हज़रत मुल्ला बदख़्शी- पंडित जवाहर नाथ साक़ी देहलवी
नाम शाह मोहम्मद और लक़ब लिसानुल्लाह मा’रूफ़ ब-मुल्लाह शाह क़ादरी था। नूरुद्दीन मोहम्मद जहाँगीर बादशाह के अ’ह्द मे ब-आ’लम-ए-तुफ़ूलियत वारिद-ए-कश्मीर हुए। तीन साल वहाँ क़याम रहा। वहाँ से आगरे पहुंचे।यहाँ हज़रत मियाँ नमीर सेसनाई क़ादरी लाहौरी सुनार जिनके ख़वारिक़-ए-आ’दात-ओ-करामात ने उनको मश्हूर-ए-ज़माना कर रखा था की सोहबत इख़्तियार की।आख़िर लाहौर तशरीफ़ ले गए।उनकी ख़िदमत में तमाम उ’लूम-ए-ज़ाहिरी हासिल किए। जज़्बा-ए-बातिन ने दूसरी तरफ़ मुतवज्जिह किया। हज़रत की ख़िदमत में अ’र्ज़ किया लेकिन सिवाए बे-इत्तिफ़ाक़ी के कुछ न देखा।आख़िर नौबत मायूसी तक पुहंची।यकायक मियाँ साहिब की नज़र-ए-शफ़कत-ओ-इल्तिफ़ात हुई। फ़रमाया कि ऐ बदख़्शानी अगर्चे ताबिश-ए-इम्तिहान में पिघल गए हो लेकिन अपने संग-ए-सियाह को ला’ल-ए-बे-बहा बना लो।अब वो वक़्त आया है कि अफ़सर-ए-शाहाना के क़ाबिल हो जाओ। दरिया-ए-रावी में ग़ुस्ल करो और अपना लिबास भी धो लाओ।आलाइश-ए-दुनयवी से पाक-साफ़ होक कर हमारी सोहबत में आओ। आप सरापा इश्तियाक़ होकर दरिया के किनारे पर पुहंचे। वहाँ क्या देखा कि एक पीर-मर्द दरिया में खड़ा हुआ कहता है कि लाइए मैं आपका लिबास धो दूं।आप क्यूँ परेशान होते हैं।आप बिल्कुल उधर मुतवज्जिह न हुए और नहा धो कर हाज़िर-ए-ख़िदमत हुए।
जब दूर से मियाँ साहिब की नज़र आप पर पड़ी तो फ़रमाया की ऐ शाह हज़रत ख़िज़्र आपका लिबास धोने के वास्ते तलब करते थे क्यूँ न दिया। उस रोज़ से मियाँ साहिब मुतवज्जिह-ए- तर्बियत-ओ-तलक़ीन हए।रियाज़त-ए-शाक़्क़ा और अश्ग़ाल ज़रूरिया और ख़लवात का हुक्म हुआ। थोड़े ही अ’र्सा में आप कामिलुस्सुलूक और कमाल-ए-बातिनी हासिल कर के यकता-ए-ज़माना हो गए।आप भी अपने मुर्शिद की तरह शब-ए-ज़िंदा-दार और मुजर्रद तारिकुद्दुनिया थे। आपका क़ौल था कि एहतेलाम ब-हालत-ए-ख़्वाब और ग़ुस्ल-ए-जनाबत ब-हालत-ए- क़ुर्बत-ए-ज़न होता है। मन ज़ने दारम न ख़्वाब।अल-हम्दुलिल्लाह कि अज़ीं हर दो आज़ादम। हमेशा अंधेरे में सारी रात गुज़ारते थे। चराग़ रौशन नही करते थे। एक दफ़ा’ शहज़ादा दारा शिकोह जो आपके इरादत-मंदों मे से थे बराए क़दम-बोसी हाज़िर हुए।आपने एक हमसाया के घर से चराग़ मंगवा कर फ़रमाया कि दारा शिकोह ! आज तेरे आने की वजह से चराग़ रौशन करना पड़ा वर्ना आज पूरे तीस साल हो गए कि हमको चराग़ की हाजत न हुई।आप अकसर कश्मीर में रहा करते थे। वहाँ के के क़याम के ज़माना में जो कोई मुसाफ़िर-ए-कश्मीर मियाँ साहिब की ज़ियारत को आता था आप दर्याफ़्त फ़रमाया करते थे कि हमारा ख़ुदा-ए-कशमीर ख़ुश है।आपने वहाँ दामन-ए-कोह में एक बाग़-ए-दिल-कुशा,मस्जिद-ए-बा-सफ़ा और ख़ानक़ाह-ए-पुर-फ़ज़ा बनवाई थी जो अज तक यादगार है। इस इ’मारत की शान में ख़ुद ये शे’र मौज़ूँ फ़रमाया था।
‘ईं चुनीं बख़्त कुजा तख़्त-ए-सुलैमाँ दारद’
अ’ह्द-ए-शहाबुद्दीन शाह जहाँ बादशाह में उ’लमा-ए-ज़ाहिरी ने अपनी कोर-सवादी से एक मुख़्तसर शे’र तैयार कर के बाशाह के दरबार में पेश किया और कहा कि मुल्लाह शाह वाजिबुल-क़त्ल है। ये शे’र उसका है। इस से इहानत-ए-रसूल सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम पैदा होती है।
पंजःबर पंजः-ए-ख़ुदा दारम।
मन चे पर्दा ज़े मुस्तफ़ा दारम।।
बादशाह ने उस शे’र को अपने पास रख लिया। जब कशमीर जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ तो वहाँ आपकी ख़िदमत में हाज़िर हो कर अ’र्ज़ किय ‘ये शे’र फ़िल-हक़ीक़त आपका है’। जवाब मिला कि ये शे’र मेरा नहीं है। इस शे’र से बू-ए-शिर्क आती है। इस शे’र का क़ाएल ख़ुदा,रसूल और अपनी ज़ात में तफ़रक़ा पैदा करता है। ये मेरा मज़हब-ओ-मश्रब है।आपकी तक़रीर से बादशाह का शक-ओ-शुबहा दूर हो गया। बादशाह बा-अदब-ओ-नियाज़ ये मिस्रा’ पढ़ता हुआ रुख़्सत हुआ।
हमः कुफ़्र आमदः-बूदम हमः इमाँ रफ़्तम
उसके बा’द जब कभी बादशाह सैर-ए-कश्मीर को जाता तो आपके फ़ैज़-ए-सोहबत की सआ’दत हासिल किया करता था। शहज़ादा दारा शिकोह,जहाँ-आरा बेगम और अकसर मुतअ’ल्लिक़ान-ए-ख़ानदान-ए-शाही आपके इरादत-मंदों और मो’तक़िदों मे से थे। जब बादशाह कशमीर से वापस आ गया तो उ’लमा-ए-कशमीर आपस में कहने लगे कि बादशाह को मुल्ला शाह ने क़ाइल कर लिया।ये(मुला शाह)दा’वा-ए-उलूहियत करता है। ब-हुक्म-ए-शरीअ’त वाजिबुल-क़त्ल है। चलो आज उसका क़िस्सा ही पाक कर दें। सब मिल कर आपकी ख़ानक़ाह की तरफ़ चले। आपके ख़ुद्दाम ने दूर से देख कर चाहा कि मुक़ाबला करें। आपने दर्याफ़्त फ़रमाया कि क्या शोर-ओ-शग़फ़ है।अ’र्ज़ किया कि अह्ल-ए-शहर ब-निय्यत-ए-बद इस तरफ़ चले आ रहे हैं और आपकी ईज़ा-रिसानी मद्द-ए-नज़र है। ये मज्मा’ शोर-ए-महशर बपा करता हुआ आ रहा है।आपने फ़रमाया कुछ अंदेशा की बात नहीं है। मैं फ़ुलाँ हुज्रे मे जाकर बैठता हूँ। जब वो लोग ख़ानक़ाह में दाख़िल होकर मुझे पूछें तो बता देना कि फ़ुलाँ हुज्रे मे हैं।अल-ग़र्ज़ वो मज्मा’ दाख़िल-ए-ख़ानक़ाह-ए-आ’ली-जाह हुआ। ख़ुद्दाम ने कहा फ़ुलाँ हुज्रे की तरफ़ जाओ वहाँ तशरीफ़ रखते हैं। जब हुज्रे के दरवाज़े पर पहुंचे तो जो शख़्श हुज्रे में जाता था और आपकी नज़र उस पर पड़ती थी तो सर ब-सुजूद हो जाता था।अकसर तो मुस्तफ़ीज़ हुए और बाक़ी-मांदा हसब-ए-ए’तेक़ाद-ए-ख़ुद ख़ौफ़-ए-ख़राबी-ए-ईमान समझ कर फ़रार हो गए। अ’ह्द-ए-आ’लमगीरी में क़ाज़िउल-क़ुज़ात मुल्ला क़वी लाहौरी ने फिर शोरिश की। आ’लमगीर बादशाह को ख़ूब भड़काया। आ’लमगीर ने आपको देहली में तलब किया। जब उनकी पीराना-साली का हाल मा’लूम हुआ’ तो ये तहरीर भेजी कि आप लाहौर ही में क़याम फ़रमाएँ। मैं ख़ुद हाज़िर-ए-ख़िदमत होता हूँ।आप सफ़र की तकलीफ़ गवारा न फ़रमाएँ। इसके जवाब में आपने लिखा कि मैंने आपके जुलूस के वक़्त एक रुबाई’ लिख कर इर्साल की थी। उसको मुलाहज़ा फ़रमाए। फ़कीर का मज़हब-ओ-मश्रब आपके दिल पर रौशन हो जाएगा। मुलाक़ात की ज़रूरत न होगी। रुबाई’:
सुब्ह दिल-ए-मन चूँ गुल-ए-ख़ुर्शीद शगुफ़्त
हक़ ज़ाहिर शुद ग़ुबार-ए-कुलफ़त हमःरफ़्त
तारीख़-ए-जुलूस-ए-शाह-ए-औरंग मरा
ज़िल्लुल-हक़ गुफ़्त ईं रा हक़ गुफ़्त
बादशाह ख़ामोश हो गया और ये क़ज़ीया ख़त्म हो गया।
सन 1069 हिज्री में आपकी वफ़ात हुई। मिर्ज़ा लाहौर में ख़ानक़ाह मियाँ मीर साहिब में है।आप साहिब-ए-तसानीफ़ थे। दीवान-ओ-मस्नवियात और एक तफ़्सीर आपकी यादगार है। चंद रुबाइ’यात आपके कलाम में से लिख़ी जाती है।रुबाइ’यात:
चूँ हस्त बयाँ हाल-ए-तौहीद मुहाल
पस क़ाल-ओ-मक़ाल रा दर आँ जा चे मजाल
अज़ दौलत-ए-ख़िदमत-ए-मियाँ हज़रत मीर
अल-क़िस्सा निहालेम निहालेम निहाल
दर पेश फ़सुर्दः शोर-ए-मस्ती हेच अस्त
पर्वाज़ ब-हर बुलंदी-ओ-पस्ती हेच अस्त
बा-हेच परस्ताँ ज़े-ख़ुदा हेच म-गो
पेश-ए-ईशाँ ख़ुदा-परस्ती हेच अस्त
आँ कस कि ज़े सिर्र-ए-मा’रिफ़त आगाह अस्त
शक नीस्त दरीं कि आ’रिफ़ बिल्लाह अस्त
दर्दश हमः ला-ईलाहा इल्लाह अस्त
इल्लल-लाहश तमाम इल्ला शाह अस्त
बैरूँ मरो अज़ ख़ानः-ए-वीरानः-ए-ख़ुद
दर ख़ानःब-जुज़ तू नीस्त जानानः-ए-ख़ुद
ऐ ख़्वाजा-मरो ब-का’बः ज़ाँ रू कि ख़ुदा
हर्गिज़ न कुनद ज़ियारत ख़ानः-ए-ख़ुद
सूफ़ी अस्त कि महरम अस्त दर ख़ानः-ए-शह
सूफ़ी अस्त कि दानद ख़बर-ए-मंज़िल-ओ-रह
सूफ़ी अस्त ज़े-हफ़्ताद-ओ-मिल्लत आगह
ख़ुद गुफ़्त कि अज़ सूफ़ी-ओ-लामज़हब लह
मस्त-ए-दीदार तालिब-ए-ख़ुम न-शवद
रह याफ़्त: रा राह अज़ उ गुम न-शवद
आ’रिफ़ न-शवद ताबिअ’-ए-आ’मे ख़ासे
या’नी कि ख़ुदा ताबिअ’-ए-मर्दुम न-शवद
उर्यां ख़राबात पंडित जवाहर नाथ साक़ी देहलवी
साभार – निज़ाम उल मशायख़
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