
तसव़्वुफ-ए-इस्लाम – हज़रत मैकश अकबराबादी

तसव्वुफ़ कुछ इस्लाम के साथ मख़्सूस और उसकी तन्हा ख़ुसूसियत नहीं है।अलबत्ता इस्लामी तसव्वुफ़ में ये ख़ुसूसियत ज़रूर है कि दूसरे मज़ाहिब की तरह इस्लाम में तसव्वुफ़ मज़हब के ज़ाहिरी आ’माल और रस्मों के रद्द-ए-अ’मल के तौर पर पैदा नहीं हुआ है बल्कि इब्तिदा ही से इस्लाम दुनिया के सामने ज़ाहिर-ओ-बातिन के मज्मुए’ के ब-तौर पेश किया गया है।और आज तक सूफ़िया इस पर इसरार करते आए हैं कि तसव्वुफ़ में ज़ाहिर से रु-गर्दानी या शरीअ’त की तंसीख़ जाइज़ नहीं है बल्कि ज़ाहिर के साथ बातिन के लिहाज़ का नाम ही तसव्वुफ़ है।
वैदिक अदब में वेदों की ज़ाहिरी रस्मों के रद्द-ए-अ’मल में बरहमन और आरण्यक ज़ाहिर हुए और आख़िर उपनिषदों में इस रद्द-ए-अ’मल ने एक मुस्तक़िल मदरसा-ए-फ़िक्र की सूरत इख़्तियार कर ली और कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग दो बिल्कुल मुतज़ाद रास्ते मुअ’य्यन कर दिए गए।इसके बर-ख़िलाफ़ पैग़ंबर-ए-इस्लाम सल्लल्लाहु तआ’ला अ’लैहि व-सल्लम ने हिज्रत के वक़्त ही ऐ’लान कर दिया था कि अ’मल का ए’तबार नियत से है (इन्नमल-आ’मालु-बिन्नियात) इसकी ज़ाहिरी सूरत से नहीं है और नियत का सही करना और ज़ाहिर के साथ बातिन का संवारना ही तसव्वुफ़ का मौज़ू’ और अस्ल-ए-उसूल है।क़ुरआन ने शुरूअ’ ही से ख़ुदा का तसव्वुर इस तरह पेश किया कि वो ज़ाहिर भी है,बातिन भी (हुवल-अव्वलु-वल-आख़िरु वज़्ज़ाहिरु वल-बातिनु)क़ुरआन ने ताकीद की कि गुनाह की ज़ाहिरी सूरत और उसके बातिन दोनों को छोड़ना चाहिए (वज़रु ज़ाहिरल-इस्मा वलबातिन )क़ुर्बानी के ज़ाहिरी अहकाम के साथ ये भी सराहत कर दी गई कि ख़ुदा से उसका गोश्त और ख़ून नज़दीक नहीं करता बल्कि तुम्हारा तक़्वा उससे नज़दीक करता है (लय्यंनाल्लाह लुहूमुहा वला-दिमाउहा व-लाकिन यनालुहुत्तक़वा) ये ज़ाहिर है कि तक़्वा या’नी ख़ुदा का ख़ौफ़ दिल का फ़े’ल है ज़ाहिरी जिस्म का नहीं।और बावुजूद इसके कि नमाज़ में का’बे की तरफ़ मुँह करने का हुक्म दिया गया, ये भी कह दिया गया कि पूरब पच्छिम की तरफ़ मुँह करने में नेकी नहीं है।नेकी तो ईमान में है।(लैसलबिर्र-अन तुवल्लू वुजूहकुम क़िबलल-मशिरक़ी वल-मग़्रिबी लाकिन्नल-बिर्र-मन आम-न बिल्लहि*मश्रिक़ मग़रिब सब ख़ुदा ही का है तुम जिस तरफ़ भी मुँह करो उधर ही अल्लाह है।व-लिल्लाहिल-मश्रिकु वल-मग़्रिबु फ़-ऐनमा तुवल्लू फ़-सम्म-वज्हुल्लाह।इसी तरह जिहाद की फ़र्ज़ियत के साथ ये भी कह दिया गया कि “मुजाहिद वो है जिसने ख़ुदा की इताअ’त में जुहद की और मुहाजिर वो है जिसने गुनाह को छोड़ा (बैहक़ी)। क़ुरआन और हदीस में नमाज़ की जितनी ताकीद है उसके बयान की ज़रूरत नहीं है लेकिन नमाज़ रोज़े की ताकीद और फ़र्ज़ियत के साथ रसूल-ए-ख़ुदा सल्लल्लाहु तआ’ला अ’लैहि वसल्लम का ये फ़रमान कितना अहम है कि जो दिखावे के लिए नमाज़ पढ़ता है वो शिर्क करता है और जो दिखावे के लिए रोज़े रखता है वो शिर्क करता है (मन सल्ला-युराई फ़-क़द अशरक-व-मन साम-युराई फ़-क़द अशरक) रवाहु अहमद।सही मुस्लिम की हदीस है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआ’ला अ’लैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि अल्लाह तुम्हारी सूरतों और तुम्हारे अमवाल को नहीं देखता है वो तुम्हारे दिल और तुम्हारे अ’मल को देखता है।

इस्लाम की रू से ऐसा नहीं है कि कुछ चीज़ें बा’ज़ के ऊपर फ़र्ज़ हैं और बा’ज़ पर नहीं ।या’नी कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग (राह-ए-अ’मल और राह-ए-इ’ल्म) का कोई तसव्वुर नहीं है।रूह की पाकीज़गी हासिल करने वाला जिस्म की पाकीज़गी से बे-नियाज़ नहीं हो सकता और तौहीद की आ’ला-तरीन मंज़िल (ला मौजूद-इल्लल्लाह) पर पहुंचने वाला तौहीद की इब्तिदाई मंज़िल (ला मौजूद-इल्लल्लाह) से बे-परवाह नहीं हो सकता।
इस मौक़ा’ पर ये सवाल पैदा होता है कि फिर मज़हब और तसव्वुफ़ या’नी शरिअ’त और तरीक़त में क्या फ़र्क़ रह जाता है। इसका जवाब ये है कि शरीअ’त ज़ाहिर है और तरीक़त बातिन।या शरीअ’त इब्तिदा है और तरीक़त इंतिहा।एक आ’म मुसलमान के लिए तौहीद का इतना इक़रार काफ़ी है कि ख़ुदा के सिवा कोई मा’बूद नहीं है।लेकिन तरीक़त की रू से हर इन्सान को चाहिए कि इस दर्जे से तरक़्क़ी कर के यहाँ तक पहुंचे कि मुशाहिदे और यक़ीन में ये हक़ीक़त आ जाए कि ख़ुदा के सिवा कोई मा’बूद नहीं है (स-नुरियहुम आयातिना फिल-आफ़ाकि व-फ़िल-अन्फ़स हत्ता यतबय्यन-लहुम अ’न्नहुल-हक़ अव-लम यकफ़ि बि-रब्बक-अ’न्नहु अ’ला कुल्लि शैइन शहीद।अला इ’न्नहुम फ़ी मिर्यतिन मिन-लिक़ा-ए-रब्बहिम अला इ’न्नहु बिकुल्लि शैइम्मुहीत)।
ख़िलाफ़त-ए-राशिदा के बा’द इस्लाम की रूह ज़वाल-पज़ीर हो गई थी। माल-ओ-मताअ’ की मोहब्बत,हुब्ब-ए-जाह और ख़्वाहिशात-ए-नफ़्सानी का इन्सानों पर ग़लबा होता जा रहा था जिसके ख़िलाफ़ सहाबा और ताबिई’न के एक तबक़े ने बरमला तन्क़ीद-ओ-इह्तिसाब किया।अबूज़र ग़फ़्फ़ारी रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु शाम से निकाले गए।हज़रत इमाम हुसैन और उनके साथी शहीद किए गए।अ’ब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर की लाश का’बे पर लटकाई गई।ला-ता’दाद सहाबा-ओ-सालिहीन हज्जाज की ख़ून-आशाम तल्वार की नज़्र हुए लेकिन ज़बानें हक़-गोई से ख़ामोश न रहीं।
उस मआ’शरे में अक्सरिय्यत उन लोगों की थी जिनका ज़ाहिर इस्लाम के मुताबिक़ था मगर उनका बातिन निफ़ाक़ से ख़ाली न था।यही लोग सूफ़ियों की तन्क़ीद-ओ-इस्लाह के सबसे ज़्यादा मुख़ातब बने।उन मुस्लिहीन में बहुत ख़ास शख़्सियत हज़रत ख़्वाजा हसन बसरी रहमतुल्लाहि अ’लैह की थी जो हज़रत अ’ली रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु और हज़रत इमाम हुसैन रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु से इ’ल्म-ए-बातिन की तर्बियत पाए हुए थे और अपने अ’ह्द के बड़े सरबर-आवुर्दा ज़ाहिद और जादू-बयान मुक़र्रिर थे।उन्होंने उन बातिनी मरीज़ों को पहचान लिया और अपनी तवज्जुहात का मरकज़ बना लिया और उनके इ’लाज में मसरूफ़ हो गए।मुसलमानान-ए-दरगोर-ओ-मुसलमानी-दर किताब आप ही का क़ौल है जिस से उस ज़माना के हालात का अंदाज़ा होता है।किसी ने आपसे पूछा कि क्या उस ज़माने में भी निफ़ाक़ पाया जाता है तो आपने जवाब दिया:
“अगर मुनाफ़िक़ीन बसरे की गलियों से निकल जाएं तो तुम्हारा शहर में जी लगना मुश्किल हो जाए।”
इसी तन्क़ीद ने आगे चल कर एक मुस्तक़िल मसलक की शक्ल इख़तियार कर ली और एक जमाअ’त का ये फ़र्ज़ क़रार दे लिया गया कि वो अपने बातिन की इस्लाह करे और दूसरों को भी अपने बातिन की इस्लाह की तरफ़ मुतवज्जिह करे। उस जमाअ’त के नाम बदलते गए मगर काम न बदला।इस सिलसिले में बहुत वज़ाहत से इमाम ग़ज़ाली ने अहल-ए-ज़ाहिर पर तन्क़ीद फ़रमाई।हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ से इमाम ग़ज़ाली को एक आ’लिम की हैसियत से भी वो मन्सब हासिल रहा था जो उस ज़माने का सबसे बुलंद मन्सब समझा जाता था।निज़ामुल-मुल्क ने उनको मदरसा-ए-निज़ामिया की सदारत के ओ’ह्दे के लिए इंतख़ाब कर लिया था और रफ़्ता-रफ़्ता उन्होंने अपनी क़ाबिलियत की वजह से ऐसा मर्तबा हासिल कर लिया था कि अर्कान-ए-सल़्तनत के हम-सर बन गए थे बल्कि उनके जाह-ओ-जलाल के सामने बारगाह-ए-ख़िलाफ़त की शान-ओ-शौक़त भी मांद पड़ गई थी।लेकिन उन्होंने इन सबको छोड़ दिया और सूफ़ियों की ख़िदमत में रह कर इ’ल्म-ए-बातिन हासिल किया और फिर उन्होंने अ’लल-ऐ’लान कहा कि यही मसलक-ए-हक़ है।इसके बा’द उन्होंने अपनी मश्हूर-ए-आ’लम किताब ‘इह्या-उ’लूमिद्दीन’ लिखी। इसमें खुल कर उ’लमा-ए-ज़ाहिर, उमरा, बादशाह,मुतकल्लिमीन, फ़लास्फ़ा सब पर तन्क़ीद की यहाँ तक कि अ’वाम और वो सूफ़ी भी उनकी तन्क़ीद से न बचे जो हुब्ब-ए-दुनिया में मुब्तला थे।
उन्होंने उन हज करने वालों पर भी तन्क़ीद की जो बार-बार हज करते हैं और उनके पड़ोसी भूके रहते हैं।उन्होंने उन उ’लमा को ख़बरदार किया जो इ’ल्म-ए-फ़िक़्ह,कलाम, हदीस वग़ैरा हासिल करते हैं इसलिए कि उन उ’लूम के जानने वालों ही को उस ज़माने में क़ाज़ी वग़ैरा के ओ’हदे मिलते थे। लेकिन वो इस्लाह-ए-नफ़्स, तहज़ीब-ए-अख़लाक़ और सआ’दत-ए-उख़्रवी के उ’लूम हासिल नहीं करते जो फ़र्ज़-ए-ऐ’न हैं। उन्होंने कहा अगर किसी आ’लिम से इख़्लास, तवक्कुल वग़ैरा हासिल करने के तरीक़ों और रिया-कारी वग़ैरा से बचने के तरीक़ों के मुतअ’ल्लिक़ सवाल किया जाए तो वो उसका जवाब नहीं दे सकेगा।इमाम साहिब ने उन मालदार रोज़ा-दारों पर भी ए’तराज़ किया जो रोज़े रखते हैं नमाज़ें पढ़ते हैं हालाँकि उनके लिए उस से अफ़ज़ल काम ये था कि वो भूकों को खाना खिलाते।

यही वजह थी कि मश्हूर अहल-ए-ज़ाहिर आ’लिम,अ’ल्लामा इब्न-ए-तैमिया रहमतुल्लाहि अ’लैह ने इमाम ग़ज़ाली पर सख़्त तन्क़ीद की और उनकी इह्या-ए-उ’लूमिद्दीन में बयान की हुई हदीसों को ज़ई’फ़ बताया।इब्न-ए-तैमिया रहमतुल्लाहि अ’लैह की तर्दीद में अ’ल्लामा इब्न-ए-अल-सबकी ने शिफ़ाउल-अस्क़ाम लिखी और शैख़ अ’ब्दुल-ग़नी नाबलसी रहमतुल्लाहि अ’लैह ने इमाम ग़ज़ाली की बयान की हुई हदीसों की ताईद में दूसरी सही हदीसें पेश कीं और इ’ब्न-ए-तैमिया रहमतुल्लाहि अ’लैह के ए’तराज़ को ग़लत साबित किया।तबक़ात-ए- मालिकिया में उस मुनाज़रे का ज़िक्र है जो इब्न-ए-तैमिया और अबू ज़ैद के दरमियान में हुआ था।
इस सिलसिले में तमाम मुवाफ़िक़ और मुख़ालिफ़ तसानीफ़ और तहरीकों का ज़िक्र ज़रूरी नहीं है।दुनिया-ए-इस्लाम में इस इख़्तिलाफ़ का एक अ’ज़ीम सानिहा क़त्ल-ए-मंसूर है जो अ’लाहिदा बयान किया जाएगा।इस वाक़िआ’ के अलावा इ’लमी दुनिया में शैख़ अकबर मुहीउद्दीन इब्न-ए-अ’रबी का नाम एक अहमियत रखता है जो वहदतुल-वुजूद के दाई’-ए-अव्वल के नाम से मश्हूर हैं।और इस्लामी तसव्वुफ़ में इब्न-ए-अ’रबी को वही हैसियत हासिल है जो श्री शंकर को हिंदू तसव्वुफ़ में।जब इस्लामी उ’लूम की तदवीन शुरूअ हुई तो सबसे पहले अहादीस के बा’द उ’लूम-ए-शरीअ’त को मुदव्वन किया गया जिसका तअ’ल्लुक़ ज़ाहिरी अहकाम और आ’माल से था।इस सिलसिले में फ़िक़्ह, इ’ल्म-ए-कलाम पर रसाइल लिखे गए और क़ुरआन-ओ-हदीस की रौशनी में उसूल-ए-दीन और अहकाम-ए-शरीअ’त को तर्तीब दिया गया।
इनके अ’लावा सूफ़ियों ने भी अपने उ’लूम-ए-बातिन की तर्तीब -ओ-तंज़ीम से ग़फ़्लत नहीं बरती और वो ख़ामोशी के साथ ये ख़िदमत अंजाम देते रहे और इस तरह इ’ल्म-ए-दीन की दो शाख़ें हो गईं और फ़िक़्ह और तसव्वुफ़ का फ़र्क़ रू-नुमा हुआ और इसी के साथ इख़्तिलाफ़ भी ज़ाहिर होने लगा।
फ़िक़्ह नाम था इ’बादत और मुआ’मलात के ज़ाहिरी अहकाम का मसलन तहारत, नमाज़,रोज़ा.ज़कात और इसके अ’लावा बैअ’-ओ-शरा, सज़ा,विर्सा, के हुक़ूक़ वग़ैरा वग़ैरा।और तसव्वुफ़ का मौज़ूअ’ था मुहासबा,रियाज़त,मुजाहदा, अहवाल-ओ-मक़ामात और बातिन अमराज़ की निशानदेही वग़ैरा।सूफ़ियों की तसानीफ़ के यही मौज़ूअ’ हैं, जैसा कि शैख़ अबू नस्र सिराज की किताब अल-ल्म्अ’,इमाम क़ुशैरी की अर्रिसाला और अबू तालिब मक्की रहमतुल्लाहि अ’लैह की क़ूव्वतुल-क़ुलूब वग़ैरा के मुतालआ’ मा’लूम होता है।इन तसानीफ़ के बा’द की तसानीफ़ में भी यही अंदाज़ क़ायम रहा चुनांचे इमाम ग़ज़ाली की इह्याउल-उ’लूम,शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी की अ’वारिफ़ुल-मआ’रिफ़ और हज़रत ग़ौस-ए-आ’ज़म की फ़ुतूहुल-ग़ैब वग़ैरा के नाम इसी ज़िम्न में लिए जा सकते हैं।बा’द की तसानीफ़ में अंदाज़-ए-बयान और इस्तिलाहात में तबदीली वाक़िअ’ हुई मगर मौज़ूअ’ वही क़दीम रहे जैसे शैख़ अकबर मुहीउद्दीन इब्न-ए-अ’रबी की क़ुसूसुल-हिकम और शैख़ अ’ब्दुलकरीम अलजैली की अल-इन्सानुल-कामिल वग़ैरा।फ़ारसी की किताबों में कशफ़ुल-मह्जूब मुसन्नफ़ा शैख़ अ’ली हुज्वैरी, हदीक़ा हकीम सनाई,शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार की मंतिक़ुत्तैर,मस्नवी मौलाना रुम और मौलाना जामी की लवाइह तसव्वुफ़ की मशहूर किताबें हैं।लवाइह का अंदाज़-ए-बयान ब-निस्बत तसव्वुफ़ की क़दीम किताबों के ख़ुसूस और इन्सान-ए-कामिल से मुशाबिह है और तसव्वुफ़ के बजाए फ़ल्सफ़ा-ए-तसव्वुफ़ की किताब मा’लूम होती है मगर उनमें से किसी तस्नीफ़ को फ़िक़्ह या इ’ल्म-ए-कलाम की किताब नहीं कह सकते हैं।

अ’ल्लामा इब्न-ए-क़य्यिम (मुतवफ़्फ़ा सन756 हिज्री) ने मदारिजुस्सालिकीन में लिखा है तसव्वुफ़ के मा’नी हैं ख़ुल्क़-ए-जमील।ये इ’ल्म मबनी है इरादे (नीयत) पर यही इसकी बुनियाद है।इस इ’ल्म का क़ल्ब से बड़ा गहरा तअ’ल्लुक़ होता है।इसकी तमाम सरगर्मियाँ क़ल्ब ही से तअ’ल्लुक़ रखती हैं इसीलिए इसे इ’ल्म-ए-बातिन कहते हैं जिस तरह इ’ल्म-ए-फ़िक़्ह अहकाम-ए-आज़ा-ओ-जवारिह की तफ़ासील पर मुश्तमिल है।इसीलिए इस को इ’ल्म-ए-ज़ाहिर कहते हैं।
अ’ल्लामा फ़ख़्रुद्दीन ज़र्रादी ने इबाहतुस्समाअ’ में लिखा है-
“अहल-ए-सुन्नत के तीन गिरोह हैं, फ़ुक़हा,मुहद्दिसीन, सूफ़िया। फ़ुक़हा मुहद्दिसीन को अहल-ए-ज़ाहिर कहते हैं क्योंकि वो हदीस पर ऐ’तिमाद करते हैं।मुहद्दिसीन फ़ुक़हा को अह्लुर्राय कहते हैं क्योंकि वो दिरायत को तर्जीह देते हैं और तन्हा रिवायत की मुख़ालिफ़त जाइज़ समझते हैं।और सूफ़ी ख़ुदा की तरफ़ इल्तिफ़ात को हासिल-ए-दीन समझते हैं और किसी मुअ’य्यन हदीस को क़ुबूल नहीं करते जैसा कि बा’ज़ सुफ़ियों ने कहा कि सूफ़ी का कोई मज़हब नहीं।इसका यही मतलब है जो बयान किया गया।सूफ़ी इस पर ये हदीस दलील में लाते हैं कि मेरी उम्मत का इख़्तिलाफ़ दीन में फ़राख़ी और वुस्अ’त का सबब है।”
इस्लाम में तौहीद ही अस्ल उसूल है बाक़ी तमाम अर्कान-ओ-इ’बादात उसकी फ़रअ’ हैं।तसव्वुफ़ में भी तौहीद ही को सबसे ज़्यादा अहमियत दी जाती है। उसके बा’द तमाम अख़लाक़ी फ़ज़ाइल और रज़ाइल जो क़ुरआन-ओ-अहादीस में मज़्कूर हैं। तसव्वुफ़ ने उनके दर्जात मुक़र्रर किए हैं जैसे तौबा,इनाबत, शुक्र,सब्र, ज़िक्र, फ़िक्र,शिर्क वग़ैरा।सबकी इब्तिदा और इंतिहा का तअ’य्युन किया है।इ’ल्म और अ’मल के ए’तबार से दर्जात के इख़्तिलाफ़ और बुलंदी-ओ-पस्ती को क़ुरआन ने भी तस्लीम किया है।व-लिकुल्लि दर्जातिन मिम्मा अ’मिलू।और व-रफ़अ’ बा’ज़कुम फ़ौक़-बा’ज़ वग़ैरा।
इसी तरह मुस्लिम,मोमिन,शोहदा,सिद्दीक़ीन, अबरार और औलिया के अक़्साम क़ुरआन की मुख़्तलिफ़ सूरतों में मज़्कूर हैं। इसी तरह अहादीस और सहाबा के सीरतों में ये फ़र्क़ पूरी तरह नुमायाँ है।और उन दर्जात के फ़र्क़ ही में तसव्वुफ़ का जवाज़ साबित होता है।वाक़िआ’-ए-ख़िज़्र-ओ-मूसा से इ’ल्म और कश्फ़ का फ़र्क़ और नुबुवत के अ’लावा एक ख़ास क़िस्म की ता’लीम का सुबूत मिलता है।(व-अ’ल्लमनाहु मिल्लदुन्ना इ’लमा) और ये ज़ाहिर होता है कि कुछ असरार-ओ-रुमूज़ ऐसे भी हैं जिन्हें ख़ुदा अपने ख़ास बंदों को ता’लीम करता है।ये फ़र्क़ सहाबा में भी था।और अहादीस से मा’लूम होता है कि पैग़ंबर-ए-इस्लाम (सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम) ने भी इस्ति’दाद का लिहाज़ रखा है।जब कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम ने हज़रत अबूबकर सिद्दीक़ रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु का पूरा माल क़ुबूल फ़रमाया और एक दूसरे सहाबी का माल वापस कर दिया और बा’ज़ सहाबा से किसी से सवाल न करने का अ’ह्द लिया।और दूसरे ने जब उस ओ’हदे के लिए ख़ुद को पेश किया तो हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्म ने मन्अ’ फ़रमाया दिया।

ये भी अहादीस से साबित है कि सहाबा में से बा’ज़ हज़रात साहिबान-ए-कश्फ़-ओ-शुहूद थे और इ’ल्म-ओ-अ’मल के ए’तबार से दूसरे सहाबा से मुमताज़ थे।आ’म सहाबा के बर-ख़िलाफ़ उनसे करामात का सुदूर होता था।
इसलिए ये बात यक़ीन से कही जा सकती है कि इ’ल्म-ए-बातिन का सर-चश्मा क़ुरआन और पैग़ंबर-ए-इस्लाम सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम की ज़ात-ए-मुबारक ही है।लेकिन इसी के साथ ये बात भी यक़ीनी है कि ये इंतिहाई ता’लीम हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम ने उन्ही अस्हाब को देना मुनासिब समझा जो इसके अहल थे और इसके समझने के लाइक़ थे जैसा कि बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अबू हुरैरा रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु से रिवायत है कि मैंने हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम से दो चीज़ें याद की हैं जिसमें से एक को मैं बयान करता हूँ और दूसरी वो कि अगर मैं उसे बयान करूँ तो मेरा ये हल्क़ काट दिया जाए।इसी तरह बुख़ारी में हज़रत अ’ली रज़ी-अल्लाह अ’न्हु का क़ौल नक़ल किया गया है कि लोगों से वही बात बयान करो जो उनकी अ’क़्ल में आए और जो उनकी अ’क़्ल में न आए वो छोड़ दो।क्या तुम ये चाहते हो कि लोग ख़ुदा और रसूल को झूटा बनाएँ।
हज़रत इमाम ज़ैनुल-आ’बिदीन रहमतुल्लाहि अ’लैहि का इस मौज़ूअ’ पर ये मश्हूर शे’र है कि या-रब अगर मैं जौहर-ए-इ’ल्म को ज़ाहिर कर दूँ तो मुझे बुत-परस्त कहा जाएगा।
इस तरह के और बे-शुमार अक़वाल हैं जिनका ज़िक्र ग़ैर ज़रूरी है।
हक़ीक़त-ए-आ’लम
हज़रत इब्न-ए-अ’रबी और श्री शंकर इस बात पर तो मुत्तफ़िक़ हैं कि वुजूद-ए-हक़ीक़ी ख़ुदाया बरहमा का है लेकिन ये आ’लम क्या है।श्री शंकर के नज़दीक सूरत-ए-आ’लम धोका (माया) है। ये सूरतें अविद्दिया (जिहालत) से बनी हैं।इनके फ़ना होने से ही बरहमा का तहक़्क़ुक़ होता है।बरहमा अपनी माया के ज़रिए’ बतौर-ए-आ’लम ज़ाहिर होता है।
हज़रत इब्न-ए-अ’रबी के ख़याल में ये आ’लम ऐ’न-ए-हक़ और तमाम सूरतों और ज़ाहिरी वुजूद हक़ और हक़ के मुख़्तलिफ़ मज़ाहिर हैं।अपने ज़ाहिर होने से पहले ये आ’लम इ’ल्म-ए-हक़ में सुवर-ए-इ’ल्मी की हैसियत से मौजूद था जिनको आ’यान-ए-साबिता कहते हैं।मुजद्दिद साहिब का नज़रिया-ए-शुहूद इस आ’लम को गैर-ए-हक़ मानता है मगर वो अभी आ’यान-ए-साबिता ही को आ’लम की हक़ीक़त मानते हैं।मुजद्दिद साहिब ने आ’यान-ए-साबिता की ता’रीफ़ इस तरह की है।
ख़ुदा के कमालात-ए-ज़ाती का एक मर्तबा अस्ल और एक उसका ज़िल्ल। ज़िल्ल मर्तबे में उन कमालात का नाम सिफ़ात है।ये सिफ़ात अ’दम में मुन्अ’किस होते हैं।वुजूद कमाल है और अ’दम नक़्स और शर। इस तरह वुजूद ने अ’दम में या कमाल ने नक़्स में अपना अ’क्स डाला।इस कमाल और अ’दम से मिलकर सुवर-ए-इ’ल्मी की तर्कीब हुई।इस सुवर-ए-इ’ल्मी ही का नाम आ’यान-ए-साबिता है।ये आ‘यान -ए-साबिता ही मुम्किनात की हक़्क़ीत और माहियत हैं।
माहिय्यतों को रौशन करता है नूर तेरा।
आ’यान-ए-हैं मज़ाहिर ज़ाहिर ज़ुहूर तेरा।।

दूसरी जगह मुजद्दिद साहिब ने फ़रमाया है:
“आ’लम का वुजूद ख़ारिज में नहीं है।जो कुछ उसकी नुमूद है वह्म के मर्तबे में है।”
आईना-ए-अ’दम ही में हस्ती है जल्वा-गर ।
है मौज-ज़न तमाम ये दरिया हबाब में।
(दर्द रहमतुल्लाही अ’लैह)
नतीजे के ए’तबार से श्री शंकर और मुजद्दिद साहिब इस पर मुत्तफ़िक़ हैं कि ये आ’लम धोका और उस की अस्ल शर और नक़्स है।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
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