उनके सद्क़े  ही तमद्दुन-ए-हिंद मुकम्मल हुई या बड़ी हद तक तकमील को  पहुंची। तारीख़ हिंद का मोहसिन बनाकर जिस जिस को पेश करती है उसमें अ’रब और ईरान मुमताज़ तौर पर नज़र आते हैं।

इधर से नज़र हटा कर जब दुनिया-ए-मज़्हब पर इक निगाह डालें तो अस्नाम परस्तियाँ मत्लअ’-ए-वहदत पर कुफ़्र-ओ-ज़ुल्मत के घटाटोप पर्दे डाले नज़र आएंगी लेकिन ख़ुदा की शान आफ़्ताब-ए-तौहीद भी जिस सम्त से ज़ौ-अफ़्गन हुआ वो भी गोशा-ए-मग़्रिब था। इस्लाम जब हिन्दुस्तान में अपना असर और बा-बरकत पहला क़दम तलाश करता है तो सन 44 हिज्री में  महलब बिन अबी सफ़रा की शक्ल जल्वा पैरा नज़र आती है।

अह्ल-ए-बातिन से कोई गिरोह ख़ाली नहीं और न ही ख़याल किया जा सकता है कि कोई उम्मत ख़ाली रही होगी। मेहनत और रियाज़त हमेशा मुआ’वज़ा दिया करती है मगर मेरा ज़ाती ख़याल है कि कस्ब-ए-कमाल और इक्तिसाब-ए-हुनर उसी वक़्त हो सकता है जबकि मुअ’ल्लिम अफ़्ज़ल-ओ-मुकम्मल दस्तियाब हो , दर्स तदरीजी हो, तालिब-ए-इ’ल्म ज़की और साहिब-ए-ज़ौक़ हो। सबसे ज़्यादा ये कि इ’ल्म को इ’ल्म ही के लिए हासिल करने की निय्यत हो। वाहिमा-परस्ती का गुज़रा हुआ ज़माना भी अह्ल-ए-तअ’म्मुक़ के सामने है। रियाज़त भरपूर, मेहनत काफ़ी  मगर मतलब मुजाहिदात का बिल्कुल नाक़िस। इ’रफान-ए-इलाही का होना ज़रा क्या बिल्कुल ना-मुमकिन था।

ये भी मियाँ की किब्रियाई कि इ’ल्मुल-इ’रफ़ान की तजल्लियाँ और तसव्वुफ़ की ज़ौ-अफ़्शानियाँ भी मुकम्मल-तरीन शक्ल में जब बुलंद होती हैं तो वो भी मवाज़िआ’त-ओ-मुतअ’ल्लिक़ात-ए-मर्कज़-ए-तौहीद से होती हैं। अल-ग़र्ज़ क़स्बा-ए-हारून नवाह-ए-नेशापूर से  कोई आया, कोई संजर से,  कोई चिश्त से  चला आया तो कोई ख़ुरासान से। मगर हिन्दुस्तान भी एक ख़ुश-नसीब शान रखता है। ख़ुशक और पथरीली ज़मीनें बाग़-ए-अ’दन और गुल्ज़ार-ए-इरम से ज़्यादा दिल-फ़रेब हैं।

कहाँ कहाँ से कोई आया और क्या-क्या कोई लाया? देखने वाली आँखें देखती हैं और समझने वाले दिल जानते हैं कि बलदा-ए-सजिस्तान का ला’ल,सरताज-ए-मशाइख़-ए-उज़्ज़ाम, सुल्तान-ए-सूफ़िया-ए-किराम, गौहर-ए-बुर्ज-ए-इ’ल्लीइ’न, जौहर –ए-दुर्ज-ए-बिल-यक़ीन, सुल्तानुल-हिंद ख़्वाजा-ए-ख़्वाज-गान  मुई’नुद्दीन मोहम्मद रहमतुल्लाहि अ’लैह ख़ाक-ए-हिंद में क्या लाया  और कौन आया? इस मुख़्तसर मज़्मून में ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ के मुतबर्रक हालात क्या समा सकते हैं जबकि दफ़्तर के दफ़्तर भी इसके लिए मुख़्तसर हों। ता-हम ग़रीब-नवाज़ ख़्वाजा के दरबार में गुल्शन का इक फूल और फूल की भी एक पंखड़ी अपने अ’क़ीदत-ओ-इरादत के ना-चीज़ गुल-दस्ता में लगा कर मैं भी एक तरफ़ जा खड़ा होने की आरज़ू कलेजा से लगाए आ रहा हूँ। पेश करता हूँ ऊँची शान वाले संजरी, ग़रीब के दाद-परवर चिश्ती ख़्वाजा के बारे में चंद बातें । ये हक़ीर-ओ-बे-माया  लिखते हुए शरमाता है और बे-माईगी से चश्म तर है।इरादत के दिल, और अ’क़ीदत की क़लम से लिखने वाले गुनह-गार पर वो शाएद शान-ए-करम की इक नज़र डाल दे।

मौलिद शरीफ़

ग़रीबों के दाद-रस ख़्वाजा सजिस्तान में पैदा हुए और ख़ुरासान में नश्व-ओ-नुमा पाई। आपके वालिद-ए-माजिद ख़्वाजा ग़ियासुद्दीन हसन ज़ेवर-ए-फ़लाह से आरास्ता और हुस्न-ए-सलाह से पैरास्ता उतने ही थे जितने सुल्तानुल-हिंद जैसे मुक़द्दस नफ़्स के लिए एक बाप की ज़रूरत हो सकती है। जब जद्द-ए-बुजु़र्ग-वार की वफ़ात हुई तो ख़्वाजा का सन शरीफ़ पंद्रह साल का था। अल्लाह वालों की अज़ली शान-ए-फ़क़्र हम-रिकाब थी। मरहूम बाप की विरासत में से एक मुख़्तसर बाग़ और चक्की पाई थी।

इक्तिसाब-ए-इ’ल्म

बुज़ुर्ग  पहले इ’ल्म-ए-ज़ाहिरी में माहिर होते हैं और बा’द में कस्ब-ए-रूहानियत किया करते हैं मगर ख़्वाजा इस कुल्लिया से अलग पहले रूहानियत पर फ़ाइज़ हुए। वो इस तरह कि ख़्वाजा एक रोज़ अपने बाग़ में दरख़्तों की आब-पाशी कर रहे थे । उस वक़्त के एक मश्हूर बुज़ुर्ग इब्राहीम क़ंदोज़ी का गुज़र उस बाग़ से हुआ। ख़्वाजा की जूंही नज़र उन पर पड़ी फ़ौरन दौड़े और दस्त-ए-हक़-परस्त को बोसा देकर अंगूर क एक ख़ोशा पेश किया और ख़ुद बा-अदब बैठ गए। साहिब-ए-बातिन मज्ज़ूब ने देखा कि बाग़ वाला गुल्शन-ए-इस्लाम का गुल-ए-नौ-दमीदा है और इसकी ख़ुश्बू चार दांग-ए-आ’लम में महकेगी शफ़्क़त फ़रमाई और अंगूर अपने दहन-ए-मुबारक में चबा कर ख़्वाजा के दहन में दिए जिसके खाते ही ख़्वाजा के बातिन में एक नूर ताले’ और लामे’ हुआ। हज़रत का दिल एक ऐसे लज़्ज़त-देह मज़ा से आश्ना हुआ कि जिसका बयान मुम्किन नहीं। मकान और इमलाक से बे-ज़ार हो गए और जाइदाद-ए-मन्क़ूला बेच कर दरवेशों में तक़्सीम किया और तलाश-ए-हक़ में चल निकले। एक मुद्दत  तक समरक़ंद और बुख़ारा में कलाम-ए-मजीद के हिफ़्ज़ करने  गुज़ारा और तहसील-ए-उ’लूम-ए-ज़ाहिरी में मश्ग़ूल रहे। वहाँ से फ़ारिग़ हो कर इराक़ की तरफ़ आए और जब क़स्बा-ए-हारून में जो नेशापुर के नवाह में है तशरीफ़ लाए तो शैख़ उ’स्मान हारूनी जो उस वक़्त के मशाइख़-ए-किबार में से थे उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुए और उनके दस्त-ए-हक़ परस्त पर अपने को वक़्फ़-ए-हक़ किया। ढाई साल उनकी ख़िदमत में रह कर मुजाहिदा-ओ-रियाज़त की जो तज़्किरों में मंक़ूल है। ख़ाक-ए-हिंद को उनके अनवार-ए-हक़्क़ा से मुनव्वर होना था इसलिए वो ग़ज़नीं होते हुए लाहौर तशरीफ़ लाए और वहाँ से दिल्ली नुज़ूल फ़रमाया।

वुरूद-ए-अजमेर

मसऊ’द था वो वक़्त जब ख़्वाजा ने हिन्दुस्तान में क़दम-ए-हुमायूँ रखा और मुबारक थी वो घड़ी अह्ल-ए-अजमेर के लिए जब ख़्वाजा हमेशा के लिए उस दैर को मुनव्वर करने के वास्ते वहाँ तश्रीफ़ ले गए। दिल्ली जब ख़्वाजा तशरीफ़ लाए और मुतलाशियान-ए-हक़ की युरिश से परेशान हो कर ऊँचे ऊँचे पहाड़ों की आरज़ू-ए-दीद को बर लाने के लिए इत्मीनान-ए-ख़ातिर के ख़्याल से अजमेर में वारिद हुए। वो बंजर ज़मीन जो नुमू-ए-तुख़्म-ए-बर्ग-ओ-बार से ना-आश्ना थी फूल फल वाली बनी, वो ऊँचे नीचे पहाड़ जो अपनी सख़्ती-ओ-करख़्ती पर मुँह उठा उठा कर ग़रीब-परवर ख़्वाजा को दूर से देख रहे थे अब उन्हें अपने बीच में देखकर फ़र्त-ए-ख़ुशी से फूल गए। दस तारीख़ मुहर्रम सन561 हिज्री में हुज़ूर अजमेर शरीफ़ में दाख़िल हुए।सय्यिदुस्सादात सय्यिद हसन मश्हदी अल-मश्हूर ब-ख़न्ग-सवार जो इमामिया अ’क़ीदा रखते थे उस ज़माना में क़ुतुबुद्दीन ऐबक की तरफ़ से दारोग़ा-ए-शहर थे।वो निहायत ख़ुश हुए और ग़ायत मुदारात से ख़्वाजा से पेश आकर दौलत-ए-दारैन हासिल की।

अ’क़्द शरीफ़

दूसरी मर्तबा दिल्ली हो कर ख़्वाजा जब अजमेर शरीफ़ वापस हुए तो ख़्वाजा ने सुन्नत-ए-रसूल सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम  पूरी फ़रमाई। सय्यिद वजीहुद्दीन मोहम्मद जो सय्यिद हसन मश्हदी के चचा थे उनकी एक साहिब-ज़ादी निहायत सालिहा थीं और उनको फ़िक्र थी कि किसी मर्द-ए-मुत्तक़ी-ओ-ज़ाहिद के हिबाला-ए-निकाह में उनको लाऊँ। इसी फ़िक्र में एक शब ख़्वाब में क्या देखते हैं कि हज़रत इमाम जा’फ़र सादिक़ अ’लैहिस्सलाम इर्शाद फ़रमा रहे हैं कि ऐ वजीहुद्दीन हुज़ूर सरवर-ए-काएनात रसूल-ए-ख़ुदा सल्लल्लाहु अलै’हि-व-सल्लम का इर्शाद है कि इस लड़की को मुई’नुद्दीन के हिबाला-ए-निकाह में लाओ कि वो वासिलान-ए-दरगाह-ए-ख़ुदावंदी में से हैं।
सय्यिद वजीहुद्दीन ने हाज़िर हो कर ख़्वाजा के रू-बरू अ’र्ज़-ए-हाल किया। ख़्वाजा ने फ़रमाया कि मेरी उ’म्र का आफ़्ताब लब-ए-बाम आ चुका है लेकिन चूँकि हज़रत रिसालत मआब और इमाम-ए-आ’ली मक़ाम का ये इशारा है तू मुझे सिवा-ए-इ’ताअत के चारा नहीं। उस के बा’द ख़्वाजा ने उस नेक बी-बी को शरीअ’त-ए-मुस्तफ़वी के मुवाफ़िक़ हिबाला-ए-निकाह में लिया। उस बी-बी सालिहा के बतन से दो फ़र्ज़ंद करामत हुए। ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ अ’या-लदारी के सात बरस बा’द 6۔ रजब सन 633 हिज्री को सतानवे 97 बरस कि उ’म्र में क़ैद-ए-जिस्मानी से आज़ाद हो कर आ’लम-ए-क़ुद्स की तरफ़ राही हुए। इन्ना लिल्लाहि-व-इन्ना इलैहि राजिऊ’न

कमालात-ए-रुहानी

ख़्वाजा की करामातें और ख़िरक़-ए-आ’दात हज़ारों हैं जो गुमराहों के लिए राह-ए-हिदायत और अह्ल-ए-नज़र के लिए तस्कीन-ए-क़ल्ब हैं जो शौक़ रखने वालों को किताबों में मिल सकती हैं। शैख़ फ़रीदुद्दीन ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी रहमतुल्लाहि अ’लैह से नक़्ल फ़रमाते हैं कि ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ साइमुन्नहार थे। कसरत-ए-मुजाहिदा-ओ-रियाज़त का ये हाल था कि सात-सात रोज़ का हुज़ूर रोज़ा रखते और इफ़्तारी ये थी कि एक रोटी जौ की जो दो मिस्क़ाल से ज़्यादा की न होती होगी पानी में तर कर के नोश फ़रमाते थे। इस क़दर साइमुन्नहार होना और क़ियामुल-लैल का एह्तिम्मम करना बहुत मुश्किल है। इसी तरह कस्र-ए-नफ़्सी भी ख़त्म थी। शैख़ निज़ामुद्दीन  फ़रमाते हैं कि आपकी पोशिश एक दोहर थी। अगर वो किसी मक़ाम से पारा हो जाती तो ख़ुद अपने दस्त-ए-हक़-परस्त से उस को बख़िया फ़रमाते। अगर बग़ल बंद से फट जाता तो पाक कपड़े के टुकड़े वो जिस क़िस्म के भी हों उस पर पैवंद लगा लेते थे और यही वो दोहर था कि जब ख़्वाजा अस्फ़हान में पहुंचे और शैख़ महमूद अस्फ़हानी आपकी ख़िदमत में साथ थे और ख़्वाजा बख़्तियार काकी उन अय्याम में अस्फ़हान में थे और शैख़ महमूद अस्फ़हानी से बैअ’त हुआ चाहते थे मगर जूंही ख़्वाजा चिश्ती संजरी को देखा फ़स्ख़-ए-अ’ज़ीमत किया और ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ के दस्त-ए-हक़ परस्त पर बैअ’त हुए।  ख़्वाजा ने वो दोहर ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी रहमतुल्लाही अ’लैह को मर्हमत फ़रमाया और ख़्वाजा बख़्तियार काकी ने वो बाबा फ़रीदुद्दीन गंज शकर को मर्हमत फ़रमाया। बाबा साहिब ने शैख़ निज़ामुद्दीन को अ’ता किया। शाह निज़ामुद्दीन ने शैख़ नसीरुद्दीन चिराग़ दिल्ली को इमदाद किया।

इलाही ब-अर्वाह-ए-पाक-ए-ख़्वाजगान-ए-चिश्त रहमतुल्लाहि अ’लैहिम मेरा अंजाम ब-ख़ैर हो। आमीन

साभार – निज़ाम उल मशायख़ पत्रिका

सभी चित्र – Wikimedia Commons

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