अबू मुग़ीस हुसैन इब्न-ए-मन्सूर हल्लाज- हज़रत मैकश अकबराबादी
मंसूर हल्लाज रहमतुल्लाह अ’लैह की शख़्सियत फ़ारसी और उर्दू शाइ’री का भी मौज़ूअ’ रही है, इसलिए इस बारे में क़दरे तफ़्सील की ज़रूत है।उ’लमा-ए-ज़ाहिर के अ’लावा ख़ुद सूफ़ियों में मंसूर के मुतअ’ल्लिक़ मुख़्तलिफ़ नुक़्ता-हा-ए-नज़र मिलते हैं।फ़ारसी शाइ’रों में शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार रहमतुल्लाह अ’लैह और मौलाना रूम उनके बड़े ज़बरदस्त मो’तक़िदीन में से हैं।
लेकिन अंदर क़िमार-ख़ाना-ए-इ’श्क़
बिह ज़े-मंसूर कस न-बाख़्त क़िमार
(अ’त्तार)
उर्दू शो’रा ने उनकी मद्ह-ओ-सताइश के साथ कभी उन पर तंज़ भी किया है।मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा है:
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन।
हमको तक़्लीद-ए-तुनुक-ज़रफ़ी-ए-मंसूर नहीं।।
किसी और शाइ’र का शे’र है:
हज़रत-ए-मंसूर अना भी कह रहे हैं हक़ के साथ।
दार तक तक्लीफ़ फ़रमाएं जो इतना होश है।।
अ’ल्लामा इक़बाल ने अपने मक्तूब में उनके मुतअ’ल्लिक़ मुख़ालिफ़ाना राय का इज़हार करते हुए लिखा है कि मेरे ख़याल में किताबुत्तवासीन में सिवाए इल्हाद-ओ-ज़िन्दिक़ा के कुछ नहीं है।तारीख़ों और तज़्किरों में मुसन्निफ़ीन ने मशहूर रिवायात नक़ल कर दी हैं या अपने ख़यालात-ओ-मो’तक़िदात का इज़हार किया है।लेकिन डॉक्टर मुस्तफ़ा प्रोफ़ेसर फ़वाद यूनीवर्सिटी मिस्र ने तारीख़-ए-तसव्वुफ़-ए-इस्लाम में मंसूर के मुतअ’ल्लिक़ जो कुछ कहा है और ख़ुद उनकी तसानीफ़ से जो इक़्तिबासात दिए हैं वो मेरी नज़र में इस मौज़ूअ’ पर बेहतरीन तब्सिरे की हैसियत रखते हैं।इसलिए मौसूफ़ के शुक्रिये के साथ उनमें से ज़रूरी इक़्तिबासात यहाँ दर्ज किए जाते हैं।
हुसैन बिन मंसूर अल-हल्लाज शहर-ए-बैज़ा(फ़ारस के एक शहर)में पैदा हुए।सन-ए-विलादत सन 244 हिज्री है।अहवाज़ के एक मक़ाम तस्तर में सह्ल बिन अ’ब्दुल्लाह तस्तरी की सोहबत में रहे फिर बसरे में अ’मर मक्की से इस्तिफ़ादा किया।सन 264 हिज्री में बग़्दाद आए और हज़रत जुनैद बग़्दादी के शागिर्दों में शरीक हो गए।
मंसूर को सैर-ओ-सियाहत का बड़ा शौक़ था।उनकी उ’म्र का बड़ा हिस्सा मुख़्तलिफ़ मुल्कों की सैर-ओ-सियाहत में बसर हुआ।वो तीन मर्तबा मक्का गए और हर मर्तबा फ़रीज़ा-ए-हज अदा किया।
तबीअ’त बे-बाक-ओ-ग़यूर पाई थी।जो बात दिल में आती थी उसे ज़बान पर लाने में तअम्मुल नहीं करते थे और अपने मस्लक में बहुत सख़्त थे।रवादारी और मस्लिहत के क़ाइल न थे।जिस बात को सही समझ लेते उसे फ़ाश और बरमला कहना अपना फ़र्ज़ समझते थे।
सन 297 हिज्री में अ’ल्लामा इब्न-ए-दाऊद ज़ाहिरी के फ़त्वे की बिना पर पहली मर्तबा गिरफ़्तार हुए लेकिन एक साल बा’द सन 298 हिज्री में क़ैद-ख़ाने से भागने में कामयाब हो गए और सूस में पोशीदा तौर पर रहने लगे।
सन 301 हिज्री में दुबारा फिर गिरफ़्तार हुए और आठ साल मुसलसल क़ैद-ख़ाने में रहे।उनको बग़्दाद के मुख़्तलिफ़ क़ैद-ख़ानों में मुंतक़िल किया जाता रहा शायद इसलिए कि वो फिर फ़रार न हो जाएं।
सन 309 हिज्री में उनके मुक़द्दमे का आख़िरी फ़ैसला हुआ और18 ज़ीका’दा को उनकी ज़िंदगी ख़त्म कर दी गई।हुक्म ये था कि पहले उनको कोड़े मारे जाएं फिर हाथ पाँव काटे जाएं। उनका सर तन से जुदा कर दिया जाए और उसके बा’द उन्हें दजला के पानी में बहा दिया जाए।चुनांचे हुक्म की ता’मील की गई।
मंसूर रहमतुल्लाह अ’लैह की जान इस जुर्म में ली गई कि वो अनल-हक़ या’नी मैं ख़ुदा हूँ का ना’रा लगाते थे।इस क़ौल से उनका मतलब ये था कि वो इत्तिहाद-ए-ज़ात-ए-इलाही के क़ाइल थे।या’नी अपनी ज़ात इलाही में गुम कर के ज़ात-ए-इलाही का एक जुज़्व और हिस्सा बन गए थे।हल्लाज के और भी अ’क़ीदे थे।
मस्लन ये कि हज कोई ऐसा फ़रीज़ा नहीं है कि इन्सान उसकी अदायगी पर मुकल्लफ़ हो।हज-ए-ज़ाहिर ये है कि इन्सान अर्ज़-ए-मुक़द्दस,हिजाज़,तक का सफ़र करता और वहाँ मनासिक-ए-हज अदा करता है लेकिन इसके अ’लावा एक दूसरा हज भी है और वो रुहानी हज है।
तसानीफ़ और मज़हब
मंसूर हल्लाज ने तसव्वुफ़ में और अपने मख़्सूस नज़रियात की शर्ह-ओ-तौज़ीह में कितनी ही किताबें लिखी हैं।इब्न-ए-नदीम ने अल-फ़िहरिस्त में उनकी ता’दाद सैंतालीस तक शुमार की है।मंसूर के अ’क़ाइद की अगर छानबीन की जाए तो मा’लूम होगा कि उन्होंने अपनी नज़्म-ओ-नस्र में जिन ख़यालात-ओ-अ’क़ाएद का इज़हार किया है वो तीन चीज़ों पर मुश्तमिल हैं।
1۔ ज़ात-ए-इलाही का हुलूल ज़ात-ए-बशरी में
2۔ हक़ीक़त-ए-मोहम्मदिया का क़दीम होना
3۔ सारे दीन दर-हक़ीक़त एक हैं
हुलूल के बारे में मुसन्निफ़ ने मंसूर के ये अश’आर पेश किए हैं।
हम दो रूहें हैं
जिन्हों ने एक बदन की सूरत इख़्तियार कर ली है
जब वो मुझे देखता है
मैं उसे देखता हूँ
जब मैं उसे देखता हूँ
वो मुझे देखता है
एक और मक़ाम पर महबूब को मुख़ातब कर के कहते हैं-
“तू मेरी रग-ओ-पै और क़ल्ब में जारी-ओ-सारी है
जिस तरह
आँसू मेरी आँखों से जारी हैं
जिस तरह
ज़मीर, क़ल्ब में हल्ल हो गया है
जिस तरह
रूह बदन में जज़्ब हो जाती है”
इन्सान और ख़ुदा की रूहों के इम्तिज़ाज के सुबूत में उनके ये शे’र पेश किए जाते हैं।
“ऐ अल्लाह
तेरी रूह मेरी रूह में इस तरह समा गई है
जिस तरह
शराब आब-ए-ज़ुलाल में
जब कोई चीज़
तुझसे मस होती है तो मुझसे भी मस होती है
क्योंकि
तू और मैं हर हाल में एक हैं”
लेकिन बा’ज़ तहरीरों में हल्लाज अपने इस इम्तिज़ाज-ए-बशरियत-ओ-उलूहयत के नज़रिए से इख़्तिलाफ़ भी करते हैं। उन्होंने लिखा है-
“जिस शख़्स का ये ख़याल है कि इलाहियत बशरियत में हुलूल कर सकती है या बशरियत इलाहियत में मख़रूज हो सकती है वो काफ़िर है।क्योंकि ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग-ओ-बर्तर अपनी ज़ात-ओ-सिफ़ात के ए’तबार से फ़र्द है उन लोगों के मुक़ाबले में जो उसके पैदा किए हुए हैं और जिनके सिफ़ात आ’रिज़ी हैं। वो किसी तरह भी मख़्लूक़ से मुशाबहत नहीं रख सकता, न मख़्लूक़ ख़ुदा से किसी दर्जे में मुशाबहत रख सकती है इस लिए कि ये मुहाल-ए-अ’क़्ली है।”
इस इ’बारत से अंदाज़ा होता है कि हल्लाज के नज़दीक लाहूत और नासूत, रब और अ’ब्द, महबूब और मुहिब्ब दो अलग-अलग मरातिब हैं जो अपनी ज़ात और हक़ीक़त के ए’तबार से मुत्तहिद और एक हों लेकिन तअ’य्युनात के और नामों के ए’तबार से अलाहिदा-अलाहिदा हैं और बंदे को ख़ुदा और ख़ुदा को बंदा नहीं कह सकते क्योंकि ख़ुद उन्होंने दूसरी जगह कहा है।
इन्सान अपनी हक़ीक़त के ए’तबार से ख़ुदा है बिल-ख़ुसूस इस सूरत में कि अल्लाह ने इन्सान को अपनी सूरत पर पैदा किया है इसीलिए उसने मलाइका को हुक्म दिया कि वो आदम को सज्दा करें जैसा कि ख़ुद क़ुरआन से साबित है-
(तारीख़-ए-तसव्वुफ़-ए-इस्लाम)
हक़ीक़त-ए-मुहम्मदिया
हल्लाज ने नूर-ए-मोहम्मदी के मुतअ’ल्लिक़ कहा है:-
“आप ग़ैब के नूर की रौशनी थे ज़ाहिर हुए और वापस हुए और लौट गए।”
(किताबुत्तवासीन)
“आपके ऊपर बादल थे जिनसे बिजलियाँ कौंदती थीं, आपके नीचे बिजलियाँ थीं जो चमकती दमकती थीं।आपका सहाब नूर बरसाता और फल लाता था।तमाम उ’लूम आपके बह्र-ए-बे-पायाँ का एक क़तरा-ए-नाचीज़ थे।तमाम हिक्मतें आपकी हिक्मत के समुंद्र के सामने एक छोटी सी नहर थीं।तमाम ज़माने आपके ज़माने के सामने एक साअ’त से ज़्यादा हैसियत नहीं रखते।”
(नफ़्सुल-मराजिअ’)
तौहीद-ए-अदयान
हल्लाज का ख़याल था कि तमाम दीन अपनी हक़ीक़त के ए’तबार से एक हैं उनका फ़ुरूआ’त में इख़्तिलाफ़ है।लेकिन अस्ल का जहाँ तक तअ’ल्लुक़ है वो एक ही है।तमाम दीनों का मरकज़ और मंबा’ ख़ुदा है।
मंसूर रहमतुल्लाहि अ’लैह के ये नज़रिए ब-ग़ैर किसी नक़्द और तब्सिरे के यहाँ नक़्ल कर दिए गए हैं इसलिए कि ये नज़रिए मंसूर रहमतुल्लाहि अ’लैह के साथ मख़्सूस नहीं हैं। जिस नज़रिए को हुलूल-ओ-इत्तिहाद कहा गया है वो लफ़्ज़ ब-लफ़्ज़ हदीस-ए-क़ुर्ब-ए-नवाफ़िल का मज़मून है जो बुख़ारी और मुस्लिम की मुत्तफ़िक़ अ’लैह हदीस है।कोई उसकी ता’बीर तो अपने मतलब के मुताबिक़ कर सकता है लेकिन उससे इन्कार नहीं कर सकता।और जो ता’बीर हदीस की की जाएगी वही मंसूर के क़ौल की भी हो सकती है।इसी तरह हक़ीक़त-ए-मोहम्मदिया के क़दीम होने का नज़रिया है।ये इस्तिलाह को न समझने का क़ज़ीया है क्योंकि सूफ़ी अपनी इस्तिलाह में मर्तबा-ए-लाहूत को हक़्क़ीत-ए-मोहम्मदी कहते हैं।इस से मुराद मोहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआ’ला अ’लैहि वसल्लम की जिहत-ए-बशरियत या नुबुव्वत नहीं होती।
रहा वहदत-ए-अदयान का मुआ’मला तो ये नज़रिया मंसूर का नहीं बल्कि क़ुरआन का है।इसके लिए हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस की हुज्जतुल्लाहिल-बालिग़ा से ये इ’बारत नक़ल कर देना ही काफ़ी मा’लूम होता है।
” बाब 56 ۔इस के बयान में कि मज़हब की अस्ल एक ही है। इसके तरीक़े और रास्ते मुख़्तलिफ़ हुआ करते हैं।ख़ुदा तआ’ला ने फ़रमाया है:(ख़ुदा ने तुमको दीन का वही रास्ता बताया है जिसकी नूह अ’लैहिस्सलाम को वसिय्यत की थी और जो वही हमने तुम पर नाज़िल की इब्राहीम अ’लैहिस्सलाम और मूसा अ’लैहिस्सलाम और ई’सा अ’लैहिस्सलाम को भी उसी की वसिय्यत की थी और वो यही बात थी कि दीन-ए-हक़ को ठीक रखियो और उसमें तफ़रक़ा न डालो)।
मुजाहिद का क़ौल है कि ऐ मोहम्मद सल्लल्लाहु तआ’ला अ’लैहि वसल्लम हमने तुमको और नूह को एक ही दीन की वसिय्यत की थी।और ख़ुदा तआ’ला फ़रमाता है।”तुम सबकी उम्मत एक ही है।मैं ही तुम्हारा रब हूँ मुझी से डरते रहो”
लेकिन मुस्तश्रिक़ीन की तक़्लीद में बा’ज़ उ’लमा-ए-मशरिक़ ने भी बा’ज़ जुज़्वी मसाइल को इस तरह बयान किया है जैसे ये कोई नई दर्याफ़्त या नई तहरीक और इन्क़िलाब हो।चुनांचे डॉक्टर महमूद हिलमी ने तसव्वुफ़ में ख़ौफ़ की आमेज़िश को ख़्वाजा हसन बसरी की ईजाद और मोहब्बत की आमेज़िश को राबिआ’ बसरी रहमतुल्लाहि अ’लैह का कारनामा और बायज़ीद बुस्तामी को सुक्र का मोजिद और जुनैद बग़्दादी को सह्व का अ’लम-बरदार और वहदतुउल-वुजूद को इब्न-ए-अ’रबी की तज्दीद बताया है।
अंदाज़-ए-बयान पर कोई ए’तराज़ नहीं किया जा सकता लेकिन उनमें से कोई चीज़ न सिर्फ़ तसव्वुफ़ बल्कि इस्लाम के लिए भी नई नहीं थी।ये उ’मूर ऐसे नहीं हैं जो क़ुरआन-ओ-हदीस में न हों जो रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु तआ’ला अ’लैहि वसल्लम का क़ौल और हाल न हों और जो सहाबा और ताबीई’न पर वारिद न हुए हों।मस्लन सिद्क़ हज़रत सिद्दीक़-ए-अकबर रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु की ख़ुसूसीयत और अद्ल हज़रत-ए-उ’म्र रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु की ख़ुसूसियत और इ’ल्म हज़रत अ’ली रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु की सिफ़त समझी जाती है। फ़क़्र अबू ज़र और सलमान के साथ मंसूब किया जाता है और मोहब्बत को हज़रत उवैस क़र्नी के साथ।तो इसके ये मा’नी नहीं हैं कि ये नज़रियात उन हज़रात की दर्याफ़्त हैं या दूसरे सहाबा-ओ-ताबीई’न इन ख़सुसीआत से महरूम थे।
Guest Authors
- Aatif Kazmi
- Absar Balkhi
- Afzal Muhammad Farooqui Safvi
- Ahmad Raza Ashrafi
- Ahmer Raza
- Akhlaque Ahan
- Arun Prakash Ray
- Balram Shukla
- Dr. Kabeeruddin Khan Warsi
- Dr. Shamim Munemi
- Faiz Ali Shah
- Farhat Ehsas
- Iltefat Amjadi
- Jabir Khan Warsi
- Junaid Ahmad Noor
- Kaleem Athar
- Khursheed Alam
- Mazhar Farid
- Meher Murshed
- Mustaquim Pervez
- Qurban Ali
- Raiyan Abulolai
- Rekha Pande
- Saabir Raza Rahbar Misbahi
- Shamim Tariq
- Sharid Ansari
- Shashi Tandon
- Sufinama Archive
- Syed Ali Nadeem Rezavi
- Syed Moin Alvi
- Syed Rizwanullah Wahidi
- Syed Shah Tariq Enayatullah Firdausi
- Umair Husami
- Yusuf Shahab
- Zafarullah Ansari
- Zunnoorain Alavi